शनिवार, 26 सितंबर 2020

स्वरोजगार अपनाएं युवा

  • पीयूष द्विवेदी भारत

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। इसका सबसे बुरा प्रभाव रोजगार की स्थिति पर पड़ा है। भारत की बात करें तो यहाँ बेरोजगारी की समस्या पहले से ही बड़ी थी, जो कि इस महामारी के बाद और बड़ी हो गयी है। सोशल मीडिया पर युवा रोजगार को लेकर सरकार पर सवाल उठाने में लगे हैं। इसके तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन के रोज ट्विटर पर ‘बेरोजगारी दिवस’ ट्रेंड करवाया गया। उनकी ‘मन की बात’ कार्यक्रम के वीडियो को डिसलाइक करने का अभियान भी चला। हालांकि इन सब कवायदों के पीछे विपक्षी दलों की भूमिका होने की संभावना मानी जा रही है, लेकिन तब भी देश में बेरोजगारी की समस्या से इनकार नहीं किया जा सकता।

गौर करें तो सोशल मीडिया पर बेरोजगारी का विषय उठाने वाले अधिकांश युवाओं का मुद्दा सरकारी भर्तियों में होने वाली अनियमितता और देरी है। अच्छी बात ये है कि युवाओं की मांग पर ध्यान देते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में खाली पड़े पदों पर अगले छः महीने के भीतर भर्ती प्रक्रिया पूरी कर लेने का निर्देश संबधित अधिकारियों को दे दिया है। उम्मीद है कि इसके बाद बिना किसी विघ्न-बाधा के प्रदेश में सभी खाली पद भर लिए जाएंगे। ऐसी पहल अन्य राज्यों की सरकारों को भी करनी चाहिए।

हरिभूमि
सरकारी भर्तियाँ सही समय पर और सही तरीके से हों, यह तो ठीक है। लेकिन प्रश्न ये है कि क्या सरकारी भर्तियों के द्वारा इतने बड़े देश के लोगों को रोजगार दिया जा सकता है? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सरकार सबको थाली में सजाकर नौकरी देने में सक्षम है? इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि 2018 में संसद में प्रस्तुत एक आंकड़े के मुताबिक़, देश के सरकारी क्षेत्र में लगभग 24 लाख नौकरियों के पद खाली हैं। अब पहली चीज तो ये कि आज के समय में जब सब चीजें तकनीक आधारित होती जा रही हैं, तब इन सभी पदों पर भर्ती हो, यही आवश्यक नहीं है। इनमें बहुत-से पद ऐसे होंगे, जिनकी उपयोगिता तकनीक के आगमन के साथ ही कम हो चुकी होगी। अतः उनपर सरकार का ध्यान न देना स्वाभाविक है। इसके अलावा बहुत बार ऐसा भी होता है कि भर्ती निकलने पर पर्याप्त योग्य उम्मीदवार न मिलने के कारण भी बहुत-से पद खाली रह जाते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद एकबार के लिए मान लेते हैं कि सरकारें युद्धस्तर पर लग जाएं, सब परिस्थितियां भी एकदम अनुकूल रहें और ये सब पद भर दिए जाएं, लेकिन क्या इससे देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या को कोई बहुत अधिक फर्क पड़ेगा ? कहना गलत नहीं होगा कि यह भर्तियाँ करोड़ों की बेरोजगारी वाले इस देश में ऊँट के मुंह में जीरे जैसी ही होंगी।

अब प्रश्न यह उठता है कि फिर देश में बेरोजगारी की समस्या का समाधान क्या है और उस दिशा में सरकार क्या प्रयास कर रही है ? भारत जैसे देश में बेरोजगारी खत्म करने का एकमात्र उपाय स्वरोजगार है, जिसकी बात वर्तमान केंद्र सरकार अपने पहले कार्यकाल से कर रही है। न केवल बात कर रही है, बल्कि स्वरोजगार को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक प्रकार के कदम भी उठाए हैं। इस दिशा में मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया जैसी योजनाओं के जरिये सरकार काम कर रही है। इनमें मुद्रा योजना बहुत महत्वपूर्ण है।

