शुक्रवार, 21 जून 2019

लोकतंत्र का मखौल बनातीं ममता [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

पश्चिम बंगाल इस समय लगातार चर्चा में बना हुआ है, मगर दुर्भाग्यवश चर्चा के कारण नकारात्मक हैं। बीते दिनों डॉक्टरों पर हमले के बाद राज्य सरकार के अड़ियल रवैये के कारण उनकी हड़ताल का जो प्रकरण घटित हुआ, उसका असर पूरे देश में दिखाई दिया। शुरुआत में डॉक्टरों के प्रति अनावश्यक सख्ती दिखाने के बाद आखिर ममता सरकार को उनके आगे झुकना पड़ा और उनकी मांगे माननी पड़ीं, लेकिन यही काम यदि पहले कर लिया गया होता तो ये मामला शायद इतना न बिगड़ता।
दूसरी तरफ केन्द्रीय गृहमंत्रालय ने एडवाइजरी जारी करते हुए पश्चिम बंगाल सरकार पर राज्य में हिंसा रोकने व क़ानून का शासन सुनिश्चित करने में विफल रहने का आरोप लगाया है। साथ ही, केंद्र ने ममता सरकार से राजनीतिक हिंसा और उसके दोषियों पर हुई कार्रवाई का विवरण देने को भी कहा है। गृहमंत्रालय द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक़ बीते वर्षों के दौरान राज्य में राजनीतिक हिंसा की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ है। वर्ष 2016 में जहां बंगाल में 509 राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुई थीं, वहीं 2018 में ये आंकड़ा 1035 तक जा पहुंचा जबकि इस वर्ष अभी इन छः महीनों में ही 773 हिंसा की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इन आंकड़ों से इतर हाल के कुछ वर्षों में बंगाल की राजनीति का अवलोकन करने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य में क़ानून-व्यवस्था की क्या स्थिति है। अभी बीते लोकसभा चुनाव और उससे पूर्व पंचायत चुनाव में ही बंगाल में जो हिंसात्मक घटनाएं हुईं, वो राज्य की क़ानून-व्यवस्था की कलई खोलने के लिए काफी हैं। टीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या और उनपर हमले के जो मामले सामने आए हैं, वे ममता सरकार के अपराध व अपराधियों के आगे बेबस हो चुकी क़ानून-व्यवस्था की ही कहानी कहते हैं। इसके अलावा मालदा, धूलागढ़, रानीगंज, आसनसोल आदि राज्य के अनेक क्षेत्रों में सांप्रदायिक टकराव की घटनाएं भी यही बताती हैं कि ममता बनर्जी के राज में अराजकता और अशांति बंगाल की नियति बन गए हैं।
अब जब केंद्र में नयी सरकार का गठन हुआ है और गृहमंत्रालय राजनाथ सिंह से हटकर अमित शाह के पास आ गया है, ऐसे में बंगाल की उक्त स्थिति को देखते हुए गृहमंत्रालय की तरफ से क़ानून-व्यवस्था को लेकर जानकारी माँगना उचित ही है। परन्तु, ममता बनर्जी इस विषय को भी राजनीति से जोड़ते हुए केंद्र पर आरोप लगाने में लगी हैं। उन्हें गृहमंत्रालय के जवाब मांगने में भी राजनीति नजर आ रही है। एकबार के लिए मान लेते हैं कि इसमें राजनीति हैं, लेकिन इससे यह तथ्य तो बदल नहीं जाता कि ममता सरकार राज्य में क़ानून का शासन स्थापित करने में विफल रही है।

केंद्र से टकराव की राजनीति
दिल्ली में केंद्र से जो टकराव की राजनीति केजरीवाल करते रहे हैं, बंगाल में ममता उससे भी दो कदम आगे निकल चुकी हैं। देखा जाए तो वास्तव में उनका विरोध केंद्र की सरकार से नहीं, भाजपा से है। इसी कारण वर्ष 2014 में जब केंद्र में भाजपा की सरकार आई, उसके बाद से ही केंद्र से उनके सम्बन्ध बिगड़ने शुरू हो गए। कोई भी विषय हो, वे आँख बंद करके केंद्र सरकार के विरोध में उतरी रहती हैं। अभी हाल ही में जिस तरह कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से शारदा चिटफंड मामले में पूछताछ करने गयी सीबीआई के साथ ममता सरकार ने बर्ताव किया, वो केंद्र के साथ उनके टकराव का सबसे ताजा और सशक्त उदाहरण है। हालांकि इसी मामले में जब न्यायालय ने राजीव कुमार को पूछताछ के लिए सीबीआई के समक्ष उपस्थित होने का फैसला सुनाया, तो इससे ममता सरकार को सबक लेना चाहिए था। मगर, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।
