मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

संघमुक्त भारत का दिवास्वप्न [दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
कभी भारतीय जनता पार्टी नीत एनडीए के महत्वपूर्ण घटक रहने वाले जेडीयू के नवनिर्वाचित अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर इन दिनों संघमुक्त भारत की एक अजीब सी धुन सवार दिख रही है और अक्सर जहाँ-तहां वे इस धुन का आलाप भी कर दे रहे हैं। अभी कुछ रोज पहले उन्होंने ये बयान दिया था कि भारत को संघमुक्त करके रहेंगे तो इसपर काफी हो-हंगामा हुआ था। उनका मजाक भी बना और उनके बयान पर सवाल भी उठे। लेकिन, लगता नहीं कि इन सब से उन्हें कुछ सबक मिला है क्योंकि, अब एकबार फिर अपने जेडीयू अध्यक्ष निर्वाचित होने के अवसर पर उन्होंने संघमुक्त भारत की अपनी इसी बात को पूरे दमखम के साथ दोहराया है। विगत दिनों जेडीयू की राष्ट्रीय परिषद् की बैठक में जब नीतीश कुमार को औपचारिक रूप से जेडीयू का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, उसी अवसर पर उन्होंने ये बात कही। दरअसल, बिहार विधानसभा चुनाव में लालू और काग्रेस के साथ हुए उनके महागठबंधन को जिस तरह से अप्रत्याशित सफलता मिली, कहीं न कहीं उसीने उन्हें इतने आत्मविश्वास या यूँ कहें कि अति-आत्मविश्वास से भर दिया है कि अब वे सीधे संघमुक्त भारत की ही बात करने लगे हैं। यह अति-आत्मविश्वास ऐसा है कि बिहार में सफ़ल हुए महागठबंधन की तर्ज पर अब वे राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाकर उसके द्वारा संघमुक्त भारत की अपनी संकल्पना को फलीभूत करने की सोचने लगे हैं। अपने अध्यक्ष बनने के अवसर पर उन्होंने कहा कि भाजपा संघ की विचारधारा पर चलती है, इसलिए वे संघमुक्त भारत पर जोर दे रहे हैं। समझने का प्रयास करें तो नीतीश बाबू का आशय यह है कि वे मिटाना भाजपा को चाहते हैं लेकिन, इसके लिए उन्हें संघ को समाप्त करना पड़ेगा। अब नीतीश कुमार को तो देश उनके इमानदार छवि के साथ-साथ व्यावहारिक बुद्धि के लिए भी जानता है लेकिन, सवाल है कि उनकी व्यावहारिक बुद्धि कहाँ चली गई है कि संघ के सम्बन्ध में ऐसी बचकानी सोच उनमे उत्पन्न हो रही है कि भाजपा को समाप्त या कमजोर करने के लिए संघमुक्त भारत जैसी असंभव कल्पना करने लगे हैं। यह तो वही बात हुई कि समुद्र में रहने वाले किसी विशाल जीव को मिटाने के सारे प्रयास विफल होने पर कोई समुद्र को ही सुखाने चल दे। अब ऐसे अव्यवहारिक मार्ग पर चलने वाले को सफलता तो खैर मिल ही नहीं सकती, पर उसके विनाश की संभावना जरूर पैदा हो जाती है। दुर्योग यह है कि बिहार की जनता द्वारा विश्वास दिखाकर सत्ता सौंपे जाने के बाद अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान देने की बजाय नीतीश कुमार उपर्युक्त प्रकार के मार्ग का अनुसरण करते नज़र आ रहे हैं। जिससे न तो उनका हित हो सकता है और न ही बिहार की जनता का।   
वैसे, नीतीश कुमार से तो यह भी पूछा जाना चाहिए कि कई एक विन्दुओं पर तो भाजपा और संघ में ही विरोध प्रत्यक्ष हो जाता है, फिर वे भाजपा और संघ को एक ही चश्मे से क्यों देख रहे हैं ? एक ताज़ा उदाहरण द्रष्टव्य है कि बिहार चुनाव के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी, जिससे भाजपा ने सीधे-सीधे कन्नी काटते हुए आरक्षण के वर्तमान स्वरुप को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया था। ऐसे ही श्रम कानूनों में जब केंद्र की भाजपा नीत राजग सरकार ने संशोधन किए तो संघ के श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ ने कई विन्दुओं पर उसका भी विरोध किया था। इसके अलावा और भी तमाम बातें हैं, जहाँ भाजपा और संघ आमने-सामने आते रहे हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि बेशक भाजपा का वैचारिक स्रोत संघ हो तथा प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा के तमाम नेता संघ से सम्बद्ध रहे हों लेकिन, इसका यह कत्तई अर्थ नहीं कि संघ और भाजपा को एक ही पहलू में रखकर देखा जाय। भाजपा एक राजनीतिक दल है, जिसकी स्वाभाविक रूप से अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं और उन्हीसे सम्बद्ध उत्तरदायित्व भी हैं, जबकि संघ सत्य सनातन धर्म अर्थात हिंदुत्व का संवाहक एक स्वयंसेवी संगठन है जिसकी देश भर में पचास हजार से अधिक शाखाएं, लगभग तीन दर्जन  आनुषांगिक संगठन और करोड़ों की संख्या में स्वयंसेवक हैं जो बिना किसी सामजिक-आर्थिक लालसा के सदैव सेवा भाव से देशभर में कार्यरत रहते हैं। वहीँ, राजनीतिक दल होने के कारण भाजपा के लिए पूर्णतः शासन में होना या शासन का हिस्सा भी होना अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि, ऐसी स्थिति में ही वो अपनी चीजों को आगे बढ़ा सकती है। लेकिन, संघ के लिए सत्ता जैसी कोई चीज है ही नहीं। भाजपा सत्ता में रहे यां न रहे, संघ की गतिविधियाँ सतत गतिशील रहती हैं। गौर करें तो संघ के प्रकल्पों ने प्रत्येक क्षेत्र में देश को सशक्त बनाने और गति देने का कार्य किया है। फिर चाहें वो दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से देश के गांवों को स्वावलंबी बनाना हो जिसमे संघ के हजारों स्वयंसेवक बिना किसी लोभ-लालसा के कठिन परिश्रम और समर्पण के साथ काम कर रहे हैं या फिर विद्या भारती जैसी शिक्षा क्षेत्र की सबसे बड़ी गैरसरकारी संस्था हो, जिसके तहत देश भर में लगभग १८००० शिक्षण संस्थान बिना किसी सरकारी सहयोग के कार्यरत हैं अथवा वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्था को ही लीजिये जिसके द्वारा देश के वनवासी लोगों के रहन-सहन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की समुचित व्यवस्था कर उनका सर्वांगीण विकास किया जा रहा है। आंकड़े के अनुसार संघ की यह संस्था फिलहाल देश के लगभग ८ करोड़ वनवासी लोगों के लिए कार्य कर रही है। ऐसे ही, सेवा भारती जैसी संस्था के रूप में संघ स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय रूप से देश के दूर-दराज के उन क्षेत्रों तक पहुँच के कार्य कर रहा है जहां सरकारी मिशनरी भी ठीक ढंग से नहीं पहुंची है। भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान मंच के द्वारा मजदूरों और किसानों के लिए भी संघ सदैव संघर्ष करता रहा है। इनके अलावा संघ के और भी तमाम प्रकल्प हैं, जिनके माध्यम से वो देश के कोने-कोने तक न केवल मौजूद है बल्कि देशवासियों के लिए अथक रूप से कार्य भी कर रहा है। ये यूँ ही तो नहीं हो जाता कि देश में कहीं भी, कोई भी आपदा आए तो वहां संघ के स्वयंसेवक तुरंत मौजूद हो राहत कार्य में जुट जाते हैं। स्पष्ट है कि संघ इस देश के हर हिस्से में, हर स्तर पर सक्रियता से मौजूद है। अब नीतीश कुमार साहब यह बताएं कि देश की रग-रग में मौजूद इस संघ को वे कहाँ-कहाँ से और कैसे ख़त्म करेंगे ? उनके पास कोई जवाब नहीं होगा क्योंकि, वे सिर्फ संघमुक्ति का एक दिवास्वप्न देख रहे हैं।
दिवास्वप्न ही सही मगर, सवाल तो यह भी है कि ऐसे राष्ट्रव्यापी स्वयंसेवी संगठन जो देश की प्रगति के लिए निस्वार्थ भाव से कार्य कर रहा है, से नीतीश कुमार साहब को तकलीफ क्यों हो रही है ? और संदेह नहीं कि उनकी इस तकलीफ में देश के अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल भी पूर्णतः सहमति जताएँगे। दरअसल संघ के सब कार्यों के साथ उसकी पहचान हिन्दुत्ववादी संगठन की है। बस यही विन्दु हमारे देश के इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को नहीं पचती। क्योंकि हिंदुत्व की बात करने से उनकी धर्मनिरपेक्षता आहत होती है। हालांकि इस्लाम या अन्य किसी मजहब की पैरोकारी से उस धर्मनिरपेक्षता को कोई हानि नहीं होती। इसीलिए वे कभी गांधी की हत्या तो कभी सांप्रदायिक दंगों आदि से संघ का नाम जोड़कर उसे बदनाम करने की साज़िश करते रहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि गांधी की हत्या में संघ का नाम साजिशन लाया गया और रही बात दंगों की तो तथ्य यही है कि ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती। संघ किसीके भी अहित की बात नहीं करता, वो तो केवल हिन्दू हितों की रक्षा के प्रति कृत संकल्पित हैं और सच्ची बात यह है कि उसके इसी हिन्दुत्ववादी रुख से इस देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को पीड़ा होने लगती है। अब जब संघ के सहयोग से ही भाजपा सत्तारूढ़ है तो वे दल और बेचैन हैं। इसी बेचैनी में नीतीश कुमार का संघमुक्त भारत जैसा बयान आया है, जो उन्हें हानि छोड़ लाभ नहीं दे सकता।

