सोमवार, 28 मार्च 2016

आइएस के साइबर संसार को ख़त्म करने की जरूरत [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स जहाँ यूरोपीय संघ का मुख्यालय भी स्थित है, में विगत दिनों हुआ आतंकी हमला दुखद तो है ही, चिंताजनक और भयकारक भी है। दरअसल भारत में जब होली का मौसम था, उसी समय ब्रसेल्स में यह आतंकी हमला हुआ और वहाँ मातम का माहौल पसर गया। ब्रसेल्स के हवाई अड्डे और मेट्रो स्टेशन पर आत्मघाती धमाकों के रूप में हुए इस आतंकी हमले में ३० से ऊपर लोगों ने अपनी जाने गंवाई हैं तथा सैकड़ों की संख्या में लोग घायल भी हुए हैं। स्थिति इतनी कठिन हो गई है कि इस हमले के बाद ब्रसेल्स में फंसे लगभग ढाई सौ भारतीयों को भारत सरकार द्वारा जेट एयरवेज के जरिये एयरलिफ्ट करवाना पड़ा। ब्रसेल्स में हुए इस आतंकी हमले की यूरोप समेत दुनिया भर में निंदा हो रही है। दुनिया के तमाम राष्ट्राध्यक्षों ने इसकी कड़ी निंदा कर आतंक के विरुद्ध लड़ाई में एकजुटता की बात कही है। इसी बीच आइएस द्वारा अपनी न्यूज़ एजेंसी एमाक के जरिये बयान जारी कर इस आतंकी हमले की जिम्मेदारी भी ले ली गई है। बेल्जियम में इस हमले के छः संदिग्धों की गिरफ्तारी भी हुई है।
दैनिक जागरण 
   दरअसल अभी अधिक समय नहीं हुआ जब फ़्रांस की राजधानी पेरिस में बड़ा आतंकी हमला हुआ था। अभी तो यूरोप उस हमले से ही ठीक से उबर नहीं पाया था कि फिर एक और हमला! यह दिखाता है कि आताकियों की ताकत कितनी अधिक बढ़ गई है। खासकर फिलहाल दुनिया के सबसे खतरनाक और ताकतवर आतंकी संगठन के रूप कुख्यात आइएस की ताकत और पहुँच का तो शायद कोई अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता। आइएस कितना मजबूत और ताकतवर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके खिलाफ अमेरिका, रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन जैसे दुनिया के सभी महाशक्ति देश लगातार लड़ रहे हैं और अपनी ताकत लगाए हुए हैं, उसके ठिकानों पर निरंतर हमले हो रहे और उसके लोगों को मारा जा रहा है लेकिन बावजूद इसके वो ख़त्म होने की बजाय दुनिया के इन देशों में एक के बाद एक आतंकी वारदातों को अंजाम देता जा रहा है। पेरिस और अब ब्रसल्स का आतंकी हमला इसीका उदाहरण है। सवाल यह है कि दुनिया के इन महाशक्ति देशों द्वारा उसका खात्मा करने के लिए पूरजोर ताकत लगाने और उसके प्रति सचेत रहने के बावजूद वो पेरिस, ब्रसेल्स जैसी अति-सुरक्षित जगहों पर हमला कैसे कर पा रहा है ? इस सवाल का जवाब यही है कि उसने कहीं न कहीं आतंकी हमला करने की एक नई प्रणाली विकसित कर ली है, जो ये है कि जहां जिस देश में हमला करना हो, वहाँ अपने लोगों को भेजने की बजाय वहीँ के लोगों को आइएस से जोड़ा जाय और इस काम में उसके लिए सोशल मीडिया सर्वाधिक सहयोगी भूमिका निभा रहा है।

  इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि आइएस आतंकी हमला करने के बाद अपनी न्यूज़ एजेंसी के जरिये उसकी जिम्मेदारी भी ले रहा है। हालांकि आतंकी संगठन द्वारा हमले की जिम्मेदारी लेने की यह प्रथा कोई नई नहीं है क्योंकि, यह शुर से होता रहा है कि आतंकी संगठन हमला करने के बाद उसकी जिम्मेदारी लेकर संबधित राष्ट्र को अपनी ताकत का परिचय और चुनौती देते हैं। ओसामा बिन लादेन भी अपने समय में यह करता था और अब लश्कर आदि आतंकी संगठन भी करते हैं। हालांकि अधिकाधिक आतंकी संगठन वीडियो जारी कर यह जिम्मेदारी लेते हैं मगर, आईएस ने एमाक नाम की खुद की न्यूज एजेंसी ही खोल रखी है, जिसके जरिये वो इस तरह की सूचनाएं प्रसारित करवाने से लेकर अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार तक तमाम काम करवाता है। खबरों के अनुसार एमाक नामक यह न्यूज एजेंसी २४/७ घंटे आइएस के लिए काम करती है। इसी एजेंसी के जरिये सोशल मीडिया आदि पर अपनी  विचारधारा का प्रसार करने के लिए आइएस ने हर जगह लोग तैनात किए हैं और फेसबुक, ट्विटर आदि पर भिन्न-भिन्न नामों से  उसके तमाम एकाउंट्स चल रहे हैं। वो भी इस तरह कि किसीको खबर न हो और वे अपना काम भी करते रहें। इन माध्यमों के जरिये दूर-दूर बैठे समुदाय विशेष के लोगों से संपर्क कर उन्हें आइएस की विचारधारा से  जोड़ कर आइएस के लिए काम करने को प्रेरित किया जाता है। जन्नत के कपोल-कल्पित आनंद  के अलावा आइएस में शामिल होने पर तरह-तरह की सुख-सुविधाएं मिलने का झूठा प्रलोभन भी दिया जाता है। इस तरह के प्रलोभनों में फंसकर आइएस में शामिल होने और फिर उसकी पीड़ादायक व क्रूर जीवन-शैली को देख किसी तरह जान बचाकर भागे लोगों द्वारा उपर्युक्त विवरण के विषय में बताया जाता रहा है। अब ये कुछ लोग तो उससे प्रभावित न हुए हो लेकिन, समझा जा सकता है कि अनेक लोग सोशल मीडिया के जरिये ही आइएस से जुड़कर व उसकी विचारधारा से प्रभावित होकर उसके लिए काम भी करने लगते होंगे। ऐसे में, समझना मुश्किल नहीं है कि आइएस की सैन्य शक्ति से मुकाबला जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है कि साइबर संसार में भी उसे समाप्त किया  जाय। दुनिया के जो महाशक्ति देश आज उसके खिलाफ लड़ रहे हैं, उनके लिए ये करना कत्तई कठिन नहीं है लेकिन, जरूरत यह है कि वे इस दिशा में गंभीर हों। ऐसा नहीं कह रहे कि आइएस के ठिकानों पर बमवर्षा करने जैसी कोशिशों से वो कमजोर नहीं हो रहा लेकिन, उसे यदि पूरी तरह से ख़त्म करना है तो उसके सोशल मीडिया नेटवर्क की पहचान कर उसे भी ध्वस्त करना होगा। इसके लिए अगर दुनिया के देश चाहें तो अपने-अपने यहाँ अलग से एक निगरानी तंत्र का निर्माण कर सकते हैं। अब विगत वर्ष ब्रिटेन से मिली खबर के आधार पर भारत में आइएस का ट्विटर चलाने वाला पकड़ा गया। वो कई वर्षों से ये कर रहा था, पर किसीको खबर नहीं थी। तो बात यही है कि ऐसे जाने कितने हैंडलर और होंगे जो जहाँ-तहां सक्रिय हो आइएस से लोगों को जोड़ रहे होंगे, उनको ध्वस्त करके ही आइएस का अंत किया जा सकता। सीधे शब्दों में कहें तो आइएस को जमीन पर ख़त्म करना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है कि उसको साइबर संसार से भी समाप्त किया जाय। इन्ही माध्यमों के जरिये तो वो इराक और सीरिया में बैठे-बैठे हजारों मील दूर  देश में अपने आदमी तैयार कर हमला करवाने में सक्षम हो पा रहा है। लिहाजा, अगर उसके सोशल मीडिया नेटवर्क को ध्वस्त कर दिया गया तो उसका दायरा स्वतः ही सीमित हो जाएगा और फिर वो सीरिया-ईराक में बैठकर ब्रसेल्स, फ़्रांस या अन्य किसी भी देश में कभी कोई आतंकी हमला नहीं कर पाएगा।

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

पुस्तक समीक्षा : प्रतिरोध की मुखरता से दहकते अशआर

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

आज प्रतिरोध की रचनाएँ तो जरूर लिखी जा रहीं हैं लेकिन, उनमे इस स्वर की अभिव्यक्ति मुखरता से होती कम ही दिखती  है। अतः इस मायने में अविनाश की गज़लों को विशेष कहा जा सकता है क्योंकि, उनके ग़ज़ल संग्रह जीवन कर्जा गाड़ी हैमें न सिर्फ मुख्य स्वर प्रतिरोध का है बल्कि इस स्वर की अभिव्यक्ति भी पूरी मुखरता के साथ हुई है। समाज से लेकर सियासत तक की विभिन्न विसंगतियों के  विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर अविनाश की गजलों में प्रत्यक्ष है। इसे ही उनकी गजलों की विशेषता भी कहा जा सकता है।
  