वर्ष 2015 में अपने पहले कार्यकाल के आरम्भ में ही मोदी सरकार ‘मुद्रा लोन’ नामक योजना लेकर आई। इस योजना के तहत अपना काम-धंधा शुरू करने के लिए लोगों को आसानी से कर्ज उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की गयी है। इसमें पचास हजार से लेकर दस लाख तक का कर्ज आसानी से मिल सकता है। अबतक इस योजना के तहत पच्चीस करोड़ से अधिक लोगों को कर्ज दिए जा चुके हैं। लेकिन समस्या ये है कि यह कर्ज असंगठित क्षेत्र के रोजगार के लिए दिए गए हैं, जिस कारण इनके द्वारा कितने लोगों को रोजगार मिला इसका कोई पक्का आंकड़ा सरकार के पास मौजूद नहीं है। लेकिन एकबार के लिए यदि बड़ा ‘मार्जिन ऑफ़ एरर’ रखते हुए हम मान लें कि इन कर्ज लेने वालों में से आधे लोग भी अपना स्वरोजगार जमाने में कामयाब रहे होंगे तो भी इस योजना के द्वारा मिले रोजगार की संख्या बहुत बड़ी हो जाती है। क्योंकि यदि कोई आदमी इस योजना से कर्ज लेकर सैलून खोलता है या कोई औरत अपना ब्यूटी पार्लर खोलती है, तो केवल उनके लिए ही रोजगार का रास्ता नहीं खुलता बल्कि धंधा जम जाने पर वे अपने सहयोगी भी रखते हैं और इस तरह रोजगार की ये श्रृंखला लम्बी होती जाती है। अतः मुद्रा योजना के द्वारा सरकार ने रोजगार की दिशा में बड़ा कदम उठाया है, लेकिन इसका लाभ लेने के लिए लोगों को ‘नौकरी ही रोजगार है’ और ‘छोटा काम’ जैसी संकीर्ण मानसिकताओं को छोड़ अपनी क्षमता और हुनर के अनुरूप स्वरोजगार की दिशा में बढ़ने की जरूरत है। वस्तुतः स्वरोजगार ही वो रास्ता है, जो न केवल भारत की बेरोजगारी की समस्या को खत्म कर सकता है, बल्कि देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी आगे ले जा सकता है।

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

आत्मनिर्भर भारत ही है चीन का जवाब

  • पीयूष द्विवेदी भारत

विश्व को कोविड-19 जैसी महामारी में झोंक देने के बाद भी चीन की शैतानियों पर कोई लगाम लगती नहीं दिख रही। अब खुलासा हुआ है कि चीन की सेना से संबधित झेन्हुआ डाटा इंफॉरमेशन टेक्‍नॉलजी नामक कंपनी दुनिया भर के अति महत्वपूर्ण चौबीस लाख लोगों की जासूसी कर रही थी। इनमें भारत, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के बहुत ही महत्वपूर्ण लोगों की जासूसी शामिल है। भारत की बात करें तो यहाँ के दस हजार लोगों व संगठनों की जासूसी इस कम्पनी ने की थी, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व व वर्तमान के 40 मुख्यमंत्री, 350 सांसद, कानून निर्माता, विधायक, मेयर, सरपंच और सेना से जुड़े करीब 1350 लोग शामिल हैं। देश की रीति-नीति और रक्षा के शीर्ष पर मौजूद इन लोगों की एक शत्रु राष्ट्र द्वारा जासूसी की बात किसी भी देशवासी को हिला देने के लिए काफी है। यह चिंता इसलिए और अधिक हो जाती है कि ये चीनी कंपनी वहाँ की सेना के लिए काम करती है। इस जासूसी के दौरान लोगों की जन्‍मतिथि, पते, वैवाहिक स्थिति, फोटो, राजनीतिक जुड़ाव, रिश्‍तेदार और सोशल मीडिया आईडी आदि शामिल हैं। हालांकि प्राप्त जानकारी के मुताबिक़, इनमें से ज्यादातर लोगों की सूचनाएं ट्विटर, फेसबुक, लिंक्डइन, इंस्‍टाग्राम और टिकटॉक अकाउंट जैसे ओपन सोर्स ली गयी थीं, लेकिन कुछ लोगों के बैंक खातो तक की भी कंपनी ने जासूसी की है।