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

पुस्तक समीक्षा: अजीब लड़कियों की सुनी-अनसुनी कहानियां

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अगर आपको कुछ बेबाक तो कुछ बेबाकीयत के लिबास में छिपी अश्लील; कुछ सच्ची, जमीनी और संदेशप्रद तो कुछ बस यूँ ही अनोखी कल्पना पर आधारित और अमान्य तर्कों से पुष्ट कहानियां एक साथ एक ही खर्चे में पढ़नी है तो प्रियंका ओम का कहानी संग्रह ‘वो अजीब लड़की’ बेशक आप ही के लिए है। इसमें आपको उपर्युक्त प्रकार का सब ‘मटेरियल’ बड़ी सहजता से मिल जाएगा। प्रियंका की इस किताब में कुल चौदह कहानियाँ हैं, जिनमे अधिकांश कहानियाँ चरित्र प्रधान हैं। हाँ, कुछेक कहानियों में घटना और चरित्र के बीच प्रधानता के लिए अंतर्द्वंद्व भी प्रतीत होता है। इन चौदह कहानियों में निरपवाद रूप से प्रधान चरित्र कोई न कोई स्त्री ही है, यहाँ तक कि जो कहानियां किसी पुरुष पात्र को केंद्र में रखकर शुरू हुई हैं, उनमे भी अंत आते-आते कोई न कोई स्त्री प्रधान चरित्र के रूप में स्थापित हो जाती है। प्रियंका एक स्त्री हैं तो उनकी कहानियों में ऐसी स्थिति होना कोई अस्वाभाविक बात भी नहीं है। स्त्री चरित्र की प्रधानता वाली इन कहानियों में स्त्रियों से सम्बंधित विभिन्न प्रकार की समस्याओं, विसंगतियों और उनके प्रतिक्रियास्वरुप स्त्रियों की मनोदशाओं को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। किसी कहानी में ये प्रयास पूर्णतः सफल है तो किसी में इसकी विफलता के चिन्ह भी दिखते हैं।
इन कहानियों में से कुछ कहानियाँ स्त्रियों के प्रति पुरुष समाज की मानसिकता को बड़ी ही कटुता से उजागर करती हैं तो कुछ स्त्रियों के अतिभावुक स्वभाव और उससे होने वाली समस्याओं को रेखांकित करती हैं। स्त्री के निकट होने पर पुरुषों की समस्त विचारशक्ति  घूम-फिरकर अंततः उसकी देह पर ही कैसे केन्द्रित हो जाती है, इसकी प्रस्तुति संग्रह की कहानी ‘दोगला’ में अच्छे ढंग से हुई है। हम देखते हैं कि कैसे दिल्ली के एक बड़े अख़बार के अतिसंभ्रांत और सुप्रसिद्ध मुख्य संपादक महोदय यूपी से आई एक सामान्य सी लड़की पर या उसकी देह पर एकदम न्योछावर हो जाते हैं। किसी सामान्य व्यक्ति को आश्चर्यजनक लग सकता है कि कैसे एक बड़ा और प्रतिष्ठित संपादक एक मामूली सी लड़की के आगे बेबस और लाचार हो जाता है! हालांकि उन लोगों को इस बेबसी और लाचारियत में छिपे निर्दय ढोंग का अंदाज़ा शायद ही हो। लेकिन, जो साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े लोग हैं, वे इस स्थिति को भलीभांति जानते और समझते हैं कि वास्तविकता इस कहानी से अधिक भिन्न नहीं है। एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका के ख्यातिलब्ध दिवंगत संपादक महोदय के विषय में तो इस किस्म के किस्से काफी प्रसिद्ध हैं।
अधिकांश स्त्रियाँ व्यावहारिक कम भावुक अधिक होती हैं और भावुकता में अक्सर कैसे गलत रास्तों को चुन लेती हैं, संग्रह की कहानी ‘मृगमरीचिका’ इस बात को बाखूबी सामने लाती है। सोशल साईट पर एक लड़के के लुभावने शब्दजाल में फंसकर प्रीती उसमे न केवल अपने बचपन का बिछड़ा प्यार देखने लगती है, बल्कि अपने पति को भूल उसके प्रति आकर्षण भी महसूसने लगती है। हालांकि वो जल्दी ही चेत भी जाती है और उसे आभास होता है कि जिंदगी भावनाओं और मखमली शब्दों से नहीं चलती, उसके लिए व्यवहारिक दृष्टिकोण की जरूरत होती है और उसका पति उससे मखमली बातें भले न करता हो, मगर वो उससे सच्चा और व्यवहारिक प्रेम करता है जिसके रहते वो कभी अकेली नहीं होगी। हालांकि इस कहानी का प्लाट पुराना है। पहले भी इस तरह की कुछेक कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इसका प्रस्तुतिकरण इसे अलग बनाता है। कथ्य-शिल्प हर स्तर पर दुरुस्त होने के कारण इसे इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानी भी कह सकते हैं। ऐसे ही, ‘लावारिश लाश’, ‘वो अजीब लड़की’, ‘इमोशन’, ‘मौत की ओर’ आदि कहानियाँ भी स्त्रियों से जुड़े सामाजिक-मानसिक-आर्थिक आदि जीवन के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करने का सफल-असफल प्रयत्न करती हैं।  
प्रियंका की कहानियों में सेक्स का भी भरपूर चित्रण है। अब कई कहानियों में यह सेक्स जहां कथा-तत्व की आवश्यकता के रूप में आया है तो कई में एकदम गैरजरूरी रूप में भी इसकी मौजूदगी नज़र आती है और जहाँ ये गैरजरूरी रूप में आया है, वहां इसने बड़ी सहजता से वह रूप ले लिया है जिसे साहित्य का पोर्नोग्राफीकरण कहते हैं। ‘सॉरी’ कहानी का यह अंश – “वो शायद महारानी कैथरीन है जिसने बहुत भारी-भरकम गाउन अपने हाथों से उठाया हुआ है जबकि मुँह आधा खुला है और वो पीछे देख रही है। सोल्जर जैसे कपड़ों में एक नवयुवक घुटनों पर बैठा है व उसकी जीभ महारानी कैथरीन के दोनों जाँघों के बीच में है।” – देखें तो यह एक अतिकामुक चित्र का अक्षरशः वर्णन है। इस कहानी के कथानक में इस अंश के होने न होने से कोई बहुत अंतर नहीं पड़ने वाला इसलिए इस अंश को बड़े आराम से छोड़ा जा सकता था या सांकेतिक रूप में लिखा जा सकता था। लेकिन अनावश्यक रूप से इसका पूरा वर्णन किया गया है। ऐसे ही, एक कहानी है – लाल बाबू। इस कहानी में न तो कोई कथानक है और न ही कोई अन्य कथा-तत्व। है तो सिर्फ और सिर्फ पोर्नोग्राफी। कहानी के केन्द्रीय पात्र लाल बाबू शुरू से अंत तक कभी अपनी चाची के साथ, कभी भाभी के साथ तो कभी किसी और के साथ सेक्सरत रहते हैं। यहाँ तक कि अपनी बहू पर भी उनकी नियत डोल जाती है। और आश्चर्य तो यह देखकर भी होता है कि उनकी चाची और भाभी कैसी स्त्रियाँ होती हैं कि वे झट उनके आगे बिछ जाती हैं! सवाल यह है कि लाल बाबू जैसे पुरुष होते कहाँ हैं ? भारत में तो कम से कम नहीं ही होते। फिर ऐसी कहानी लिखकर लेखिका क्या सन्देश देना चाहती हैं ? अगर लेखिका का उद्देश्य स्त्री को देह समझने की पुरुष समाज की मानसिकता को दिखाना है तो इस उद्देश्य की सिद्धि में उनकी यह कहानी एकदम विफल रही है। क्योंकि, बेशक समाज में स्त्रियों को सिर्फ देह समझने वाले मानसिक विकृति के शिकार पुरुष हैं बल्कि काफी अधिक हैं लेकिन, उनके प्रतिनिधि पात्र लाल बाबू तो कत्तई नहीं हो सकते। क्योंकि लाल बाबू की स्थिति स्त्री को देह समझने की मानसिकता से कहीं अधिक विकृत हैं, जो उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक सेक्सहोलिक मनोरोगी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती है। ऐसे ही, कुछेक और भी कहानियाँ हैं, जिनमे पूरी व्यवस्था के साथ सेक्स का आयोजन कर पोर्न प्रस्तुति की गई है। ये बिलकुल नहीं कह रहे कि कहानी में सेक्स का वर्णन-चित्रण वर्जित है। कत्तई नहीं! लेकिन, उसका एक तरीका है और उसके लिए जहाँ तक संभव हो सांकेतिकता का प्रयोग करने का प्रयास होना चाहिए न कि जानबूझकर ऐसी परिस्थितियों और संवादों का आयोजन किया जाय जिससे कि सेक्स उभरकर सामने आने लगे। ऐसा करने पर कहानी को फौरी तौर पर एक ख़ास किस्म का पाठकवर्ग जरूर मिल सकता है और कहानीकार को एक क्षणिक लोकप्रियता भी प्राप्त हो सकती है, मगर ऐसी कहानियों का कोई चिरस्थायी अस्तित्व नहीं होता।

