- पीयूष द्विवेदी भारत
पश्चिम
बंगाल इस समय लगातार चर्चा में बना हुआ है, मगर दुर्भाग्यवश चर्चा के कारण
नकारात्मक हैं। बीते दिनों डॉक्टरों पर हमले के बाद राज्य सरकार के अड़ियल रवैये के
कारण उनकी हड़ताल का जो प्रकरण घटित हुआ, उसका असर पूरे देश में दिखाई दिया। शुरुआत
में डॉक्टरों के प्रति अनावश्यक सख्ती दिखाने के बाद आखिर ममता सरकार को उनके आगे
झुकना पड़ा और उनकी मांगे माननी पड़ीं, लेकिन यही काम यदि पहले कर लिया गया होता तो
ये मामला शायद इतना न बिगड़ता।
दूसरी
तरफ केन्द्रीय गृहमंत्रालय ने एडवाइजरी जारी करते हुए पश्चिम बंगाल सरकार पर राज्य
में हिंसा रोकने व क़ानून का शासन सुनिश्चित करने में विफल रहने का आरोप लगाया है।
साथ ही, केंद्र ने ममता सरकार से राजनीतिक हिंसा और उसके दोषियों पर हुई कार्रवाई
का विवरण देने को भी कहा है। गृहमंत्रालय द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक़ बीते
वर्षों के दौरान राज्य में राजनीतिक हिंसा की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ है।
वर्ष 2016
में
जहां बंगाल में 509 राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुई थीं, वहीं 2018
में ये आंकड़ा 1035 तक
जा पहुंचा जबकि इस वर्ष अभी इन छः महीनों में ही 773
हिंसा की घटनाएं सामने आ
चुकी हैं। इन आंकड़ों से इतर हाल के कुछ वर्षों में बंगाल की राजनीति का अवलोकन
करने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य में क़ानून-व्यवस्था की क्या स्थिति है। अभी
बीते लोकसभा चुनाव और उससे पूर्व पंचायत चुनाव में ही बंगाल में जो हिंसात्मक
घटनाएं हुईं, वो राज्य की क़ानून-व्यवस्था की कलई खोलने के लिए काफी हैं। टीएमसी
कार्यकर्ताओं द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या और उनपर हमले के जो मामले सामने
आए हैं, वे ममता सरकार के अपराध व अपराधियों के आगे बेबस हो चुकी क़ानून-व्यवस्था
की ही कहानी कहते हैं। इसके अलावा मालदा, धूलागढ़, रानीगंज, आसनसोल आदि राज्य के
अनेक क्षेत्रों में सांप्रदायिक टकराव की घटनाएं भी यही बताती हैं कि ममता बनर्जी
के राज में अराजकता और अशांति बंगाल की नियति बन गए हैं।
अब
जब केंद्र में नयी सरकार का गठन हुआ है और गृहमंत्रालय राजनाथ सिंह से हटकर अमित
शाह के पास आ गया है, ऐसे में बंगाल की उक्त स्थिति को देखते हुए गृहमंत्रालय की
तरफ से क़ानून-व्यवस्था को लेकर जानकारी माँगना उचित ही है। परन्तु, ममता बनर्जी इस
विषय को भी राजनीति से जोड़ते हुए केंद्र पर आरोप लगाने में लगी हैं। उन्हें
गृहमंत्रालय के जवाब मांगने में भी राजनीति नजर आ रही है। एकबार के लिए मान लेते
हैं कि इसमें राजनीति हैं, लेकिन इससे यह तथ्य तो बदल नहीं जाता कि ममता सरकार राज्य
में क़ानून का शासन स्थापित करने में विफल रही है।
केंद्र से टकराव की राजनीति
दिल्ली में केंद्र से जो टकराव की राजनीति केजरीवाल करते
रहे हैं, बंगाल में ममता उससे भी दो
कदम आगे निकल चुकी हैं। देखा जाए तो वास्तव में उनका विरोध केंद्र की सरकार से
नहीं, भाजपा से है। इसी कारण वर्ष 2014 में जब केंद्र में भाजपा की सरकार आई, उसके बाद से ही
केंद्र से उनके सम्बन्ध बिगड़ने शुरू हो गए। कोई भी विषय हो, वे आँख बंद करके
केंद्र सरकार के विरोध में उतरी रहती हैं। अभी हाल ही में जिस तरह कोलकाता के
पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से शारदा चिटफंड मामले में पूछताछ करने गयी सीबीआई के
साथ ममता सरकार ने बर्ताव किया, वो केंद्र के साथ उनके टकराव का सबसे ताजा और
सशक्त उदाहरण है। हालांकि इसी मामले में जब न्यायालय ने राजीव कुमार को पूछताछ के
लिए सीबीआई के समक्ष उपस्थित होने का फैसला सुनाया, तो इससे ममता सरकार को सबक
लेना चाहिए था। मगर, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।
केन्द्रीय योजनाओं की उपेक्षा
