बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

अपनी मर्यादा और दायित्वों को समझे सोशल मीडिया [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

बुलंदशहर गैंगरेप प्रकरण को राजनीतिक साजिश बताने वाले समाजवादी नेता आज़म खां के बयान के खिलाफ पीड़ित पक्ष द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया के संदर्भ में भी कई महत्वपूर्ण व चिंतनीय बातें कही। न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सोशल मीडिया पर अदालती निर्णयों के पक्ष-विपक्ष में होने वाली बहसों, कठोर टिप्पणियों अदि पर भी चिंता जताई। इस तरह के आरोपों कि कई न्यायाधीश सरकार के समर्थक हैं, को सिरे से खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि जिन्हें ऐसा लगता है, वे न्यायालय में बैठकर देखें कि कैसे सरकार की खिंचाई होती है। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय के बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने एक समाचार चैनल को दिये अपने बयान में कहा था कि शीर्ष न्यायालय के कई न्यायाधीश सरकार समर्थकहैं। इसके अलावा सोशल मीडिया पर भी तमाम सरकार विरोधी लोगों द्वारा न्यायालय के कई निर्णयों को सरकार समर्थक बता दिया जाता है। दरअसल इस तरह के आरोप निराधार हैं और लोकतान्त्रिक व्यवस्था को कमजोर करने वाले हैं। इनसे बचने की जरूरत है।

वास्तव में, आज सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के ऐसे विकसित मंच के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जहां सबकुछ गोली की तरह तेज और तुरंत चलता है। यहाँ जितनी तेजी से विचारों का प्रवाह होता है, उतनी तीव्रता से उनपर प्रतिक्रियाएं भी आती हैं और उनका फैलाव भी होता जाता है। मीडिया के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में ऐसी तीव्रगामी प्रतिक्रिया की कोई व्यवस्था नहीं है, परन्तु सोशल मीडिया इस मामले में विशिष्ट है। इसकी इस विशिष्टता के अच्छे और बुरे दोनों परिणाम सामने आने लगे हैं।
अच्छे परिणामों की बात करें तो कोई भी विषय खबरों में आया नहीं कि अगले सेकंड या मिनट में ही वो सोशल मीडिया पर कमोबेश अपनी मौजूदगी दर्ज कराने लगता है। पोस्टें, टिप्पणियां, हैशटैग चलने लगते हैं। यहाँ तक कि अब कई मामलों में ख़बरों को लेकर सोशल मीडिया मुख्यधारा मीडिया को भी प्रभावित करने लगी है। अक्सर छोटी ख़बरें सोशल मीडिया पर चर्चित होते ही मुख्यधारा मीडिया में भी चर्चा पा जा रही हैं। सरकार के निर्णयों और नीतियों को लेकर सवाल-जवाब कर दबाव बनाने में भी सोशल मीडिया ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज कराई है। सोशल मीडिया की ताकत को समझते हुए मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद तमाम मंत्री भी इसके जरिये लोगों से जनसंवाद करने और उनकी समस्याएँ सुनने लगे हैं। इस प्रकार सोशल मीडिया के अनेक सकारात्मक प्रभाव हुए हैं, मगर अब कुछ बात इसके नकारात्मक प्रभावों की करते हैं।
सोशल मीडिया पर विचारों का प्रवाह जिस गति से होता है, उसमें सही-गलत देखने और विचारने का अवसर नहीं होता। तथ्यों का परीक्षण किए बिना ही लोग एकदूसरे की देखादेखी में जो न सो पोस्ट करते जाते हैं। इस चक्कर मे अक्सर गलत और भ्रामक चीजें भी प्रचारित हो जाती हैं, जिनके कारण दंगा-फसाद होने से लेकर गलत धारणाएँ पैदा होने जैसी बातें अक्सर सामने आती रही हैं। इस बात को इस उदाहरण के जरिये समझा जा सकता है कि अभी हाल ही में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हुई, जिसके बाद कर्नाटक पुलिस तो मामले की जांच में लग गयी, मगर सोशल मीडिया पर एक खेमे के लोगों द्वारा खुद ही जज बनते हुए इस हत्या के लिए संघ-भाजपा को दोषी बताया जाने लगा। जबकि पुलिस की जाँच में अबतक ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है। इस प्रकार के अनेक मामले हैं, जिनमें सोशल मीडिया ने ऐसे बेहद गैर-जिम्मेदाराना और अमर्यादित रवैये का परिचय दिया है।    