बहरहाल, प्रियंका की कहानियों की जो एक ख़ास बात है वो ये कि उनमे शैली के स्तर पर काफी हद तक प्रयोग का दर्शन होता है। तमाम कहानियों में एक ही साथ वर्णनात्मक, पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक), नाटकीय आदि विभिन्न शैलियों का प्रयोग हुआ है। कई कहानियों में ये प्रयोग सफल और सार्थक रहा है तो कई में इस प्रयोग ने कहानी को काफी उलझाने  का भी काम किया है। अर्थात कि यह प्रयोग जहाँ कुछ कहानियों के लिए सफल रहा है तो कुछ की विफलता का कारण भी बना है। बावजूद इसके कहना होगा कि शैली के स्तर पर प्रियंका थोड़ी गंभीरता बरतते हुए लेकिन ऐसे ही बेबाकी के साथ अगर लिखती रहें तो इस दिशा में उनके अन्दर काफी संभावनाएं प्रतीत होती हैं और वे काफी अच्छा कर सकती हैं। यह उनका पहला कहानी संग्रह है तो इसके लिए शुभकामनाएँ देते हुए आशा करते हैं कि भविष्य में उनकी रचनाओं में और व्यापकता, तथ्यात्मकता, सुग्राह्यता, शालीनता और उद्देश्यपरकता आएगी। 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

लोकरंजन और लोककल्याण का महोत्सव [दोपहर का सामना में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दोपहर का सामना 
आगामी २२ अप्रैल से मध्य प्रदेश के उज्जैन में आरम्भ हो रहे आस्था के महोत्सव यानी कुम्भ मेले को लेकर देश भर के श्रद्धालुओं के बीच उत्साह और उल्लास का वातावरण एकदम प्रत्यक्ष है। इस सिंहस्थ कुम्भ मेले के प्रति  लोगों में कितनी आस्था है, इसे इसी से समझा जा सकता है कि इसमें तकरीबन ५ करोड़ श्रद्धालुजनों के पहुँचने का अनुमान व्यक्त किया जा रहा है, जिसके मद्देनज़र  मध्य प्रदेश सरकार द्वारा पिछले वर्ष से ही व्यवस्थाएं की जा रही हैं। दरअसल इस कुम्भ मेले में सिर्फ देश से ही नहीं वरन विदेशों से भी भारी संख्या में सैलानी आते हैं। इसके मद्देनज़र मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सुरक्षा व्यवस्था से लेकर घाटों आदि को सम्यक प्रकार  से व्यवस्थित रूप  देने का कार्य किया जा रहा है।
उल्लेखनीय होगा कि यह अभी केवल एक अर्धकुम्भ है, जिसका आयोजन प्रत्येक छः वर्ष में  किया जाता है। इससे इतर प्रत्येक बारह वर्ष में, एक विशेष ग्रह स्थिति आने पर, महाकुम्भ का आयोजन होता है। सांस्कृतिक तौर पर देखें तो भारतीय संस्कृति के समन्वयकारी स्वरुप का एक विराट दर्शन हमें इस कुम्भ मेले में होता है, जहाँ साधू-संतों से लेकर आम जन और नेता तथा विदेशी पर्यटकों तक का एक विशाल हुजूम उमड़ता है और ऊँच-नीच, जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी के भेदभाव से मुक्त होकर महाकुंभ के स्नान का अक्षय पुण्य या विशेष संतोष प्राप करता है। हालांकि, वर्तमान समय में कुम्भ मेले में बड़े साधु-संतों को मिलने वाली विशेष व्यवस्थाओं आदि के जरिये कुम्भ की इस समानता की अवधारणा का क्षरण अवश्य है, जो कि अपनी परम्पराओं को विकृत रूप दे देने की हमारी प्रवृत्ति का ही एक उदाहरण है।
बहरहाल, कुम्भ के विषय में अगर पौराणिक मान्यताओं पर गौर करें, तो प्रसंग है कि समुन्द्र-मंथन से उत्पन्न अमृत के घड़े (कुम्भ) को असुरों से बचाने के लिए देवताओं ने बारह दिन तक समूचे ब्रह्मांड में छुपाया था, इस दौरान उन्होंने इसे धरती के जिन चार स्थानों पर रखा, वो ही चारो कुम्भ के आयोजन स्थल बन गए। इलाहाबाद और हरिद्वार में गंगा का तट तथा नासिक की गोदावरी और उज्जैन की क्षिप्रा के तट, ये कुम्भायोजन के चार स्थल हैं। इन चारों स्थानों पर कुम्भ के आयोजन के लिए ज्योतिष की विभिन्न अवधाराणाएं हैं, जिनके अनुसार जब जीवनवर्द्धक ग्रहों का स्वामी बृहस्पति किसी जीवनसंहारक ग्रह की राशि में प्रवेश करता है, तो इस संयोग को शुभ तिथी के रूप में माना जाता है और इसी क्रम में एक समय ऐसा भी आता है, जब बृहस्पति का प्रवेश मान्यतानुसार जीवनसंहारक ग्रहों के प्रधान शनि की राशि कुम्भ में होता है और इसका प्रभाव बिंदु हरिद्वार बनता है। इस स्थिति में कुम्भायोजन हरिद्वार में होता है। ठीक इसी प्रकार बृहस्पति का शुक्र में और सूर्य-चन्द्र का शनि की मकर राशि में प्रवेश इलाहाबाद के लिए कुम्भायोजन का योग बनाता है और यही वो समय भी होता है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं, जिसे शुभ मानते हुए मकर संक्रांति के रूप में मनाया भी जाता है। कुछ इसी प्रकार जब बृहस्पति का प्रवेश सूर्य की सिंह राशि में होता है, तो ये संयोग नासिक की गोदावरी के लिए कुम्भायोजन का सुयोग उत्पन्न करता है । बृहस्पति की सिहंस्थ स्थिति में ही अगर सूर्य मेष राशि और चंद्रमा तुला राशि में पहुँच जाए, तो ये उज्जैन के लिए कुम्भ के आयोजन का संकेत होता है। वर्तमान में यही ग्रह स्थिति बनी है, जिस कारण उज्जैन में कुम्भायोजन हो रहा है। वैसे, सामान्य जनों की समझ के लिए ये ज्योतिषीय अवधारणाएं निस्संदेह बड़ी ही जटिल प्रतीत होती हैं, पर पुरातन काल से इन्ही के आधार पर कुम्भ का आयोजन होते आ रहा है। यूँ तो इन चारो ही स्थानों का कुम्भस्नान फलदायी आस्था से पुष्ट है, पर इलाहाबाद के संगम तट का कुम्भस्नान इनमे भी श्रेष्ठ माना जा सकता है। क्योंकि, यह गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम का वो अद्भुत स्थल है, जिसके प्रति लोगों के मन में अनायास ही अनंत श्रद्धा का भंडार है, उसपर यदि कुम्भ का शुभ योग बने तो कहना ही क्या! वैसे, ज्योतिष-विज्ञान की उपर्युक्त मान्यताओं से अलग श्रद्धालु जनों की अपनी एक सीधी और सरल मान्यता भी है कि सकारात्मक शक्तियों द्वारा नकारात्मक शक्तियों के दुष्प्रभाव  को रोकने का एकजुट प्रयास ही  कुम्भ  की  पृष्ठभूमि  है।
अब चूंकि, अधिकांश भारतीय पर्वों में लोकरंजन ही नहीं लोककल्याण का भाव भी निहित होता है और इस कुम्भ के सम्बन्ध में भी श्रद्धालुओं का यही मत है कि कुंभ के स्नान से मानव के दोष तो मिटते ही हैं, संसार की विपत्तियों का भी नाश होता है। लेकिन श्रद्धालुओं के इस आस्थापूर्ण मत से इतर यदि तार्किक दृष्टि से विचार करें तो भी यही स्पष्ट होता है कि कुम्भ पर्वों का उद्देश्य केवल आस्थापूर्ति और लोकरंजन ही नहीं है, बल्कि इसमे लोककल्याण का भाव भी निहित है। विचार करें तो पालक-पोषक होने के कारण और कुछ पौराणिक आस्थाओं  के कारण भी, भारत में पुरातन काल से ही नदियों को माँ का स्थान प्राप्त रहा है। ऐसे में, बहुत से विद्वानों का ऐसा  मानना है कि प्राचीनकाल से निरंतर आयोजित हो रहे इन कुंभ पर्वों का एक प्रमुख उद्देश्य नदी-संरक्षण भी है। अगर हम स्वयं भी आस्था व अध्यात्म के दायरे से थोड़ा बाहर आकर तार्किकता से कुंभ के उद्देश्य पर विचार करें, तो विद्वानों का ये कथन काफी हद तक उचित व व्यवहारिक ही प्रतीत होता है । चूंकि, इस बात की पूरी संभावना है कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों द्वारा नदियों के प्रति मातृगत आस्था का प्रतिस्थापन व उनमे स्नान को धर्म से जोड़ने का विधान, उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए ही किया गया होगा तथा इसी क्रम में नदियों में स्नान को और महत्वपूर्ण रूप देने के लिए कुम्भ जैसे स्नान पर्व की परिकल्पना भी की गई होगी। कहीं न कहीं उनका यह मानना रहा होगा कि लोग यदि नदियों के प्रति श्रद्धालु होंगे तो उनकी देख-रेख, साफ़-सफाई और संरक्षण करेंगे तथा कुम्भ जैसे स्नान पर्वों के समय एकजुट होकर नदियों के लिए कार्य करेंगे ताकि उनमे स्नान आदि कर सकें। किन्तु उन्हें तब संभवतः इस बात का आभास न रहा हो कि भविष्य निरपवाद रूप से ऐसे पाखण्डी जनों का है, जिनके वचन और कर्म में विराट अंतर होगा और जिनकी श्रद्धा का आधार आचरण नहीं, केवल बातें होंगी। आज यही हो रहा है कि नदियों के प्रति लोगों में श्रद्धा तो है और देश का बहुसंख्य समाज उन्हें माँ भी मानता है लेकिन, इसके बावजूद नदियों की दशा बद से बदतर होती जा रही है। क्योंकि, एक तरफ लोग उन्हें माँ कहते हैं और दूसरी तरफ उनमे अपशिष्ट विसर्जन में भी नहीं हिचकते। हमारे पूर्वज यह कल्पना थोड़े किए होंगे कि भविष्य में ऐसे पूत होंगे जिन्हें अपनी माँ को गन्दा करने में भी लज्जा या संकोच का अनुभव नहीं होगा। अब जो भी हो, लेकिन  इतना तो स्पष्ट है कि कुम्भ  केवल लोकरंजन का महोत्सव ही नहीं, लोककल्याण का साधन भी है। आवश्यकता है तो इसके महत्व को समझने की।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

