- पीयूष द्विवेदी भारत
दिव्या
विजय के कहानी संग्रह ‘अलगोज़े की धुन पर’ को पढ़ते हुए अमीर ‘मीनाई’ का ये मशहूर
शेर याद आता है, ‘कौन-सी जा है जहाँ जलवा-ए-माशूक नहीं/ शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र
पैदा कर’। ये शेर इस संग्रह की कहानियों पर इसलिए सटीक बैठता है, क्योंकि इसकी ज्यादातर
कहानियों में विषय और बुनावट के स्तर पर कोई विशेष नयापन नहीं है। मूलतः कहानियों
के विषय पुराने ही हैं, मगर अपने अभिव्यंजना पक्ष की ताजगी के कारण ये कहानियाँ ध्यान
खींचती हैं। लेखिका ने पुराने विषयों को नयी नज़र से अभिव्यंजित करने का प्रयास
किया है, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रही हैं।
पुस्तक
में कुल दस कहानियाँ हैं, जिनमें से किसीमें प्रत्यक्षतः तो किसीमे प्रकारांतर से
प्रेम का विषय ही कथा के केंद्र में है। हालांकि हर कहानी में प्रेम का स्वरूप अलग
है। कहीं ये प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम है, तो कहीं पति-पत्नी का,
तो कहीं पात्रों के बीच संबंधों के धरातल पर अपरिभाषित रूप में ही प्रेम की
उपस्थिति है।
दैनिक जागरण |
संग्रह
की पहली और शीर्षक कहानी ‘अलगोज़े की धुन पर’ एक व्यक्ति की पूर्व और वर्तमान
प्रेमिकाओं के बीच आचार-विचार पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक द्वंद्व की कथा है। एक
प्रेमी और दो प्रेमिकाएँ, ये विषय कोई नया नहीं है। इसपर साहित्य से सिनेमा तक खूब
काम हुआ है। लेकिन, यहाँ दोनों प्रेमिकाओं के बीच जो मनोवैज्ञानिक द्वंद्व चलता है
और जिस प्रकार उसका अंत होता है, वो इसे बहुत प्रभावी भले न बना पाया हो, मगर,
कहानी को नयापन अवश्य प्रदान करता है।
इसी
प्रकार एक स्त्री के दो प्रेमी होने की कहानियाँ पुरानी बात हैं, मगर, इस संग्रह
की कहानी ‘प्रेम पथ ऐसो कठिन’ की नायिका के चार प्रेमी हैं। ऐसा नहीं कि केवल ये
चारों ही नायिका से प्रेम करते हैं, बल्कि इन चारों से नायिका भी प्रेम करती है।
इस बात को लेकर उसके मन में भय है, मगर, कोई स्थायी अपराधबोध नहीं है। अलग-अलग
स्थितियों में चार पुरुषों का संसर्ग उसे प्राप्त होता है और चारों उसे अलग-अलग
प्रकार से अपने लिए जरूरी महसूस होने लगते हैं। उसे लगता है कि प्रेम की कोई सीमा
नहीं है, वो एक साथ कितने भी लोगों से हो सकता है। वो सोचती है कि चारों प्रेमी
उसे खूब प्रेम करते हैं, तो उसकी समस्या समझ लेंगे, इस उम्मीद में वो उन्हें वास्तविकता
बताने के लिए एक साथ बुलाती है। यहाँ इस कहानी का प्रत्याशित अंत होता है, जो अपने
आप में बेहद गहरे अर्थों को समेटे हुए है। सत्य से परिचित होने के बाद नायिका को बेहद
प्रेम करने वाले उन चारों प्रेमियों की जो प्रतिक्रिया होती है, वो हमारे समक्ष
मानवीय प्रेम की सीमा का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत कर देती है। लेखिका की सफलता यह
