शुक्रवार, 24 मार्च 2017

भारतीय भाषाओं में न्याय का प्रश्न [जनसत्ता में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
देश के न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग के सम्बन्ध में अक्सर आवाजें उठती रही हैं। हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में न्याय उपलब्ध कराने की मांग अक्सर होती रही है। जब-तब इस दिशा में पहलें भी हुई हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला है। अब यह विषय एकबार फिर प्रासंगिक हो उठा है। इस दफे यह मामला संसद में पहुंचा है। दरअसल गत दिनों संसद की क़ानून और न्याय सम्बन्धी समिति ने संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव किया कि संसद न्यायालयों में भारतीय भाषाओं का प्रयोग आरम्भ करवाने के लिए कदम उठाए। समिति ने यह भी स्पष्ट किया कि संसद को ऐसा करने के लिए न्यायालयों की अनुमति या सहमति लेने की भी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि भारतीय भाषाओं से सम्बंधित संविधान के अनुच्छेद-३४८ में यह स्पष्ट तौर पर लिखा है कि संसद यदि चाहे तो क़ानून बनाकर न्यायालय में भारतीय भाषाओं का प्रयोग सुनिश्चित कर सकती है। संसदीय समिति की इस रिपोर्ट के अलावा भाजपा के राज्यसभा सांसद भूपेन्द्र यादव जो कि एक अधिवक्ता भी हैं, द्वारा इस सम्बन्ध में सदन में ‘उच्च न्यायालय, (राजभाषाओं का प्रयोग) विधेयक-२०१६’ नामक एक निजी विधेयक भी पेश किया गया है। इस विधेयक का उल्लेख करते हुए भूपेन्द्र यादव अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं, अगर अदालत में अपनी भाषाओं में अपनी बात रखने की स्वतंत्रता नहीं मिलेगी तो यह किसी भी ढंग से निष्पक्ष न्याय मिलने के अधिकार और वास्तविक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानकों पर खरी उतरने वाली बात नहीं कही जा सकती है जो कि हमारे देश के संविधान का मूल है। पारदर्शी ढंग से अदालती सुनवाई को सुनिश्चित करने के लिए यह अनिवार्य है कि भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायालयों में स्वीकार्यता प्रदान की जाए। इस प्रकार तमाम सामान्य लोगों से लेकर भाषाई संस्थाओं द्वारा उठाया जाने वाला यह मामला हाल के दिनों में छोटे स्तर पर ही सही भारतीय संसद में भी अनुगूंजित हुआ है। अब संसद में इसपर क्या राय बनती है, ये तो आगे पता चलेगा; लेकिन फिलहाल सवाल यह उठता है कि आखिर वे क्या कारण हैं कि अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी के सात दशक होने के बाद भी हम अभी तक अपनी न्याय-व्यवस्था को अंग्रेजी की भाषाई गुलामी से तनिक भी मुक्त नहीं कर पाए हैं ? बल्कि ये कहें तो गलत नहीं होगा कि इन सात दशकों में न्यायालयों में अंग्रेजी का शिकंजा और बढ़ा ही है और अब इस कदर हो चुका  है कि न्यायालय स्वयं इससे मुक्त नहीं होना चाहते। तभी तो जब गत वर्ष न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की मांग सर्वोच्च न्यायालय में रखी गयी तो उसने इसे खारिज़ करते हुए इस तरह की मांग को न्याय-प्रक्रिया का दुरूपयोग ही बता दिया था।

जनसत्ता
प्रश्न यह उठता है कि आखिर न्यायालय भारतीय भाषाओं के प्रयोग से बचना क्यों चाहते हैं ? इस सम्बन्ध में २००८ की विधि आयोग की रिपोर्ट का जिक्र आवश्यक होगा। इस रिपोर्ट में विधि आयोग ने कहा था कि ‘उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का प्रायः एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण होता रहता है, इसलिए उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे अलग-अलग भाषाओं में अपना कर्तव्य पूरा करें। अंग्रेजी अब भी कई राज्यों की सरकारी भाषा है और ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में हिंदी सहित कोई भी भारतीय भाषा उसके समकक्ष नहीं सकी है। इसलिए वह अदालती कामकाज की भाषा बनी हुई है।‘ इस प्रकार स्पष्ट है कि आयोग की नज़र में न्यायालयी प्रयोग के लिए हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को व्यावहारिक नहीं माना गया था। न्यायालय भी लगभग इसी किस्म के तर्क देते हैं। उनका कहना होता है कि सभी क़ानून अंग्रेजी में हैं, अतः हिंदी में उनकी व्याख्या करते हुए न्याय संभव नहीं है। विचार करें तो इन तर्कों का कोई ठोस धरातल नहीं है; वास्तव में ये सब तर्क न केवल थोड़ी-सी असुविधा से बचने और यथास्थिति को चलने देने की लचर मानसिकता पर आधारित हैं, बल्कि देश की राजभाषा हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति हमारी न्यायपालिका के संकीर्ण दृष्टिकोण को भी दिखाते हैं।