सेना को बदनाम करने की साज़िश [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राज एक्सप्रेस 
जम्मू-कश्मीर के हंदवाड़ा में कथित तौर पर भारतीय सेना के जवान द्वारा युवती से छेड़-छाड़ तथा इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को रोकने के लिए सेना की फायरिंग में चार लोगों के जान गंवाने का मामला सामने आने के बाद से जम्मू-कश्मीर समेत देश भर में ऐसे उथल-पुथल मच गई, जैसे जम्मू-कश्मीर पर कोई बहुत बड़ी आपदा आ गई हो। इस मामले पर गौर करें तो प्राप्त खबरों के अनुसार विगत दिनों जम्मू-कश्मीर के हंदवाड़ा में सेना की चौकी के नजदीकी शौचालय में एक युवती गई, जहाँ सेना का एक जवान भी पहुंचकर उसे छेड़ने लगा। लोगों की नज़र में आने पर वो जवान भाग पड़ा। इसीसे आक्रोशित होकर लोगों ने सेना की चौकी पर पथराव करना तथा तरह-तरह से हंगामा मचाना शुरू कर दिया, जिसको रोकने के लिए सेना की तरफ से फायरिंग की गई जिसमे चार लोगों की जान चली गई तथा बहुत से लोग घायल भी हुए। इस पूरे प्रकरण के बाद जम्मू-कश्मीर में सेना के प्रति जो आक्रोश दिखा सो दिखा ही, देश के राजनीति से लेकर मीडिया तथा बुद्धिजीवो वर्ग तक के उन कुछ विचारधारा विशेष के लोगों जो जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना की तैनाती का विरोध करना ही अपना परम कर्तव्य मानते हैं, को भी जैसे बिन मांगे मुराद  मिल गई। उनके हाथ फिर एक मौका लग गया कि जम्मू-कश्मीर में सेना की तैनाती को गलत बताते हुए उसकी बर्बरता का खोखला ढोल पीट सकें। हालांकि भारतीय सेना पर सवाल उठाने वालों को अधिक समय तक यह सब करने का अवसर नहीं मिल सका क्योंकि सेना ने अपने पर लग रहे आरोपों का खंडन करते हुए पीड़ित लड़की का एक विडियो जारी किया जिसमे वो स्पष्ट रूप से कह रही है कि उसे सेना के जवान ने नहीं, चार अन्य  लड़कों ने छेड़ा था बल्कि सेना तो उसे बचाने का जतन कर रही थी। इस विडियो के सामने आने के बाद से इस पूरे मामले की पोल खुल गई है कि यह मामला और कुछ नहीं, सिर्फ और सिर्फ भारतीय सेना को बदनाम करने की एक  साज़िश भर है। दरअसल इसमें कुछ नया नहीं है क्योंकि जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों द्वारा अक्सर भारतीय सेना पर इस तरह के आरोप लगाकर जम्मू-कश्मीर में उसकी तैनाती का विरोध किया जाता रहा है। बस यह साजिश भी उसी विरोध को एक तार्किक पुष्टि देने की नाकाम कोशिश है।
दरअसल अलगाववादियों द्वारा जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना की तैनाती का विरोध करने के पीछे केवल एक मंशा काम करती है कि किसी भी तरह उसे जम्मू-कश्मीर से वापस बुला लिया जाय जिससे वहां अलगाववादी खुलेआम अपनी तानाशाही चला सकें और पाक प्रेरित भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम दे सकें। चूंकि सेना के होने से उनकी ये मंशा पूरी नहीं हो पाती और उनपर पूरी तरह से नकेल कसी रहती है, इसीलिए सेना से वे खुन्नस खाए रहते हैं। अतः उनकी वजह को तो समझा जा सकता है कि क्यों वे भारतीय सेना का विरोध कर रहे। लेकिन देश के उन कुछ मुट्ठीभर राजनेताओं, मीडिया के लोगों और बुद्धिजीवियों का क्या उद्देश्य है कि वे भी जम्मू-कश्मीर के उन अलगाववादियों के सुरों का समर्थन करते रहते हैं और उन्हिकी भाषा में भारतीय सेना को जम्मू-कश्मीर से वापस बुला लेने का विलाप मचाए रहते हैं।  साथ ही, अपनी इस अनुचित और राष्ट्रहित के प्रतिकूल बात को सिद्ध करने के लिए अक्सर तरह-तरह के मौके तलाशने और कुतर्क गढ़ने में लगे रहते हैं। यहाँ तक कि अपनी बात सही सिद्ध करने के चक्कर में वे परम श्रेष्ठ और कर्तव्यनिष्ठ भारतीय सेना पर अलगाववादियों की ही तरह विभिन्न घिनौने आरोप लगाने से भी बाज नहीं आते। एक तर्क वे यह देते हैं कि बन्दूक के जोर से जम्मू-कश्मीर को अपना नहीं बनाया जा सकता, इसलिए वहां से सेना हटा देनी चाहिए। उन से पूछा जाना चाहिए कि वहां से सेना को हटा देने से क्या वहां हालात बदल जाएंगे और सबकुछ ठीक हो जाएगा ?  अब इतने भोले तो वे हैं नहीं कि ये न समझ सकें कि सेना के हटते ही जम्मू-कश्मीर को भारत में आतंकियों का गढ़ बनते देर नहीं लगेगी जो न केवल जम्मू-कश्मीर बल्कि पूरे देश के लिए अत्यंत घातक होगा। अतः जम्मू-कश्मीर से सेना को हटाने का फ़िलहाल तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। पर वे यह सब करते हैं क्योंकि उन्हें तथाकथित सेकुलर कहलाना है और उसके लिए आवश्यक है कि उस मजहब विशेष का तुष्टिकरण किया जाय जिसका जमू-कश्मीर में बाहुल्य है तथा अलगावादी भी जिससे सम्बंधित हैं। पर ये सब करते हुए शायद वे यह भूल जाते हैं कि इस देश के लोगों में सेना के प्रति अकूत श्रद्धा, विश्वास और आदर है जो उनके लाख-करोड़ आरोप लगाने के बाद भी नहीं हिलने वाला बल्कि ऐसा करके वे अपनी छवि को ही धूमिल करने का काम कर रहे हैं। भारतीय सेना है तो ही यह देश पाकिस्तान और चीन जैसे संदिग्ध पड़ोसियों से घिरे होने के बावजूद सुरक्षित वातावरण में प्रगति कर पा रहा है, हमारे जवान दिन-रात सर्दी-गर्मी-बरसात से बेपरवाह देश कि रक्षा में तत्पर रहते हैं, अतः उनपर प्रश्न उठाना किसी लिहाज से उचित नहीं और निश्चित ही ऐसा करने वालों का राष्ट्रप्रेम संदिग्ध माना जाना चाहिए।

