सोमवार, 30 सितंबर 2013

ऐसे नहीं थमेगा राजकोषीय घाटा [डीएनए में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

डीएनए
जैसे-जैसे देश में लोकसभा चुनाव का समय नजदीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे केन्द्र सरकार द्वारा चौतरफा नाकामियों तथा भ्रष्टाचार के कारण जनता की नजरों में धूमिल हुई अपनी छवि को ठीक करने के लिए तमाम प्रयास भी किए जा रहे हैं ! इस संबंध में ताजा मामला केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा देश के राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए गैरयोजनागत खर्चों पर नियंत्रण करने सम्बन्धी आदेश का है ! गौरतलब है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा सभी मंत्रालयों और विभागों के लिए खर्चों में किफ़ायत करने के लिए उपायों की नई सूची जारी की गई है ! इस सूची के अनुसार अब से सभी मंत्रियों व अधिकारियों को अपनी हवाई यात्राएं बिजनेस श्रेणी की बजाय इकोनॉमी श्रेणी में बैठकर करनी होंगी ! साथ ही सरकारी बैठकों आदि के लिए अब बड़े-बड़े पाँच सितारा होटलों पर भी पाबंदी लगा दी गई है ! किफ़ायत के लिए प्रावधान यहाँ तक है कि कोई भी विभाग अपने यहाँ नई भर्ती भी नहीं कर सकेंगे ! इसके अतिरिक्त खर्च में किफ़ायत करने सम्बन्धी और भी बहुत सारी बातों की फेहरिस्त वित्तमंत्रालय द्वारा सभी विभागों व मंत्रालयों के लिए जारी की गई है ! इस किफ़ायत के जरिये वित्तमंत्रालय का उद्देश्य है कि चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद को ५ फिसद के आसपास रखने के साथ साथ राजकोषीय घाटे में भी कुछ कमी लाई जा सके ! अब सवाल ये उठता है कि क्या इन खर्चों में कटौती के द्वारा सरकार राजकोषीय घाटे को थामने और सकल घरेलू उत्पाद के तय लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो पाएगी ? सरकार के शब्दों में तो इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ ही है, पर अगर थोड़ा विचार करें तो हम देखते हैं कि सरकार द्वारा इससे पहले भी कई दफे सरकारी खर्चे में इस तरह की कटौतियों के लिए आदेश दिए जा चुके हैं, पर उनका  नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है ! इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि वित्तवर्ष २००८-०९ तथा २०१२-१३ में भी वित्त मंत्रालय द्वारा आर्थिक मंदी से उबरने तथा राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए इस तरह की कटौती की गई थी, पर उसका क्या नतीजा निकला ? उससे हमारा राजकोषीय घाटा कितना कम हुआ ?  इन सवालों का सरकार के पास सिवाय कुतर्कों के कोई ठोस जवाब नही है ! सरकार के पास जवाब न होने का कारण ये है कि सरकार की ये कटौतियां सरकार की योजनाओं की तरह ही सिर्फ कागजों और बयानों तक सीमित रह जाती हैं ! हकीकत में इन कटौतियों का कोई खासा वजूद नही होता है ! सरकारी विभागों के खर्चों में कमोबेश कटौती हो भी जाए, पर मंत्रालयों के खर्च मंत्रियों की रौब और प्रतिष्ठा के कारण जस के तस चलते रहते हैं ! अगर असल मायने में इन खर्चों में कटौती होती तो राष्ट्रीय मुद्राकोष पर इसका कुछ तो प्रभाव अवश्य दिखता ! पर यहाँ तो राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है ! कुल मिलाकर कहने का आशय सिर्फ इतना है कि सरकारी खर्चों में कटौती का ये सारा तमाशा सिर्फ कागजी और जनता को दिखाने के लिए होता है जबकि यथार्थ के धरातल पर इसकी मौजूदगी न के बराबर ही होती है ! अगर सरकार वास्तव में कटौती के जरिये धन बचाना चाहती है तो उसे कोई ऐसी व्यवस्था भी कायम करनी चाहिए जो इस बात की निगरानी करे कि विभागों व मंत्रालयों में आदेशानुसार कटौती हो रही है अथवा नही ! नियम ये भी होना चाहिए कि जिस व्यक्ति या विभाग द्वारा कटौती न की जा रही हो, उसपर तत्काल कार्रवाई की जाए ! ऐसी व्यवस्था बनाने के बाद ही सरकार का सरकारी खर्चे में कटौती सम्बन्धी प्रयास जनता के बीच विश्वसनीयता भी पाएगा और राजकोषीय घाटे को कम करने में भी सहायक होगा ! हाँ पर इन सबके बाद इस बात से भी इंकार नही किया जा सकता कि अगर ये कटौतियां सही ढंग से होती हैं तो भी इन छोटी-मोटी कटौतियों से हमारे राजकोषीय घाटे को कोई बड़ी राहत मिलेगी, इसमे संदेह है ! राजकोषीय घाटे को बड़ी राहत देने के लिए बड़ी कटौतियों की जरूरत है ! बड़ी कटौतियों के रूप में सरकार की तमाम ऐसी योजनाएं हैं, जिनपर मोटा सरकारी धन व्यय हो रहा है, पर फिर भी व्यवस्थागत खामियों के चलते उनका कोई विशेष लाभ जनता तक नही पहुँच पा रहा ! सरकार को अस्थाई रूप से ऐसी योजनाओं पर विराम लगा देना चाहिए ! पर सरकार तो चुनावी लाभ के अन्धोत्साह में ऐसी योजनाओं में और बढोत्तरी ही करती जा रही है ! अभी हाल ही में संसद में पारित खाद्य सुरक्षा विधेयक इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ! इसमे कोई दोराय नही कि खाद्य सुरक्षा विधेयक से चुनावी लाभ लेने के लिए सरकार द्वारा भारी-भरकम खर्च वाला ये विधेयक हड़बड़ी में पारित करवाया गया और अब वैसे ही इसके क्रियान्वयन की भी तैयारी है ! कोई संदेह नही कि हड़बड़ी में क्रियान्वित हुई सरकार की ये योजना भी जनता का भला कम देश के पैसे की बंदरबाट ज्यादा करेगी जिससे हमारे राजकोषीय घाटे की हालत और भी खराब ही होगी !
  आज के समय में असल जरूरत इस बात की है कि हमारे नेता किसी विशेष स्थिति में नही, बल्कि हमेशा अपने खर्चों में कटौती करने का प्रयास करें ! नेताओं को चाहिए कि वो इस सच को स्वीकारें कि भारत अब भी एक गरीब देश है ! अतः खर्च उतना ही करें जितनी कि आवश्यकता हो ! साथ ही साथ अपने राजनीतिक हितों के लिए अध्ययनहीन व अनावश्यक योजनाओं में भी देश के पैसे की बर्बादी न करें ! अगर नेताओं द्वारा इन बातों पर ध्यान दिया जाता है तो देश की अर्थव्यवस्था का भला होने के साथ-साथ जनता की नजर में नेताओं की छवि में भी सुधार होगा !

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