केन्द्रीय योजनाओं की उपेक्षा
केंद्र से ममता बनर्जी की चिढ़ का आलम ये है कि उन्होंने बंगाल में तमाम केन्द्रीय योजनाओं को भी लागू नहीं किया है। केंद्र सरकार की गरीबों को पांच लाख तक का मुफ्त स्वास्थ्य बीमा देने वाली आयुष्मान योजना वहाँ लागू नहीं की गयी है। इस योजना के तहत 60 प्रतिशत खर्च केंद्र को और 40 प्रतिशत राज्य सरकार को वहन करने का प्रावधान है, बस इसी बात को बहाना बनाकर ममता बनर्जी ने अपने हिस्से का खर्च वहन करने से इनकार करते हुए इस योजना से बाहर रहने का ऐलान कर दिया। स्वास्थ्य, राज्य सूची का मामला है, सो इसमें राज्य सरकार की सहमति के बिना केंद्र बहुत कुछ कर नहीं सकता। यहाँ तो खर्च वहन न करने का बहाना था, मगर ममता का ऐसा ही गतिरोधी  रुख ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना’ को लेकर भी है जिसका पूरा खर्च केंद्र वहन कर रहा है। किसान सम्मान निधि योजना में राज्यों की भूमिका बस इतनी है कि उन्हें अपने यहाँ से इस राशि की पात्रता रखने वाले किसानों की सूची भेजनी है। लेकिन ममता सरकार ने सूची ही अटका ली है। केंद्र द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद अबतक पश्चिम बंगाल की सूची नहीं भेजी गयी है, जिस कारण वहाँ के किसान इस योजना के लाभ से वंचित हो रहे हैं। ममता की ही राह पर दिल्ली में उनके चहेते केजरीवाल भी हैं, इस कारण दिल्ली के किसानों को भी योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा।
गौरतलब है कि संविधान में केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर तमाम प्रावधान करते हुए यही अपेक्षा की गयी है कि ये दोनों परस्पर समन्वय और समझ के साथ राष्ट्र की प्रगति के लिए कार्य करेंगे, मगर अभी केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच जो सम्बन्ध दिख रहे हैं, वो इस संवैधानिक अपेक्षा के बिलकुल ही विपरीत हैं। 
केंद्र-राज्य संबंधों पर संवैधानिक पक्ष
ब्रिटिश हुकुमत के समय भारतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप केंद्रीकृत और एकात्मक था। भारत को गुलाम बनाए रखने के लिए यही शासन प्रभावी था। परन्तु, आजादी के बाद जब हमारा संविधान बना तो उसमें भारत को ‘राज्यों के संघ’ के रूप में प्रतिसूचित किया गया। केंद्र-राज्य संबंधों के तीन प्रकारों का जिक्र संविधान में मिलता है – विधायी सम्बन्ध, प्रशासनिक सम्बन्ध और वित्तीय सम्बन्ध। इसी प्रकार केंद्र-राज्य के बीच कार्य-विभाजन को लेकर तीन सूचियों संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची की व्यवस्था भी सविधान में की गयी है।
