रविवार, 26 अप्रैल 2020

पुस्तक समीक्षा : मानवीय जीवटता की महागाथा [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

पुस्तक – मग्नमाटी (उपन्यास)
रचनाकार – प्रतिभा राय
प्रकाशक – राजपाल एंड सन्ज
मूल्य – 625 रुपये
वरिष्ठ लेखिका प्रतिभा राय का उपन्यास मग्नमाटी मूलतः ओड़िया में है, लेकिन इसका हिंदी रूपांतर इसी साल राजपाल प्रकाशन से आया है। यह उपन्यास 1999 में आए ओडिशा के चक्रवाती तूफ़ान पर आधारित है। बेशक तूफ़ान उपन्यास की कथा का केंद्र है, लेकिन कहानी में उसका प्रवेश लगभग आधा हिस्सा बीतने के बाद होता है। उससे पूर्व बड़े विस्तार से तटवर्ती इलाकों में रहने वाले ओडिया समाज की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थतियों सहित उनके समाज में उपस्थित संघर्षों व विसंगतियों का वर्णन करते हुए एक ऐसी भावभूमि रचने का प्रयास किया गया है, जिसके प्रभावस्वरूप तूफ़ान एक आकस्मिक प्राकृतिक आपदा भर नहीं रह जाता बल्कि ‘प्रलय’ और ‘कल्कि’ जैसे विशेषणों से युक्त होकर मानव द्वारा विविध क्षेत्रों में सृष्टि की अवमानना के प्रति सृष्टिकर्ता के संचित क्रोध के प्रकटीकरण का रूप ले लेता है। उपन्यास का यही वो बिंदु है, जो उसके कथ्य को तूफ़ान केन्द्रित होने के बावजूद उससे कहीं अधिक व्यापक बना देता है।  
विषयवस्तु की व्यापकता के बावजूद लेखिका उपन्यास में कही गयी ज्यादातर बातों और विवरणों को कथानक में पिरोकर विविध चरित्रों और प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत करने काफी हद तक सफल रही हैं। केवट उग्रसेन बेहरा द्वारा स्वयं को कैवर्त राजा कालू भूयाँ का वंशज माने जाने का प्रसंग रचते हुए बड़े सुंदर और रोचक ढंग से ओड़िया केवट समाज की उत्पत्ति के ऐतिहासिक पक्ष को सामने लाया गया है। इसी प्रकार कुंडल पंडा के चरित्र के माध्यम से ओडिया समाज में व्याप्त जाति-पांति, छुआछूत और अंधविश्वासों को उजागर हुआ है, तो नरकू राउतराय जैसे पात्र वहां की भ्रष्ट और अवसरवादी राजनीति की कथा कह जाते हैं, तो वहीं कुम्पनी साईं और टहली महांती नैतिक मूल्यों के पतन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन खल-चरित्रों के बीच गांधी दास, उद्धव मंगवाल, वीर विक्रम, गोलमस्ता मियां, मंत्री मल्लिक जैसे चरित्र भी हैं, जो सभी छल-छद्म और भेदभाव से मुक्त देश की माटी और संस्कृति के प्रति उत्कट अनुराग रखते हैं। वीर विक्रम के बहाने कथा का सूत्र पहले सरहद तक पहुँचता है, जहां कारगिल का युद्ध छिड़ा हुआ है, तो वहीं जब तूफ़ान में गाँव-घर सबकुछ नष्ट हो जाता है, तो यही वीर विक्रम सरहद की लड़ाई से निवृत्त हो अपनी माटी के पुनर्निर्माण की लड़ाई में जुट जाता है। 