केंद्र से ममता बनर्जी की चिढ़ का आलम ये है कि उन्होंने
बंगाल में तमाम केन्द्रीय योजनाओं को भी लागू नहीं किया है। केंद्र सरकार की
गरीबों को पांच लाख तक का मुफ्त स्वास्थ्य बीमा देने वाली आयुष्मान योजना वहाँ लागू
नहीं की गयी है। इस योजना के तहत 60
प्रतिशत खर्च केंद्र को
और 40
प्रतिशत
राज्य सरकार को वहन करने का प्रावधान है, बस इसी बात को बहाना बनाकर ममता बनर्जी ने
अपने हिस्से का खर्च वहन करने से इनकार करते हुए इस योजना से बाहर रहने का ऐलान कर
दिया। स्वास्थ्य, राज्य सूची का मामला है, सो इसमें राज्य सरकार की सहमति के बिना
केंद्र बहुत कुछ कर नहीं सकता। यहाँ तो खर्च वहन न करने का बहाना था, मगर ममता का
ऐसा ही गतिरोधी रुख ‘प्रधानमंत्री किसान
सम्मान निधि योजना’ को लेकर भी है जिसका पूरा खर्च केंद्र वहन कर रहा है। किसान
सम्मान निधि योजना में राज्यों की भूमिका बस इतनी है कि उन्हें अपने यहाँ से इस
राशि की पात्रता रखने वाले किसानों की सूची भेजनी है। लेकिन ममता सरकार ने सूची ही
अटका ली है। केंद्र द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद अबतक पश्चिम बंगाल की सूची
नहीं भेजी गयी है, जिस कारण वहाँ के किसान इस योजना के लाभ से वंचित हो रहे हैं। ममता
की ही राह पर दिल्ली में उनके चहेते केजरीवाल भी हैं, इस कारण दिल्ली के किसानों
को भी योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा।
गौरतलब है कि संविधान में केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर
तमाम प्रावधान करते हुए यही अपेक्षा की गयी है कि ये दोनों परस्पर समन्वय और समझ
के साथ राष्ट्र की प्रगति के लिए कार्य करेंगे, मगर अभी केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार
के बीच जो सम्बन्ध दिख रहे हैं, वो इस संवैधानिक अपेक्षा के बिलकुल ही विपरीत हैं।
केंद्र-राज्य संबंधों पर संवैधानिक पक्ष
ब्रिटिश
हुकुमत के समय भारतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप केंद्रीकृत और एकात्मक था। भारत को
गुलाम बनाए रखने के लिए यही शासन प्रभावी था। परन्तु, आजादी के बाद जब हमारा
संविधान बना तो उसमें भारत को ‘राज्यों के संघ’ के रूप में प्रतिसूचित किया गया। केंद्र-राज्य
संबंधों के तीन प्रकारों का जिक्र संविधान में मिलता है – विधायी सम्बन्ध, प्रशासनिक
सम्बन्ध और वित्तीय सम्बन्ध। इसी प्रकार केंद्र-राज्य के बीच कार्य-विभाजन को लेकर
तीन सूचियों संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची की व्यवस्था भी सविधान में की
गयी है।
संघ
सूची में वर्णित विषयों पर क़ानून बनाने व निर्णय लेने का अधिकार संसद व केंद्र
सरकार को है, राज्य सूची के विषयों में समान अधिकार विधानसभा व राज्य सरकार को है,
वहीं समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों को क़ानून बनाने का
अधिकार है। लेकिन यदि कभी समवर्ती सूची के किसी विषय को लेकर केंद्र और राज्य के
कानूनों में टकराव उत्पन्न होता है, तो ऐसे में केंद्र के क़ानून के ही मान्य होने
की व्यवस्था है। इन सूचियों में शामिल विषयों पर नजर डालें तो संघ सूची में ऐसे
विषय शामिल किए गए हैं, जो सीधे तौर पर राष्ट्रीय हित को प्रभावित करने वाले हैं
और जिनको लेकर पूरे देश में एकरूपता होनी अनिवार्य है जैसे कि रेल, रक्षा आदि। राज्य
सूची में शामिल विषय ऐसे हैं जो हित और व्यवहार के स्तर पर विविधता की छूट देते
हैं जैसे कि स्वास्थ्य, कृषि, परिवहन आदि। समवर्ती सूची में ऐसे विषयों को शामिल
किया गया है, जिन्हें लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता अपेक्षित अवश्य है, परन्तु
अनिवार्य नहीं जैसे कि शिक्षा, जनसंख्या नियंत्रण, बिजली वितरण आदि। इस प्रकार
स्पष्ट है कि संविधान में केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों के समन्वय करने का