दरअसल आज़ादी के बाद सन १९४९ में हिंदी को भारतीय राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया, लेकिन साथ ही यह भी निश्चित हुआ कि आज़ाद भारत के कानून और प्रशासन की भाषा हिंदी के साथ-साथ पूर्ववत ढंग से अंग्रेजी भी रहेगी। तब यह कहा गया था कि इन क्षेत्रों में धीरे-धीरे हिंदी को लाया जाएगा और जब हिंदी पूरी तरह से इन क्षेत्रों में आ जाएगी तो अंग्रेजी को समाप्त कर दिया जाएगा। परन्तु, ऐसा कभी नहीं हो सका। अंग्रेजी ख़त्म तो नहीं हुई, बल्कि प्रशासनिक कार्यों में हिंदी के साथ स्थायी रूप से स्थापित होती गयी। न्यायालयों में तब भी अंग्रेजी को यही तर्क देकर रहने दिया गया था कि क़ानून हिंदी में नहीं हैं, इस तरह वहाँ हिंदी के लिए कोई स्थान ही नहीं रह गया। आज स्थिति यह हो गयी है कि न्यायालय वहाँ हिंदी को स्थान देने के लिए तैयार ही नहीं हैं; क्योंकि उन्हें वो अपने लिए व्यावहारिक ही नहीं लगती। ऐसे में महात्मा गांधी द्वारा सन १९०९ जब भारत पराधीन था, में लिखित पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ का यह अंश उल्लेखनीय होगा जिसमें उन्होंने भारतीयों द्वारा अंग्रेजी के प्रयोग पर क्षोभ पूर्ण कटाक्ष करते हुए लिखा था, यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में मुझे इन्साफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता। दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए। यह कुछ कम दंभ है। यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है ? इसमें मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना ? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी। दुखद यह कि गांधी आज़ादी से पहले भारतीयों की जिस अंग्रेजीदा मानसिकता से व्यथित थे, आज़ादी के बाद भी वो देश की व्यवस्थाओं में यथावत बनी और फल-फूल रही है। विचार करें तो ये थोड़ा कठिन अवश्य था, परन्तु असंभव नहीं कि आज़ादी के बाद न्यायपालिका की समस्त सामग्रियों के हिंदी अनुवाद के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए गए होते; कानूनों का हिंदी अनुवाद कर लिया गया होता; और सभी भारतीय भाषाओं में न सही, कम से कम राजभाषा हिंदी में तो न्याय की व्यवस्था कर ही दी गयी होती। लेकिन, तब भी इस कार्य को आवश्यक न समझते हुए यथास्थिति को चलने दिया गया और आज भी वही किया जा रहा है।

बहरहाल, तब जो हुआ सो हुआ, आज न्यायपालिका की कार्यवाहियों में भारतीय भाषाओं को धीरे-धीरे सम्मिलित करने का प्रयास  किया जाना चाहिए। इसकी शुरुआत हिंदी को न्यायपालिका की प्रमुख भाषा बनाकर की जा सकती है। फिर धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं को भी स्थान दिया जाता रहेगा। आज हमारे पास तकनीक की वो शक्ति है, जिसके ज़रिये ये कार्य बहुत कठिन नहीं है। न्यायपालिका में इस दिशा में कुछ करने की मंशा नहीं दिखाई देती, ऐसे में संसद को ही अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए क़ानून के जरिये हिंदी को न्याय की भाषा का दर्ज़ा दिलाना होगा।

हिंदी देश के बहुधा लोगों को सहज ही समझ में आने वाली भाषा है। इसलिए उसमें न्याय का होना, न्याय को सामान्य जन के लिए सुगम, सरल और सुग्राह्य बनाएगा। इस प्रकार कह सकते हैं कि न्यायपालिका की भाषा के रूप में हिंदी का प्रतिस्थापन न केवल राष्ट्र के गौरव के लिए आवश्यक है, बल्कि न्याय को सरल और सुग्राह्य बनाने की दृष्टि से इसका व्यावहारिक महत्व भी है।