स्त्री पात्रों में गिरिमा का चरित्र सर्वाधिक आकर्षित करता है, जिसकी चेतना उसके समाज की लड़कियों के मुकाबले न केवल अधिक परिपक्व और प्रगतिशील है, बल्कि विद्रोहिणी भी है। शिक्षा को केवल एक औपचारिकता मानने वाले समाज से होते हुए भी वो शिक्षा के महत्व को समझती और इसपर बल देती है। इन सब चरित्रों से जुड़ी छोटी-छोटी उपकथाएँ रचकर लेखिका ने उपन्यास के व्यापक कथ्य-क्षेत्र के अलग-अलग पक्षों को बड़ी कुशलता से रोचक रूप देते हुए उभारा और आगे बढ़ाया है। तूफ़ान के शब्द-चित्र उकेरने में भी लेखिका पूरी तरह से कामयाब रही हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सब दृश्य एकदम जीवंत रूप से आँखों के आगे चल रहे हैं। 
बेशक उपन्यास में अच्छे-बुरे दोनों तरह के चरित्र हैं, लेकिन कहानी में तूफ़ान के प्रवेश के साथ ये सब भेदभाव मिट जाते हैं। तब पाठक के मन में हर पात्र के प्रति केवल सहानुभूति ही रह जाती है, और यहीं बहुत-से पात्र संकीर्णता से श्रेष्ठता की ओर भी उन्मुख होते हैं। जाति-पांति का भेदभाव और धार्मिक कर्मकांडों को मानते हुए जीने वाले कुंडल पंडा अपने प्राणों का मोह छोड़ अपनी धार्मिक आस्था में बंधे सबकी रक्षा के लिए सागर को बाँधने निकल पड़ते हैं, नर्कू राउतराय का बलात्कारी  लड़का अर्जुन राउतराय तूफ़ान में स्त्री के ही प्राण बचाते हुए जीवन गंवा देता है, बांग्लादेशी घुसपैठिया होने की लानत झेलते हुए जीवन गुजारने वाले भारत मंडल का बेटा उत्कलमणि मंडल अपने बच्चों की चिंता छोड़ अन्यों के प्राण बचाने में जुट जाता है, गोलमस्ता मियाँ इतने हिन्दुओं को मस्जिद में जगह दे देता है कि उसके अपने परिवार के लिए जगह नहीं रह जाती – तूफ़ान में घटित ऐसी तमाम घटनाएं एक ही संदेश देती हैं कि ‘धनी, दरिद्र, जाति-धर्म, जमींदार, प्रजा, नेता, वोटर, महाजन, दाता, ग्रहीता, भाषा और भौगोलिकता में भेद किए बिना मनुष्य में जितने भेद थे, जितनी विषमताएं थीं, प्रलय ने एक बिंदु पर सबको समान कर दिया था’। इस आपदा को लेकर तत्कालीन सरकारों की अकर्मण्यता और व्यवस्था की लूट-खसोट की तो उपन्यास में खबर ली ही गयी है, लेकिन साथ ही तूफ़ान गुजरने के पश्चात् उत्साहशून्य हो सरकारी ‘रिलीफ’ के भरोसे पड़े रहने की बजाय समाज को अपनी भूमि के स्व-निर्माण के लिए उद्यम करने का संदेश भी दिया गया है।       
ऐसे यथार्थपरक और क्षेत्र-विशेष पर केन्द्रित उपन्यासों में परिवेश बहुत महत्वपूर्ण होता है। परिवेश का जितना सटीक चित्रण होता है, उतना ही अधिक कथानक यथार्थ के करीब पहुँचने में सफल रहता है। इस उपन्यास का परिवेश-चित्रण उत्कृष्ट है। शुरू से अंत तक पात्रों की रहन-सहन, खान-पान, बोली-विचार, पोथी-पुराण सहित उनके आसपास के वातावरण तक के माध्यम से लेखिका ने ओडिया समाज का एक ऐसा जीवंत परिवेश खड़ा किया है, जो पाठक को उस दौर और दुनिया से जोड़ने में कामयाब रहता है।
हालांकि उपन्यास की एक बात जो खटकती है, वो है सांप्रदायिक समरसता के प्रति लेखिका के आग्रह का कहीं-कहीं अतिवादी हो जाना। द्रोण मास्टर द्वारा मस्जिद में भागवत बांचे जाने की बात कही जाने पर वीर विक्रम द्वारा साथ में कुरान पढ़ी जाने की बात कहना खटकता है। एक मुस्लिम उपासना स्थल पर हिन्दू ग्रन्थ का पाठ सांप्रदायिक समरसता का संदेश देने के लिए पर्याप्त है, यहाँ भागवत के साथ कुरआन को रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी। सब धर्मग्रंथों में समानता की बात कहने-सुनने में जितनी ठीक लगती है, यथार्थ में वैसी नहीं है। अतः एक यथार्थवादी उपन्यास में ऐसे सरलीकरण से बचा जाना चाहिए। 

