- पीयूष द्विवेदी भारत
देश
के न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग के सम्बन्ध में अक्सर आवाजें उठती रही
हैं। हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में न्याय उपलब्ध कराने की मांग अक्सर होती रही
है। जब-तब इस दिशा में पहलें भी हुई हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला है। अब यह
विषय एकबार फिर प्रासंगिक हो उठा है। इस दफे यह मामला संसद में पहुंचा है। दरअसल
गत दिनों संसद की क़ानून और न्याय सम्बन्धी समिति ने संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में
यह प्रस्ताव किया कि संसद न्यायालयों में भारतीय भाषाओं का प्रयोग आरम्भ करवाने के
लिए कदम उठाए। समिति ने यह भी स्पष्ट किया कि संसद को ऐसा करने के लिए न्यायालयों
की अनुमति या सहमति लेने की भी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि भारतीय भाषाओं से
सम्बंधित संविधान के अनुच्छेद-३४८ में यह स्पष्ट तौर पर लिखा है कि संसद यदि चाहे
तो क़ानून बनाकर न्यायालय में भारतीय भाषाओं का प्रयोग सुनिश्चित कर सकती है।
संसदीय समिति की इस रिपोर्ट के अलावा भाजपा के राज्यसभा सांसद भूपेन्द्र यादव जो
कि एक अधिवक्ता भी हैं, द्वारा इस सम्बन्ध में सदन में ‘उच्च न्यायालय, (राजभाषाओं
का प्रयोग) विधेयक-२०१६’ नामक एक निजी विधेयक भी पेश किया गया है। इस विधेयक का
उल्लेख करते हुए भूपेन्द्र यादव अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं, ‘अगर अदालत में अपनी भाषाओं में अपनी बात रखने की स्वतंत्रता नहीं मिलेगी तो यह किसी भी ढंग से निष्पक्ष न्याय मिलने के अधिकार और वास्तविक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानकों पर खरी उतरने वाली बात नहीं कही जा सकती है जो कि हमारे देश के संविधान का मूल है। पारदर्शी ढंग से अदालती सुनवाई को सुनिश्चित करने के लिए यह अनिवार्य है कि भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायालयों में स्वीकार्यता प्रदान की जाए।‘ इस प्रकार तमाम सामान्य
लोगों से लेकर भाषाई संस्थाओं द्वारा उठाया जाने वाला यह मामला हाल के दिनों में
छोटे स्तर पर ही सही भारतीय संसद में भी अनुगूंजित हुआ है। अब संसद में इसपर क्या
राय बनती है, ये तो आगे पता चलेगा; लेकिन फिलहाल सवाल यह उठता है कि आखिर वे क्या
कारण हैं कि अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी के सात दशक होने के बाद भी हम अभी तक अपनी
न्याय-व्यवस्था को अंग्रेजी की भाषाई गुलामी से तनिक भी मुक्त नहीं कर पाए हैं ?
बल्कि ये कहें तो गलत नहीं होगा कि इन सात दशकों में न्यायालयों में अंग्रेजी का
शिकंजा और बढ़ा ही है और अब इस कदर हो चुका
है कि न्यायालय स्वयं इससे मुक्त नहीं होना चाहते। तभी तो जब गत वर्ष
न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की मांग सर्वोच्च न्यायालय में रखी गयी तो
उसने इसे खारिज़ करते हुए इस तरह की मांग को न्याय-प्रक्रिया का दुरूपयोग ही बता
दिया था।
जनसत्ता |
प्रश्न यह उठता है कि आखिर
न्यायालय भारतीय भाषाओं के प्रयोग से बचना क्यों चाहते हैं ? इस सम्बन्ध में २००८
की विधि आयोग की रिपोर्ट का जिक्र आवश्यक होगा। इस रिपोर्ट में विधि आयोग ने कहा
था कि ‘उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का प्रायः एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण होता रहता है, इसलिए उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे अलग-अलग भाषाओं में अपना कर्तव्य पूरा करें। अंग्रेजी अब भी कई राज्यों की सरकारी भाषा है और ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में हिंदी सहित कोई भी भारतीय भाषा उसके समकक्ष नहीं आ सकी है। इसलिए वह अदालती कामकाज की भाषा बनी हुई है।‘ इस
प्रकार स्पष्ट है कि आयोग की नज़र में न्यायालयी प्रयोग के लिए हिंदी या अन्य
भारतीय भाषाओं को व्यावहारिक नहीं माना गया था। न्यायालय भी लगभग इसी किस्म के