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

निजी ट्यूशन के बढ़ते चलन के निहितार्थ [जनसत्ता और दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनसत्ता 
स्कूलों-कॉलेजों में तो शिक्षा का भरपूर व्यावसायीकरण हो ही रहा है, इनसे बाहर भी निजी ट्यूशन के रूप में शिक्षा के जरिये धनार्जन का धंधा आज धीर-धीरे काफी जोर पकड़ चुका है। हालांकि ऐसा नहीं है कि  ट्यूशन का ये चलन अकस्मात् जन्मा हो। अध्यापकों द्वारा बच्चों को निजी ट्यूशन देने का कार्य तो काफी पूर्व से किया जाता रहा है लेकिन, विगत कुछ वर्षों से निजी ट्यूशन के इस चलन में काफी वृद्धि देखने को मिल रही है। दरअसल पहले ट्यूशन शिक्षा के अंतर्गत एक विशेष सुविधा के रूप में होती थी, पर समय के साथ यह एक अनिवार्य व्यवस्था का रूप लेती जा रही है। इस बात का प्रमाण ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान’ (एनएसएसओ) की हाल ही में आई एक रिपोर्ट को देखने पर मिल जाता है। एनएसएसओ की  रिपोर्ट के अनुसार इस वक़्त देश में निजी ट्यूशन ले रहे विद्यार्थियों की कुल संख्या लगभग ७.१ करोड़ है जो कि कुल विद्यार्थियों की संख्या का २६ फीसद है। हालांकि यह सिर्फ सीमित आंकड़ों का अनुमानित विस्तार करके जुटाया गया आंकड़ा है, इसलिए विद्यार्थियों की यह संख्या और भी अधिक  होने की संभावना है। इस रिपोर्ट में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह भी सामने आई है कि बच्चों को ट्यूशन भेजने में अब पारिवारिक पृष्ठभूमि का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है। पहले यही होता था कि प्रायः सपन्न परिवार के ही बच्चे ट्यूशन में जाते थे मगर, अब इस स्थिति में परिवर्तन आ गया है। संपन्न परिवार हो  या गरीब परिवार, सब अपनी पूरी क्षमता के अनुसार अपने बच्चे को निजी ट्यूशन के लिए भेजने लगे हैं। इस बात को इस आंकड़े के जरिये और अच्छे से समझा जा सकता है कि शहरी इलाकों में ३८ फीसदी संपन्न परिवारों के छात्र ट्यूशन जाते हैं तो इनसे बहुत थोड़ी कमी के साथ गरीब परिवार के भी ट्यूशन जाने वाले बच्चों की संख्या ३० फीसदी हैं। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में भी जहाँ संपन्न परिवारों के २५ फीसदी बच्चे ट्यूशन जाते हैं, वहीँ गरीब परिवारों के भी १७ फीसदी बच्चे ट्यूशन का सहारा लिए हुए हैं। ये अलग बात है कि संपन्न परिवार के बच्चे कथित तौर पर ज्यादा अच्छे ट्यूटर के पास ट्यूशन लेने जाते हैं तो गरीब परिवार के बच्चे शायद थोड़े कम अच्छे ट्यूटर के पास। लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि ट्यूशन लेने के प्रति संपन्न-विपन्न में अब कोई भेद नहीं रह गया है और सब अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने बच्चों को ट्यूशन भेजने लगे हैं। वैसे ट्यूशन लेने वाले इन छात्रों में उच्च शिक्षा के छात्र कम हैं, अधिक छात्र स्कूली शिक्षा से  ही सम्बंधित हैं। ट्यूशन के प्रति लोगों के इस अति-आकर्षण का ही परिणाम है कि लोगों के घर खर्च में अब ट्यूशन की हिस्सेदारी बढ़कर १२ फीसदी हो गई है। इस स्थिति का स्वाभाविक रूप से अध्यापकों द्वारा लाभ लेने की कामयाब कोशिश की जा रही है। इसके लिए वे विभिन्न प्रकार के उपाय अपना रहे हैं। जैसे कि कहीं  वे स्कूल के बाद निजी ट्यूशन कक्षा चलाने लग रहे तो तमाम अध्यापक ऐसे भी हैं जो घर-घर जाकर भी ट्यूशन देने को तैयार हैं। बहुत से अध्यापक बच्चों को कक्षा और विषय के अनुसार समूह में विभाजित कर अपने घर बुलाकर भी ट्यूशन देने का तरीका अपनाए हुए हैं तो कितने अध्यापक जिनकी विश्वसनीयता और साख थोड़ी स्थापित हो गई है, वे अपनी शर्तों जैसे कि सप्ताह में  दो या तीन दिन वो भी कोई एक विषय ही पढ़ाना तथा इसकी भी अत्यधिक फीस लेना आदि, पर ट्यूशन दे रहे हैं। इनके अलावा और भी तमाम तरीके हैं जिनके जरिये अध्यापकों द्वारा बच्चों को ट्यूशन दी जा रही है। अध्यापकों से इतर ऐसे तमाम लोग जो किसी स्कूल आदि में नहीं पढ़ाते और कुछ अन्य कार्य करते हैं, वे भी अतिरिक्त समय में बच्चों को ट्यूशन देकर अच्छी-खासी आमदनी कमा ले रहे हैं। खासकर ग्रामीण तबकों में तो ऐसे भी ट्यूटर्स की भरमार मिलेगी, जिनकी शिक्षा बेहद सामान्य रही है और अपने समय में वे संभवतः औसत विद्यार्थी  रहे हैं, लेकिन लोगों में ट्यूशन के प्रति पनपे इस भारी लगाव का लाभ लेकर वे भी आज गुरूजी बन गए हैं। कुल मिलाकर तस्वीर यही है कि ट्यूशन की तरफ लोगों का रुझान  बहुत बढ़ा है, जिसकी गवाही एनएसएसओ के उपर्युक्त आंकड़े तो देते ही हैं, जमीनी हालात देखने पर भी इसकी पुष्टि होती है।
अब सवाल यह उठता है कि ट्यूशन को लेकर लोगों में इस आकर्षण के बढ़ते जाने का कारण क्या है ? उल्लेखनीय होगा कि अपने बच्चों को ट्यूशन भेजने वाले अभिभावकों से जब एनएसएसओ ने अपने सर्वेक्षण के दौरान यही सवाल पूछा तो उनमे ८९ फीसदी का कहना था कि अपने बच्चों को ट्यूशन भेजकर वे उनकी शैक्षिक बुनियाद को मजबूत कर रहे हैं। इनमे कितनों ने स्कूल के वृहद् पाठ्यक्रम के मद्देनज़र ट्यूशन लेने को आवश्यक बताया तो बहुतों अभिभावकों का तो स्पष्ट रूप से यही कहना रहा कि स्कूली शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं होने के कारण उन्हें अपने बच्चों को ट्यूशन भेजना पड़ रहा है। यह देखते हुए समझना आसान है कि ट्यूशन के प्रति लोगों में बढ़ रहे इस अत्याकर्षण का मुख्य कारण स्कूली शिक्षा पर से उनके विश्वास का कम होते जाना है।
दैनिक जागरण 
इसी संदर्भ में अगर भारत की शिक्षा खासकर प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था पर एक नज़र डालें और यह पड़ताल करने का प्रयास करें कि क्या वाकई में स्थिति इतनी ख़राब है कि लोगों का इसपर से विश्वास ही उठ रहा है और वे अपने बच्चों को ट्यूशन का सहारा देने लगे हैं। दरअसल स्थिति खराब तो है ही और फिलवक्त देश की प्राथमिक शिक्षा एक नहीं, विभिन्न प्रकार की अनेक समस्याओं से ग्रस्त है। इनमे गुणवत्तायुक्त शिक्षा से लेकर ढांचागत सुविधाओं तक हर स्तर पर समस्याएँ हैं। ढांचागत सुविधाओं को एकबार के लिए छोड़ भी दें तो गुणवत्तायुक्त शिक्षा के स्तर को कत्तई नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता। देश में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की इस रिपोर्ट पर गौर करना उपयुक्त होगा जिसके मुताबिक देश की कक्षा पाँच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं। ये तथ्य हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त है। विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं श्रेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम। शिक्षकों की कमी की बात तो आए दिन उठते ही रहती है, पर इसके अलावा एक सवाल यह भी उठता है कि जो शिक्षक हैं, क्या वे इतने योग्य और कुशल हैं कि बच्चों को समुचित रूप से शिक्षा दे पाएं ? इस सम्बन्ध में तथ्य यही है कि शिक्षकों की कमी तो है, पर सरकारी स्कूलों में अधिक। निजी स्कूल इस समस्या से कम ग्रस्त हैं। अब रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की तो यहाँ भी सबकुछ ठीक नहीं दिखता। हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता ये समस्या अंग्रेजी माध्यम या निजी स्कूल से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के साथ कुछ अधिक ही है। अंग्रेजी माध्यम के पाठ्यक्रम पर नज़र डाले तो उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों  की बौद्धिक अवस्था गिनती-पहाड़ा सीखने की है, उनके लिए जोड़-घटाव सिखाने वाला पाठ्यक्रम निर्धारित है। अब ऐसे पाठ्यक्रम से ये उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो वे ऐसी पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे। इस प्रकार स्पष्ट है कि सरकारी स्कूल जहाँ कम शिक्षकों की समस्या से जूझ रहे, वहीँ निजी विद्यालय अनुचित पाठ्यक्रम चला रहे हैं। बच्चे पढ़ें तो कैसे और क्या पढ़ें ?
   निश्चित ही इन्हीं समस्याओं के मद्देनज़र आज अभिभावकों का स्कूली शिक्षा से विश्वास डगमगाने लगा है और वे ट्यूशन की शरण ले रहे हैं। लेकिन उन्हें कौन समझाए कि ट्यूशन में भी सबकुछ अच्छा नहीं है। ट्यूशन के प्रति उनके इस अन्धोत्साह का काफी अयोग्य शिक्षकों द्वारा अनुचित लाभ भी लिया जा रहा है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है कि देश के में गली-गली खासकर शहरी इलाकों में खुले छोटे-छोटे निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले तमाम शिक्षक-शिक्षिकाओं द्वारा स्कूल से छूटते ही सीधे वहीँ से बच्चों को अपने घर लाकर निजी ट्यूशन के नाम पर एक साथ चालीस-पचास बच्चों तक को ट्यूशन देने का चलन खूब देखने को मिल रहा है। परीक्षा में ये शिक्षक-शिक्षिकाएं स्कूल में मौजूद रहते हैं तो अपने पास पढ़ने वाले बच्चों की सहायता कर देते हैं जिससे उनके नंबर अच्छे आ जाते हैं और अभिभावक यह मान लेते हैं कि उनका बच्चा ट्यूशन के कारण पढ़ने में तेज हो रहा है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही होती है। यह एक उदाहरण है, ऐसी ही और भी तमाम विसंगतियां ट्यूशन में मौजूद हैं। अब इन सब स्थितियों के मद्देनज़र यही कह सकते हैं कि देश की स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने की तरफ सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए जिसमे कि ऊपरी टीप-टाप से अधिक ध्यान शिक्षा की गुणवत्ता पर केन्द्रित हो। इसके अलावा शिक्षित अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को अन्धोत्साह में ट्यूशन  भेजने की बजाय यदि स्वयं समय निकालकर नियमित रूप से उन्हें पढाएं तो वे बच्चे ट्यूशन ले रहे बच्चों की अपेक्षा अधिक सुशिक्षित होंगे।