बुधवार, 22 मार्च 2017

ख़तरे की घंटी घटता भू-जल [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
२२ मार्च को विश्व जल दिवस है, तो इस अवसर पर यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि दुनिया जल दिवस तो मना रही है, पर क्या उसके उपयोग को लेकर वो गंभीर, संयमित सचेत है या नहीं ?  आज जिस तरह से मानवीय जरूरतों की पूर्ति के लिए निरंतर अनवरत भू-जल का दोहन किया जा रहा है, उससे साल दर साल भू-जल स्तर गिरता जा रहा है। पिछले एक दशक के भीतर भू-जल स्तर में आई गिरावट को अगर इस आंकड़े के जरिये समझने का प्रयास करें तो अब से दस वर्ष पहले तक जहाँ ३० मीटर की खुदाई पर पानी मिल जाता था, वहाँ अब पानी के लिए ६० से ७० मीटर तक की खुदाई करनी पड़ती है। साफ़ है कि बीते दस-बारह सालों में दुनिया का भू-जल स्तर बड़ी तेजी से घटा है और अब भी बदस्तूर घट रहा है, जो कि बड़ी चिंता का विषय है। अगर केवल भारत की बात करें तो भारतीय केंद्रीय जल आयोग द्वारा २०१४ में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार देश के अधिकांश बड़े जलाशयों का जलस्तर वर्ष २०१३ के मुकाबले घटता हुआ पाया गया था। आयोग के अनुसार देश के बारह राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, त्रिपुरा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के जलाशयों के जलस्तर में काफी गिरावट पाई गई थी। आयोग की तरफ से ये भी बताया  गया  कि २०१३ में इन राज्यों का जलस्तर जितना अंकित किया गया था, वो तब ही काफी कम था। लेकिन, २०१४ में  वो गिरकर तब से भी कम हो गया। २०१५ में भी लगभग यही स्थिति रही। गौरतलब है कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्लूसी) देश के ८५ प्रमुख जलाशयों की देख-रेख भंडारण क्षमता की निगरानी करता है। संभवतः इन स्थितियों के मद्देनज़र ही जल क्षेत्र में प्रमुख परामर्शदाता  कंपनी ईए की एक अध्ययन रिपोर्ट में २०२५ तक भारत के जल संकट वाला देश बन जाने की बात कही गयी है अध्ययन में कहा गया है कि परिवार की आय बढ़ने और सेवा उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। देश की सिंचाई का करीब ७० फीसदी और घरेलू जल खपत का ८०  फीसदी हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है, जिसका स्तर तेजी से घट रहा है। घटते जलस्तर को लेकर जब-तब देश में पर्यावरण विदों द्वारा चिंता जताई जाती रहती है, लेकिन जलस्तर को संतुलित रखने के लिए सरकारी स्तर पर कभी कोई ठोस प्रयास किया गया हो, ऐसा नहीं दिखता। हालांकि गत वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने जन-संवाद कार्यक्रममन की बातमें घटते भूजल की इस समस्या को उठाया गया था और जल संरक्षण की दिशा में सरकार द्वारा सोक पिट बनाने जैसे कार्य किए गए हैं; मगर, समस्या की विकरालता के अनुपात में ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। अभी इन्हें और विस्तार देने की आवश्यकता है।
 
राष्ट्रीय सहारा
अब सवाल ये उठता है कि आखिर भू-जल स्तर के इस तरह निरंतर रूप से गिरते जाने का मुख्य कारण क्या है ?  अगर इस सवाल की तह  में जाते हुए हम घटते भू-जल स्तर के कारणों को समझने का प्रयास करें तो तमाम बातें सामने आती  हैं। घटते भू-जल के लिए सबसे प्रमुख कारण तो उसका अनियंत्रित और अनवरत दोहन ही है। आज दुनिया  अपनी जल जरूरतों की पूर्ति के लिए सर्वाधिक रूप से भू-जल पर ही निर्भर है। लिहाजा, अब एक तरफ तो भू-जल का ये अनवरत दोहन हो रहा है तो वहीँ दूसरी तरफ औद्योगीकरण के अन्धोत्साह में हो रहे प्राकृतिक विनाश के चलते पेड़-पौधों-पहाड़ों आदि की मात्रा में कमी आने के कारण बरसात में भी काफी कमी गई है परिणामतः धरती को भू-जल दोहन के अनुपात में जल की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। सीधे शब्दों में कहें तो धरती जितना जल दे रही है, उसे उसके अनुपात में बेहद कम जल मिल रहा है। बस, यही वो प्रमुख कारण है जिससे कि दुनिया का भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। दुखद और चिंताजनक बात ये है कि कम हो रहे भू-जल की इस विकट समस्या से निपटने के लिए अब तक वैश्विक स्तर पर कोई भी ठोस पहल होती नहीं दिखी है। ये एक कटु सत्य है कि अगर दुनिया का भू-जल स्तर इसी तरह से गिरता रहा तो आने वाले समय में लोगों को पीने के लिए भी पानी मिलना मुश्किल हो जाएगा। 
  