बहरहाल, यह कह सकते हैं कि ये उपन्यास ओडिया समाज-संस्कृति तथा मानवीय जीवटता की एक महागाथा है, साथ ही यह हमें उपन्यास विधा की सामर्थ्य से भी परिचित करवाता है। 

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

संकटकाल में कुशल नेतृत्व की पहचान [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

कहा जाता है कि किसी भी राष्ट्र के चरित्र और उसके नेतृत्व की वास्तविक पहचान संकटकाल में ही होती है। देखा जाए तो वर्तमान में किसी एक राष्ट्र के लिए नहीं अपितु समूचे विश्व के समक्ष ऐसा ही एक संकटकाल उपस्थित है। कोरोना वायरस जनित वैश्विक महामारी ने विश्व के छोटे-बड़े सभी राष्ट्रों के समक्ष कठिन परीक्षा का एक ऐसा अवसर उपस्थित कर दिया है, जिसमें विश्व के लगभग सभी नागरिकों सहित उनके नेतृत्वकर्ताओं के भी धैर्य, संयम, समझदारी और दूरदर्शिता की कठिन परीक्षा हो रही है। यह कहना अनुचित नहीं लगता कि इस कठिन काल के बीतने के पश्चात् वैश्विक राजनीति के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आने की संभावना है तथा इस संघर्ष में राष्ट्रों का प्रदर्शन ही आगामी विश्व की राजनीतिक स्थिति का निर्धारण करेगा।
अमेरिका जो विश्व का स्वघोषित दारोगा बना हुआ था, उसकी स्थिति इस महामारी में सबसे अधिक दयनीय और चिंताजनक बनी हुई है। विश्व के कुल कोरोना संक्रमितों में एक तिहाई संक्रमित अकेले अमेरिका के हैं और इस संक्रमण से हुई मौतों में भी एक चौथाई से अधिक मौतें अमेरिका में हुई हैं। ये आंकड़ा प्रतिदिन तेजी से बढ़ भी रहा है और विश्व का ये महाशक्ति राष्ट्र अपने लोगों को मरते देखने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पा रहा।

