मंगलवार, 31 मार्च 2015

अच्छा खेली टीम इण्डिया [कल्पतरु एक्सप्रेस और दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

कल्पतरु एक्सप्रेस 
क्रिकेट विश्व कप-२०१५  के दोनों मेजबान देशों आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच क्रिकेट के इस महाकुम्भ का फाइनल मुकाबला आस्ट्रेलिया की जीत के साथ ही संपन्न हो गया। इस पूरे आयोजन में आस्ट्रेलिया ने अन्य टीमों के मुकाबले बहुत अच्छा प्रदर्शन किया, इसलिए सही मायने में वही इस जीत के योग्य थी। भारतीय टीम की बात करें तो भारतीय टीम इस विश्वकप के सेमीफाइनल में आस्ट्रेलिया से हारकर बाहर भले हो गई, लेकिन इसका यह अर्थ कत्तई नहीं कि इस पूरे आयोजन में उसका प्रदर्शन ख़राब रहा या हमारे खिलाड़ियों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। गौर करें तो सेमीफाइनल में पहुँचने से पहले भारतीय टीम लगातार सात मैच जीतने में कामयाब रही। यह अवश्य  है कि उनमें से बहुतायत मैच बांग्लादेश, जिम्बाब्वे जैसी आसान और अपेक्षाकृत कमजोर टीमों के साथ थे, लेकिन साथ ही इनमे अफ्रीका, पाकिस्तान और वेस्ट इंडीज जैसी मजबूत टीमें भी थीं। पर इन सबको मजबूती से पटकनी देते हुए भारतीय टीम इस विश्वकप के सेमीफाइनल में पहुँची। अब चूंकि सेमीफाइनल में भारत का मुकाबला एक दिवसीय क्रिकेट की नंबर एक उस आस्ट्रेलिया टीम के साथ पड़ा, जिसकी जमीन पर यह विश्वकप हो रहा था। परिणामतः इस मुकाबले में भारत का कोई दाव नहीं चला। न तो गेंदबाजी और न ही बल्लेबाजी और भारत हारकर विश्वकप की दौड़ से बाहर हो गया। अब हार-जीत तो खेल का हिस्सा होते हैं, लेकिन भारत की इस हार पर क्रिकेट विश्लेषकों व क्रिकेट प्रेमियों आदि के जरिये जिस तरह से भारतीय खिलाड़ियों की निंदा-भर्त्सना की जा रही है, वो बेहद अनुपयुक्त और खेल भावना की दृष्टि से अस्वीकार्य है। कुछेक खिलाड़ियों पर जिस तरह से निजी हमले किए जा रहे हैं, वो तो बिलकुल भी सही नहीं कहे जा सकते। यह सही है कि हार बेहद कड़वी होती है, पर उसे झेलते हुए उसके लिए जिम्मेदार कमियों को दूर करना और आगे के लिए तैयारी करना ही उसका सबसे बड़ा सबक होता है, बजाय इसके कि उस हार को दिल से लगाकर बैठ जाया जाय। वातानुकूलित कमरों में बैठकर खिलाड़ियों को सीख देना व उनके प्रदर्शन में कमियाँ निकालना जितना आसान है, लाखों-करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की अपेक्षाओं के मनोवैज्ञानिक दबाव के साथ कई हजार दर्शकों से घिरे मैदान पर खेलना उतना ही कठिन है। तिसपर यदि मुकाबला विश्वकप के सेमीफाइनल का हो तब तो ये दबाव और भी अधिक बढ़ जाता है। आखिर हमारे खिलाड़ी भी हमारी-आपकी तरह हाड़-मांस के बने इंसान ही हैं, जो अपने घर-परिवार या उसके साथ बिताएं जाने वाले अनेक महत्वपूर्ण क्षणों की कुर्बानी देकर भी देश के लिए खेलते हैं तथा कभी जीतते हैं तो कभी हारते भी हैं। तो अब प्रश्न यह है कि हम क्रिकेट प्रेमी क्या इतने स्वार्थी और भावनाहीन हो गए हैं कि जीत के समय तो उन्हें सिर पर बिठा लेते हैं, लेकिन हार के समय दिल में भी जगह न दे पाते और सीधे जमीन पर पटक देते हैं ? इसी सन्दर्भ में एक उदाहरण इसी विश्वकप से लें तो भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी जब यह विश्वकप खेल रहे थे तो यहाँ इण्डिया में उनकी पत्नी गर्भवती थीं और उनके आस्ट्रेलिया में होने के दौरान ही उनकी प्रथम संतान बेटी का जन्म भी हुआ, लेकिन वे अपनी पत्नी और बेटी को देखने इण्डिया नहीं आए और अपने खेल व उसकी तैयारियों पर ध्यान केन्द्रित किए रहे। अगर वे चाहते तो क्या मैचों के अंतराल के दौरान एक दिन के लिए स्वदेश नहीं आ सकते थे; क्या यह उनके लिए जरा भी मुश्किल था ? कत्तई नहीं! लेकिन अपनी इन पारिवारिक भावनाओं और खुशियों से अधिक महत्व उन्होंने खेल को दिया।  