संघ सूची में वर्णित विषयों पर क़ानून बनाने व निर्णय लेने का अधिकार संसद व केंद्र सरकार को है, राज्य सूची के विषयों में समान अधिकार विधानसभा व राज्य सरकार को है, वहीं समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों को क़ानून बनाने का अधिकार है। लेकिन यदि कभी समवर्ती सूची के किसी विषय को लेकर केंद्र और राज्य के कानूनों में टकराव उत्पन्न होता है, तो ऐसे में केंद्र के क़ानून के ही मान्य होने की व्यवस्था है। इन सूचियों में शामिल विषयों पर नजर डालें तो संघ सूची में ऐसे विषय शामिल किए गए हैं, जो सीधे तौर पर राष्ट्रीय हित को प्रभावित करने वाले हैं और जिनको लेकर पूरे देश में एकरूपता होनी अनिवार्य है जैसे कि रेल, रक्षा आदि। राज्य सूची में शामिल विषय ऐसे हैं जो हित और व्यवहार के स्तर पर विविधता की छूट देते हैं जैसे कि स्वास्थ्य, कृषि, परिवहन आदि। समवर्ती सूची में ऐसे विषयों को शामिल किया गया है, जिन्हें लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता अपेक्षित अवश्य है, परन्तु अनिवार्य नहीं जैसे कि शिक्षा, जनसंख्या नियंत्रण, बिजली वितरण आदि। इस प्रकार स्पष्ट है कि संविधान में केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों के समन्वय करने का प्रयास तो किया गया है, परन्तु विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से केंद्र को राज्यों पर संप्रभुता भी प्रदान की गयी है। किसी आपात स्थिति के समय राज्यों के पूरी तरह से केंद्र के अधीनस्थ हो जाने की व्यवस्था इसीका उदाहरण है।
केंद्र-राज्य प्रशासनिक संबंधों को लेकर संविधान के अनुच्छेद-257 में कहा गया है कि हर राज्य की अपनी कार्यपालिका की शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करे कि वो संघ की कार्यपालिका-शक्ति के मार्ग में बाधक न बने। वर्तमान में ममता बनर्जी जिस तरह से केंद्र की योजनाओं में राज्य-स्तर पर अवरोध पैदा कर रही हैं, वो संविधान विरोधी कृत्य है।
वित्तीय संबंधों की बात करें तो प्रत्येक पांच वर्ष पर वित्त आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है जिसका काम केंद्र-राज्य के बीच कर-प्राप्तियों के वितरण की जांच करना और सहायता-अनुदान सम्बन्धी नियमों का निर्धारण करना है। अबतक देश में पंद्रह वित्त आयोग गठित किए जा चुके हैं।
ममता की अलोकतांत्रिकता
संविधान चाहें जो भी कहता हो, ममता बनर्जी को शायद उससे कोई सरोकार नहीं है। ऐसा लगता है जैसे वे बंगाल में एक अलग ही शासन का ढर्रा जमाने में जुटी हुई हैं। हाल के उनके कुछ निर्णयों व वक्तव्यों पर नजर डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा था कि वे नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री ही नहीं मानती। देश के मतदाताओं द्वारा बहुमत से चुने गए प्रधानमंत्री के प्रति एक राज्य की मुख्यमंत्री का इस तरह की बात कहना क्या देश की जनता और लोकतान्त्रिक व्यवस्था का अपमान नहीं है? अब उन्होंने एक और फरमान सुनाया है कि बंगाल में रहना है तो बांग्ला ही बोलनी होगी। बांग्ला बोलने में कोई बुराई नहीं है, मगर उसे इस तरह सबपर थोपना भारतीय संस्कृति की विविधता पर कुठारघात करने के साथ-साथ संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन भी है।  इसी तरह पिछले दिनों राज्य में जय श्रीराम का नारा लगाए जाने पर गिरफ्तारी करवाकर भी ममता बनर्जी ने बंगाल में अपने अलोकतांत्रिक शासन का ही एक नमूना पेश किया।
निष्कर्ष