ये स्थिति केवल अमेरिका की ही नहीं है, अपितु कभी विश्व को अपने शासन में रखने वाला ब्रिटेन आज अपने प्रधानमंत्री को तक इस महामारी के संक्रमण से नहीं बचा पाया। यह संतोषजनक है कि बोरिस जॉनसन स्वस्थ हो गए हैं, परन्तु मात्र छः करोड़ के लगभग आबादी वाले ब्रिटेन में कोरोना संक्रमितों की संख्या का लाखों में पहुँच जाना भयभीत करने के साथ-साथ चकित भी करता है। स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले विश्व में शीर्ष पर रहने वाले स्पेन और इटली की स्थिति भी हमारे सामने है। रूस और फ़्रांस जैसी महाशक्तियां भी इस महामारी के समक्ष बेबस नजर आ रहीं, तो वहीं चीन विश्व को इस संकट में डालकर अब इसका व्यापारिक लाभ लेने में जुटा हुआ है।
समग्रतः इस पूरे परिदृश्य में हम विश्व के इन कथित महाशक्ति राष्ट्रों के सामर्थ्य और चरित्र दोनों को देख सकते हैं। इस कठिन काल में भी कोई अपना व्यापार बढ़ाने में जुटा है, तो कोई दूसरे पर आरोप लगाने में मशगूल है। वस्तुतः इनमें कोई एक ऐसा राष्ट्र नहीं दिखता जिसका महाशक्तित्व विश्व को वह मार्ग सुझा सके जिसके द्वारा कोरोना के संकट से निपटा जा सकता है। परन्तु, इन सबके बीच यह कार्य भारत ने किया है। भारतीय नेतृत्व से लेकर नागरिकों तक ने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद जिस सूझबूझ, समझदारी और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए इस महामारी को अपने यहाँ भयानक रूप में पाँव पसारने से रोका है, वो कहीं न कहीं आज पूरे विश्व के लिए मार्गदर्शक बन चुका है।
गौर करें तो जब विश्व के उक्त महाशक्ति देश कोरोना को हल्के में ले रहे थे तथा नागरिकों के जीवन से अधिक अर्थव्यवस्था की चिंता में थे, भारत ने तभी से देश में इसकी आहट को भांपते हुए आवश्यक कदम उठाने शुरू कर दिए। 22 मार्च को हुआ जनता कर्फ्यू हो या 24 मार्च को पहले इक्कीस दिन और फिर उसके पश्चात् 14 अप्रैल को 3 मई तक के लिए घोषित लॉकडाउन, इन निर्णयों ने स्पष्ट किया कि भारत की सरकार के लिए अपने नागरिकों का जीवन सर्वप्रथम है। लॉकडाउन का निर्णय उचित था, परन्तु इतने विशाल और सघन जनसंख्या वाले देश में इसे लागू करने की अनेक चुनौतियाँ थीं और वो सामने आईं भी। दैनिक आय पर निर्भर मजदूर वर्ग के समक्ष भुखमरी का संकट उपस्थित न हो इसके लिए सरकार ने वित्तीय घोषणाएं की तथा अपनी जान जोखिम में डालकर कोरोना से लड़ रहे स्वास्थ्यकर्मियों के लिए भी बीमा का ऐलान किया। ऐसे और भी कई निर्णय लिए गए। साथ ही, लम्बे लॉकडाउन से देशवासियों के मन में भय, हताशा और अवसाद न उत्पन्न हो, इसके लिए स्वयं प्रधानमंत्री ने बीच-बीच में उनसे संवाद करने तथा तरह-तरह से उनमें उत्साह व सकारात्मकता बनाए रखने का प्रयत्न किया है। इन प्रयत्नों का ही परिणाम है कि आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला यह देश कोरोना संक्रमितों के मामले में शीर्ष के दस देशों से बाहर है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत के अभी इस महामारी के खतरनाक प्रभाव से बचे होने में नागरिकों के सहयोग के साथ-साथ हमारे नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति, सूझबूझ और दूरदर्शितापूर्ण कार्यशैली ही कारण है।
भारतीय नेतृत्व की सफलता का प्रमाण हाल ही में सामने आए एक वैश्विक सर्वेक्षण से भी मिल जाता है। अमेरिका की एक डाटा इंटेलिजेंस कंपनी ‘मॉर्निंग कंसल्ट पॉलिटिकल इंटेलिजेंस’ ने हाल ही में कोरोना वायरस की लड़ाई से संबंधित दुनिया भर के आंकड़े जारी किए। इन आंकड़ों में दुनिया के सभी बड़े नेताओं की रेटिंग भी जारी की गई है, जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोरोना से लड़ाई में विश्व के सभी बड़े नेताओं के बीच सबसे ऊपर स्थान दिया गया है। इस रेटिंग को सरकार द्वारा इस कठिन समय में लिए गए फैसलों और काम करने तरीकों तथा लोगों के अपने नेतृत्व पर विश्वास जैसी बातों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। इन सब कसौटियों पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अव्वल साबित हुए हैं और 68 अंकों के साथ सूची में शीर्ष पर उपस्थित हैं। स्पष्ट है कि इस संकटकाल में भारतीय नेतृत्व विश्व का ध्यान खींच रहा है और विश्व भारतीय नेतृत्व की निर्णय क्षमता और प्रबंधन कुशलता को एक उदाहरण की तरह ले रहा है।
इतना ही नहीं, विशेष यह भी है कि एक तरफ जहां पड़ोसी चीन इस आपदाकाल का व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अनुचित इस्तेमाल करने से नहीं चूक रहा, तब भारत ने कोरोना से लड़ाई में केवल अपनी रक्षा ही नहीं की है, अपितु विश्व के अन्य देशों को भी सहयोग दिया है। अमेरिका सहित विश्व के अनेक देशों को भारत ने कोरोना के विरुद्ध प्रयोग हो रही मलेरिया की दवा हाईड्राक्सीक्लोरोक्विन देकर उनका सहयोग किया है। ये सब बातें स्पष्ट करती हैं कि इस संकटकाल में न केवल भारत ने अपने संकटकालीन उत्तम प्रबंधन व नीति नियोजन का परिचय दिया है, वरन उसने विश्व को कुटुंब समझने वाले सनातन दर्शन को भी चरितार्थ करके दिखाया है। आज ये जो कुछ घट रहा है, आने वाले कल की इबारत इसीपर लिखी जाएगी।