प्रयास तो किया गया है, परन्तु विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता और अखंडता
को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से केंद्र को राज्यों पर संप्रभुता भी प्रदान की गयी
है। किसी आपात स्थिति के समय राज्यों के पूरी तरह से केंद्र के अधीनस्थ हो जाने की
व्यवस्था इसीका उदाहरण है।
केंद्र-राज्य
प्रशासनिक संबंधों को लेकर संविधान के अनुच्छेद-257
में कहा गया है कि हर
राज्य की अपनी कार्यपालिका की शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करे कि वो संघ की
कार्यपालिका-शक्ति के मार्ग में बाधक न बने। वर्तमान में ममता बनर्जी जिस तरह से
केंद्र की योजनाओं में राज्य-स्तर पर अवरोध पैदा कर रही हैं, वो संविधान विरोधी
कृत्य है।
वित्तीय
संबंधों की बात करें तो प्रत्येक पांच वर्ष पर वित्त आयोग के गठन का प्रावधान किया
गया है जिसका काम केंद्र-राज्य के बीच कर-प्राप्तियों के वितरण की जांच करना और
सहायता-अनुदान सम्बन्धी नियमों का निर्धारण करना है। अबतक देश में पंद्रह वित्त
आयोग गठित किए जा चुके हैं।
ममता की अलोकतांत्रिकता
संविधान
चाहें जो भी कहता हो, ममता बनर्जी को शायद उससे कोई सरोकार नहीं है। ऐसा लगता है
जैसे वे बंगाल में एक अलग ही शासन का ढर्रा जमाने में जुटी हुई हैं। हाल के उनके
कुछ निर्णयों व वक्तव्यों पर नजर डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। चुनाव प्रचार
के दौरान उन्होंने कहा था कि वे नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री ही नहीं मानती।
देश के मतदाताओं द्वारा बहुमत से चुने गए प्रधानमंत्री के प्रति एक राज्य की
मुख्यमंत्री का इस तरह की बात कहना क्या देश की जनता और लोकतान्त्रिक व्यवस्था का
अपमान नहीं है? अब उन्होंने एक और फरमान सुनाया है कि बंगाल में रहना है तो
बांग्ला ही बोलनी होगी। बांग्ला बोलने में कोई बुराई नहीं है, मगर उसे इस तरह सबपर
थोपना भारतीय संस्कृति की विविधता पर कुठारघात करने के साथ-साथ संविधान प्रदत्त
स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन भी है।
इसी तरह पिछले दिनों राज्य में जय श्रीराम का नारा लगाए जाने पर गिरफ्तारी
करवाकर भी ममता बनर्जी ने बंगाल में अपने अलोकतांत्रिक शासन का ही एक नमूना पेश
किया।
निष्कर्ष
दरअसल
बंगाल में भाजपा के बढ़ते जनाधार और राजनीतिक सफलताओं को देखते हुए कहीं न कहीं ममता
बनर्जी को यह लगने लगा है कि राज्य में उनकी राजनीतिक जमीन खिसक रही है। इसी कारण
उन्होंने अपनी राजनीति को भाजपा विरोध की तरफ एकोन्मुख कर रखा है। किसी भी बात पर
वो भाजपा और उसके नेतृत्व वाली सरकार का विरोध करने का मौका नहीं छोड़ रहीं। केंद्र
की योजनाओं को राज्य में लागू कर वे भाजपा को किसी प्रकार का श्रेय नहीं देना
चाहतीं। परन्तु, अपनी इस राजनीति के उत्साह में ममता बनर्जी भूल गयी हैं कि वे
सिर्फ टीएमसी की नेता नहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी हैं और इस नाते उनका
संवैधानिक दायित्व बनता है कि केंद्र के साथ मिलकर राज्य की जनता के कल्याण और
विकास के लिए काम करें। संघीय ढाँचे में केंद्र और राज्य दोनों को परस्पर समझ व
सहयोग की भावना के साथ काम करना होता है, संविधान में इसीका प्रतिपादन किया गया
है, परन्तु ममता बनर्जी अपने राजनीतिक हितों के लिए संघीय ढाँचे को भी नुकसान
पहुंचाने में लगी हैं।
वे
ताकत के दम पर अपनी सत्ता को स्थायी करना चाहती हैं, मगर उन्हें समझना चाहिए कि ये
लोकतंत्र है, जहां ताकत से नहीं, जनमत से निर्णय होते हैं और जनमत को अपने पक्ष
में करने का केवल एक ही उपाय है कि संकीर्ण राजनीतिक हितों व स्वार्थों को छोड़
सकारात्मक सोच के साथ देश की प्रगति के लिए कार्य किया जाए। अन्यथा लोकसभा चुनाव
में जिस जनता ने उनकी सीटें कम की है, वो विधानसभा में उनका सूपड़ा भी साफ़ कर सकती
है।