दरअसल बंगाल में भाजपा के बढ़ते जनाधार और राजनीतिक सफलताओं को देखते हुए कहीं न कहीं ममता बनर्जी को यह लगने लगा है कि राज्य में उनकी राजनीतिक जमीन खिसक रही है। इसी कारण उन्होंने अपनी राजनीति को भाजपा विरोध की तरफ एकोन्मुख कर रखा है। किसी भी बात पर वो भाजपा और उसके नेतृत्व वाली सरकार का विरोध करने का मौका नहीं छोड़ रहीं। केंद्र की योजनाओं को राज्य में लागू कर वे भाजपा को किसी प्रकार का श्रेय नहीं देना चाहतीं। परन्तु, अपनी इस राजनीति के उत्साह में ममता बनर्जी भूल गयी हैं कि वे सिर्फ टीएमसी की नेता नहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी हैं और इस नाते उनका संवैधानिक दायित्व बनता है कि केंद्र के साथ मिलकर राज्य की जनता के कल्याण और विकास के लिए काम करें। संघीय ढाँचे में केंद्र और राज्य दोनों को परस्पर समझ व सहयोग की भावना के साथ काम करना होता है, संविधान में इसीका प्रतिपादन किया गया है, परन्तु ममता बनर्जी अपने राजनीतिक हितों के लिए संघीय ढाँचे को भी नुकसान पहुंचाने में लगी हैं।
वे ताकत के दम पर अपनी सत्ता को स्थायी करना चाहती हैं, मगर उन्हें समझना चाहिए कि ये लोकतंत्र है, जहां ताकत से नहीं, जनमत से निर्णय होते हैं और जनमत को अपने पक्ष में करने का केवल एक ही उपाय है कि संकीर्ण राजनीतिक हितों व स्वार्थों को छोड़ सकारात्मक सोच के साथ देश की प्रगति के लिए कार्य किया जाए। अन्यथा लोकसभा चुनाव में जिस जनता ने उनकी सीटें कम की है, वो विधानसभा में उनका सूपड़ा भी साफ़ कर सकती है।    

मंगलवार, 11 जून 2019

संकीर्ण राजनीति की शिकार हिंदी [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस नयी शिक्षा नीति का लम्बे समय से देश को इन्तजार था, जब उसका प्रारूप सामने आया तो स्वस्थ व सार्थक चिंतन-मनन की बजाय विवाद का विषय बनकर रह गया। समग्र शिक्षा नीति पर चर्चा हाशिये पर चली गयी और सारा ध्यान उसमें उल्लिखित त्रिभाषा नीति पर केन्द्रित हो गया। इसमें हिंदी को वरीयता देने को लेकर तमिलनाडू के राजनीतिक गलियारों से विरोध की आवाज सुनाई देने लगी। त्रिभाषा नीति के विरोध में उतरे दलों व नेताओं ने इतनी-सी बात समझने तक की जहमत नहीं उठाई कि ये प्रारूप केवल विचारार्थ रखा गया है, यह कोई अंतिम निर्णय नहीं है। इसे सबकी राय लेकर ही लागू किया जाएगा। अब खबर आ रही है कि विरोध के मद्देनजर सरकार ने इस शिक्षा नीति में उल्लिखित हिंदी की अनिवार्यता वाले प्रावधान को खत्म कर दिया है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि आखिर त्रिभाषा नीति में हिंदी की मौजूदगी को लेकर विरोध की आवाजें उठ क्यों रही हैं? हिंदी अगर भारत में नहीं, तो और कहाँ पढ़ी-लिखी और बोली-समझी जाएगी? बहरहाल, इस विरोध को समझने के लिए त्रिभाषा नीति के स्वरूप और इतिहास पर दृष्टि डालना समीचीन होगा।
क्या है त्रिभाषा नीति?
त्रिभाषा नीति कोई आज का विषय नहीं है, बल्कि इसकी चर्चा आजादी के बाद विश्वविद्यालयी शिक्षा सम्बन्धी सुझावों के लिए गठित राधाकृष्णन आयोग की रिपोर्ट से ही शुरू हो गयी थी, जिसमें तीन भाषाओं में पढ़ाई की व्यवस्था का परामर्श दिया गया था। आयोग का कहना था कि माध्यमिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा, संघीय भाषा और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा दी जाए। इसके बाद 1955 में डॉ लक्षमणस्वामी मुदालियर के नेतृत्व में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया गया, जिसने प्रदेश की मातृभाषा के साथ हिंदी के अध्ययन का द्विभाषा सूत्र देते हुए अंग्रेजी व संस्कृत को वैकल्पिक बनाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया। फिर 1964 में यूजीसी के प्रमुख दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन हुआ जिसने 1966 में पेश अपनी रिपोर्ट में त्रिभाषा नीति का सुझाव दिया।