दैनिक जागरण आईनेक्स्ट

दरअसल आज के इस तकनीक प्रधान युग में जब इंटरनेट के विविध माध्यमों पर लोगों की सक्रियता बढ़ती जा रही है, उसने डाटा की सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ाई है। यह चिंता इसलिए और अधिक हो जाती है, क्योंकि स्मार्टफोन और एपों के बाजार में चीन का भारी वर्चस्व है। भारतीय एप बाजार में चीनी एपों का चालीस प्रतिशत कब्जा है, जिसमें अबतक साल दर साल वृद्धि ही होती आई थी। लेकिन पिछले दिनों सीमा पर चीन से हुई तनातनी के कारण भारत सरकार द्वारा द्वारा चीन के 177 (पहले 59 फिर 118) एपों को देश में प्रतिबंधित कर दिया गया। इन एपों पर प्रतिबन्ध लगाते हुए सरकार ने तब सुरक्षा कारणों का हवाला दिया था। आज जब यह जासूसी काण्ड सामने आया है, तो उसने सरकार की आशंका को प्रमाणित कर दिया है। हालांकि इस जासूसी में ज्यादातर जानकारियाँ फेसबुक, इन्स्टाग्राम, ट्विटर, लिंक्डइन वगैरह ओपन सोर्स से ही ली गयी हैं, लेकिन तब भी चीन का जो चरित्र है, उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि वो अपने अन्य एपों का जासूसी के लिए इस्तेमाल नहीं करता होगा। समग्रतः चीन का किसी भी स्थिति में भरोसा नहीं किया जा सकता। सैन्य मोर्चे पर चीन का विश्वासघाती व्यवहार 1962 से चला आ रहा है, जिसका हालिया उदाहरण अभी लद्दाख में भी सामने आया था। अतः अन्य मोर्चों पर उससे सावधान रहने की आवश्यकता है। चीनी एपों पर प्रतिबंध इस दिशा में एक अच्छा कदम है, जिसे धीरे-धीरे उस स्तर पर ले जाने की आवश्यकता है कि देश में चीन का कोई एप न रह जाए। ऐसा होने से हम डाटा की जासूसी जैसे संकटों से तो बचेंगे ही, चीन को आर्थिक रूप से भी गहरी चोट पहुंचेगी

सैन्य मोर्चे पर चीन का जवाब देने में हमारी सेना सक्षम है, लेकिन मौजूदा हालात में इस तरह के किसी बड़े टकराव की संभावना न के बराबर है। आज लड़ाई की जमीन आर्थिक हो चुकी है और चीन अपने उत्पादों से भारतीय बाजारों पर कब्जा जमाकर इस दिशा में बढ़त बनाए हुए है। आज देश में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से लेकर बच्चों के खिलौनों तक के मामले में चीनी कंपनियों का वर्चस्व है। एप और गेमिंग के बाजार में भी चीन ने अपनी धाक जमा रखी है। जबतक देश से चीन का यह आर्थिक वर्चस्व समाप्त नहीं होता, भारत के लिए उससे पार पाना आसान नहीं होगा।

देश में एक वर्ग चीनी उत्पादों के बहिष्कार को इस समस्या के समाधान के रूप में देखता है और इसे लेकर लगातार माहौल बनाने की कोशिश भी होती है। ऐसे बहिष्कार अभियानों का तबतक कोई लाभ नहीं है, जबतक कि देश में चीनी उत्पादों का विकल्प तैयार करने की दिशा में काम नहीं किया जाता। इसी स्थिति को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीस लाख करोड़ के पैकेज के साथ आत्मनिर्भर भारत अभियान की शुरुआत की है। 