रही है कि उन्होंने कहानी ऐसे बुनी है कि चारों पुरुषों से नायिका का प्रेम में
पड़ना, स्वाभाविक लगता है। अगर लेखिका यहाँ चूक जातीं, तो संभव था कि नायिका का यह ‘बहुपुरुष
प्रेम’, व्यभिचार या उच्छृंखलता का सन्देश संप्रेषित करने लगता। यहाँ इसी पुस्तक
की एक और कहानी ‘परवर्ट’ उल्लेखनीय होगी, जिसमें प्रेम में असफल एक पुरुष द्वारा
रोज नयी महिलाओं की अपनी लत को भावनात्मक दलीलों से सही साबित करने की कोशिश करते
दिखाया गया है। इस कहानी का नायक मन ही मन अपनी बुरी लत को प्रेम के खाँचे में फिट
बैठाने और खुद को कोई महान प्रेमी साबित करने की कोशिश करता है, लेकिन, अंत में
पाठक को यह तय करने में अधिक मुश्किल नहीं होती कि कहानी का नायक प्रेमी नहीं,
‘परवर्ट’ ही है।
हालांकि कई कहानियों में कथानक पर लेखिका का पूर्वाग्रह
हावी रहा है। इस संदर्भ में ‘नजराना-ए-शिकस्त’ कहानी उल्लेखनीय होगी, जिसमें पति वर्ग
को तानाशाह के रूप में लेखिका ने ‘जनरलाइज’ कर दिया है। निश्चित रूप से तानाशाही
प्रवृत्ति वाले पतियों के उदाहरण मिलते हैं, मगर, इसके आधार पर पतियों की बिरादरी को तानाशाह के रूप में ‘जनरलाइज’ कर
देना लेखिका की पूर्वाग्रह से प्रेरित अभिव्यक्ति ही है। ऐसे ही, इस संग्रह की
कहानियों में कोई नकारात्मक चरित्र जहाँ भी आया है, वो प्रायः पुरुष का ही रहा है।
मोटे तौर पर कहें, तो लेखिका अपनी कहानियों में स्त्रियों के प्रति जहाँ अत्यंत
उदार रही हैं, वहीं पुरुषों के प्रति उनका दृष्टि-बोध संकीर्ण रहा है। संग्रह की
अन्य कहानियों में बिट्टो, प्यार का कीमिया, एक जादूगर का पतन आदि उल्लेखनीय हैं।
भाषा की बात करें तो वो अत्यंत सधी हुई और प्रभावी है।
ये सहजता की नहीं, श्रम की भाषा है। ऐसा लगता है जैसे एक-एक शब्द का प्रयोग बेहद
सावधानी और सजगता से किया गया है। कहानियों की जरूरत के हिसाब से भाषा के स्वरूप
में परिवर्तन तो होता है, मगर, उसकी सुन्दरता का तनिक भी ह्रास नहीं होता। हिंदी
और उर्दू के शब्दों के बीच अंग्रेजी के शब्द भी कहीं-कहीं आए हैं। लेकिन, विशेष
बात यह है कि अंग्रेजी के शब्दों का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वो एकदम सोचा-समझा हुआ
और प्रभावी है। ये कुछ उद्धरण देखिये, ‘उनका स्पर्श इंटेंस होता है’, ‘मैं अपनी
पैटर्न्ड ज़िन्दगी से बाहर निकलना चाहती थी’ आदि। इन अंशों में प्रयुक्त अंग्रेजी
के शब्द अपने स्थानों पर जितना प्रभावी हैं, उतना प्रभाव उनके हिंदी या कोई और रूप
शायद नहीं छोड़ पाते। आमतौर पर अगर कहीं तत्सम हिंदी के बीच में अंग्रेजी का कोई
शब्द आ जाए तो ये बड़ा अटपटा लगता है, लेकिन इन कहानियों में अंग्रेजी शब्द जहाँ भी
और जैसे भी शब्दों के बीच आएं हैं, ज्यादातर वे उस स्थान के लिए जरूरी ही लगते हैं।
हालांकि ऐसी भाषा का नकारात्मक पक्ष यह होता है कि ये एक सीमित पाठक वर्ग के लिए ही
सहज रूप से ग्रहणीय होती है।