यहाँ एक बात उल्लेखनीय होगी कि मुदालियर आयोग को छोड़कर ज्यादातर शिक्षा व भाषा आयोगों ने भाषा-समस्या के समाधान हेतु प्रस्तावित त्रिभाषा नीति में अंग्रेजी को अधिक महत्व देते हुए हिंदी का पक्ष कमजोर ही किया। कोठारी आयोग का प्रस्ताव भी ऐसा ही था, जिसमें कक्षा 8 से 10 तक छात्रों के लिए तीन भाषाओं (स्थानीय मातृभाषा, हिंदी और अंग्रेजी) के अध्ययन की बात कही गयी थी, वहीं विश्वविद्यालयी स्तर पर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम रखने का प्रस्ताव किया गया था। इसी कोठारी आयोग की सिफारिशों के आधार पर वर्ष 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गयी, जिसमें त्रिभाषा फार्मूला शामिल था। उस समय तमिलनाडू के मुख्यमंत्री थे अन्नादुरई जिन्होंने इस त्रिभाषा नीति को राज्य में हिंदी थोपने की कोशिश करार देते हुए इसका कड़ा विरोध किया और राज्य के विद्यालयों से हिंदी को हटा दिया गया। इसके बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछेक बार परिवर्तन हुए, लेकिन तमिलनाडू में अंग्रेजी और तमिल की द्विभाषा नीति ही शिक्षा का माध्यम बनी रही।
दक्षिण का हिंदी विरोध
दक्षिण में हिंदी विरोध की शुरुआत आजादी से पहले ही हो गयी थी। 1937 में हुए प्रांतीय चुनावों में मद्रास प्रेसिडेंसी में कांग्रेस को बहुमत मिला था और शासन की बागडोर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के हाथ आई, जिन्होंने जल्द-ही राज्य में हिंदी की शिक्षा को बढ़ावा देने को लेकर अपने इरादे जाहिर कर दिए। एक प्रमुख मीडिया संस्थान के वेबपोर्टल पर प्रकाशित खबर के मुताबिक़, अप्रैल 1938 में मद्रास प्रेसिडेंसी के 125 सैकेंडरी स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा के तौर पर लागू कर दिया गया। तमिलों में इस निर्णय के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया दिखी और जल्द-ही ये विरोध एक जनांदोलन का रूप ले लिया। पेरियार और अन्नादुरई ने इस आन्दोलन को अपनी राजनीतिक पहचान स्थापित करने का उपकरण बना लिया। यह आन्दोलन लगभग दो वर्ष तक चला। 1939 में राजाजी की सरकार ने त्यागपत्र दे दिया और फिर अंग्रेज हुकूमत ने सरकार के फैसले को वापस लेते हुए हिंदी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। तब ये आन्दोलन थम जरूर गया, मगर यहाँ से राज्य में हिंदी विरोधी राजनीति का जो बीजारोपण हुआ, वो आगे फलता-फूलता ही गया।
आजादी के तत्काल बाद भी हिंदी विरोध की राजनीति की आंच में राज्य को जलना पड़ा, तो वहीं 1963 में राजभाषा विधेयक के पारित होने के बाद भी हिंसक रुख लेकर यह आन्दोलन शुरू हो गया। सत्तर के दशक का प्रथमार्ध इस लिहाज से बेहद उथल-पुथल भरा रहा। 1967 में आखिर इस हिंदी विरोधी आन्दोलन पर चढ़कर डीएमके तमिलनाडु की सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गयी। इसीके साथ हिंदी विरोध दक्षिण, खासकर तमिलनाडू की राजनीति का एक आवश्यक उपकरण बन गया जो कि आज भी यथावत कायम है। आज भी वहाँ के नेताओं को हिंदी विरोध में अपने लिए राजनीतिक संभावनाएं दिखाई देती हैं, जिस कारण वे तथ्य और यथार्थ से परे आँख बंद करके हिंदी सम्बन्धी किसी भी बात का विरोध करने लगते हैं। यही कारण है कि अभी त्रिभाषा नीति की चर्चा आते ही हिंदी थोपने की बात कहते हुए राज्य से विरोधी आवाजें उठने लगीं।

कितना जायज है हिंदी विरोध?