अविनाश की ग़ज़लों के प्रतिरोध का मुख्य लक्ष्य सत्ता और उसके इर्द-गिर्द होने वाली सियासत है। इसमें अपने वोटबैंक के लिए सियासत द्वारा सृजित सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका से लेकर धनबल-बाहुबल तक सभी कुछ को आइना दिखाने की  अविनाश ने ठीकठाक कामयाब कोशिश की है। ये कुछ अशआर देखे जा सकते हैं, जिनमे सत्ता के लिए हमारे सियासतदानों द्वारा रचे जाने वाले तमाम पाखंडों पर स्पष्ट रूप से करारा प्रहार देखने को मिलता  है।

नारे खूब उछाले जा
संसद में तू साले जा

चीनी की औकात नहीं
वादे कप में डाले जा

ऐसे ही, वे सियासतदानों के पक्ष-विपक्ष के रूप में एकदूसरे के विरोध की नूरा-कुश्ती की तरफ करारा कटाक्ष करते हुए लिखते हैं: 

अपनी-अपनी दाल गलाते हैं
आओ मिलकर सदन चलाते हैं

आपसदारी से सरकार चले
बारी-बारी आते-जाते हैं

इन अशआर को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि अविनाश की गज़ले सत्ता और सियासत पर किस हद तक हमलावर हैं। लगता है जैसे ये हर एक शेर सियासतदानों के चेहरे पर तमाचे रसीद कर रहे हैं। यही वो प्रतिरोध है, जिसकी आज कल की कविताओं में इतनी मुखरता से काफी कम अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। यह बाबा नागार्जुन और अदम गोंडवी जैसे रचनाकारों की काव्य परम्परा की मुखरता है, जो बिना किसी लाग-लपेट और अंकेत-संकेत के सीधे-सीधे अपने लक्ष्य पर जोरदार चोट करती है। सबसे अच्छी चीज कि कहीं नहीं लगता कि इस मुखरता के लिए अविनाश को कोई अतिरिक्त प्रयास या विरचना करनी पड़ी हो, वरन यही लगता है कि ये सहज ही उनकी ग़ज़लों में आ गयी है।
   
हालांकि अविनाश की गज़लें गाँव या शहर के किसी एक दायरे में कैद तो नहीं हैं मगर, उनका झुकाव कहीं न कहीं गाँव और ग्रामीण जीवन-शैली की तरफ ही अधिक प्रतीत होता है। या यूँ कहें कि आज के शहरी जीवन की अपेक्षा अपनी जड़ों की तरफ उनका आकर्षण अधिक दिखता है। वे लिखते हैं:

सपनों  के घर तक जाती हो, वैसी रेल कहाँ
गांवों में शहरों के जैसी रेलमपेल कहाँ

आज के बच्चे लैपटॉप, मोबाइल खोजते हैं
चोर-सिपाही, झिझ्झिर-कोना जैसे खेल कहाँ
  
ये अशआर अविनाश की ग़ज़लों में अभिव्यक्त अपनी जड़ों यानी गाँव से जुड़ाव को साफ़-साफ़ दिखाते हैं। हम देख सकते हैं कि शहरी जीवन की चकाचौंध और बेबात की भागमभाग से ऊबा कोई आदमी कैसे अपनी जड़ों यानी अपने गाँव की तरफ सुकून की उम्मीद से देखता है। शहर में जन्मे और पल-बढ़ रहे बच्चों की  मोबाइल, लैपटॉप में उलझी जीवन-शैली भी उन्हें सालती है। ऐसे ही और भी तमाम अशआर हैं, जिनका झुकाव ग्रामीण जीवन की तरफ है। ऐसे ही, प्यार जैसी चीज को लेकर हमारे समाज की संकुचित सोच और खापशाही पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं:

मै प्यार से डरता हूँ क्योंकि आप का डर है
आप राजी हों तो फिर माँ-बाप का डर है

माँ-बाप की मर्जी भी मुताबिक़ जो गई
चुपचाप ही रहता हूँ क्योंकि खाप का डर है
   
इन खूबियों के अलावा अविनाश की ग़ज़लों की अपनी कुछ खामियां भी हैं। ये खामियां कथ्य से लेकर शिल्प तक हर स्तर पर हैं। सत्ता और सियासत पर चोट करने में तो अविनाश मुखर रहे हैं मगर, कई एक जगहों पर वे एक रचनाकार की बजाय विचारधारा विशेष के अनुयायी की दृष्टि भी अपना लेते हैं, जो कि उनकी ग़ज़लों की धार को कमतर कर देता है। वे पूर्वाग्रहग्रस्त नज़र आने लगते हैं। यह ठीक है कि विचारधारा का चयन व्यक्ति का अपना अधिकार होता है और रचनाकार की भी कोई न कोई विचारधारा  होती है लेकिन रचना करते समय अगर उसकी विचारधारा रचना पर हावी होने लगे तो अक्सर रचना कमजोर हो जाती है। यह विचारधारा का हावी होना ही है, जो उनसे ऐसा अनावश्यक और अनुचित शेर भी लिखवा जाता है:

एक मारने, एक बचाने वाला लगता है
धुर दक्षिण और वामपंथ में कोई मेल नहीं
   
शिल्प के स्तर पर तो कई गज़ले बहर से भटकी हुई दिखती हैं तो कई में काफिया आदि की समस्या भी दृष्टिगत है। ये भावों से अतिशय लगाव होने पर शिल्प से समझौता कर लेने की आधुनिक प्रवृत्ति के कारण ही हुआ हो सकता है। साथ ही तमाम अशआर भर्ती के भी लिखे गए हैं, जिनका कोई आधार-औचित्य नहीं है।
  
उपर्युक्त खूबियों-खामियों को मिला-जुलाकर देखें तो कह सकते हैं कि बावजूद अनेक खामियों के अविनाश का ये ग़ज़ल संग्रह अपने एक गुण जो कि इसमें मौजूद मुखर प्रतिरोध है, के लिए पठनीय है। एक प्रकार के वैचारिक पूर्वाग्रह से कहीं न कहीं प्रभावित होने के बावजूद ये सियासत व समाज से सताए हर आदमी चाहे वो किसी भी विचारधारा का हो, को सुकून देने की ताकत रखता है।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