इसके अलावा सोशल मीडिया की बहसों के क्रम में भाषा से लेकर हर प्रकार की मर्यादाओं को धता बता दिया जाता है। स्वयं की बात को अंतिम सत्य सिद्ध करने की हठ में जुटे लोगों के बीच बहस के नामपर कोई मर्यादा शेष नहीं रह जाती। किसी व्यापक विषय की बहस व्यक्तिगत आक्षेपों से होते हुए कब गाली-गलौज और धमकी पर पहुँच जाती है, पता भी नहीं चलता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नामपर किसी भी व्यक्ति पर कोई भी आरोप लगा देना, कुछ भी कह देना, इस माध्यम का चरित्र बनता जा रहा है। न्यायालयों के निर्णयों और न्यायाधीशों पर होने वाली टिप्पणियां भी इसी प्रवृत्ति का उदाहरण हैं। 

ऐसा नहीं है कि इन विसंगतियों की रोकथाम के लिए क़ानून या तंत्र नहीं है। बेशक साइबर क्राइम विभाग इस सम्बन्ध में सक्रिय है, परन्तु चिंताजनक सोशल मीडिया पर इस प्रकार की प्रवृत्तियों का मौजूद होना है। सोशल मीडिया का स्वरूप ऐसा है कि उसपर नियंत्रण का कोई भी तंत्र पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो सकता। तिसपर किसी प्रकार की अनुचित और अभद्र टिप्पणी के लिए कार्रवाई किए जाने पर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बता देने का चलन तो खैर इस देश में बहुत तेजी से जोर पकड़ता जा रहा है। सोशल मीडिया के बयानवीर भी यही करते हैं।

किसी भी शक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रयोग होते हैं। सोशल मीडिया भारत में अभी अपने यौवानोत्कर्ष पर है, इसलिए उसकी आक्रामकता स्वाभाविक है, परन्तु यहाँ उसे अपनी मर्यादाओं और जिम्मेदारियों को समझना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व समझते हुए उसका दुरूपयोग करने से बचने की जरूरत है। ऐसा न हो कि सोशल मीडिया के धुरंधरों की ये नादानियाँ सत्ता को इस माध्यम पर अंकुश लगाने का अवसर दे बैठें।

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

विनाश के ढेर पर बैठी दुनिया [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) और जनसत्ता में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत

अभी बीते दिनों ही परमाणु हथियारों को समाप्त करने के लिए कार्य करने वाले संस्थान आइकैन को विश्व शांति के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार दी जाने की घोषणा हुई। दुनिया भर से इस संस्थान के लिए बधाई और सराहना के संदेशों की बाढ़ आ गयी। इस पुरस्कार के बाद यह उम्मीद पैदा हुई कि अब संभवतः विश्व में परमाणु हथियारों के खात्मे को लेकर वातावरण बनेगा, मगर ये उम्मीद अधिक देर तक नहीं रह सकी। विश्व के महाशक्ति देश अमेरिका के विदेश मंत्रालय की तरफ से बयान जारी करते हुए कहा गया कि अमेरिका ‘परमाणु हथियार निषेध संधि’ जो पुरस्कृत संस्थान द्वारा समर्थित है, पर हस्ताक्षर नहीं करेगा। हालांकि अमेरिकी विदेश मंत्रालय की तरफ से यह भी कहा गया कि अमेरिका इस संधि के लिए वैश्विक वातावरण बनाने की दिशा में प्रयास करेगा। स्पष्ट है कि अमेरिका जिसके पास परमाणु हथियारों का भारी जखीरा है, खुद तो परमाणु हथियारों के खात्मे की दिशा में एक मामूली कदम भी नहीं बढ़ाना चाहता, लेकिन दुनिया के अन्य देशों से इस दिशा में बढ़ने के लिए प्रयास करने की बात कर रहा है। अब जबतक अमेरिका इस दिशा में कदम नहीं बढ़ाएगा, तबतक उसके जितने ही परमाणु हथियारों से संपन्न उसके विकट प्रतिस्पर्धी रूस से भी इस दिशा में कोई उम्मीद करना बेमानी ही होगा। ऐसे वक्त में फ़्रांस, ब्रिटेन, चीन, भारत आदि देश ऐसी किसी पहल के विषय में सोचें, ऐसी अपेक्षा करना इन देशों के साथ अन्याय ही होगा।