दबंग दुनिया 
  
  अब अगर इस विश्वकप में प्रदर्शन पर आएं तो भारतीय टीम अपने खेले कुल आठ मैचों में से सिर्फ  एक सेमीफाइनल का मैच हारी है। सेमीफाइनल में आस्ट्रेलिया से जीतना बेहद कठिन था, क्योंकि एक तो आस्ट्रेलियाई टीम भारतीय टीम की अपेक्षा कुछ अधिक मजबूत थी, तिसपर वह उनका घरेलू मैदान था जिसने उन्हें और मजबूत बना दिया। अपने घरेलू मैदान पर कोई भी टीम अपनी क्षमता से अधिक मजबूत हो जाती है।  अगर गौर करें तो इस विश्वकप भारत तो फिर भी सेमीफाइनल तक पहुँचने में कामयाब रहा, जबकि इसके पिछले सन २०११ के विश्वकप जो कि एशिया में हुआ था और जिसमे भारत विजेता रहा था, में यही आस्ट्रेलियाई टीम क्वार्टर फाइनल में ही भारत के हाथों हारकर बाहर हो गई थी। कारण था कि वह भारत का घरेलू मैदान था तथा तबकी भारतीय टीम भी सचिन-सहवाग-गंभीर आदि अनुभवी खिलाड़ियों से भरी थी। जबकि मौजूदा टीम अभी तैयार होने की प्रक्रिया से गुजर रही है। इसमें अधिकाधिक खिलाड़ी ऐसे हैं जिनका यह पहला विश्वकप था अर्थात अनुभव की बेहद कमी है। तो इन सब तमाम कारणों को देखते हुए स्पष्ट हो जाता है कि इस विश्वकप के सेमीफाइनल मुकाबले में आस्ट्रेलियाई टीम हर तरह से भारतीय टीम से अधिक मजबूत थी। अतः उसकी हार को लेकर बहुत हैरानगी का कोई कारण नहीं है। हार की स्वस्थ आलोचना अवश्य होनी चाहिए जिससे कि टीम की कमियाँ सामने आएं और फिर उन कमियों के दुरुस्तीकरण की दिशा में प्रयास होना चाहिए। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि न तो यह कोई आखिरी विश्वकप था और न ही इसके बाद कोई बड़ा मुकाबला नहीं होगा। आगे के मुकाबलों को नज़र में रखते हुए भारतीय टीम को तैयारी करनी चाहिए और आखिर चार साल बाद फिर विश्वकप भी आएगा ही।

शनिवार, 28 मार्च 2015

कितनी कारगर होगी नई स्वास्थ्य नीति[नेशनल दुनिया, प्रजातंत्र लाइव और दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नेशनल दुनिया 
मोदी सरकार इस वर्ष देश में नई स्वास्थ्य नीति लाने की कवायदें शुरू कर चुकी है । नई स्वास्थ्य नीति का एक मसौदा लोगों की राय के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाईट पर डाला जा चुका है । अब लोगों की राय आने के बाद विचार-विमर्श करके सरकार जल्द ही देश के लिए एक नई स्वास्थ्य नीति लाएगी । इसके मौजूदा मसौदे में शिक्षा की ही तरह स्वास्थ्य को भी लोगों का बुनियादी अधिकार बनाने की पैरवी की गई है । इसमें स्वास्थ्य बजट को देश के सकल घरेलू उत्पाद के १.२ फीसदी से बढ़ाकर २.५ फीसदी तक करने का प्रस्ताव भी रखा गया है । साथ ही, देश के स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढ़ाए जाने तथा अधिकाधिक विदेशी निवेश लाने की बात भी कही गई है । बहरहाल, यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या इस नई स्वास्थ्य नीति के आ जाने से देश के स्वास्थ्य क्षेत्र की बदहाली दूर हो जाएगी ?