रेल आधुनिकीकरण की दिशा में एक कदम [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राज एक्सप्रेस 
भारतीय रेल और भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन यानी इसरो के बीच एक समझौता हुआ है जिसके तहत इसरो अब भारतीय रेल को विभिन्न स्तरों पर सहयोग प्रदान करेगा। समझौते के अनुसार  इसरो अपनी अंतरिक्ष तकनीक और रिमोट सेंसिस के जरिये भारतीय रेल की सुरक्षा और परिचालन के स्तर पर सहायता देगा। इसरो के सहयोग के बाद स्थिति यह होगी कि रेलवे सेटेलाइट के द्वारा अपनी चालित गाड़ियों पर आसानी से निगाह रख सकेगा। इसके अलावा यदि असावधानी के कारण कोई दो गाड़ियाँ एक ही साथ एक ही पटरी पर आ जाती हैं तो चालक को समय रहते इस बात की सूचना देकर  दुर्घटनाओं को रोका जा सकेगा। मानव रहित फाटक और क्रासिंग आदि पर भी सेटेलाइट के जरिये ही निगरानी रहेगी। दरअसल, इसरो रिमोट सेंसिस के मामले में दुनिया में अव्वल माना जाता है। इसरो की मदद से भारतीय रेलवे ऐसा सिस्टम डेवलप करने की योजना बना रहा है, जिससे पूरे देश में इस बात का सही पता रखा जा सकेगा कि कौन सी ट्रेन किस पटरी पर किस स्टेशन के पास से होकर निकल रही है। यह सब कार्य करने के लिए इसरो की तरफ से एक जीपीएस चिप तैयार की जा रही है, जिसे  गाड़ियों के इंजनों में लगाया जाएगा। यह चिप इसरो के सेटेलाइट सिस्टम से जुडी होगी और इसीके जरिये समस्त निगरानी प्रक्रिया को अंजाम दिया जाएगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसरो द्वारा किए जाने वाले इन कार्यों से हमारी रेलवे को सुरक्षा के दृष्टिकोण से काफी राहत मिलेगी। रेलवे के आधुनिकीकरण जिसकी जब-तब चर्चा तो उठती रहती है लेकिन, जो पर्याप्त धन न होने के कारण लम्बे समय से अटका हुआ है, की दिशा में इसरो के साथ हुआ भारतीय रेल का यह समझौता एक अत्यंत समझदारी युक्त कदम है। हालांकि अभी इसे सिर्फ एक शुरुआत ही कहा जाना चाहिए और वो भी तबतक पूरी तरह से नहीं कहा जा सकता जबतक कि इसरो समझौते की इन बातों का क्रियान्वयन नहीं कर लेता। क्योंकि, इसरो ये सहयोग करने में यदि आज सक्षम हो पा रहा है तो इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि इसरो स्वदेशी जीपीएस तकनीक पूरी तरह से हासिल करने के काफी निकट पहुँच चुका है। इसके लिए पांच उपग्रहों को इसरो द्वारा अन्तरिक्ष में स्थापित किया जा चुका है, लेकिन अभी भी इस श्रृंखला के दो और उपग्रहों का प्रक्षेपण शेष है। इसके उपरांत ही इसरो की ये स्वदेशी जीपीएस तकनीक एकदम बेहतर ढंग से काम करने में सक्षम हो सकेगी। अब इसरो ने रेलवे को जो तकनिकी सहयोग देने का भरोसा दिया है, वो सब संभवतः इसी जीपीएस तकनीक पर आधारित होंगे। ऐसे में, यह  देखना होगा कि इस स्वदेशी जीपीएस तकनीक द्वारा प्रदत्त सहयोग रेलवे के लिए कितने गुणवत्तापूर्ण ढंग से लाभकारी सिद्ध होते  हैं। चूंकि भारतीय रेल का नेटवर्क बहुत बड़ा है, इस नाते इसे उपर्युक्त प्रकार से आधुनिक बनाना इसरो के लिए काफी चुनौतीपूर्ण होगा।  
  इसरो द्वारा मिलाने वाले उपर्युक्त सहयोगों से बेशक हमारी रेलवे को काफी लाभ मिलेगा, लेकिन इसे सिर्फ एक शुरुआत के रूप में ही देखा जाना चाहिए। क्योंकि, अभी भी कई ऐसी समस्याएँ हैं, जिनसे रेलवे को पार पाना है। इन समस्याओं में सबसे प्रमुख हैं, रेल दुर्घटनाएँ जिनके कुछ कारणों का निवारण तो  इसरो से मिलने वाले सहयोग के जरिये हो जाएगा, लेकिन इनका जो प्रमुख कारण है, वो इसरो के सहयोग से दूर नहीं होगा। वो कारण है, रेल पटरियों की जर्जर हालत। एक आंकड़ें के अनुसार फिलहाल रेलवे का लगभग ८० फीसदी यातायात महज ४० फीसदी रेल नेटवर्क के भरोसे चल रहा है, जिससे भीड़-भगदड़ और असुरक्षा जैसी समस्याओं से रेलवे को दो-चार होना पड़ता है। यह क्षमता से अधिक का बोझ बड़ा कारण है रेल दुर्घटनाओं के लिए। इसके अतिरिक्त अधिकांश रेल पटरियों की हालत भी जर्जर हो चुकी है जो कि अक्सर दुर्घटनाओं का कारण बनती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि रेल दुर्घटनाओं की समस्या इसरो के सहयोग के बाद कुछ कम जरूर हो सकती है लेकिन, यह पूरी तरह से दूर तभी होगी जब रेलवे रेल पटरियों की हालत सुधरने तथा इनकी संख्या बढ़ाने आदि के लिए प्रयास तेज करेगा। इसलिए कहना होगा कि इसरो और भारतीय रेलवे के बीच हुए उपर्युक्त समझौते के प्रति आशान्वित जरूर हुआ जा सकता है, पर अभी इससे बहुत ज्यादा उम्मीदें पालना जल्दबाजी होगी। फिलवक्त इसे रेल आधुनिकीकरण की दिशा में एक शुरूआती कदम मानते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि इसरो और रेलवे मिलकर न केवल इसका समुचित क्रियान्वयन करेंगे बल्कि इन सहयोगों को और भी आवश्यक विस्तार दिया जाएगा।

घटते भू-जल से चेतने की जरूरत [जनसत्ता और दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनसत्ता 
आज यानी २२ मार्च को विश्व जल दिवस है, तो इस अवसर पर यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि दुनिया जल दिवस तो मना रही है, पर क्या उसके उपयोग को लेकर वो गंभीर, संयमित व सचेत है या नहीं ?  आज जिस तरह से मानवीय जरूरतों की पूर्ति के लिए निरंतर व अनवरत भू-जल का दोहन किया जा रहा है, उससे साल दर साल भू-जल स्तर गिरता जा रहा है। पिछले एक दशक के भीतर भू-जल स्तर में आई गिरावट को अगर इस आंकड़े के जरिये समझने का प्रयास करें तो अब से दस वर्ष पहले तक जहाँ ३० मीटर की खुदाई पर पानी मिल जाता था, वहाँ अब पानी के लिए ६० से ७० मीटर तक की खुदाई करनी पड़ती है। साफ़ है कि बीते दस सालों में दुनिया का भू-जल स्तर बड़ी तेजी से घटा है और अब भी बदस्तूर घट रहा है, जो कि बड़ी चिंता का विषय है। अगर केवल भारत की बात करें तो इस सम्बन्ध में सरकार की एक जल नीति की यह रिपोर्ट उल्लेखनीय होगी जिसके अनुसार, देश में प्रति व्यक्ति सालाना जल उपलब्धता १९४७ के ६०४२  घन मीटर से ७४  फीसदी घटकर २०११ में १५४५  घन मीटर रह गई है। भूजल का स्तर ९ राज्यों में खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है।  ऐसे राज्यों में ९० फीसदी भूजल का दोहन हो चुका है और उनके पुनर्भरण में काफी गिरावट आई है।
  भारत में घटते भू-जल स्थिति को एक उदाहरण के जरिये और बेहतर ढंग से समझने की कोशिश करें तो पानी से लबालब रहने वाली नर्मदा, घोघरा और बारना जैसी नदियों के बीच बसे बरेली जैसे नगर में भी भू-जल स्तर घटने की खबर कुछ समय पहले सामने आई। स्थिति यह है कि बरेली क्षेत्र के कुछ इलाकों में भू-जल स्तर गिरकर ३८ मीटर तक पहुंच गया है, इसलिए घरेलु बोरिंग में भी अक्सर पानी की समस्या आ रही है। प्रतिबंध के बाद भी ट्यूबेलों का खनन हो रहा है, जो भू-जल स्तर गिरने में एक बड़ा कारण है। भारतीय केंद्रीय जल आयोग द्वारा २०१४ में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार देश के अधिकांश बड़े जलाशयों का जलस्तर वर्ष २०१३ के मुकाबले घटता हुआ पाया गया था। आयोग के अनुसार देश के बारह राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, त्रिपुरा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के जलाशयों के जलस्तर में काफी गिरावट पाई गई थी। आयोग की तरफ से ये भी बताया  गया  कि २०१३ में इन राज्यों का जलस्तर जितना अंकित किया गया था, वो तब ही काफी कम था। लेकिन, २०१४ में  वो गिरकर तब से भी कम हो गया। २०१५ में भी लगभग यही स्थिति रही। गौरतलब है कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्लूसी) देश के ८५ प्रमुख जलाशयों की देख-रेख व भंडारण क्षमता की निगरानी करता है। संभवतः इन स्थितियों के मद्देनज़र ही अभी  हाल में जारी जल क्षेत्र में प्रमुख परामर्शदाता  कंपनी ईए की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक भारत २०२५ तक जल संकट वाला देश बन जाएगाअध्ययन में कहा गया है कि परिवार की आय बढ़ने और सेवा व उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। देश की सिंचाई का करीब ७० फीसदी और घरेलू जल खपत का ८०  फीसदी हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है, जिसका स्तर तेजी से घट रहा है। हालांकि घटते जलस्तर को लेकर जब-तब देश में पर्यावरण विदों द्वारा चिंता जताई जाती रहती हैं, लेकिन जलस्तर को संतुलित रखने के लिए सरकारी स्तर पर कभी कोई ठोस प्रयास किया गया हो, ऐसा नहीं दिखता। अब सवाल ये उठता है कि आखिर भू-जल स्तर के इस तरह निरंतर रूप से गिरते जाने का मुख्य कारण क्या है ?  अगर इस सवाल की तह  में जाते हुए हम घटते भू-जल स्तर के कारणों को समझने का प्रयास करें तो तमाम बातें सामने आती  हैं। घटते भू-जल के लिए सबसे प्रमुख कारण तो उसका अनियंत्रित और अनवरत दोहन ही है। आज दुनिया  अपनी जल जरूरतों की पूर्ति के लिए सर्वाधिक रूप से भू-जल पर ही निर्भर है। लिहाजा, अब एक तरफ तो भू-जल का ये अनवरत दोहन हो रहा है तो वहीँ दूसरी तरफ औद्योगीकरण के अन्धोत्साह में हो रहे प्राकृतिक विनाश के चलते पेड़-पौधों-पहाड़ों आदि की मात्रा में कमी आने के कारण बरसात में भी काफी कमी आ गई है । परिणामतः धरती को भू-जल दोहन के अनुपात में जल की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। सीधे शब्दों में कहें तो धरती जितना जल दे रही है, उसे उसके अनुपात में बेहद कम जल मिल रहा है। बस, यही वो प्रमुख कारण है जिससे कि दुनिया का भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। दुखद और चिंताजनक बात ये है कि कम हो रहे भू-जल की इस विकट समस्या से निपटने के लिए अब तक वैश्विक स्तर पर कोई भी ठोस पहल होती नहीं दिखी है। ये एक कटु सत्य है कि अगर दुनिया का भू-जल स्तर इसी तरह से गिरता रहा तो आने वाले समय में लोगों को पीने के लिए भी पानी मिलना मुश्किल हो जाएगा। 
  विश्व बैंक के एक आंकड़े पर गौर करें तो उसमे कहा गया है कि  भारत में ताजा जल की सालाना उपलब्धता ७६१ अरब घन मीटर है, जो किसी भी देश से अधिक है। लेकिन, बावजूद इसके अगर देश में पानी की किल्लत बात उठ रही है तो इसका प्रमुख कारण यह है कि इस उपलब्ध जल में से आधा से अधिक उद्योग, अवजल जैसे कारणों से प्रदूषित हो चुका है और उसके कारण डायरिया, टायफाइड तथा पीलिया जैसे रोगों का प्रसार बढ़ रहा है। 
दैनिक जागरण 