दक्षिण भारत के हिंदी विरोध का मूल स्वर यह है कि हिंदी कथित हिंदीपट्टी वाले राज्यों की भाषा है, जिसे उनपर थोपा जा रहा है। इसमें द्रविड़ और आर्य वाली ऐतिहासिक अवधारणा भी एक हद तक काम करती है, जिसके अनुसार बाहर से आए आर्यों ने देश के मूल निवासी द्रविड़ों को दक्षिण में खदेड़ दिया और स्वयं उत्तर में बस गए। हालांकि जिस तरह से ये आर्य आगमन सिद्धांत ऐतिहासिक तथ्यों के धरातल पर भ्रामक सिद्ध होता है, उसी तरह दक्षिण का हिंदी विरोध भी तथ्यात्मक रूप से फिजूल ही लगता है। इस विषय में पटना निफ्ट में प्राध्यापक रत्नेश्वर सिंह कहते हैं, ‘आज हिंदीपट्टी कहे जाने वाले जो राज्य हैं, वास्तव में हिंदी उनकी मातृभाषा नहीं है। लेकिन आजादी के बाद देश की एकता के लिए उन्होंने उदारता दिखाते हुए हिंदी को अपनी मातृभाषा से ऊपर रखा। दक्षिण के राज्य वैसी उदारता नहीं दिखा पाए। इसका कारण वो क्षेत्रवादी राजनीति है, जिसने ऐसी हवा बना दी कि हिंदी कुछ खास प्रदेशों की भाषा है और उनपर थोपी जा रही। वास्तव में न तो कथित हिन्दीपट्टी राज्यों पर हिंदी थोपी गयी थी, न किसी और पर थोपी जा सकती है। कोई भी भाषा किसीपर जबरन थोपकर प्रभाव में लाई ही नहीं जा सकती। दूसरी चीज कि हिंदी को जिन राज्यों ने आत्मसात किया, उनकी मातृभाषा खत्म नहीं हो गयी है। वो भी हिंदी के साथ-साथ फल-फूल रही है। अतः तमिलनाडू आदि गैर-हिन्दीभाषी राज्यों के लोगों को भी राजनीति का शिकार होने से बचते हुए देश की एकता के लिए हिंदी को स्वीकारना चाहिए। जाहिर है कि हिंदी को कुछ प्रदेशों की मातृभाषा मानकर उसका विरोध करना तमिलों की सबसे बड़ी भूल है। देखा जाए तो हिंदी का स्वरूप भारतीय संस्कृति के ही समान महासमन्वयकारी है। संस्कृत से जन्मी इस भाषा में कुछ खड़ी, कुछ राजस्थानी, कुछ अवधी, कुछ ब्रज, कुछ भोजपुरी सहित और भी अनेक भारतीय भाषाओं एवं कुछ अंग्रेजी, कुछ उर्दू, कुछ फारसी जैसी विदेशी भाषाओं के शब्दों का महासंगम है। ऐसे में, राष्ट्रीयता की भावना के साथ यदि विचार किया जाए तो किसीके लिए भी हिंदी के विरोध का कोई कारण नजर नहीं आता। परन्तु, दक्षिण के राजनेताओं ने अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए वहाँ के लोगों में राष्ट्रीयता की बजाय क्षेत्रीयता की भावना का पोषण किया है। राजनीति ने तमिलों के विवेक को इस कदर ग्रस लिया है कि उन्हें विदेशी भाषा अंग्रेजी से अपनी मातृभाषा को कोई खतरा नहीं लगता, लेकिन अपने देश की भाषा हिंदी से लगता है। 
हिंदीभाषी राज्य भी जिम्मेदार
उक्त बातों से यह तो स्पष्ट हो गया है कि गैर-हिंदीभाषी राज्यों के हिंदी विरोध का मुख्य कारण वहाँ की राजनीति है। परन्तु, इस राजनीति के लिए वहाँ के राजनेताओं को अवसर देने के लिए एक हद तक हिंदीभाषी राज्यों के लोगों का दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीन रवैया भी जिम्मेदार है। तमिलनाडू को छोड़ दें तो आंध्र प्रदेश, केरला, कर्णाटक आदि दक्षिणी राज्यों में कुछ हद तक हिंदी की मौजूदगी मिलती है, वहाँ के स्थानीय लोग हिंदी बोलते दिख जाते हैं, जिससे जाहिर होता है कि इन राज्यों में कम ही सही मगर लोग हिंदी सीख रहे हैं। लेकिन इसके उलट हिंदीभाषी राज्यों में तमिल-तेलुगू जैसी भाषाओं को सीखने-सिखाने के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाई देता। इस