  आज राजस्व और रोजगार दोनों ही लिहाज से स्वास्थ्य देश का बेहद बड़ा क्षेत्र बन चुका है, लेकिन बावजूद इसके देश में इस क्षेत्र की हालत बदहाल है । आलम ये है कि स्वास्थ्य के मामले में भारत अपने सामने कहीं नही ठहरने वाले बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों से भी काफी पीछे हो चुका है एक आंकड़े की माने तो जहाँ भारत द्वारा अपने सकल घरेलू उत्पाद का बमुश्किल १.२ प्रतिशत स्वास्थ्य संबंधी चीजों पर खर्च किया जाता है, वहीँ बांग्लादेश और नेपाल आदि देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का डेढ़ प्रतिशत तथा उससे भी अधिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं
प्रजातंत्र लाइव
ये आंकड़ा भारत के लिए किसी लिहाज से ठीक नही कहा जा सकता क्योंकि इन देशों के मुकाबले भारत की आर्थिक दशा काफी बेहतर है, जिसका पता इसीसे चलता है कि इन सभी देशों को भारत द्वारा आर्थिक, संसाधनिक आदि तमाम तरह की सहायता दी जाती है इसके अतिरिक्त तमाम और भी ऐसे आंकड़े हैं जो भारत की स्वास्थ्य संबंधी दुर्दशा को बखूबी उजागर करते हैं जैसे कि जहाँ भारत में प्रसव के दौरान शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर ५२ है, वहीँ श्रीलंका और नेपाल में ये आंकड़ा प्रति १००० पर क्रमशः १८ और ३८ है खून की कमी के कारण एनेमिया रोग से पीड़ित भी भारत में बड़ी संख्या में मौजूद हैं इनके अतिरिक्त और भी बहुत सारे ऐसे तथ्य जिन्हें देखते हुए स्वास्थ्य के क्षेत्र में देश की बदहाल व्यवस्था को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है यहाँ सवाल ये उठता है कि आखिर वो कौन से कारण हैं कि हम उन देशों से भी स्वास्थ्य के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं, जो काफी हद तक हमारी मदद पर आश्रित हैं ? अब अगर इस सवाल का जवाब तलाशने का प्रयास करें तो कई बातें सामने आती हैं    सबसे बड़ी बात कि हमने अपनी स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों पर अपनी आबादी के मुताबिक कभी खर्च किया और ही उसे संजीदा लिया हालांकि ये सही है कि भारत सरकार अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी बजट में प्रतिवर्ष कुछ कुछ वृद्धि करती है, पर वो वृद्धि इस बड़ी आबादी वाले देश के लिए कारगर सिद्ध नही हो पाती वृद्धि के कारगर सिद्ध होने के लिए दो प्रमुख कारण हैं, पहला कारण कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के लिए ये वृद्धि पर्याप्त नही होती और दूसरे उसमे भी आधे से अधिक धन योजनाओं-कार्यक्रमों  में लगने से पहले ही भ्रष्टाचार देवता की भेट चढ़ जाता है   एनआरएचएम जैसे घोटाले इसका अच्छा उदाहरण हैं लिहाजा कुछ स्वास्थ्य सुविधाओं में निवेश की कमी तो कुछ भ्रष्टाचार के कारण आज स्थिति ये है कि भारत में आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य सुविधाएँ के बराबर दिखती हैं अब यहाँ हम बात चाहें चिकित्सकों की करें या अस्पताल में होने वाली प्राथमिक सुविधाओं की सब मामलों में भारत की हालत फिसड्डी ही दिखती  है एक आंकड़े के अनुसार आज जहाँ एक तरफ भारत में २००० लोगों की स्वास्थ्य की देखरेख के लिए मात्र एक चिकित्सक उपलब्ध है, वहीँ १००० लोगों पर महज १.