रविवार, 29 अप्रैल 2018

नयी नज़र से पुरानी कहानियाँ [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दिव्या विजय के कहानी संग्रह ‘अलगोज़े की धुन पर’ को पढ़ते हुए अमीर ‘मीनाई’ का ये मशहूर शेर याद आता है, ‘कौन-सी जा है जहाँ जलवा-ए-माशूक नहीं/ शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर’। ये शेर इस संग्रह की कहानियों पर इसलिए सटीक बैठता है, क्योंकि इसकी ज्यादातर कहानियों में विषय और बुनावट के स्तर पर कोई विशेष नयापन नहीं है। मूलतः कहानियों के विषय पुराने ही हैं, मगर अपने अभिव्यंजना पक्ष की ताजगी के कारण ये कहानियाँ ध्यान खींचती हैं। लेखिका ने पुराने विषयों को नयी नज़र से अभिव्यंजित करने का प्रयास किया है, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रही हैं।

पुस्तक में कुल दस कहानियाँ हैं, जिनमें से किसीमें प्रत्यक्षतः तो किसीमे प्रकारांतर से प्रेम का विषय ही कथा के केंद्र में है। हालांकि हर कहानी में प्रेम का स्वरूप अलग है। कहीं ये प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम है, तो कहीं पति-पत्नी का, तो कहीं पात्रों के बीच संबंधों के धरातल पर अपरिभाषित रूप में ही प्रेम की उपस्थिति है।
दैनिक जागरण 

संग्रह की पहली और शीर्षक कहानी ‘अलगोज़े की धुन पर’ एक व्यक्ति की पूर्व और वर्तमान प्रेमिकाओं के बीच आचार-विचार पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक द्वंद्व की कथा है। एक प्रेमी और दो प्रेमिकाएँ, ये विषय कोई नया नहीं है। इसपर साहित्य से सिनेमा तक खूब काम हुआ है। लेकिन, यहाँ दोनों प्रेमिकाओं के बीच जो मनोवैज्ञानिक द्वंद्व चलता है और जिस प्रकार उसका अंत होता है, वो इसे बहुत प्रभावी भले न बना पाया हो, मगर, कहानी को नयापन अवश्य प्रदान करता है।

इसी प्रकार एक स्त्री के दो प्रेमी होने की कहानियाँ पुरानी बात हैं, मगर, इस संग्रह की कहानी ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ की नायिका के चार प्रेमी हैं। ऐसा नहीं कि केवल ये चारों ही नायिका से प्रेम करते हैं, बल्कि इन चारों से नायिका भी प्रेम करती है। इस बात को लेकर उसके मन में भय है, मगर, कोई स्थायी अपराधबोध नहीं है। अलग-अलग स्थितियों में चार पुरुषों का संसर्ग उसे प्राप्त होता है और चारों उसे अलग-अलग प्रकार से अपने लिए जरूरी महसूस होने लगते हैं। उसे लगता है कि प्रेम की कोई सीमा नहीं है, वो एक साथ कितने भी लोगों से हो सकता है। वो सोचती है कि चारों प्रेमी उसे खूब प्रेम करते हैं, तो उसकी समस्या समझ लेंगे, इस उम्मीद में वो उन्हें वास्तविकता बताने के लिए एक साथ बुलाती है। यहाँ इस कहानी का प्रत्याशित अंत होता है, जो अपने आप में बेहद गहरे अर्थों को समेटे हुए है। सत्य से परिचित होने के बाद नायिका को बेहद प्रेम करने वाले उन चारों प्रेमियों की जो प्रतिक्रिया होती है, वो हमारे समक्ष मानवीय प्रेम की सीमा का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत कर देती है। लेखिका की सफलता यह रही है कि उन्होंने कहानी ऐसे बुनी है कि चारों पुरुषों से नायिका का प्रेम में पड़ना, स्वाभाविक लगता है। अगर लेखिका यहाँ चूक जातीं, तो संभव था कि नायिका का यह ‘बहुपुरुष प्रेम’, व्यभिचार या उच्छृंखलता का सन्देश संप्रेषित करने लगता। यहाँ इसी पुस्तक की एक और कहानी ‘परवर्ट’ उल्लेखनीय होगी, जिसमें प्रेम में असफल एक पुरुष द्वारा रोज नयी महिलाओं की अपनी लत को भावनात्मक दलीलों से सही साबित करने की कोशिश करते दिखाया गया है। इस कहानी का नायक मन ही मन अपनी बुरी लत को प्रेम के खाँचे में फिट बैठाने और खुद को कोई महान प्रेमी साबित करने की कोशिश करता है, लेकिन, अंत में पाठक को यह तय करने में अधिक मुश्किल नहीं होती कि कहानी का नायक प्रेमी नहीं, ‘परवर्ट’ ही है।