तर्क देते हैं। उनका कहना होता है कि सभी क़ानून अंग्रेजी में हैं, अतः हिंदी में
उनकी व्याख्या करते हुए न्याय संभव नहीं है। विचार करें तो इन तर्कों का कोई ठोस
धरातल नहीं है; वास्तव में ये सब तर्क न केवल थोड़ी-सी असुविधा से बचने और
यथास्थिति को चलने देने की लचर मानसिकता पर आधारित हैं, बल्कि देश की राजभाषा
हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति हमारी न्यायपालिका के संकीर्ण दृष्टिकोण को
भी दिखाते हैं।
दरअसल
आज़ादी के बाद सन १९४९ में हिंदी को भारतीय राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया, लेकिन
साथ ही यह भी निश्चित हुआ कि आज़ाद भारत के कानून और प्रशासन की भाषा हिंदी के
साथ-साथ पूर्ववत ढंग से अंग्रेजी भी रहेगी। तब यह कहा गया था कि इन क्षेत्रों में
धीरे-धीरे हिंदी को लाया जाएगा और जब हिंदी पूरी तरह से इन क्षेत्रों में आ जाएगी
तो अंग्रेजी को समाप्त कर दिया जाएगा। परन्तु, ऐसा कभी नहीं हो सका। अंग्रेजी ख़त्म
तो नहीं हुई, बल्कि प्रशासनिक कार्यों में हिंदी के साथ स्थायी रूप से स्थापित
होती गयी। न्यायालयों में तब भी अंग्रेजी को यही तर्क देकर रहने दिया गया था कि
क़ानून हिंदी में नहीं हैं, इस तरह वहाँ हिंदी के लिए कोई स्थान ही नहीं रह गया। आज
स्थिति यह हो गयी है कि न्यायालय वहाँ हिंदी को स्थान देने के लिए तैयार ही नहीं
हैं; क्योंकि उन्हें वो अपने लिए व्यावहारिक ही नहीं लगती। ऐसे में महात्मा गांधी
द्वारा सन १९०९ जब भारत पराधीन था, में लिखित पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ का यह अंश
उल्लेखनीय होगा जिसमें उन्होंने भारतीयों द्वारा अंग्रेजी के प्रयोग पर क्षोभ
पूर्ण कटाक्ष करते हुए लिखा था, ‘यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में मुझे इन्साफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता। दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए। यह कुछ कम दंभ है। यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है ? इसमें मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना ? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी।‘
दुखद यह कि गांधी आज़ादी से पहले भारतीयों की जिस अंग्रेजीदा मानसिकता से व्यथित
थे, आज़ादी के बाद भी वो देश की व्यवस्थाओं में यथावत बनी और फल-फूल रही है। विचार
करें तो ये थोड़ा कठिन अवश्य था, परन्तु असंभव नहीं कि आज़ादी के बाद न्यायपालिका की
समस्त सामग्रियों के हिंदी अनुवाद के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए गए होते;
कानूनों का हिंदी अनुवाद कर लिया गया होता; और सभी भारतीय भाषाओं में न सही, कम से
कम राजभाषा हिंदी में तो न्याय की व्यवस्था कर ही दी गयी होती। लेकिन, तब भी इस
कार्य को आवश्यक न समझते हुए यथास्थिति को चलने दिया गया और आज भी वही किया जा रहा
है।
बहरहाल,
तब जो हुआ सो हुआ, आज न्यायपालिका की कार्यवाहियों में भारतीय भाषाओं को धीरे-धीरे
सम्मिलित करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
इसकी शुरुआत हिंदी को न्यायपालिका की प्रमुख भाषा बनाकर की जा सकती है। फिर
धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं को भी स्थान दिया जाता रहेगा। आज हमारे पास तकनीक की
वो शक्ति है, जिसके ज़रिये ये कार्य बहुत कठिन नहीं है। न्यायपालिका में इस दिशा
में कुछ करने की मंशा नहीं दिखाई देती, ऐसे में संसद को ही अपने अधिकार का प्रयोग
करते हुए क़ानून के जरिये हिंदी को न्याय की भाषा का दर्ज़ा दिलाना होगा।
हिंदी देश के बहुधा लोगों को सहज ही समझ में आने वाली
भाषा है। इसलिए उसमें न्याय का होना, न्याय को सामान्य जन के लिए सुगम, सरल और
सुग्राह्य बनाएगा। इस प्रकार कह सकते हैं कि न्यायपालिका की भाषा के रूप में हिंदी
का प्रतिस्थापन न केवल राष्ट्र के गौरव के लिए आवश्यक है, बल्कि न्याय को सरल और
सुग्राह्य बनाने की दृष्टि से इसका व्यावहारिक महत्व भी है।