३ बिस्तर की उपलब्धता है प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों की बात करें तो यहाँ न्यूनतम ३०००० व्यक्तियों पर एक चिकित्सा केंद्र उपलब्ध है । कुछेक राज्यों में तो यह संख्या प्रति १००००० लोगों पर एक चिकित्सा केंद्र की है । जाहिर है कि स्वास्थ्य संबंधी लगभग हर मामले में भारत की स्थिति डांवाडोल ही दिखती है इसके अतिरिक्त देश में ईलाज का स्तर ऐसा है कि कई बीमारियों का समुचित ईलाज यहाँ हो ही नहीं सकता, लिहाजा उसके लिए पीड़ित व्यक्ति को विदेशों की तरफ रवाना होना पड़ता है
दैनिक जागरण 
  स्वास्थ्य सुविधाओं से इतर अगर बात बीमारियों की करें तो इस मामले में भी भारत की स्थिति बदतर ही नज़र आती है   एक सर्वे के मुताबिक दुनिया में होने वाली कुल बीमारियों का पांचवा हिस्सा अकेले भारत में होता है अब सवाल ये उठता है  कि भारत जैसे सुखद जलवायु से संपन्न देश में इतनी अधिक बीमारियाँ क्यों होती है ? विचार करें तो  बीमारियों की अधिकता के लिए प्रमुख कारण देश में तमाम तरह से फ़ैल रहा पर्यावरण प्रदूषण है संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक आज भी भारत की लगभग आधी आबादी शौचालय से महरूम खुले में शौच करने को बाध्य है लिहाजा खुले में शौच के कारण होने वाले प्रदूषण से हैजा, पेचिस, खसरा, मलेरिया, पीलिया आदि तमाम जलजनित संक्रमक बीमारियां पैदा होती हैं शौच के अलावा तमाम औद्योगिक संस्थानों द्वारा तथा अन्य माध्यमों से अपशिष्ट पदार्थो का नदियों में निष्काषन होने  के कारण दिन पर दिन पेयजल में भी अशुद्धता आती जा रही है, जिससे जलजनित बीमारियाँ और भी बढ़ती जा रही हैं वायु अलग प्रदूषित हो रही है हालांकि इन समस्याओं के निदान को लेकर भी मौजूदा सरकार प्रयासरत दिख रही है । इस सम्बन्ध में प्रधानमंत्री द्वारा शुरू ‘स्वच्छ भारत अभियान’ काफी कारगर हो सकता है, बशर्ते कि उसे सिर्फ फोटोशूट का जरिया न बनाया जाय ।

  सही मायने में तो आज जरूरत इस बात की है कि हमारे सत्ताधीश सिर्फ स्वास्थ्य सम्बन्धी बजट पेश करके या कुछ कागजी कार्यक्रम व नीतियां बनाकर अपने दायित्वों की इतिश्री समझें, बल्कि उन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को लेकर भी गंभीरता दिखाएं अब इस नई स्वास्थ्य नीति को ही लें तो इसके प्रावधान बेशक बहुत अच्छे हैं, पर वे कारगर तभी होंगे जब जमीन पर उनका सही ढंग से क्रियान्वयन होगा, अन्यथा उनका भी वही हश्र होगा जो इस देश के अधिकाधिक योजनाओं-कार्यक्रमों का होता है । अतः उचित होगा कि नई स्वास्थ्य नीति को लाने से पहले सरकार उसके क्रियान्वयन की समुचित निगरानी के लिए कमर कस ले ।