हालांकि कई कहानियों में कथानक पर लेखिका का पूर्वाग्रह हावी रहा है। इस संदर्भ में ‘नजराना-ए-शिकस्त’ कहानी उल्लेखनीय होगी, जिसमें पति वर्ग को तानाशाह के रूप में लेखिका ने ‘जनरलाइज’ कर दिया है। निश्चित रूप से तानाशाही प्रवृत्ति वाले पतियों के उदाहरण मिलते हैं, मगर, इसके आधार पर पतियों की बिरादरी को तानाशाह के रूप में ‘जनरलाइज’ कर देना लेखिका की पूर्वाग्रह से प्रेरित अभिव्यक्ति ही है। ऐसे ही, इस संग्रह की कहानियों में कोई नकारात्मक चरित्र जहाँ भी आया है, वो प्रायः पुरुष का ही रहा है। मोटे तौर पर कहें, तो लेखिका अपनी कहानियों में स्त्रियों के प्रति जहाँ अत्यंत उदार रही हैं, वहीं पुरुषों के प्रति उनका दृष्टि-बोध संकीर्ण रहा है। संग्रह की अन्य कहानियों में बिट्टो, प्यार का कीमिया, एक जादूगर का पतन आदि उल्लेखनीय हैं।

भाषा की बात करें तो वो अत्यंत सधी हुई और प्रभावी है। ये सहजता की नहीं, श्रम की भाषा है। ऐसा लगता है जैसे एक-एक शब्द का प्रयोग बेहद सावधानी और सजगता से किया गया है। कहानियों की जरूरत के हिसाब से भाषा के स्वरूप में परिवर्तन तो होता है, मगर, उसकी सुन्दरता का तनिक भी ह्रास नहीं होता। हिंदी और उर्दू के शब्दों के बीच अंग्रेजी के शब्द भी कहीं-कहीं आए हैं। लेकिन, विशेष बात यह है कि अंग्रेजी के शब्दों का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वो एकदम सोचा-समझा हुआ और प्रभावी है। ये कुछ उद्धरण देखिये, ‘उनका स्पर्श इंटेंस होता है’, ‘मैं अपनी पैटर्न्ड ज़िन्दगी से बाहर निकलना चाहती थी’ आदि। इन अंशों में प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्द अपने स्थानों पर जितना प्रभावी हैं, उतना प्रभाव उनके हिंदी या कोई और रूप शायद नहीं छोड़ पाते। आमतौर पर अगर कहीं तत्सम हिंदी के बीच में अंग्रेजी का कोई शब्द आ जाए तो ये बड़ा अटपटा लगता है, लेकिन इन कहानियों में अंग्रेजी शब्द जहाँ भी और जैसे भी शब्दों के बीच आएं हैं, ज्यादातर वे उस स्थान के लिए जरूरी ही लगते हैं। हालांकि ऐसी भाषा का नकारात्मक पक्ष यह होता है कि ये एक सीमित पाठक वर्ग के लिए ही सहज रूप से ग्रहणीय होती है।

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

महाभारतयुगीन विज्ञान, कम्यूटर-इन्टरनेट जैसी मामूली चीजों से कहीं आगे की 'चीज' था !


  • पीयूष द्विवेदी भारत 

त्रिपुरा के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री विप्लब देब ने महाभारत युग में कंप्यूटर-इन्टरनेट होने की बात क्या कही, विपक्षियों से लेकर सोशल मीडिया के धुरंधर उन पर पिल पड़े हैं। सोशल मीडिया पर तरह-तरह के चुटकुले चलाए जाने लगे हैं। एकसुर में राय यह है कि महाभारत युग में इन्टरनेट की बात करना, वर्तमान विज्ञान का अपमान है। मेरा मानना है कि विप्लब देब का बयान गलत है, लेकिन इसलिए नहीं कि उन्होंने बिना किसी प्रमाण के महाभारत युग में कंप्यूटर-इन्टरनेट होने का दावा कर दिया, बल्कि इसलिए कि वे महाभारत जैसे महान युग में कंप्यूटर-इन्टरनेट जैसी मामूली चीजों की बात कर रहे हैं। हालांकि महाभारत का युग त्रेता-सतयुग के विज्ञान की अपेक्षा पिछड़ चुका था, परन्तु तब भी आज के इस कथित महान आधुनिक और वैज्ञानिक युग से कहीं अधिक आधुनिक और वैज्ञानिक था। महाभारतकालीन आविष्कारों और क्षमताओं के संभव होने के विषय में आज का विज्ञान सोच भी नहीं सकता, इसलिए जब-तब उसे काल्पनिक कहकर अपना मन बहलाता रहता है। महाभारतयुगीन विज्ञान कैसा था, आइये उसे कुछ उदाहरणों से समझते हैं।