यदि चीनी उत्पादों का बेहतर भारतीय विकल्प तैयार करने लगते हैं,  तो न तो उनपर प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत रहेगी और न ही बहिष्कार करने की। लोग स्वतः उन्हें छोड़ देशी उत्पादों का रुख करने लगेंगे। सरकार ने अपने स्तर पर आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ाकर दृढ़ इच्छशक्ति का परिचय दे दिया है और अपनी मंशा भी स्पष्ट कर दी, अब देश के नागरिकों का दायित्व है कि वे आत्मनिर्भरता के इस अभियान को अपने कंधों पर आगे बढ़ाएं। सरकार और नागरिकों के संयुक्त प्रयास से ही आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न साकार होगा और यह आत्मनिर्भरता ही चीन का जवाब होगी।   

बुधवार, 16 सितंबर 2020

सांस्कृतिक प्रतीकों का संरक्षण

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत वर्ष पांच अगस्त को मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 का उन्मूलन कर आजादी के बाद से ही विवादों में रहे इस प्रदेश का शेष भारत के साथ सही अर्थों में एकीकरण करने का ऐतिहासिक कार्य किया था। आज इस ऐतिहासिक कदम को एक साल से अधिक का समय बीत चुका है और इन एक सालों में सरकार ने केंद्र शासित प्रदेश के रूप में संचालित जम्मू-कश्मीर को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। आज केंद्र की सभी कल्याणकारी योजनाएं और क़ानून वहाँ लागू हो चुके हैं, राज्य की डोमिसाइल नीति में भी परिवर्तन हुआ है और विकास की अनेक परियोजनाएं भी राज्य में तेजी से गतिशील हो गयी हैं। बदलावों की इसी कड़ी में पिछले दिनों केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा ‘जम्मू कश्मीर अधिकारिक भाषा बिल 2020’ को पारित करते हुए जम्मू-कश्मीर के लिए नयी भाषा नीति की घोषणा कर दी गयी। ज्ञात हो कि अबतक प्रदेश में उर्दू और अंग्रेजी, इन दो भाषाओं को ही आधिकारिक दर्जा मिला हुआ था, परन्तु, इस नयी भाषा नीति के तहत उर्दू-अंग्रेजी के अतिरिक्त और तीन भाषाओं हिंदी, कश्मीरी व डोगरी को भी प्रदेश में आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। अभी चल रहे संसद के मानसून सत्र में इससे सम्बंधित विधेयक सदन में पेश होने की उम्मीद है, जिसके पारित होते ही जम्मू-कश्मीर में यह नयी भाषा नीति अस्तित्व में आ जाएगी। इसके साथ ही प्रदेश में उर्दू का भाषाई एकाधिकार भी समाप्त हो जाएगा।2011 की जनगणना के मुताबिक़, जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी भाषाभाषियों की संख्या पैतालीस लाख है। पचास लाख लोग डोगरी भाषा के भी हैं। शेष बड़ा तबका हिंदी और उर्दू में अपना भाषा-व्यवहार करता है। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अनुच्छेद-370 की विभाजनकारी व्यवस्था से ग्रस्त रहे इस प्रदेश में औपनिवेशिक शासन से मिली अंग्रेजी और स्थानीय बहुसंख्यक मुस्लिम समाज की उर्दू के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा को उसका यथोचित स्थान व सम्मान नहीं दिया गया। आज बात-बात में कश्मीरियत की दुहाई देने वाले प्रदेश के राजनीतिक धड़ो ने और तो छोड़िये कम से कम कश्मीरी भाषा की भी सुध लेने की जरूरत कभी नहीं समझी। सवाल है कि वो कौन-सी कश्मीरियत थी, जिसमें कश्मीरी भाषा को ही आधिकारिक स्थान नहीं दिया गया? वह कौन-सी कश्मीरियत थी, जिसमें कश्मीरी बोलने वालों पर उर्दू और अंग्रेजी को थोप दिया गया था? जाहिर है, यह सवाल कश्मीरियत के नाम पर दशकों तक अपनी सियासत चमकाने वालों के पाखण्ड को ही सामने लाते हैं।