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

परमाणु सुरक्षा पर वास्तव में गंभीर हों महाशक्ति देश [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
विगत दिनों अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में चौथा परमाणु सुरक्षा सम्मलेन संपन्न हुआ। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहल पर सं २०१० में इसकी शुरुआत की गई थी। तबसे अबतक २०१०, २०१२, और २०१४ में तीन बार यह सम्मेलन हो चुका है और यह चौथा आयोजन था। इसका उद्देश्य परमाणु सुरक्षा को लेकर विश्वव्यापी नीति बनाना और परमाणु प्रसार को नियंत्रित करना है। यह परमाणु सुरक्षा सम्मेलन इस नाते अत्यंत महत्वपूर्ण था कि हाल के दिनों में परमाणु सुरक्षा को लेकर चिंताएं बेहद बढ़ी हैं। पर सवाल यह उठता है कि इस सम्मेलन से परमाणु सुरक्षा को लेकर जो वर्तमान चिंताएं हैं, उनके निवारण के लिए  क्या दुनिया के देशों द्वारा कुछ कदम भी उठाए गए या यह सिर्फ बातों का ही मंच बनकर रह गया ? इस सम्मेलन में दुनिया के पचास देशों के शीर्ष नेताओं ने शिरकत की, मगर दुनिया का द्वितीय अघोषित महाशक्ति रूस इसमें शामिल नहीं हुआ, जिसने इसकी सफलता को प्रारंभ में ही संदिग्ध बना दिया। रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का सदस्य देश भी है, इस नाते भी उसका इस सम्मेलन में शामिल न होना चिंतित करता है। दरअसल रूस के इस सम्मेलन में उपस्थित न होने का कारण यह माना जा रहा है कि उसे सम्मेलन का एजेंडा तय करने की प्रक्रिया से दूर रखा गया, इस नाते नाराजगी के कारण वो इसमें शामिल नहीं हुआ। बहरहाल एक तरफ यह परमाणु सुरक्षा सम्मेलन हो रहा था और दूसरी तरफ उत्तर कोरिया के बैलिस्टिक परीक्षण की खबर सामने आई। इस परिक्षण ने कहीं न कहीं यह सिद्ध किया कि ऐसे सम्मेलन की वर्तमान दौर में अत्यंत प्रासंगिकता है।
भारत की बात करें तो इस सम्मेलन में शामिल भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के नेताओं को भारत की परमाणु सुरक्षा के विषय में आश्वस्त किया तथा आतंकियों के रूप में परमाणु सुरक्षा के खतरे को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि हम किसी गुफा में छिपे आदमी की तलाश नहीं कर रहे हैं, अब हमें उस आतंकी की तलाश है, जो शहर में मौजूद है और जिसके पास एक कंप्यूटर और स्मार्टफोन है। तीसरा, परमाणु तस्करों और आतंकियों के साथ मिलकर काम करने वाले सरकारी तत्व सबसे बड़ा खतरा पैदा करते हैंआतंकवाद के विकसित हो जाने की बात कहते हुए पीएम मोदी ने कहा कि आतंकी 21वीं सदी की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन हमारी प्रतिक्रियाएं अब भी पुराने जमाने की हैं। पीएम ने स्पष्ट किया कि  आतंकवाद की पहुंच और आपूर्ति श्रृंखला वैश्विक है लेकिन देशों के बीच स्वाभाविक सहयोग वैसा नहीं है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए दुनिया के सामने विभिन्न उपाय भी रखे जिनमे उनका मुख्य जोर तकनीक के द्वारा परमाणु सुरक्षा को करने पर रहा। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने मेरा आतंकी और दूसरे का आतंकी जैसी अवधारणा को भी खारिज करते हुए दुनिया से एकजुट होकर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने और परमाणु सुरक्षा का आह्वान किया। भारत की तरफ से तो ये जो बातें कही गईं हैं, भारत उनका समुचित पालन भी करता है। लेकिन दुनिया के अन्य देशों की कथनी-करनी में ऐसी समानता नहीं दिखती।
इसी प्रकार इस सम्मेलन में आए सभी राष्ट्राध्यक्षों ने परमाणु सुरक्षा को लेकर तरह-तरह की बातें की और सुझाव दिए। लेकिन सवाल यही है कि क्या परमाणु सुरक्षा को लेकर दुनिया के सभी देश वास्तव में प्रतिबद्ध हैं ? चूंकि, इस सम्मेलन में शामिल तमाम देशों का व्यवहार तो ऐसा नहीं दिखाता कि वे परमाणु सुरक्षा को लेकर गंभीर हैं। २०१० में जिस अमेरिका की पहल पर इस सम्मेलन की शुरुआत हुई थी, खुद उसका रुख ही परमाणु सुरक्षा और प्रसार को लेकर गंभीर नहीं दिखता। एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा परमाणु सुरक्षा की बात कर रहे, तो वही दूसरी तरफ उन्हीके देश में राष्ट्रपति के लोकप्रिय उम्मीदवार के रूप में उभर रहे डोनाल्ड ट्रंप ने अभी एक बयान में कहा कि अमेरिका को दक्षिण कोरिया आदि देशों की सुरक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि इन देशों को भी परमाणु शक्ति विकसित कर लेनी चाहिए। डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के संभावित राष्ट्रपतियों में से एक हैं, इसलिए उनका यह बयान हलके में नहीं लिया जा सकता। चीन की बात करें तो अघोषित रूप से ही सही पर इस बात में किसीको कोई संदेह नहीं कि उत्तर कोरिया जैसा कंगाल देश अगर एक से बढ़कर परमाणु परीक्षण कर रहा है तो इसके पीछे चीन का ही सहयोग है। रूस ने तो इस बार इस सम्मेलन से किनारा ही कर लिया। ये सब दुनिया के परमाणु शक्ति संपन्न और शक्तिशाली देश हैं, अतः इनका यह रुख चिंताजनक है। अगर परमाणु सुरक्षा करनी है तो समय की आवश्यकता है कि दुनिया के ये महाशक्ति देश निजी हितों से ऊपर से उठकर परमाणु सुरक्षा पर ध्यान केन्द्रित करें।