संचार
महाभारत के युग में संचार की तकनीक आज से कहीं आगे थी। उस दौर में दूरदराज के लोगों से संपर्क के लिए किसी उपग्रह या उपकरण की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि तब मानसिक तरंगों से संपर्क की क्षमता विकसित कर ली गयी थी। चीरहरण के समय असहाय द्रोपदी ने किसी फोन या ईमेल से नहीं, ध्यानस्थ अवस्था में मानसिक तरंगों से कृष्ण को पुकारा और वे तत्काल आकर उसकी रक्षा किए। किसी सूचना को बहुतायत लोगों में प्रसारित करने के लिए तब सोशल मीडिया की आवश्यकता इसलिए भी नहीं थी कि बहुधा तब के लोगों ने मन की गति अर्जित कर ली थी। लोग हवाई मार्ग से भी बिना किसी वाहन के आने-जाने में सक्षम थे। नारद, परशुराम, हनुमान जैसे इसके अनेक उदाहरण हैं। इसके अलावा विमान भी तब अत्यंत तीव्रगामी थे, सो सूचनाओं का आदान-प्रदान कोई बड़ी कठिनाई की बात नहीं थी।

पंचतत्वों पर विजय
आज का विज्ञान अभी प्रकृति के तत्वों को समझने में लगा है, उस दौर में लोगों ने इन तत्वों पर विजय प्राप्त कर इन्हें नियंत्रित कर लिया था। उदाहरण के लिए तब प्रकाश पर विजय प्राप्त कर बहुत से लोगों ने गायब होने की क्षमता विकसित कर ली थी। वे प्रकाश की किरणों को मनचाहे ढंग से नियंत्रित कर सकते थे हवा पर विजय प्राप्त कर लोग उड़ सकते थे। जल की धार को स्तंभित कर सकते थे। कहने का अर्थ है कि उस दौर में लोग प्रकृति पर विजय पाने में सक्षम थे, मगर इस शक्ति में उन्मत्त उसका ध्वंस नहीं करते थे।

वास्तुकला
उस दौर का वास्तु विज्ञान ऐसा था कि खंडहर खांडवप्रस्थ को शिल्पी मयदानव कुछ ही समय में अद्भुत और अकल्पनीय इन्द्रप्रस्थ बना देता था। समुद्र में विश्वकर्मा द्वारिका खड़ी कर देते थे। लाख के महल से पांडवों के भागने के लिए लम्बी-सी सुरंग मात्र कुछ कारीगर चंद दिनों में बना डालते थे।

अस्त्र विज्ञान
अस्त्र विज्ञान के मामले में तो उस दौर के समक्ष आज का विज्ञान दूर-दूर तक खड़ा नजर नहीं आता। पहली चीज कि उस दौर के प्रक्षेपास्त्रों के निर्माण में आज की तरह कोई भारी धनराशि नहीं व्यय होती थी। उन्हें मानसिक साधना और ऊर्जा से तैयार किया जाता था। वे मन और मंत्रशक्ति द्वारा  संचालित होते थे। मारकता आज के अस्त्रों की अपेक्षा कहीं अधिक थी लेकिन, उनकी सबसे विशेष बात अचूक लक्ष्यभेद की उनकी क्षमता थी। जिस लक्ष्य को निश्चित करके उनका प्रयोग किया जाता वे उसीपर पड़ते थे, बीच में किसीको क्षति नहीं पहुँचाते। उदाहरण देखिये कि जब अश्वत्थामा ने पांडव-कुल विनाश के लिए उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को लक्ष्य कर ब्रह्मास्त्र चलाया तो वो उस गर्भस्थ शिशु को ही जाकर लगा, उससे उत्तरा को कोई क्षति नहीं हुई। इसी तरह जयद्रथ वध के समय अर्जुन का अस्त्र ऐसे संचालित था कि जयद्रथ का मस्तक काटकर कहीं इधर-उधर नहीं गिरा दिया, बल्कि नपे-तुले ढंग से ले जाकर कोसो दूर वन में तप कर रहे उसके पिता की गोद में गिराया। कृष्ण का सुदर्शन चक्र तो ऐसे कौशलों के लिए विख्यात ही है।