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

नयी चुनौतियों से निपटने के लिए नयी रणनीति की जरूरत [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

कोरोना वायरस के रूप में आज विश्व एक ऐसी चुनौती से दो-चार हो रहा है, जिसका उसे अभी पूरी तरह से अंदाजा नहीं है। चीन से उपजी इस महामारी के मरीजों की संख्या के मामले में पहले स्थान पर पहुँच चुके महाशक्ति अमेरिका द्वारा इस स्थिति को अदृश्य शत्रु के खिलाफ लड़ाई बताया जा रहा है। स्वास्थ्य व्यवस्था के मामले में अग्रणी फ़्रांस, इटली और स्पेन जैसे देश भी इस आपदा के आगे घुटने टेक चुके हैं। कुल मिलाकर अब दुनिया की निगाहें भारत पर टिकी हैं, जो अबतक खुद को कोरोना के तीसरे और बेहद खतरनाक चरण में जाने से बचाए हुए है, लेकिन चीन को छोड़ अन्य सभी देशों के मुकाबले अपनी विशाल जनसंख्या के कारण स्थिति बिगड़ने पर होने वाले भारी नुकसान से आशंकित भी है।

देश में गत 25 मार्च से आगामी 14 अप्रैल तक के लिए लॉकडाउन किया जा चुका है और इसे सफल बनाने के लिए सभी स्तरों पर प्रयास किए जा रहे हैं। देश की अधिकांश आबादी अपने घरों में बैठी हुई है और खुद को तथा देश को इस तीव्र संक्रमण वाली महामारी से बचाने में लगी है। लेकिन इस लॉकडाउन में भी देश के चिकित्सक, पुलिस बल और पत्रकार जिस प्रकार से अपनी जान हथेली पर लेकर लोगों के लिए कार्य कर रहे हैं, उस योगदान के लिए कोई भी शब्द कम है, लेकिन इसके साथ ही यह स्थिति भविष्य के लिए हमारे समक्ष कुछ प्रश्न भी छोड़े जा रही है।
अबतक हम यही मानते आए हैं कि देश की सरहद पर खड़े सेना के जवानों को ही हर हाल में अपनी ड्यूटी निभानी पड़ती है। इस बात का ध्यान सैन्य बलों के प्रशिक्षण में भी रखा जाता है और उन्हें इस बात के लिए शरीर और मन से तैयार किया जाता है कि कैसी भी स्थिति में वो अपने दायित्व का निर्वाह कर सकें। लेकिन मौजूदा स्थिति ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि सेना के साथ-साथ कुछ अन्य क्षेत्र भी हैं, जिनको आपात स्थिति की सेवाओं के लिए तैयार करने पर काम किया जाना चाहिए।
आज जो हालात हैं, वो किसी सैन्य युद्ध से कम नहीं हैं बल्कि इस मायने में उससे बढ़कर ही है कि इसमें एक अदृश्य शत्रु जिसको खत्म करने का उपाय भी हमारे पास नहीं है, से निपटना है। इस युद्ध में कोई सेना नहीं लड़ रही बल्कि यहाँ लड़ाई हमारे स्वास्थ्यकर्मी, पुलिसकर्मी और पत्रकार लड़ रहे हैं। आज ये लोग जिस स्तर पर और जिस जोखिम के साथ अपने कर्तव्य के निर्वाह में में जुटे हैं, वो सेना के जवानों से बिलकुल भी कम नहीं है। लेकिन क्या ऐसी चुनौती के लिए इनको प्रशिक्षित किया गया है? क्या ये शारीरिक-मानसिक रूप से इस तरह की आपदा में काम करने के लिए तैयार हैं? जैसे सेना के पास युद्ध की स्थिति के लिए सदैव गोला-बारूद और जरूरी उपकरण अतिरिक्त रूप से तैयार होते हैं, क्या स्वास्थ्य-पुलिस जैसे क्षेत्रों में ऐसी आपात स्थिति में काम करने के लिए जरूरी संसाधन हैं? दुर्भाग्यवश इन प्रश्नों के उत्तर काफी हद तक नकारात्मक ही हैं।