  हालांकि ऐसा कत्तई नहीं है कि कम हो रहे पानी की इस समस्या का हमारे पास कोई समाधान नहीं है या इस दिशा में सरकार द्वारा कुछ किया नहीं जा रहा। घटते भू-जल की समस्या के मद्देनज़र विगत दिनों वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया कि उनकी सरकार भूजल प्रबंधन पर ६०००  करोड़ रुपये खर्च करेगी। इस समस्या से निपटने के लिए सबसे बेहतर समाधान तो यही है कि बारिश के पानी का समुचित संरक्षण किया जाए और उसी पानी के जरिये अपनी अधिकाधिक जल जरूरतों की पूर्ति की जाए। बरसात के पानी के संरक्षण के लिए उसके संरक्षण माध्यमों को विकसित करने की जरूरत है, जो कि सरकार के साथ-साथ प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का भी दायित्व है। अभी स्थिति ये है कि समुचित संरक्षण माध्यमों के अभाव में वर्षा का बहुत ज्यादा जल, जो लोगों की तमाम जल जरूरतों को पूरा करने में काम आ सकता है, खराब और बर्बाद हो जाता है। अगर प्रत्येक घर की छत पर वर्षा जल के संरक्षण के लिए एक-दो टंकियां लग जाएँ व घर के आस-पास कुएँ आदि की व्यवस्था हो जाए, तो वर्षा जल का समुचित संरक्षण हो सकेगा, जिससे जल-जरूरतों की पूर्ति के लिए भू-जल पर से लोगों की निर्भरता भी कम हो जाएगी। परिणामतः भू-जल का स्तरीय संतुलन कायम रह सकेगा। जल संरक्षण की यह व्यवस्थाएं हमारे पुरातन समाज में थीं जिनके प्रमाण उस समय के निर्माण के ध्वंसावशेषों में मिलते हैं, पर विडम्बना यह है कि आज के इस आधुनिक समय में हम उन व्यवस्थाओं को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं । बहरहाल, जल संरक्षण की इन व्यवस्थाओं के  अलावा अपने दैनिक कार्यों में सजगता और समझदारी से पानी का उपयोग कर के भी जल संरक्षण किया जा सकता है। जैसे, घर का नल खुला न छोड़ना, साफ़-सफाई आदि कार्यों के लिए खारे जल का उपयोग करना, नहाने के लिए उपकरणों की बजाय साधारण बाल्टी आदि का इस्तेमाल करना आदि तमाम ऐसे सरल उपाय हैं, जिन्हें अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन काफी पानी की बचत कर सकता है। कुल मिलाकर कहने का अर्थ ये है कि जल संरक्षण के लिए लोगों को सबसे पहले जल के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। जल को खेल-खिलवाड़ की अगंभीर दृष्टि से देखने की बजाय अपनी जरूरत की एक सीमित वस्तु के रूप में देखना होगा। हालांकि, ये चीजें तभी होंगी जब जल की समस्या के प्रति लोगों में आवश्यक जागरूकता आएगी और ये दायित्व दुनिया के उन तमाम देशों जहाँ भू-जल स्तर गिर रहा है, की सरकारों समेत सम्पूर्ण विश्व समुदाय का है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि जल समस्या को लेकर दुनिया में बिलकुल भी जागरूकता अभियान नहीं चलाए जा रहे। बेशक, टीवी, रेडियो आदि माध्यमों से इस दिशा में कुछेक प्रयास जरूर हो रहे हैं, लेकिन गंभीरता के अभाव में वे प्रयास कोई बहुत कारगर सिद्ध होते नहीं दिख रहे। लिहाजा, आज जरूरत ये है कि जल की समस्या को लेकर गंभीर होते हुए न सिर्फ राष्ट्र स्तर पर बल्कि विश्व स्तर पर भी एक ठोस योजना के तहत घटते भू-जल की समस्या की भयावहता व  जल संरक्षण आदि इसके समाधानों के बारे में बताते हुए एक जागरूकता अभियान चलाया जाए, जिससे जल समस्या की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हो और वे इस समस्या को समझते हुए सजग हो सकें। क्योंकि, ये एक ऐसी समस्या है जो किसी कायदे-क़ानून से नहीं, लोगों की जागरूकता से ही मिट सकती है। लोग जितना जल्दी जल संरक्षण के प्रति जागरुक होंगे, घटते भू-जल स्तर की समस्या से दुनिया को उतनी जल्दी ही राहत मिल सकेगी।