ऐसे और भी बहुत से उदाहरण हैं, जो साबित करते हैं कि महाभारतयुगीन विज्ञान और तकनीक आज से कहीं अधिक विकसित और आधुनिक थी। उस दौर में कम्प्यूटर-इन्टरनेट जैसी चीजें अगर नहीं थीं, तो इसलिए नहीं कि उनका निर्माण संभव नहीं रहा होगा, बल्कि इसलिए कि तब इन साधारण चीजों की आवश्यकता ही नहीं थी।

गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

लाल आतंक का सिकुड़ता दायरा [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

भारत की आंतरिक सुरक्षा की चर्चा जब भी होती है, नक्सलवाद की समस्या एक बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने उपस्थित हो जाती है। नक्सलवाद, भारत की शांति, स्थिरता और प्रगति के लिए एक बड़ी और कठिन बाधा के रूप में सत्तर-अस्सी के दशक से ही उपस्थित रहे हैं। हर सरकार अपने-अपने ढंग से नक्सलवाद से निपटने और इसका अंत करने के लिए प्रयास भी करती रही है। वर्तमान मोदी सरकार ने भी सत्तारूढ़ होने के बाद से ही नक्सलवाद से निपटने के लिए सशस्त्र कार्यवाही को तेज करने सहित और भी कई स्तरों पर प्रयास आरम्भ किए थे, जिनका कुछ सकारात्मक प्रभाव अब दिखाई दे रहा है। बीते दिनों केन्द्रीय गृहमंत्रालय द्वारा नक्सलवाद की वर्तमान स्थिति से सम्बंधित रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आए हैं, वो वर्तमान सरकार के प्रयासों की सफलता की पुष्टि करते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, पिछले चार सालों में देश के ४४ नक्सल प्रभावित जिले पूरी तरह से नक्सल मुक्त हो गए हैं। गौरतलब है कि गृहमंत्रालय द्वारा १२६ जिलों को नक्सल प्रभावित घोषित किया गया था। इन जिलों को सुरक्षा सम्बन्धी खर्च के लिए केंद्र की तरफ से विशेष धनराशि प्रदान की गयी। इन्ही में से ४४ जिलों को अब नक्सलवाद के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त पाया गया है। इनमें ३२ जिले तो ऐसे हैं, जहाँ पिछले कुछ वर्षों से एक भी नक्सल हमला नहीं हुआ है। शेष जिलों में ३० ऐसे जिले बचे हैं, जहां नक्सलियों का प्रभाव अब भी कायम है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पिछले चार वर्षों में नक्सली हिंसा कम हुई है। केंद्रीय गृह सचिव राजीव गाबा ने बताया कि नक्सली हिंसा में आई कमी का सारा श्रेय सुरक्षा और विकास से जुड़े विभिन्न  उपायों की बहुमुखी रणनीति को जाता है। आंकड़े के अनुसार वर्ष २०१३ के मुकाबले वर्ष २०१७ में नक्सल हिंसा में ३५ प्रतिशत की भारी कमी दर्ज की गयी है। वर्ष २०१७ में केवल ५७ जिलों में ही नक्सल घटनाएं होने की जानकारी भी रिपोर्ट में दी गयी है। इन तथ्यों के आलोक में एक बात तो स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि नक्सलवाद से लड़ने के लिए मौजूदा सरकार की योजना और रणनीति एकदम सही दिशा में सफलतापूर्वक गतिशील हैं।

दरअसल मोदी सरकार नक्सलियों से निपटने के लिए केवल सशस्त्र संघर्ष के विकल्प तक ही सीमित नहीं रही है, बल्कि और भी कई तरीके अपनाकर उनको कमजोर करने का काम इस सरकार ने किया है। नक्सलियों का फंडिंग नेटवर्क जिसके तार विदेशों तक से जुड़े होने की बात सामने आती रही है, को ध्वस्त करने की दिशा में सरकार अलग-अलग ढंग से प्रयासरत रही है। गत मार्च में ही नक्सलियों की फंडिंग के नेटवर्क को पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए केन्द्रीय एजेंसियों ईडी, एनआईए और आयकर विभाग की साझा टीम का गठन किया गया, जिसकी निगरानी केन्द्रीय गृह मंत्रालय कर रहा है। बताया जा रहा कि इस टीम के द्वारा छत्तीसगढ़ सहित बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में नक्सलियों के फंडिंग नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त अभियान शुरू किया जाएगा। कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ, बस्तर क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाएं तथा कॉरपोरेट घरानों द्वारा नक्सलियों को फंड मुहैया कराए जाने के कुछ साक्ष्य भी ईडी के हाथ लगे हैं, जिनके आधार पर अब ईडी, आईटी विभाग और एनआईऐ की संयुक्त टीम नक्सलियों के फंडिंग नेटवर्क को नेस्तनाबूद करने का काम करेगी।

