बुधवार, 4 अप्रैल 2018

एससी-एसटी क़ानून में बदलाव का बेजा विरोध [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

सर्वोच्च न्यायालय ने एससी-एसटी क़ानून में शिकायत मिलते ही बिना जांच सीधे गिरफ्तारी के प्रावधान को समाप्त करने का निर्णय क्या लिया कि मानों देश में दलितों के अस्तित्व पर ही संकट गया। सरकार द्वारा इस निर्णय पर पुनर्विचार याचिका दायर करने का आश्वासन दिया गया था और सरकार ने याचिका दायर कर भी दी, मगर, दलित संगठनों को इससे संतोष नहीं हुआ और उन्होंने इस आश्वासन के बावजूद भारत बंद का ऐलान कर दिया। ये भारत बंद हिंसा और तोड़फोड़ से भरा रहा। ख़बरों की माने तो  सर्वाधिक हिंसा मध्य प्रदेश के भिंड, मुरैना और ग्वालियर में हुई, जिसमें छह लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। उत्तर प्रदेश में तीन और राजस्थान में भी एक व्यक्ति की मौत हो गयी। भिंड में हालात बेकाबू होने पर सेना बुलानी पड़ी। ट्रेनों बसों पर पथराव किया गया। इसके चलते 100 से ज्यादा ट्रेनें प्रभावित हुई हैं। कुल मिलाकर अराजकता की सभी सीमाओं को ध्वस्त करते हुए इस बंद ने देश भर में तबाही का भयानक तांडव प्रस्तुत किया। 

सवाल उठता है कि आखिर न्यायालय के इस निर्णय में ऐसा क्या गलत है जो इसे लेकर ऐसा वितंडा मचा दिया गया। इस बात को समझने के लिए सम्बंधित क़ानून पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालना आवश्यक होगा। एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम१९८९ को दलित और आदिवासी समुदाय को कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया था। इसके प्रावधानों के अनुसार किसी भी अनुसूचित जाति/जनजाति के व्यक्ति की शिकायत पर आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी की जाएगी। जबकि सामान्य मामलों में होता है कि शिकायत मिलने के बाद पुलिस प्राथमिक जांच-पड़ताल के बाद अगर आरोपी व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रमाण पाती है, तो उसे गिरफ्तार किया जाता है। मगर, उक्त क़ानून में बिना जांच, मात्र शिकायत के आधार पर ही गिरफ्तारी का प्रावधान रखा गया था। बीते दिनों एक मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को अनुचित मानते हुए शिकायत पर तत्काल गिरफ़्तारी की बजाय एक सप्ताह के अंदर जांच पूरी करके कार्रवाई करने की बात कही थी। इसके बाद से ही ये सारा विवाद शुरू हुआ।

देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय न केवल भारतीय संविधान की भावना के अनुकूल है, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी इस क़ानून को तर्कसंगत बनाने वाला है। हमारा संविधान एक निर्दोष की रक्षा के लिए सौ दोषियों को छोड़ देने की दिशा में क़ानून को निर्देशित करता है। जबकि इस एससी-एसटी क़ानून को देखें तो यह बिना जांच तत्काल गिरफ़्तारी के जरिये यही सन्देश देता है कि बेशक कई निर्दोष पकड़े जाएं, मगर दलितों का दोषी नहीं छूटना चाहिए। यह प्रावधान सीधे-सीधे भारतीय संविधान द्वारा निर्धारित दंडविधान की भावना पर चोट करता है।

इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में इसके दुरूपयोग की घटनाओं की भी भरमार है। कई बार जहां दलित इसे सवर्णों के खिलाफब्लैकमेलिंगके उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं, तो वहीं कितने दफे तमाम अन्य लोग भी एकदूसरे के खिलाफ दलितों के इस क़ानून का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। इस क़ानून का सबसे ज्यादा दुरूपयोग थाने से कमीशन खाने वाले एजेंट करते हैं। वो ऐसे कि दलित-सवर्ण में कोई छोटी-मोटी कहासुनी भी हो गयी, तो थाने के एजेंट द्वारा दलित को भड़काकर पहले शिकायत दर्ज करवा दी जाती है। फिर जब सवर्ण महोदय पर गिरफ्तारी की तलवार लटकती है, तो वे कुछ लेन-देन के जरिये मामले को निपटाने पर जोर देने लगते हैं। थानेदार को तय रकम देकर मामला निपटा दिया जाता है, इस रकम में से एजेंट व्यक्ति को भी अपना कमीशन मिल जाता है। इन सबमे दुरूपयोग इस पूरे क़ानून का नहीं, इसके तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान का ही अधिक होता है। इस प्रावधान ने अशिक्षित दलित व्यक्तियों को शिक्षित व्यक्तियों के लिए एक उपकरण बना दिया है, जिसका उपयोग वे किसी से अपनी शत्रुता निकालने से लेकर कमीशन पाने तक के लिए करते हैं। मगर, दलित समुदाय इस बात को समझने को तैयार ही नहीं है।

देखा जाए तो कितना विचित्र है कि देश के सौ से ज्यादा दलित संगठन सड़क पर उतरकर सिर्फ इसलिए तबाही का तांडव मचा देते हैं, क्योंकि अब उनकी शिकायत भर से किसीको आँख मूंदकर गिरफ्तार नहीं कर लिया जाएगा, बल्कि जांच के बाद कार्रवाई होगी। क्या इससे यह सन्देश नहीं संप्रेषित होता कि दलित अपने प्रति जिस सामाजिक अन्याय की बात करते हैं, उसका प्रतिशोध वे सवर्णों के विरुद्ध कानूनी अन्याय करके लेना चाहते हैं ? आरक्षण के रूप में इस देश का सवर्ण समुदाय, दलितों के प्रति किए गए जाने किन अन्याओं का प्रायश्चित आज तक कर ही रहा है, जिसका हाल-फिलहाल कोई अंत भी दिखाई नहीं देता।

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