मंगलवार, 15 मार्च 2016

जहरीली हवा का साया [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा देश के २१ चुनिन्दा शहरों की वायु गुणवत्ता पर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके अनुसार उन २१ में से महज एक शहर हरियाणा का पंचकुला है जहाँ वायु गुणवत्ता का स्तर संतोषजनक है इसके अतिरिक्त मुंबई और पश्चिम बंगाल के शहर हल्दिया में भी वायु की गुणवत्ता कुछ ठीक है. लेकिन शेष सभी शहरों की हवा का स्तर माध्यम और ख़राब से लेकर बहुत ख़राब तक पाया गया है इनमे मुजफ्फरपुर, लखनऊ, राजधानी दिल्ली, वाराणसी, पटना, फरीदाबाद, कानपुर, आगरा आदि शहरों का प्रदूषण स्तर क्रमशः बहुत ख़राब पाया गया है इन शहरों में दिल्ली तीसरा सबसे अधिक प्रदूषित शहर है. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के ये आंकड़े भले ही अभी सिर्फ चुनिन्दा २१ शहरों की तस्वीर पेश कर रहे हों, लेकिन वास्तविकता यही है कि वायु प्रदूषण दिन ब दिन पूरे देश के लिए भीषण संकट बनता जा रहा है। ये अलग बात है कि दिल्ली इससे कुछ अधिक प्रभावित है। दिल्ली चूंकि देश की राजधानी है, इसलिए उसका इस तरह से जहरीली हवा से युक्त होना चिंताजनक है गौर करें तो केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा राज्य सभा में जारी एक आंकड़े के मुताबिक़ देश की राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से प्रतिदिन लगभग ८० लोगों की मौत होती है। नासा सैटेलाइट द्वारा इकट्‌ठा किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली में पीएम-25 जैसे छोटे कण की मात्र बेहद अधिक है। औद्योगिक उत्सर्जन और वाहनों द्वारा निकासित धुंए से हवा में पीएम-25 कणों की बढ़ती मात्रा घनी धुंध का कारण बन रही है। देश की राजधानी की ये स्थिति चौंकाती भले हो, लेकिन यही सच्चाई है। इंकार नहीं कर सकते  कि इसी कारण दिल्ली दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। यह हाल सिर्फ दिल्ली का नहीं है, वरन देश के अन्य महानगरों की भी कमोबेश यही स्थिति है। इन स्थितियों के कारण ही वातावरण में सुधार  के मामले में भारत की स्थिति में काफी गिरावट आई है। अमेरिका के येल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक़ एनवॉयरमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स में  178 देशों में भारत का स्थान 32 अंक गिरकर 155वां हो गया है। वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति ब्रिक्स देशों में सबसे खस्ताहाल है। अध्ययन के मुताबिक प्रदूषण के मामले में भारत की तुलना में पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्रीलंका की स्थिति बेहतर है जिनका इस इंडेक्स में स्थान क्रमशः 148वां, 139वां, 118वां और 69वां है। यह सूची जिन ९ प्रदूषण कारकों के आधार पर तैयार की गई है, उनमे वायु प्रदूषण भी शामिल है।   इस वायु प्रदूषण के कारण देश में प्रतिवर्ष लगभग छः लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। इन आंकड़ों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारत में वायु प्रदूषण अत्यंत विकराल रूप ले चुका है। दुर्योग यह है कि देश इसको लेकर बातों में तो चिंता व्यक्त करता है, पर इसके निवारण व रोकथाम के लिए यथार्थ में कुछ करता नहीं दिखता।  बहरहाल, उपर्युक्त आंकड़ों के सम्बन्ध में यह तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों की जनसख्या,   औद्योगिक प्रगति और वाहनों की मात्रा भारत की अपेक्षा बेहद कम है, इसलिए वहां वायु प्रदूषण का स्तर नीचे है। लेकिन इस तर्क पर सवाल यह उठता है कि स्विट्ज़रलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि देश क्या औद्योगिक प्रगति नहीं कर रहे या उनके यहाँ वाहन नहीं हैं, फिर भी वो दुनिया के सर्वाधिक वातानुकूलित देशों में कैसे शुमार हैं ? और क्या ऐसी दलीलों के जरिये देश और इसके कर्णधार इसको प्रदूषण मुक्त करने की अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं ? दरअसल वायु प्रदूषण औद्योगिक प्रगति से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रगति और प्रकृति के मध्य कितना बेहतर संतुलन रख रहे हैं। अगर प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित किया जाय तो न केवल वायु प्रदूषण वरन हर तरह के प्रदूषण से निपटा   जा सकता है। पर इस संतुलन के लिए कानूनी स्तर से लेकर जमीनी स्तर पर तक मुस्तैदी दिखानी पड़ती है, जिस मामले में यह देश काफी पीछे है। प्रदूषण को लेकर हमारे हुक्मरानों की उदासीनता को इसीसे समझा जा सकता है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में प्रदूषण नियंत्रण से सम्बंधित कोई वादा नहीं करता। ऐसे किसी वादे से इसलिए परहेज नहीं किया जाता  कि प्रदूषण नियंत्रण कठिन कार्य है, क्योंकि इससे कठिन-कठिन वादे हमारे हुक्मरानों द्वारा कर दिए जाते हैं। लेकिन वे प्रदूषण नियंत्रण जैसे वादे से सिर्फ इसलिए परहेज करते हैं कि उनकी नज़र में ये कोई मुद्दा नहीं होता।
  देश में वायु प्रदूषण के लिए दो सर्वाधिक जिम्मेदार कारक हैं। एक डीजल-पेट्रोल चालित मोटर वाहन और दूसरा औद्योगिक इकाइयाँ। इनमे मोटर वाहनों में तो कुछ हद तक इंधन सम्बन्धी ऐसे बदलाव हुए हैं जिससे कि उनसे होने वाले प्रदूषण में कमी आए। सीएनजी वाहन, बैटरी चालित वाहन आदि ऐसे ही कुछेक बदलावों के उदाहरण हैं। लेकिन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए कुछ ठोस नहीं किया जा रहा जबकि उनसे सिर्फ वायु ही नहीं, वरन जल आदि में भी प्रदूषण फ़ैल रहा है। इन औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाले धुंए की भयानकता इसीसे समझी जा सकती है कि देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे एनसीआर इलाकों जहाँ औद्योगिक इकाइयों की भरमार है, में तो ये धुंआ स्थायी धुंध का रूप लेता जा रहा है। आलम यह है कि धुंध के मामले में दिल्ली ने बीजिंग को भी पीछे छोड़ दिया है।  इन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए एक सख्त क़ानून की जरूरत है जिसकी फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखती। एक और बात कि एक तरफ तो इन औद्योगिक इकाइयों, वाहनों की भरमार से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीँ दूसरी तरफ दिन ब दिन पेड़-पौधों में जिस तरह से कमी आ रही है, उससे स्थिति और विकट होती जा रही है। अब जमीनी हालात ऐसे हैं  और देश औद्योगिक प्रगति के अन्धोत्साह में अब भी उलझा हुआ है। दोष सिर्फ सरकारों का ही तो नहीं है, जाने-अनजाने नागरिक भी इसके लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। लोगों ने अपने जीवन को इतना अधिक विलासितापूर्ण बना लिया है कि जरा-जरा सी चीज के लिए वे उन वैज्ञानिक उपकरणों पर निर्भर हो गाए हैं जिनसे वायु प्रदूषण का संकट और गहराता है। वाहन, बिजली उपकरण, कागज़, सौन्दर्य प्रशाधन आदि तमाम चीजें हैं जिनपर लोगों की  आवश्यकता से अधिक निर्भरता हो गयी है जो कि प्राकृतिक विनाश और प्रदूषण के विकास में महती भूमिका निभा रही है। अतः आज जरूरत यही है कि सरकार और नागरिक दोनों इस सम्बन्ध में चेत जाएं और वायु को जीवन के अनुकूल रखने के लिए न केवल बातों से वरन अपने आचरण से भी गंभीरता का परिचय दें। इस सम्बन्ध में अपने-अपने स्तर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। क्योंकि सारी प्रगति तभी होगी जब हम जीएंगे और हम जीएंगे तभी, जब धरती पर स्वच्छ और सांस लेने योग्य वायु होगी।

शनिवार, 12 मार्च 2016

माल्या से क्वात्रोची तक राजनीति [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राज एक्सप्रेस 
देश के दिवालिया घोषित हो चुके और नौ हजार करोड़ के कर्ज में डूबे उद्योगपति विजय माल्या के कथित तौर पर लन्दन भाग जाने की खबरों के आने के बाद से देश की राजनीति में उबाल आया पड़ा है। माल्या तो लन्दन निकल गए लेकिन उनपर देश की संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यरोप का घमासान मचा हुआ है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की तरफ से जहाँ माल्या के भागने में सरकार के सहयोग की बात की जा रही है तो सत्ता में बैठी भाजपा कांग्रेस को क्वात्रोची की याद दिला रही है। संसद में इस सम्बन्ध में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा सरकार पर निशाना साधते हुए कहा गया कि काला धन वापस लाने का दावा करने वाली सरकार ने माल्या को भगाकर अपनी असलियत दिखा दी। इसपर पलटवार करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कांग्रेसी शासन में फरार हुए क्वात्रोची की याद दिलाते हुए अपने बचाव में कहा कि माल्या को कर्ज कांग्रेस ने दिया था और उन्हें रोकने का कोई आदेश नहीं था, इसलिए वे लन्दन जा सके। कहना गलत न होगा कि जनता से जुड़े जरूरी मुद्दों पर चिंतन-मनन और उनके समाधानमूलक उपायों पर कार्य करने के लिए चुनकर संसद भेजे गए हमारे जनप्रतिनिधि वहां सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलने में लगे हैं। संसद का ये बजट सत्र शुरू होने के बाद से अबतक इसमे विधेयक कम पेश और पारित हुए हैं, अर्थहीन विवादों पर आरोप-प्रत्यारोप ही अधिक हुआ है। फिर चाहें वो जेएनयू मामाला हो या रोहित वेमुला प्रकरण अथवा अभी ये विजय माल्या के पलायन का मामला। विपक्ष के दबाव में ऐसे बेकार मसलों पर सरकार को संसद में वक़्त देना पड़ा है और वो वक्त भी किसी सार्थक चर्चा से होते हुए समुचित निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय आरोप-प्रत्यारोप की ही भेंट चढ़कर रह गया। देश में आम जनता से जुड़े तमाम जरूरी मुद्दे हैं, जिनपर संसद में चर्चा होनी चाहिए न कि ऐसे आपसी आरोप-प्रत्यारोप में उसका बहुमूल्य समय और उसमे लगने वाली जनता की कमाई बर्बाद होनी चाहिए।
   इसी क्रम में अगर विजय माल्या के मामले पर नज़र डालें तो उनपर भारतीय बैंकों का करीब ९ हजार करोड़ का कर्ज है, जिसे वे चुका नहीं रहे और लम्बे समय से अटकाए हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे भी एनपीए की उसी समस्या के एक लक्षण हैं, जिससे आज भारतीय बैंक सर्वाधिक पीड़ित  हैं। अभी हाल ही में इस सम्बन्ध में उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने सीबीआई के निर्देश पर मामला दर्ज किया, जिसके साथ ही वे लन्दन निकल लिए। अब लन्दन में बैठकर वहां से वे यह ट्विट कर रहे हैं कि मीडिया उनके खिलाफ ट्रायल चला रही है। वे कोई भगोड़े नहीं, बड़े उद्योगपति हैं और उन्हें इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। अब अगर अपने उद्योगपति होने का उन्हें इतना ही गुमान है और  इस देश की न्याय व्यवस्था पर भरोसा भी है तो फिर ९ हजार करोड़ के कर्ज  में फंसे होने के बावजूद बिना किसी सूचना के वे विदेश कैसे निकल गए ? और सबसे बड़ी चीज कि अगर अपनी प्रतिष्ठा उन्हें इतनी ही प्यारी है कि मीडिया ट्रायल से घबरा रहे हैं, तो फिर बैंकों का पैसा  दबाकर क्यों बैठे हैं ? इन सवालों का माल्या साहब के पास सिवाय कुतर्कों के शायद ही कोई जवाब हो।
   अब अगर उनको लेकर देश की वर्तमान से लेकर पिछली सरकारों के रुख पर आए तो मूल बात यही है कि चाहें पिछली कांग्रेस नीत संप्रग सरकार हो या मौजूदा भाजपा नीत राजग सरकार, विजय माल्या के प्रति तो दोनों ने ही कमोबेश उदारता दिखाई है। कांग्रेस ने अपने शासन के दौरान उन्हें जमकर कर्ज दिया जो कि अब नौ हजार करोड़ का हो चुका है, तो आज भाजपा सरकार ने उन्हें इतने बड़े कर्ज में डूबे होने के बावजूद पूरीद ढील दे रखी है। अब विजय माल्या के ऊपर इन दलों की ये उदारता यूँ ही तो नहीं हो सकती; पूरी संभावना है कि दोनों ने अपने-अपने समय में इनसे कमोबेश लाभ लिया  होगा। राजनीति और कॉर्पोरेट के बीच संबंधों का ये समीकरण तो खैर अब इस देश में न केवाल सर्वविदित बल्कि स्वीकृत भी हो चुका है। लोग जानते हैं कि ये एक सच्चाई है और इससे कोई राजनीतिक दल अछूता नहीं है, इसलिए उन्होंने इसे सियासत के एक अंग के रूप में स्वीकार ही लिया है। पर इन सब के बीच विडंबना ये है कि एक किसान जो अपनी मेहनत से इस देश के राजनेताओं और उद्योगपतियों सबका पेट भरता है, उससे एक छोटा-सा कर्ज वसूलना हो तो भी बैंक  जो ताकत दिखाते हैं, वो ताकत विजय माल्या जैसे उद्योगपति जो उनका ९ हजार करोड़ लेकर बैठे हैं, के सामने  क्यों नहीं दिखा रहे ? इसीको आम और ख़ास का अंतर कहते हैं, जिसे आज यह देश पाटना तो दूर उलटे और बढ़ाता जा रहा है। उचित होगा कि हमारे सियासतदां अपनी आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से निकलकर जरा इसपर भी सोचें क्योंकि यह अन्तर अगर ऐसे ही बढ़ता रहा तो एकदिन बड़ी बगावत का रूप अख्तियार कर लेगी, जिसके बड़े घातक परिणाम होंगे।