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

चीन-पाक गठजोड़ पर क्या हो भारत की रणनीति ? [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और हरिभूमि में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
एक कथन है कि शत्रु का शत्रु सबसे अच्छा मित्र होता है। चीन यह बात बहुत अच्छे से जानता है। इसी नाते वह भारत से शत्रुता मानने वाले देश पाकिस्तान को साधने तथा उसका भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की लगातार कोशिश करता रहता है, जिसमे कि उसे अपेक्षित कामयाबी भी मिली है। इसका सबसे ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब अभी हाल में भारत द्वारा पठानकोट हमले तथा देश में हुए अन्य कई और आतंकी हमलों के गुनाहगार जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबन्ध लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव पेश किया गया। भारत के इस प्रस्ताव पर विचार करने को १५ में से १४ देश सहमत थे लेकिन, अकेले चीन इसके विरुद्ध खड़ा था और उसने भारत के इस प्रस्ताव के खिलाफ अपने वीटो का प्रयोग कर इसे निष्प्रभावी कर दिया। चीन ने तर्क यह दिया कि मसूद अज़हर आतंकी होने के संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित मानदंडों को पूरा नहीं करता है, इसलिए उसपर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता। भारत ने इसपर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया जरूर जाहिर की है, मगर उससे चीन पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिख रहा। दरअसल यह तो एक मौका है जब चीन का पाक-प्रेम और भारत विरोध अंतर्राष्ट्रीय पटल पर सामने आया है, अन्यथा तो वो लम्बे समय से और विभिन्न स्तरों पर भारत के खिलाफ पाक का साथ देता रहा है। विगत दिनों चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पाकिस्तान दौरे के दौरान भी चीन का ऐसा ही कुछ रुख देखने को मिला था, जब उसने इस दौरे के दौरान भारत की तमाम आपत्तियों के बावजूद गुलाम कश्मीर से होकर गुजरने वाले ४६ अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर की शुरुआत कर दी थी। इसके अलावा तमाम चीन की तरफ से पाकिस्तान को घोषित-अघोषित रूप से तमाम आर्थिक व तकनिकी सहयोग आदि मिलता ही रहता है। साथ ही, जमू-कश्मीर विवाद को लेकर भी चीन अकसर पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा होता रहा है और पाक अधिकृत कश्मीर में तो उसके सैनिकों की मौजूदगी की बात भी सामने आ चुकी है।
  अब वैसे तो चीन का पाक-प्रेम नया नहीं है मगर, हाल के एकाध वर्षों में ये प्रेम काफी ज्यादा बढ़ता दिख रहा है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि विगत वर्ष भारत में नई सरकार के गठन के बाद से ही  भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारतीय विदेश नीति को जिस तरह से साधा गया है, उसने कहीं न कहीं भीतर ही भीतर चीन को परेशानी में डाल दिया है। फिर चाहें वो एशिया हो या योरोप।।मोदी भारतीय विदेश नीति को सब जगह साधने में पूर्णतः सफल रहे हैं। एशिया के नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव, जापान  आदि देश हों, विश्व की द्वितीय महाशक्ति रूस हो या फिर यूरोप के फ़्रांस, जर्मनी हों अथवा स्वयं वैश्विक महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका हो, इन सबके दौरों के जरिये प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 2०-२२ महीनों के दौरान भारतीय विदेशनीति को एक नई ऊँचाई दी है। साथ ही इनमें से अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्षों का भारत में आगमन भी हुआ है, जिसने न केवल एशिया में वरन पूरी दुनिया में भारत की साख में भारी इजाफा किया। भारत की यह बढ़ती वैश्विक साख ने चीन को परेशान किया हुआ था कि तभी भारत के दबाव में आकर श्रीलंका ने चीन को अपने यहाँ बंदरगाह बनाने की इजाजत देने से इंकार कर दिया। वहीँ दूसरी तरफ भारतीय प्राधानमंत्री नरेंद्र मोदी मॉरीशस और सेशेल्स में एक-एक द्वीप निर्माण की अनुमति प्राप्त कर लिए। इन बातों ने चीन को और परेशान कर के रख दिया। कहीं न कहीं भारत की इन्हीं सब कूटनीतिक सफलताओं से भीतर ही भीतर बौखलाए चीन की बौखलाहट इन दिनों  पाकिस्तान पर हो रही भारी मेहरबानी के रूप में सामने रही है। कहने की जरूरत नहीं कि इन सब गतिविधियों के मूल में चीन का  एक ही उद्देश्य है कि पाकिस्तान के जरिये भारत को दबाया जाय और परेशान किया जाय। चूंकि, पाकिस्तान भारत का ऐसा निकटतम पडोसी है, जिससे भारत के सम्बन्ध अत्यंत खटास भरे रहते आए हैं और विदेश नीति तमाम सफलताओं के बावजूद भारत-पाक सम्बन्ध आज भी पूर्व की ही तरह अस्थिर हैं। चीन भारत-पाक संबंधों की इसी अस्थिरता का लाभ लेने की कोशिश में रहता है और कूटनीतिक दृष्टिकोण से उसका ये करना गलत भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे में, सवाल यह है कि चीन-पाक के इस गठजोड़ का भारत के लिए कितना महत्व है ? क्या इसमें भारत के लिए चिंतित होने जैसा कुछ है ? निस्संदेह चीन की असीमित शक्ति और पाकिस्तान की कुटिल प्रवृत्ति का ये एका भारत के लिए चिंताजनक है और इस सम्बन्ध में भारत को पूरी तरह से सचेत रहने की आवश्यकता है।
हरिभूमि 
   अब सवाल यह उठता है कि भारत चीन-पाक के इस गठजोड़ के खिलाफ किस रणनीति के तहत चले कि चीन को जवाब भी मिल जाए और भारत को कोई हानि भी न हो। मतलब कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। इस संदर्भ में किसी विद्वान का यह कथन उल्लेखनीय होगा कि अटैक इज द बेस्ट डिफेंस। भारत के प्रति चीन की विदेश व कूटनीति हमेशा से इसी कथन पर आधारित रही है। वो शुरू से ही भारत के प्रति यही नीति अपनाता रहा है, पर भारत ने हमेशा से चीन के प्रति रक्षात्मक रवैया अख्तियार करने में ही विश्वास किया है। मगर अब समय बदल गया है तो भारत को अपने इस रक्षात्मक रुख में परिवर्तन लाना चाहिए और कहीं न कहीं भारत द्वारा ऐसा किया भी जा रहा है। चीन के प्रति आक्रामक रुख अपनाते हुए भारत चाहे तो उसे उसीकी नीतियों के जरिये दबा सकता है। अब जैसे कि चीन-पाक गठजोड़ का प्रश्न है तो चीन के इस वार का प्रतिकार भारत जापान के रूप में कर सकता है। चूंकि, विगत कुछ वर्षों से चीन-जापान संबंधों में समुद्री द्वीपों को लेकर काफी खटास आई है। भारत इस स्थिति का लाभ लेते हुए जापान को अपनी ओर कर चीन को काफी हद तक परेशान कर सकता है। इसके अलावा अन्य छोटे और कमजोर एशियाई देशों से अपने संबंधों को बेहतर कर तथा उनका समर्थन हासिल करके भी भारत चीन-पाक गठजोड़ की चीनी कूटनीति को जवाब दे सकता है। सुखद बात यह है कि मोदी सरकार के आने के बाद इस दिशा में कदम उठाए गए हैं, लेकिन जरूरत है कि इन संबंधों को और मजबूती दी जाय तथा कूटनीतिक दृष्टिकोण से इनका लाभ लेने के लिए कदम भी उठाए जाएं। ऐसे ही, जम्मू-कश्मीर मामले में चीन के हस्तक्षेप को जवाब देने के लिए भारत का सबसे उपयुक्त अस्त्र तिब्बत है। वैसे भी, तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा भारत से अत्यंत प्रभावित रहते आए हैं। ऐसे में, भारत को चाहिए कि वो दलाई लामा को अपने साथ जोड़कर चीनी नाराजगी की परवाह किए बगैर तिब्बत मामले को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाते हुए चीन पर दबाव बनाए कि वो तिब्बत को स्वतंत्र करे। इनके अतिरिक्त और भी तमाम उपाय हो सकते हैं, जिनके जरिये भारत चीन की कूटनीतिक चालों का समुचित उत्तर दे सकता है। बशर्ते कि भारत अब अपनी अतिरक्षात्मक और किसी भी कीमत पर शांति की नीति को तिलांजलि देकर आक्रामक रूख अपनाए और यह स्मरण रखे कि विदेश नीति में सबसे ऊपर केवल और केवल राष्ट्रहित होता है।