 हालांकि ऐसा कत्तई नहीं है कि कम हो रहे पानी की इस समस्या का हमारे पास कोई समाधान नहीं है। इस समस्या से निपटने के लिए सबसे बेहतर समाधान तो यही है कि बारिश के पानी का समुचित संरक्षण किया जाए और उसी पानी के जरिये अपनी अधिकाधिक जल जरूरतों की पूर्ति की जाए। बरसात के पानी के संरक्षण के लिए उसके संरक्षण माध्यमों को विकसित करने की जरूरत है, जो कि सरकार के साथ-साथ प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का भी दायित्व है। अभी स्थिति ये है कि समुचित संरक्षण माध्यमों के अभाव में वर्षा का बहुत ज्यादा जल, जो लोगों की तमाम जल जरूरतों को पूरा करने में काम सकता है, खराब और बर्बाद हो जाता है। अगर प्रत्येक घर की छत पर वर्षा जल के संरक्षण के लिए एक-दो टंकियां लग जाएँ घर के आस-पास कुएँ आदि की व्यवस्था हो जाए, तो वर्षा जल का समुचित संरक्षण हो सकेगा, जिससे जल-जरूरतों की पूर्ति के लिए भू-जल पर से लोगों की निर्भरता भी कम हो जाएगी। परिणामतः भू-जल का स्तरीय संतुलन कायम रह सकेगा। जल संरक्षण की यह व्यवस्थाएं हमारे पुरातन समाज में थीं जिनके प्रमाण उस समय के निर्माण के ध्वंसावशेषों में मिलते हैं, पर विडम्बना यह है कि आज के इस आधुनिक समय में हम उन व्यवस्थाओं को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं बहरहाल, जल संरक्षण की इन व्यवस्थाओं के  अलावा अपने दैनिक कार्यों में सजगता और समझदारी से पानी का उपयोग कर के भी जल संरक्षण किया जा सकता है। जैसे, घर का नल खुला छोड़ना, साफ़-सफाई आदि कार्यों के लिए खारे जल का उपयोग करना, नहाने के लिए उपकरणों की बजाय साधारण बाल्टी आदि का इस्तेमाल करना आदि तमाम ऐसे सरल उपाय हैं, जिन्हें अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन काफी पानी की बचत कर सकता है। कुल मिलाकर कहने का अर्थ ये है कि जल संरक्षण के लिए लोगों को सबसे पहले जल के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। जल को खेल-खिलवाड़ की अगंभीर दृष्टि से देखने की बजाय अपनी जरूरत की एक सीमित वस्तु के रूप में देखना होगा। हालांकि, ये चीजें तभी होंगी जब जल की समस्या के प्रति लोगों में आवश्यक जागरूकता आएगी और ये दायित्व दुनिया के उन तमाम देशों जहाँ भू-जल स्तर गिर रहा है, की सरकारों समेत सम्पूर्ण विश्व समुदाय का है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि जल समस्या को लेकर दुनिया में बिलकुल भी जागरूकता अभियान नहीं चलाए जा रहे। बेशक टीवी, रेडियो आदि माध्यमों से इस दिशा में कुछेक प्रयास जरूर हो रहे हैं, लेकिन गंभीरता के अभाव में वे प्रयास कोई बहुत कारगर सिद्ध होते नहीं दिख रहे। लिहाजा, आज जरूरत ये है कि जल की समस्या को लेकर गंभीर होते हुए सिर्फ राष्ट्र स्तर पर बल्कि विश्व स्तर पर भी एक ठोस योजना के तहत घटते भू-जल की समस्या की भयावहता   जल संरक्षण आदि इसके समाधानों के बारे में बताते हुए एक जागरूकता अभियान चलाया जाए, जिससे जल समस्या की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हो और वे इस समस्या को समझते हुए सजग हो सकें। क्योंकि, ये एक ऐसी समस्या है जो किसी कायदे-क़ानून से नहीं, लोगों की जागरूकता से ही मिट सकती है। लोग जितना जल्दी जल संरक्षण के प्रति जागरुक होंगे, घटते भू-जल स्तर की समस्या से दुनिया को उतनी जल्दी ही राहत मिल सकेगी।