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

बोर्ड परीक्षाओं में नक़ल पर नकेल कब [अमर उजाला कॉम्पैक्ट और पंजाब केसरी में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पंजाब केसरी 
अभी देश में बोर्ड परीक्षाओं का मौसम है। यूपी आदि कई एक राज्यों में परीक्षाएं हो गई हैं तो कुछ में हो रही हैं और कुछ में आगे होनी हैं। लेकिन, हर वर्ष की तरह ही इस वर्ष भी बोर्ड परीक्षाओं में जिस बात को लेकर सर्वाधिक चर्चा है, वो है इनमे होने वाली नक़ल। प्रत्येक वर्ष राज्य सरकारों और राज्य के शिक्षा बोर्ड द्वारा यह कहा जाता है कि वो नक़ल रहित और प्रमाणिक परीक्षा करवाने के लिए पूरी व्यवस्था करेंगे लेकिन, उनकी ये व्यवस्था सिर्फ ढांक के तीन पात ही साबित होती है। नक़ल कभी नहीं रूकती। इस साल भी बोर्ड परीक्षाओं में नक़ल को लेकर कई तस्वीरें सामने आई हैं। यूपी सरकार के नक़ल पर सख्ती के तमाम दावों के बावजूद वहां के कई परीक्षा केन्द्रों में कहीं दीवारों पर चढ़कर तो कहीं खिडकियों आदि के जरिये लोग अपने बच्चों को नक़ल कराते दिखे तो कई एक परीक्षा केन्द्रों पर खुलेआम छात्र-छात्राओं द्वारा किताब से देखकर नक़ल करने की तस्वीरें भी सामने आई। एक आंकड़े के मुताबिक़ यूपी बोर्ड की इंटर की परीक्षा के पहले ही दिन २७६ नकलची छात्रों को पकड़ा गया। कहना न होगा कि यह अभी  सिर्फ पकड़े गए छात्रों की संख्या है, अनगिनत छात्र ऐसे होंगे जो जम के नक़ल करने बावजूद पकड़ में नहीं आ पाए होंगे। बिहार की बात करें तो वो तो खैर नक़ल के लिए बदनाम ही रहा है। विगत वर्ष बिहार में दसवीं की बोर्ड परीक्षा में नक़ल का ऐसा हल्ला मचा कि वहां के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने यह तक कह दिया कि नक़ल रोकना उनके बस की बात नहीं, जिसपर उन्हें उच्च न्यायालय से फटकार भी सुननी पड़ी थी। हालांकि पिछले साल से कुछ सबक लेते हुए इस साल बिहार सरकार वहां नक़ल पर नकेल कसने के लिए पूरा जोर लगाने का दावा किया और इस वर्ष की परीक्षाओं में संभवतः इसका कुछ असर भी दिखा लेकिन, फिर भी बिहार में कई एक जगहों पर नक़ल करते हुए विद्यार्थी पकड़े गए। समझा जा सकता है कि यहाँ भी यूपी की ही तरह बहुत से विद्यार्थी नक़ल करने के बावजूद पकड़ में नहीं आए होंगे। ऐसा नहीं है कि ये नक़ल विद्यार्थी अपने घर से छिप-छिपा के करते हैं, अधिकांश नकलची विद्यार्थियों के परिवाजनों का भी इसमे समर्थन व सहयोग होता है। अब जब अभिभावकों को ही नक़ल से कोई गुरेज नहीं तो समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी ख़राब है। कितने विद्यार्थियों के परिवारजन तो उनका दाखिला ही यही देखकर कराते हैं कि अमुक विद्यालय में नक़ल आदि की व्यवस्था है या नहीं। परीक्षा के समय जब परीक्षा केंद्र का नाम सामने आता है तो नकलची इस फिराक में लग जाते हैं कि परीक्षा केंद्र जिस  विद्यालय में है, वहां कोई पहचान निकल जाए या नक़ल की कोई व्यवस्था हो जाय। लड़कियों को तो  में अब यह भी चिंता नहीं रहती क्योंकि, यूपी बोर्ड में उनके लिए तो स्वकेंद्र (होम सेंटर) का नियम लागू है।
  वैसे नक़ल की इस तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि विद्यार्थियों की नक़ल की आवश्यकता को देखते हुए परीक्षा केन्द्रों में नक़ल के लिए पूरा एक तंत्र बना पड़ा है। ये कहना एकदम समीचीन होगा कि परीक्षा कक्षों के भीतर नक़ल का एक पूरा बाजार ही चलता है, जहाँ विषयवार नक़ल की कीमत तय होती है, मोल-भाव होता है और परीक्षार्थी के रूप में खरीददार होते हैं। अन्दर की स्थिति कुछ यूँ होती है कि परीक्षा शुरू होने से पहले विद्यालय के कोई उच्च अधिकारी आते है और कुछ इस प्रकार की सामूहिक उद्घोषणा करते हैं कि अगर परीक्षा उत्तीर्ण करनी है तो इतना ‘व्यवस्था शुल्क’ देना पड़ेगा। अब जिन परीक्षार्थियों ने व्यवस्था शुल्क जो प्रायः विषय की कठिनता पर निर्भर करता है, दे दिया, उनके लिए तुरंत नक़ल सामग्री आने लगती है और सम्बंधित विषय के अध्यापक प्रश्नों को बोलकर भी हल कराने लगते हैं आदि इत्यादि तमाम व्यवस्थाओं के जरिये नक़ल प्रक्रिया चल निकलती है। व्यवस्था शुल्क अदा किए सब परीक्षार्थी एक ही जगह झुण्ड में होकर नक़ल पर्चियों का लाभ लेने लगते हैं। ऐसे में यदि बोर्ड से किसी जांच अधिकारी के केंद्र पर आने की सूचना मिले तो   फिर तो परीक्षा कक्ष में ऐसी भगदड़ मचती है कि जैसे ये परीक्षा कक्ष नहीं, कोई युद्ध का मैदान हो। जिन परीक्षार्थियों के पास नक़ल की पर्चियां आदि होती हैं, वे उन्हें अध्यापकों के पूर्व निर्देशानुसार मुहँ के हवाले कर लेते हैं। कुछ इधर-उधर फेंक देते हैं। कुल मिलाकर जांच अधिकारी के आने तक परीक्षा कक्ष की स्थिति ऐसी हो जाती है, जैसे इससे अधिक सभ्य न तो कोई परीक्षा कक्ष होंगे और न ही परीक्षार्थी। और जांच अधिकारी के जाने के बाद जैसे ही अध्यापक संकेत देते हैं, वैसे ही पुनः नक़ल-नारायण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इन सब वितंडों के दौरान सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि जो कुछ एक काबिल और परिश्रम  से पढ़े हुए परीक्षार्थी होते हैं, वे भी परिक्षायोग्य वातावरण के अभाव में ठीक ढंग से परीक्षा नहीं दे पाते। यह स्थिति न केवल शर्मनाक और चिंताजनक है, बल्कि राष्ट्र के भविष्य के सम्बन्ध में भयभीत भी करती है।
अमर उजाला 
 