भारत में चिकित्सकों की कमी की बात किसी से छिपी नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति एक हजार व्यक्तियों पर एक चिकित्सक का होना अच्छी स्थिति होती है। लेकिन फिलहाल भारत इस अनुपात से दूर है। कारण आबादी की विशालता और उसके मुकाबले कम चिकित्सक होना ही है। इसके अलावा जब यह आपदा आई तो स्वास्थ्य से जुड़ी अन्य चीजों यथा मास्क, चिकत्सकीय गाउन, अस्पतालों में बिस्तर आदि की कमी भी समस्या के रूप में सामने आए। कोरोना की ‘टेस्टिंग किट’ तैयार करने में हमें वक़्त लगा जिस कारण इसकी जांच तेजी से नहीं हो पाई। हालांकि अब इसमें गति आई है।  
पुलिसकर्मियों की बात करें तो वे सड़क पर लॉक डाउन को सफल बनाने और अव्यवस्था न होने देने के लिए खड़े हैं, लेकिन इस स्थिति से निपटते हुए उनकी जान को जो जोखिम है, उसे कम करने के लिए क्या हमारे पास कोई योजना है? इसी प्रकार पत्रकारों को भी अपना काम करना ही है, क्योंकि इस स्थिति में लोगों तक सही सूचनाएं पहुंचाने और उन्हें जागरूक रखने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या उनकी सुरक्षा और हितों को लेकर कोई ठोस आश्वासन है?
कहने की आवश्यकता नहीं कि फिलहाल इन सब सवालों के स्पष्ट और संतुष्टिदायक उत्तर किसी के पास नहीं हैं। उक्त चुनौतियों के लिए सरकार पर दोषारोपण कर देना एक बहुत आसान रास्ता हो सकता है, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि यह समस्या इतनी आकस्मिक और विकट है कि बड़े-बड़े समर्थ देश खुद को नहीं संभाल पा रहे, फिर भारत जैसे विशाल आबादी वाले एक विकासशील देश के लिए चीजें आसान रहने की अपेक्षा करना बेमानी होगी। निश्चित ही फिलहाल हमारा पूरा ध्यान सभी संभव विकल्पों को आजमाते हुए और जितना हो सके अपने स्वास्थ्यकर्मियों-पुलिसकर्मियों को सुरक्षित रखते हुए इस आपदा से निपटने पर होना चाहिए। लेकिन इस आपदा से निपटने के बाद हमें अपनी तैयारियों को ऐसी नयी चुनौतियों जो भविष्य में और भी आ सकती है, के अनुरूप पुख्ता करने की दिशा में काम करना होगा।
इस आपदा ने हमें इस सत्य से अवगत करा दिया है कि आज केवल सेना को सुसज्जित व मजबूत रखके कोई देश अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं रह सकता, क्योंकि इस नए समय में लड़ाई के और मोर्चे भी खुल गए हैं, जहां जीत हासिल करने के लिए नयी रणनीति और तैयारी की जरूरत है। आगे दुनिया को मिलकर इन तैयारियों पर काम करना होगा।