गौरतलब है कि नोटबंदी के दौरान भी बहुत से नक्सली भारी धनराशि के साथ पकड़े गए थे तथा ऐसी ख़बरें आती रही थीं कि नोटबंदी ने आर्थिक रूप से नक्सलियों को कमजोर किया है। फंडिंग नेटवर्क के निर्मूलन के अलावा सड़क वो महत्वपूर्ण कारक है, जिसने नक्सलवाद की जड़ों को हिलाया है। जिस भी इलाके में सड़कों का जाल बिछने लगता है, नक्सली वहाँ कमजोर होने लगते हैं। क्योंकि, सड़क पहुँचने का अर्थ है सम्बंधित इलाके का विकास की मुख्यधारा से जुड़ जाना। ऐसे में, जब लोग स्वयं को विकास की मुख्यधारा से जुड़ा महसूस करने लगते हैं, तो वे नक्सलियों का हिंसात्मक मार्ग छोड़ विकास का मार्ग चुन लेते हैं। सरकार इन सब उपायों के जरिये नक्सलवाद को उखाड़ने की कामयाब कोशिशों में लगी है। हालांकि बावजूद इसके सरकार तो अपनी इस सफलता पर बहुत इतरा सकती है और ही निश्चिन्त बैठ सकती है, क्योंकि नक्सलियों का कोई भरोसा नहीं है कि वे कब, कहाँ घात लगाकर बैठे हों। अक्सर देखा गया है कि जब भी उनके कमजोर पड़ने की बात उठती है, वे कोई जोरदार हमला अंजाम दे देते हैं। इसलिए सरकार को सचेत रहना चाहिए कि जो जिले नक्सल प्रभाव से मुक्त घोषित हुए हैं, वहाँ दुबारा नक्सलियों की आहट सुनाई दे।

इस संदर्भ में एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर क्या कारण है कि इतनी कार्यवाहियों के बावजूद नक्सलवाद की ताकत अबतक ख़त्म नहीं हो सकी है ? विचार करें तो अगर आज नक्सलियों की ताकत ऐसी है कि हमारे प्रशिक्षित  सुरक्षाबलों के लिए भी उनसे पार पाना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है, तो इसके लिए काफी हद तक देश की पिछली सरकारों की नक्सलियों के प्रति सुस्त लचर नीतियां ही जिम्मेदार हैं। नक्सल आन्दोलन के शुरूआती दौर में तत्कालीन सरकारों द्वारा इन्हें कत्तई गंभीरता से नहीं लिया गया और इनसे सख्ती से निपटने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। दिन--दिन ये अपना और अपनी शक्ति का विस्तार करते गए। परिणामतः पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ ये सशस्त्र आन्दोलन धीरे-धीरे देश के कई राज्यों में अपनी जड़ें जमाकर देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती बन गया।

वैसे, सत्तर के दशक में जिन उद्देश्यों विचारों के साथ इस नक्सल आंदोलन का जन्म हुआ था, वो काफी हद तक सही और शोषित वर्ग के हितैषी थे। पर, समय के साथ जिस तरह से इस आन्दोलन से वे विचार और उद्देश्य लुप्त होते गए, उसने इस आन्दोलन की रूपरेखा ही बदल दी। उन उद्देश्यों विचारों से हीन इस नक्सल आन्दोलन की हालत ये है कि आज ये बस कहने भर के लिए आन्दोलन रह गया है, अन्यथा हकीकत में तो इसका अर्थ सिर्फ बेवजह का खून-खराबा और खौफ फैलाना ही रह गया है। शायद इसीलिए नक्सल आन्दोलन के शुरूआती दिनों में इसके अगुवा रहे कानू सान्याल ने अपने अंतिम दिनों में इसे भटका हुआ करार दे दिया था। कानू सान्याल ने बीबीसी से बातचीत में नक्सलियों पर कहा था, बंदूक के बल पर कुछ लोगों को डरा-धमका कर अपने साथ होने का दावा करना और बात है, और सच्चाई कुछ और है। अगर जनता उनके साथ है तो फिर वे भू-सुधार जैसे आंदोलन क्यों नहीं करते?" जाहिर है कि आज यह तथाकथित आन्दोलन अपने प्रारंभिक ध्येय से अलग एक हानिकारक, अप्रगतिशील अनिश्चित संघर्ष का रूप ले चुका है। लेकिन, अच्छी बात यह है कि अब धीरे-धीरे सरकार की बहुमुखी रणनीति के द्वारा यह तथाकथित आन्दोलन का अंत होता जा रहा है।