दैनिक जागरण
डोगरी की बात करें तो ये राज्य के जम्मू संभाग में बोली जाती है। इसे संयोग ही कहेंगे कि 2003 में इस भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने का काम अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने ही किया था और आज इसे जम्मू-कश्मीर की आधिकारिक भाषा बनाए जाने का काम भी भाजपा की ही सरकार में संपन्न हुआ है। डोगरी सांस्कृतिक रूप से एक समृद्ध भाषा है। ‘डोगरा अक्खर’ नामक इसकी अपनी लिपि भी रही है, लेकिन समय के साथ इसे देवनागरी लिपि में ही लिखा जाने लगा और अब यही प्रचलन में है। देवनागरी लिपि में डोगरी भाषा का काफी साहित्य उपलब्ध है। परन्तु, ऐसी समृद्ध और मजबूत भाषा को जम्मू-कश्मीर इतने समय तक हाशिये पर रखा गया तो इसके पीछे प्रदेश के राजनीतिक कर्णधार बने रहे दलों की संकीर्ण राजनीति ही कारण है। बहरहाल, यह संतोषजनक है कि अब डोगरी भाषा को भी प्रदेश में इसकी उचित प्रतिष्ठा प्राप्त होने जा रही है।

कश्मीरी और डोगरी के अतिरिक्त हिंदी को भी जम्मू-कश्मीर में आधिकारिक भाषा बनाया गया है। भारतीय संविधान द्वारा हिंदी को देश की राजभाषा के रूप स्वीकारा गया है। परन्तु, अनुच्छेद-370 के रूप में प्रदत्त विशेषाधिकारों से संचालित जम्मू-कश्मीर में तो अबतक उसका अपना ही संविधान चलता आया था, अतः भारतीय संविधान के इस भाषा-विधान का भी यहाँ कोई अस्तित्व नहीं था। अब जब यह प्रदेश अनुच्छेद-370 से मुक्त होकर सही अर्थों में भारत से एकीकृत होने लगा है, तो हिंदी का वहाँ की आधिकारिक भाषा बनना आवश्यक था।

दरअसल हिंदी वो भाषा है, जो भारतीय समाज के विविधतापूर्ण सांस्कृतिक चरित्र का समुचित प्रतिनिधित्व करती है। इस देश की अधिकांश भाषाओं की तरह संस्कृत से जन्मी हिंदी ने भारतीय संस्कृति के समन्वयकारी स्वरुप का अनुकरण करते हुए अपने भीतर देशी-विदेशी अनेक भाषाओं-बोलियों के शब्दों का समावेश किया है। जम्मू-कश्मीर में भी उर्दू, कश्मीर, डोगरी जैसी भाषाओं के बीच हिंदी इस प्रदेश के समस्त सांस्कृतिक वैविध्य को स्वयं में समेटकर देश के अन्य राज्यों से उसका एकीकरण करने में सहायक सिद्ध होगी। साथ ही, अनुच्छेद-370 की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर और शेष भारत के बीच जो समानता की एक भावना प्रस्फुटित हुई है, उसको भी हिंदी के आधिकारिक दर्जे से निश्चित रूप से बल मिलेगा।          

कोई भी भाषा हो, उसका अपना एक विशेष सांस्कृतिक आग्रह होता है। ऐसे में, जब सरकार किसी भाषा को आधिकारिक दर्जा देती है, तो उसके भाषा-भाषियों के समक्ष यही तथ्य स्पष्ट होता है कि सरकार उनके सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा करने के लिए प्रयास कर रही है। जम्मू-कश्मीर की नयी भाषा नीति के संदर्भ में भी यही सत्य है। इससे न केवल जम्मू-कश्मीर के लोगों का केंद्र सरकार पर विश्वास बढ़ेगा बल्कि सरकार के लिए प्रदेश के जनमानस तक अपनी योजनाओं व नीतियों को लेकर जाने में भी सहूलियत हो जाएगी। समग्रतः गत वर्ष अनुच्छेद-370 से मुक्ति के साथ ही प्रदेश में समानता, विश्वास और विकास से युक्त परिवर्तन की जिस पटकथा का आरम्भ हुआ था, उसे यह नयी भाषा नीति निश्चित रूप से बल प्रदान करने का काम करेगी।