  नक़ल की इस समस्या का सबसे बड़ा कारण तो खैर विद्यार्थियों में मौजूद वह मानसिकता है, जो उन्हें परिश्रम से बचने या शॉर्टकट से सफलता पाने के अनुचित सिद्धांत का रास्ता दिखाती है। लेकिन इसके बावजूद सब दोष विद्यार्थियों को नहीं दे सकते। कारण कि हमारे विद्यालय उनको उस स्तर की शिक्षा भी तो नहीं दे पाते कि वे बिना नक़ल के परीक्षा में बैठकर अच्छे से उत्तीर्ण हो सकें। अगर विद्यालय उन्हें समुचित ढंग से शिक्षा दे तो शायद उन्हें नक़ल की आवश्यकता ही न महसूस हो। मूल बात जिम्मेदारी की है कि यदि विद्यालय, अभिभावक तदुपरांत विद्यार्थी सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी को समझ लें तो नक़ल की यह समस्या स्वतः समाप्त हो जाएगी।   
  संदेह नहीं कि  परीक्षाओं में नक़ल की इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित राज्य यूपी और बिहार हैं। मध्य प्रदेश भी अब धीरे-धीरे इस कतार में शामिल होता जा रहा है। यूपी-बिहार में तो आलम ये है कि इन राज्यों के नकलची विद्यार्थी इस आधार पर साल भर आश्वस्त रहते हैं कि पढ़ें या न पढ़ें क्या फर्क पड़ता है! राज्य में फलां पार्टी की सरकार है, फिर उत्तीर्ण तो हो ही जाएंगे। वैसे, नकलचियों की इस सोच में काफी हद तक सच्चाई भी है क्योंकि, इन राज्यों की सरकारों द्वारा जब-तब बोर्ड परीक्षाओं में ढिलाई बरतते हुए नक़ल की छूट दे-देकर ही नकलची विद्यार्थियों के दिमाग में ऐसी सोच को स्थापित किया गया है। यहाँ तक कि राजनीतिक दलों का यह भी एक गुप्त चुनावी एजेंडा ही होता है कि हमारी सरकार आई तो नक़ल की छूट रहेगी। बेशक यह सवाल उठाया जा सकता है कि एक सरकार कैसे नक़ल जैसी चीज पर विराम लगा सकती है ? यह भी कहा जा सकता है कि नक़ल सरकार की कोशिश से नहीं, अभिभावकों और विद्यालयों की मजबूत इच्छाशक्ति से रुकेगी। यह बातें एक हद तक सही हैं, लेकिन हमें मानना होगा कि सरकार बहुत शक्तिशाली होती है। उसके पास शक्ति और संसाधन होते हैं और अगर वह ठान ले तो नक़ल पर भी नियंत्रण कर सकती है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि १९९२ में नक़ल को लेकर यूपी बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में सरकार द्वारा बेहद कड़ाई दिखाई गई थी, जिसका परिणाम यह सामने आया था कि लड़का-लड़की मिलाकर केवल १४.७० प्रतिशत विद्यार्थी ही उस वर्ष परीक्षा में उत्तीर्ण हो सके। उस वर्ष के बाद अगले कई वर्षों तक वो कड़ाई जारी रही और उत्तीर्णता प्रतिशत का ग्राफ बहुत ऊपर नहीं उठ सका। कहने का अर्थ यही है कि सरकार चाहे तो नक़ल पर नियंत्रण कर सकती है, बशर्ते कि वो इस सम्बन्ध में दृढ इच्छाशक्ति का परिचय दे। नक़ल के सम्बन्ध में दंड के नियम कड़े किए जाएं जैसे कि नक़ल होते पाए जाने पर न केवल विद्यार्थी बल्कि विद्यालय पर भी कड़ी कार्रवाई हो। हर जगह निगरानी की व्यवस्था रहे। निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरा आदि अत्याधुनिक तकनीकों का भी सहारा लिया जा सकता है। सरकार यदि करना चाहे तो ऐसे और भी बहुत से तरीके हैं, जिनसे नक़ल पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है।