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

मप्र के पीएचडी धारकों का दर्द कौन सुने [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

वर्तमान समय में मध्य प्रदेश भर के कई पीएचडी होल्डर्स के सामने बेरोजगार होने का खतरा मंडरा रहा है। यह खतरा यूजीसी के नए नियमों के चलते बना हुआ है। यूजीसी गाइडलाइन का हवाला देकर इन्हें लोक सेवा आयोग की सहायक प्राध्यापक भर्ती के लिए अपात्र कर दिया गया, जबकि यही प्रदेश के विभिन्न कॉलेज और यूनिवर्सिटी मेें अतिथि विद्वान के रूप में पढ़ा रहे हैं। यूजीसी के द्वारा किये गए नियमों में बदलाव की वजह पूरे प्रदेश में तकरीबन एक लाख पीएचडी धारक हैं, जिन को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इतनी बड़ी संख्या में युवाओं का बेरोजगार होने से देश के लिए बहुत बड़ी दिक्कत खड़ी हो सकती है। देश का भविष्य कहे जाने वाले युवाओं के साथ यूजीसी द्वारा किये जा रहे इस बर्ताव से आने वाले समय में पीएचडी के प्रति युवाओं की रूचि कम हो सकती है। इतना ही नहीं बल्कि यूजीसी के महज एक फैसले से सभी प्रभावित पीएचडी होल्डर्स का भविष्य भी अन्धकार में जा सकता है। सरकार द्वारा इस मुद्दे पर किसी प्रकार से मदद न होने की वजह से भी तनातनी का माहौल बन सकता है। ऐसे में जरुरी है कि सरकार यूजीसी के साथ मिलकर इस पर पीएचडी होल्डर्स के पक्ष में कोई फैसला करे। इसी क्रम में अगर यूजीसी के नियमों जिनके कारण यह पूरा विवाद पनपा है, पर गौर करें तो फिलवक्त यूजीसी गाइडलाइन के अनुसार वर्ष 2009 से पहले पीएचडी करने वालों के लिए कोर्स वर्क अनिवार्य है। प्रदेश में ऐसे करीब एक लाख पीएचडी होल्डर हैं। वर्ष 2007 से लेकर 2009 तक में रजिस्ट्रेशन करवाने वाले पीएचडी होल्डर्स ने कोर्स वर्क भी कर लिया, लेकिन आयोग इन्हें भी परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं दे रहा। परीक्षा के लिए पोर्टल करीब 12 दिन बाद शुरू हुआ था। बावजूद आयोग ने अब भी अंतिम तिथि 4 अप्रैल रखी है। आयोग ने अब तक तारीख आगे बढ़ाने का निर्णय नहीं लिया है। अब नियम से तो यही होना चाहिए कि  करीब बीस साल बाद हो रही सहायक प्राध्यापक भर्ती परीक्षा से पहले शासन ने स्लेट भी नहीं करवाई। प्रदेश के कॉलेज और यूनिवर्सिटी में करीब 3600 अतिथि विद्वान हैं। इनमें से करीब ढाई हजार ऐसे हैं, जिन्हें अतिथि विद्वान के तौर पर सेवाएं देते हुए दस साल से अधिक समय हो चुका है। भर्ती परीक्षा में शामिल नहीं होने से इनके सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया जाएगा। इन्हें अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आदेश का इंतजार है। लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है कि आखिर यूजीसी आए दिन ऐसे उटपटांग और अध्ययन से हीन नियम क्यों लाता रहता है ? और क्या इस तरह यूजीसी अपनी स्थापना के उद्देश्य को पूरा कर पा रहा है ?
गौर करें तो सन १९५६ में संवैधानिक रूप से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि यह केंद्र एवं राज्य सरकारों तथा उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाओ के बीच समन्वयक संस्था के रूप में कार्य करेगा। इसकी नियमावली के खंड १२ में उल्लिखित बातों के जरिये इसके स्थापना उद्देश्यों को समुचित ढंग से समझा जा सकता है, इसमें लिखा गया है कि यूजीसी शिक्षा के संवर्द्धन और समन्वयन के लिए शिक्षण, परीक्षा और शोध के क्षेत्र में सम्बंधित विश्वविद्यालय के साथ मिलकर इच्छित कदम उठा सकेगा। इसके अतिरिक्त यूजीसी को यह अधिकार भी दिया गया है कि वो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकार और विश्वविद्यालयों को परामर्श भी दे सकेगा तथा अपने द्वारा सुझाए कार्यों के क्रियान्वयन हेतु विश्वविद्यालयों को अपने कोष से अनुदान भी देगा। स्पष्ट है कि यूजीसी को काफी अधिकार दिए गए हैं लेकिन, इन अधिकारों में ही उसके महत्वपूर्ण कर्तव्य भी तो मौजूद हैं। मगर मौजूदा दौर में इस आयोग (यूजीसी) की विडंबनात्मक स्थिति यह है कि ये अपने अधिकारों का तो खूब उपयोग या दुरूपयोग कर रहा है मगर, अपने कर्तव्यों को काफी हद तक भूल चुका है। तभी तो ये शिक्षा या छात्रों के हितों से सम्बंधित फैसलों के कारण कम, उनके खिलाफ लिए गए अपने विवादास्पद फैसलों के कारण अधिक चर्चा में रह रहा है। यह मध्य प्रदेश के पीएचडी धारकों का मामला तो है ही, इससे पहले भी दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक कोर्स की पढाई को चार साल किये जाने के मसले पर दिल्ली विश्वविद्यालय व् यूजीसी के बीच ठन चुकी है। स्पष्ट है कि यूजीसी को विश्वविद्यालय के साथ समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से बनाया गया था लेकिन, ये उनपर अपने निर्णय थोपने की कोशिश करता रहता है और बात ना मानने पर अनुदान रोक देने का औजार तो इसके पास है ही। कहीं न कहीं यूजीसी के इन्हीं गैरजिम्मेदाराना और उद्देश्य हीन बर्तावों के कारण विगत वर्ष शिक्षा मंत्री स्मृति इरानी द्वारा गठित एक समिति ने जांच के उपरान्त कहा था कि यूजीसी अपने उद्देश्य में पूरी तरह से विफल रहा है, अतः इसे भंग कर देना चाहिए।
   हालांकि यूजीसी को भंग कर देना कोई उपाय नहीं है क्योंकि, इस प्रकार की एक संस्था की आवश्यकता हमारी उच्च शिक्षा को है बशर्ते कि इसमे सुधार किया जाय। सुधार से मुख्य तात्पर्य यह है कि इसके अधिकारों को सीमित किया जाय तथा इसकी गतिविधियों की देख-रेख हेतु इसके ऊपर एक निगरानी व्यवस्था बना दी जाय, जिससे ये विश्वविद्यालयों के साथ मनमानी न कर सके। हालांकि यह सब बाद की चीजें फिलहाल सबसे पहले तो आवश्यक यह है कि सरकार मध्य प्रदेश पीएचडी धारकों के मामले में आवश्यक हस्तक्षेप कर कोई बीच का रास्ता निकाले जिससे उनका भविष्य अन्धकार में न जाए।