शनिवार, 12 सितंबर 2020

प्रशासनिक अमले में सुधार की पहल

  • पीयूष द्विवेदी भारत

पिछले दिनों मोदी सरकार की कैबिनेट द्वारा ‘मिशन कर्मयोगी- राष्ट्रीय सिविल सेवा क्षमता विकास कार्यक्रम’ को मंजूरी दी गयीI सरकार का यह कदम देश की प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार लाने की दिशा में बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा हैI इस कार्यक्रम का उद्देश्य ‘भारतीय सिविल सेवकों को और भी अधिक रचनात्मक, सृजनात्मक, विचारशील, नवाचारी, प्रोफेशनल, प्रगतिशील, ऊर्जावान, सक्षम, पारदर्शी और प्रोद्योगिकी-समर्थ बनाते हुए भविष्य के लिए तैयार’ करना हैI इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस कार्यक्रम में कई प्रकार की व्यवस्था की गयी हैI केंद्र सरकार के करीब 46 लाख कर्मचारियों पर 2020 से 2025 के बीच पांच सालों में इस योजना के जरिये लगभग 510 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगेI 

वास्तव में किसी भी देश के विकास में उसकी प्रशासनिक तंत्र की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैI देश की सरकार जनहित की कितनी भी अच्छी योजना बना दे, लेकिन यदि प्रशासन में उसे अमलीजामा पहनाने की इच्छाशक्ति, कौशल और प्रतिबद्धता नहीं है, तो वो योजना केवल कागजों पर रह जाती है और उसके लिए आवंटित धनराशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैI दुर्भाग्यवश भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की स्थिति निरपवाद रूप से ऐसी ही रही हैI   

यहाँ आजादी के बाद अंग्रेजों द्वारा स्थापित आईसीएस को बदलकर इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आईएएस) तो कर दिया गया, लेकिन उसकी कार्य-पद्धति में बहुत परिवर्तन नहीं आ सकाI देश की आम जनता और सरकार के बीच पुल के रूप में ब्यूरोक्रेसी की कल्पना की गयी, लेकिन विडंबना ही है कि भारतीय ब्यूरोक्रेसी सरकार के लिए पुल बनना तो दूर, खुद ही जनता से नहीं जुड़ सकी और आम लोगों के लिए असहज बनी रहीI आज किसी भी सरकारी दफ्तर में किसी काम के लिए जाने से पहले सामान्य लोगों का झिझकना इस असहजता को ही दिखाता हैI आज यदि लोग अपने काम के लिए सरकारी दफ्तर में जाकर प्रक्रिया को अपनाने की बजाय कुछ ले-देकर काम बनाने की जुगत करने लगते हैं, तो उसके पीछे मुख्य कारण सरकारी दफ्तरों की हीलाहवाली और सम्बंधित अफसरों का सुस्त व असहयोगी रवैया ही हैI हालांकि मोदी सरकार के आने के बाद ई-गवर्नेंस के तहत तमाम सरकारी कामों के ऑनलाइन हो जाने से लोगों के लिए बड़ी सहूलियत हुई हैI लेकिन इससे प्रशासनिक महकमे में सुधार की जरूरत समाप्त नहीं होतीI इसी सुधार के उद्देश्य से लाया गया ‘मिशन कर्मयोगी’ कार्यक्रम निःसंदेह उम्मीद जगाता हैI  