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

सवालों के घेरे में चिदंबरम [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
२००४ में गुजरात में हुए इशरत जहाँ एनकाउंटर मामले पर विवाद थमने का नाम लेता नहीं दिख रहा। हालत ये है कि रोज इस मामले में कोई न कोई नया खुलासा सामने आता जा रहा है। इसी सन्दर्भ में अगर इशरत जहां एनकाउंटर मामले पर एक नज़र डालें तो 15 जून 2004 को अहमदाबाद में एक मुठभेड़ में इशरत जहां और उसके तीन साथी जावेद शेख, अमजद अली और जीशान जौहर को गुजरात पुलिस द्वारा एनकाउंटर में मार गिराया गया था। गुजरात पुलिस ने इशरत को लश्कर का आतंकी बताया था और कहा था कि उसके निशाने पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी थे। हालांकि इस एनकाउंटर के बाद इसकी सत्यता को लेकर जब कई तरफ से सवाल उठने लगे तो गुजरात उच्च न्यायलय ने मजिस्ट्रेट एसपी तमांग इसकी जांच सौंपी, जिन्होंने अपनी जांच में इस एनकाउंटर को फर्जी बताया। फिर इसकी जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन हुआ, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर कई लोगों के खिलाफ एफआईआर तो दर्ज की गई लेकिन मामले की स्थिति पूरी तरह से साफ़ न होने के कारण आखिरकार २०११ में इसकी जाँच सीबीआई को सुपुर्द कर दी गई। इसके बाद सीबीआई ने कई एक गिरफ्तारियां कीं, जिनमे एनकाउंटर की अगुवाई करने वाले डीजी वंजारा की गिरफ़्तारी भी शामिल थे। इसके बाद सीबीआई की जांच और इस दौरान उसकी  देश के इंटेलिजेंस ब्यूरो से तनातनी का पूरा एक अलग ही इतिहास रहा है। कुल मिला-जुलाकर सन २०१३ तक सीबीआई की जांच की यही दिशा यही सिद्ध करने को प्रयासरत रही थी कि यह एनकाउंटर फर्जी था और इसमे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व गृहमंत्री अमित शाह की बड़ी  भूमिका थी। लेकिन २०१४ में पहले सीबीआई ने अमित शाह और फिर डीजी वंजारा दोनों को इस मामले से क्लीन चिट दे दी। अब फिलहाल इसी मामले में इशरत जहां को लेकर खुलासे होने से कांग्रेस पर यह सवाल उठने लगा है कि कहीं उसने अपने शासन के दौरान इशरत जहाँ एनकाउंटर को फर्जी सिद्ध कर नरेंद्र मोदी की छवि ख़राब करने व उन्हें फंसाने की साजिश तो नहीं रची थी ?  
  अभी कुछ समय पहले अमेरिकी जेल में बंद  आतंकी हेडली ने २६/११ मामले में दी अपनी ऑनलाइन गवाही में यह स्पष्ट किया था कि इशरत जहां लश्कर की आतंकी थी। हेडली के इस खुलासे के बाद न केवल गुजरात पुलिस की बात सच्ची सिद्ध हो गई बल्कि इशरत को निर्दोष और एनकाउंटर को फर्जी बताकर भाजपा को घेरने वाले कांग्रेस, जेडीयू आदि राजनीतिक दल भाजपा के निशाने भी पर आ गए। जेडीयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिन्होंने इशरत को बिहार की बेटी  तक कह दिया था, झट अपने उस बयान से पलटी ही मार गए। कांग्रेस भी पशोपेश की हालत में नज़र आने लगी। लेकिन इन्हीं सब के बीच यह विवाद और बड़ा रूप तब ले लिया जब हाल ही में इसपर गृह  मंत्रालय के दो पूर्व अधिकारीयों के बयान आए। ऐसे बयान जिन्होंने पूर्व गृहमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी चिदंबरम को सीधे-सीधे सवालों के घेरे में ला दिया है। गृह मंत्रालय के पूर्व अवर सचिव आरवीएस मणि ने यह खुलासा किया है कि उस दौर में इशरत और उसके साथियों को आतंकी न बताने का उनपर गृहमंत्रालय की तरफ से दबाव डाला गया था। चूंकि मणि ने इशरत मामले में गुजरात उच्च न्यायलय में पहला हलफनामा दाखिल किया था। इस हलफनामे में इशरत जहां को आतंकी बताया गया था लेकिन, दो महीने के भीतर ही इस हलफनामे को बदलकर दूसरा हलफनामा दायर किया गया जिसमे इशरत को निर्दोष माना गया। मणि के अनुसार  इस दुसरे हलफनामे से संतुष्ट न होने के बावजूद उन्हें राजनीतिक दबाव के चलते इसपर हस्ताक्षर करना पड़ा। इसके अतिरिक्त पूर्व गृह सचिव जी  के पिल्लई ने यह स्पष्ट किया है कि तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने दूसरा हलफनामा खुद बदलवाकर दायर करवाया था। दुसरे हलफनामे में क्या लिखा जाएगा यह भी  चिदंबरम ने ही बताया था। इस मामले पर उनसे कोई राय नहीं ली गई। अब गृहमंत्रालय के इन पूर्व अधकारियों के इन बयानों के बाद भाजपा पूरी तरह से पी चिदम्बरम पर हमलावर हो गई है और चिदंबरम पूरी तरह से मुश्किल में घिरते नज़र आ रहे है। उनके बेटे कार्ति चिदंबरम की विदेशों में मौजूद अकूत संपत्ति के खुलासे ने भी उनकी मुश्किलें और बढ़ाने का काम किया है। तिसपर इशरत जहाँ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता एम् एल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय में चिदंबरम के खिलाफ यह जनहित याचिका दायर की है कि पूर्व गृहमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय और गुजरात उच्च न्यायालय को गलत जानकारी दी थी, इसलिए उनपर अवमानना का मामला चलाया जाय। सर्वोच्च न्यायालय इसपर सुनवाई को तैयार भी हो गया है जो कि चिदंबरम के लिए एक अलग ही चिंता का विषय है।  दरअसल २६/११ आतंकी हमले के बाद चिदंबरम को देश का गृहमंत्री बनाया गया और यह संभवतः उनके बेहतर प्रबंधन का ही असर था कि २६/११ के बाद लगभग दो-ढाई वर्षों तक देश में कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ। अतः कह सकते हैं कि बतौर गृहमंत्री चिदंबरम का कार्यकाल इस देश के सुरक्षात्मक प्रबंधन की दृष्टि से उत्तम रहा। लेकिन, आज अगर उनपर इस तरह के आरोप लग रहे हैं तो उन्हें ससाक्ष्य इनका उत्तर देना चाहिए। संभव है कि तत्कालीन दौर में उन्हें ये कदम अपने राजनीतिक दल के दबाव में उठाने पड़े हों तो उन्हें इसका भी स्पष्ट रूप से खुलासा करना चाहिए। अन्यथा इसमे कोई संदेह नहीं कि आने वाला समय उनके लिए बेहद मुश्किलों भरा रहने वाला है।
बहरहाल, इन सब खुलासों के बाद एक बात तो देश की समझ आ ही गई होगी कि इस देश में अपना हित साधने के लिए नेताओं द्वारा नैतिक पतन की पराकाष्ठा को पार करने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई जा रही। देश यह भी समझ लिया होगा कि देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों द्वारा धर्मनिरपेक्षता की आड़ में किस हद तक समुदाय विशेष के तुष्टिकरण की कोशिश की जाती रही है। इशरत जहां जिसके एनकाउंटर के समय ही पुलिस ने ये कह दिया था कि वो आतंकी है, उस समय पुलिस पर भरोसा करने की बजाय हमारे कांग्रेस आदि धर्मनिरपेक्ष दल के नेताओं के ह्रदय से इशरत और उसके साथियों के प्रति संवेदना का सोता फूट पड़ा कि जैसे कोई बड़ी शहादत हो गई हो! यह और कुछ नहीं सिर्फ मुस्लिम तुष्टिकरण की एक वाहियात और निर्लज्ज राजनीति थी और आज जब इसीका पर्दाफाश हो रहा हो तो इशरत को बिहार की बेटी कहने वाले से लेकर उसके लिए तरह-तरह से विलाप करने वाले तक सारे हुक्मरान अवसर के हिसाब से चेहरे बदलने की अपनी चिर-परिचित  कला का भौंडा प्रदर्शन करते हुए, अपने बयानों से पीछे हटने में लगे हैं।  खैर! देश यह भी देख-समझ रहा ही है और समय आने पर इसका भी जवाब जरूर देगा।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

लवकेश मिश्रा की ‘जान’, ‘जान’ नहीं है क्या ?

  • पीयूष द्विवेदी भारत 


विगत फ़रवरी के आखिरी सप्ताह में लखनऊ के बीएनसीईटी कालेज में पढ़ने वाले एक छात्र की आत्महत्या का मामला सामने आया है। इस  छात्र  ने अपने सुसाइड नोट में ये स्पष्ट किया है कि अपने विभगाध्यक्ष की प्रताड़ना से परेशां होकर वो आत्महत्या कर रहा है। खबर के अनुसार, ये कबूलनामा न केवल लिखित है बल्कि रिकार्डेड भी। लेकिन अभी लगभग दस-बारह दिन पुराना ये मामला कुछेक अखबारों और वेबसाइटों की छोटी सी खबर भर बनकर समाप्त हो गया है। इसकी कहीं, कोई चर्चा नहीं है, जबकि इससे काफी पहले हुई कथित दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला संसद, सड़क और मीडिया के प्राइम टाइम बहसों तक अब भी हंगामा मचाए हुए है। गौर करें तो ये दोनों छात्र ही थे, दोनों के सुसाइड नोट से भी यही स्पष्ट हुआ कि उनकी आत्महत्या की वजह कालेज प्रशासन का अनुचित और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार है..फिर सवाल यह उठता है कि जब सब कुछ एक जैसा है तो ऐसा क्यों हो रहा कि एक की आत्महत्या की चर्चा महीनों से थम ही नहीं रही और दूसरे की आत्महत्या का मामला बिना किसी शोर-शराबे या चर्चा-बहस के सप्ताह भर में ही गायब हो गया ? यह सवाल पूछा जाना चाहिए उन नेताओं और बुद्धिजीवियों से जो र्रोहित पर महीनों से विलाप करते नहीं थक रहे एवं जेएनयू के देशविरोधी छात्रों के हक़  की आवाज की पैरवी में कमर कसे खड़े हैं और लखनऊ के इस छात्र की आत्महत्या पर चू तक नहीं कर रहे ? नेता बताएं कि छात्र-हित के उनके मानक इतने दोहरे क्यों हैं कि एक छात्र की आत्महत्या पर वे न केवल उसके घर पहुँचते हैं बल्कि उसपर संसद में चर्चा की मांग भी उठा देते हैं और दूसरे छात्र की आत्महत्या पर क्रूर और निर्लज्ज मौन धारण करके बैठ जाते हैं ? कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी विशेष रूप से बताएं कि रोहित वेमुला के घर तो वे खूब गए थे और उसके लिए हो रहे प्रदर्शनों में भी पटर-पटर किए थे, तो लखनऊ क्यों नहीं गए या कब जा रहे हैं ? देश के तथाकथित बुद्धिजीवी और न्यूज चैनल्स के क्रांतिकारी एंकर लोग भी बताएं कि रोहित पर तो खूब मुबाहिसें किए थे, लखनऊ के छात्र पर ‘चू’ करने की भी योजना है या नहीं ? दावा है कि इन प्रश्नों पर ये सब या तो दोनों मामलों को अलग बताने का कुतर्की प्रलाप करेंगे या निर्लज मौन धारण किए रहेंगे क्योंकि, रोहित वेमुला पर बोलना इनके एजेंडे को लाभ देने वाला था, इसलिए बोले; जबकि लखनऊ के छात्र पर बोलना   इनके एजेंडे को कुछ नहीं देने वाला तो फिर ये अपना मुँह क्यों दुखाएं ? मतलब ये कि इनके लिए कोई छात्र-वात्र नहीं सिर्फ अपना एजेंडा महत्वपूर्ण है और ये सिर्फ उसीके लिए खाते-पीते-पहनते-ओढ़ते-उठते-बैठते-बोलते और जीते हैं।
  हाँ, एक सवाल आपके दिमाग में आ रहा होगा कि जब रोहित वेमुला इनके एजेंडे के लिए लाभप्रद था तो लखनऊ का छात्र क्यों नहीं ? तो इसे बस इतने से समझ लीजिए कि लखनऊ के छात्र का नाम रोहित ‘वेमुला’ नहीं था, वो तो बेचारा लवकेश ‘मिश्रा’ था। बस इसीलिए, उपर्युक्त लोगों के लिए उसकी जान, जान नहीं है!