विषय में डीयू के रामानुजन महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक डॉ आलोक रंजन पाण्डेय कहते हैं, ‘दिल्ली में कुछ विद्यालय हैं जहां तमिल-तेलुगु आदि दक्षिण भारतीय भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं, मगर उनकी संख्या कम है। यह सही है कि हिंदीभाषी प्रदेशों के लोग दक्षिण भारतीय भाषाओं को सीखने में बहुत रुचि नहीं लेते जो कि उन्हें लेनी चाहिए। हमारा विरोध तमिल या तेलुगु से न कभी था, न है। लेकिन हिंदी के बजाय अंग्रेज़ी का हम सदैव विरोध करते रहे हैं।‘ हालांकि एक पक्ष यह भी है कि हिंदी किसी राज्य-विशेष की भाषा नहीं है जो उसको अपनाने के बदले कोई अमुक राज्य से अपनी क्षेत्रीय भाषा को सीखने की उम्मीद करे, लेकिन फिर भी हिन्दीभाषी राज्यों को दक्षिण भारतीय भाषाओं को सीखने के प्रति गंभीर होना चाहिए। ऐसा करने से जो अविश्वास की खाई उत्तर और दक्षिण के बीच राजनीति ने पैदा की है, उसे पाटना कुछ आसान होगा।

त्रिभाषा नीति पर प्राध्यापकों की राय
वर्तमान भाषाई विवाद को सुलझाने का सबसे सटीक समाधान त्रिभाषा फ़ार्मूला है। जब यह बना था तो इसमें सभी राज्यों की सहमति थी एवं संसद के दोनों सदनों द्वारा सर्व सम्मति से इसे पारित किया गया था। आज इसका विरोध जायज़ नहीं लगता। यह विरोध कुछ नेता केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिए कर रहे हैं। विश्व के जिस देश ने विकास किया अपनी भाषा में किया, पिछड़ेपन का कारण विदेशी भाषा रही है। यदि अभी भी मोदी की बहुमत वाली सरकार भाषा के मसले पर नेहरु की तरह ढुलमुल रहेगी तो दोनो में क्या अंतर रहेगा?
- प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय
अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय

सरकार कई बार हिंदीतर क्षेत्रों को नाराज़ नहीं करना चाहती है, क्योंकि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और  यहाँ वोटबैंक की राजनीति है। त्रिभाषा सूत्र सबसे उपयुक्त समाधान है-इसमें अंग्रेज़ी, क्षेत्रीय भाषाएँ और हिंदी सभी सुरक्षित हैं। हम शुरू से अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का समर्थन करते हैं, हमारा अंग्रेज़ी से भी विरोध नहीं है, लेकिन हिंदी की क़ीमत पर अंग्रेज़ी का विकास हो, यह ठीक नहीं है।
- प्रो. पूरनचंद टंडन
प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय

निष्कर्ष
कुल मिलाकर बात यही निकलती है कि दक्षिण की हिंदी विरोधी राजनीति को रोकने के लिए केंद्र को दृढ़ता एवं हिंदीभाषी लोगों को दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति रुचि दिखानी होगी। अभी विरोधों के कारण जिस तरह से केंद्र ने शिक्षा नीति के प्रस्ताव में संशोधन कर दिया, यह रुख सही नहीं है। इससे समस्या खत्म नहीं होगी। केंद्र को दृढ़तापूर्वक दक्षिण खासकर तमिलनाडू में हिंदी को स्थापित करने के लिए बिना किसी प्रकार के दबाव में आए कदम उठाने चाहिए। दक्षिण भारतीय लोगों को एकबार यह समझ में आ गया कि हिंदी से उनकी मातृभाषा को कोई खतरा नहीं है, तो वे इसे स्वीकारने में कभी पीछे नहीं हटेंगे। मगर उन्हें ये तबतक समझ नहीं आएगा जबतक हिंदी वहाँ पहुंचेंगी नहीं। एकबार तमिलनाडू में हिंदी का पढ़ना-लिखना शुरू हो गया तो फिर कोई राजनीतिक दल या नेता हिंदी विरोध को हवा नहीं दे पाएंगे।