इस कार्यक्रम में सबसे ऊपर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री मानव संसाधन परिषद् काम करेगी, जिसमें चुने हुए केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और मानव संसाधन के क्षेत्र में काम करने वाले लोग शामिल होंगेI इसके अलावा क्षमता विकास आयोग का गठन किया जाएगा जो प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली परिषद् का सहयोग करेगा तथा अफसरों के क्षमता विकास से सम्बंधित अन्य व्यवस्थाओं व गतिविधियों का भी निरीक्षण करेगा तथा सरकार को जरूरी सुझाव देगाI कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समन्वय इकाई भी गठित की जाएगी जिसमें चुनिंदा सचिव और कैडर को नियंत्रित करने वाले अधिकारी शामिल होंगेI इसके साथ ही, i-GOT नामक एक डिजिटल प्लेटफार्म भी स्थापित किया जाएगा जो देश के दो करोड़ से अधिक कार्मिकों की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए अत्याधुनिक संरचना उपलब्ध कराएगाI

इस प्लेटफार्म पर देश की ब्यूरोक्रेसी लिए लिए विश्वस्तरीय ई-लर्निंग सामग्री उपलब्ध कराई जाएगी जिसकी सहायता से वे अपनी क्षमता बढ़ा सकेंगेI प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संचालित उक्त परिषद् इन सभी गतिविधियों की निगरानी करेगी जिससे यह कार्यक्रम भी केवल कागजी खानापूर्ति भर बनकर न रह जाएI सरकार को उम्मीद है कि इस कदम के माध्यम से देश की ब्यूरोक्रेसी की क्षमताओं में वृद्धि होगी और उसके प्रदर्शन में सुधार देखने को मिलेगाI इस कार्यक्रम के मुख्य मार्गदर्शक सिद्धांतों में सबसे ऊपर कहा गया है कि ये ब्यूरोक्रेसी को ‘रूल बेस्ड’ से ‘रोल बेस्ड’ व्यवस्था की ओर ले जाएगाI सरल भाषा में इसका अर्थ यह है कि नियमों की जकड़न में उलझने की बजाय कार्य की आवश्यकता को देखते हुए भूमिका के निर्वहन पर यह कार्यक्रम बल देगाI यह बहुत बड़ी बात है और यदि यह बात भारतीय प्रशासन के कार्य-व्यवहार में साकार हो सके तो निश्चित रूप से उसकी तस्वीर बदल सकती हैI   

समग्रतः मोदी सरकार का मिशन कर्मयोगी प्रशासनिक सुधार की दिशा में एक सूझबूझ से भरी, रचनात्मक और दूरदर्शितापूर्ण पहल हैI परन्तु, महत्वपूर्ण ये है कि जमीन पर भी यह इसी रूप में लागू हो और सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों द्वारा इसको पूरी निष्ठा से अपनाया जाएI असल में समस्या यहीं आनी है, क्योंकि हमारे देश के प्रशासनिक महकमे की मानसिकता में ही सुस्ती और भ्रष्टता भरी हुई हैI जबतक वे इस मानसिकता से बाहर नहीं आते, ब्यूरोक्रेसी में बदलाव आना आसान नहीं हैI

हालांकि इस मिशन कर्मयोगी की बागडोर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली मानव संसाधन परिषद के पास होने के कारण उम्मीद जगती है, क्योंकि इसके माध्यम से अफसरों के पूरे प्रशिक्षण की निगरानी व नियंत्रण स्वयं प्रधानमंत्री करेंगेI अतः इसमें किसी प्रकार की टालमटोल की प्रवृत्ति का चलना मुश्किल होगाI

वैसे भी मोदी सरकार का रिकॉर्ड देखें तो उसके कार्यकाल में जो भी योजनाएं आई हैं, उनका क्रियान्वयन संतोषजनक रूप से संपन्न हुआ है, अतः उम्मीद कर सकते हैं कि यह कार्यक्रम भी अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में कामयाब रहेगा और देश के लिए एक अधिक बेहतर एवं कार्यकुशल प्रशासनिक व्यवस्था को आकार देने में महत्वपूर्ण निभाएगाI