उपर्युक्त बातों को थोड़ा बेहतर ढंग से समझने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि किस देश के पास कितने परमाणु हथियार हैं। हालांकि इसका कोई आधिकारिक आकड़ा उपलब्ध नहीं है, मगर सूत्रों के आधार पर कुछ आंकड़े जरूर सार्वजनिक रूप से मौजूद हैं। विकिपीडिया पर मौजूद एक आंकड़े के अनुसार इस वक़्त ७००० परमाणु हथियारों के साथ रूस परमाणु शक्ति के मामले में पहले स्थान पर है। इनमें से १९५० परमाणु हथियार प्रयोग के लिए एकदम तैयार अवस्था में हैं। रूस के बाद ६८०० परमाणु हथियारों के साथ अमेरिका इस सूची में दूसरे स्थान पर है, उसके भी १८०० परमाणु हथियार प्रयोग के लिए तैयार हैं। इसके बाद फ़्रांस, चीन, ब्रिटेन, पाकिस्तान और भारत की बारी आती है, जिनके पास क्रमशः ३००,  २७०, २१५, १२५ और १२० परमाणु हथियार हैं। इनमें फ़्रांस के २८० और ब्रिटेन के १२० परमाणु हथियार प्रयोग के लिए तैनात हैं। शेष किसी देश के परमाणु हथियारों के प्रयोग के लिए तैनात अवस्था में होने की जानकारी नहीं है। इसीसे मिलते-जुलते आंकड़े अन्य स्रोतों पर भी उपलब्ध हैं। संदिग्ध रूप से अब उत्तर कोरिया परमाणु हथियार रखने वालों की श्रेणी में आ चुका है, बल्कि कई दावे तो ऐसे भी सामने आए हैं कि उसके पास परमाणु बम से भी अधिक शक्तिशाली हाइड्रोजन बम है।

बहरहाल, इन आंकड़ों से ये बात साफ़ है कि विश्व के लगभग नब्बे प्रतिशत से अधिक परमाणु हथियार अमेरिका और रूस के पास हैं। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि परमाणु हथियारों की संख्या का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि बड़े से बड़े देश के सम्पूर्ण विनाश के लिए बमुश्किल आधा दर्जन परमाणु बम ही काफी हैं। ऐसे में किस देश के पास कितने परमाणु हथियार हैं, इससे कोई विशेष फर्क नही पड़ता। कम हो या ज्यादा, हर स्थिति में परमाणु बम विश्व के लिए चिंताजनक है।

आज जो वैश्विक परिदृश्य है, उसमें राष्ट्रों के बीच परस्पर संदेह और प्रतिस्पर्धा का भाव भयंकर रूप से मौजूद है। हालांकि ऐसी स्थिति में भी यदि ये देश अक्सर एक दूसरे से मित्रता और सौहार्दपूर्ण संबंधों की बात करते हैं, तो उसका मुख्य कारण अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण हो जाना है। इस बात को भारत-चीन के उदाहरण से समझें तो चीन जैसा अड़ियल और आक्रामक देश यदि संघर्ष की बजाय डोकलाम में चुपचाप पीछे हट गया तो इसका मुख्य कारण यही था कि भारत से उसके गहरे आर्थिक हित जुड़े हुए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण ने राष्ट्रों के बीच सशस्त्र संघर्ष की स्थिति को फिलहाल रोक रखा है, मगर इससे अधिक समय तक उम्मीद नहीं की जा सकती। विश्व में उत्तर कोरिया, पाकिस्तान जैसे विफल राष्ट्र भी हैं; इनके लिए आर्थिक हित जैसी चीजें कतई महत्व नहीं रखतीं, अतः ये कभी भी युद्ध की स्थिति ला सकते हैं। अब यदि कोई व्यापक संघर्ष हुआ तो दुनिया ने ये जो परमाणु हथियार जुटा रखे हैं, उनका प्रयोग लगभग तय है। क्योंकि, आज का युद्ध इन्हीं हथियारों से लड़ा जाएगा।

क बड़ी आशंका यह भी है कि कहीं परमाणु हथियार आतंकियों के हाथ न लग जाएं। अब पाकिस्तान जैसे अपने ही द्वारा पैदा किए हुए आतंक के चंगुल में बुरी तरह से फंसे देश के पास जब १२५ परमाणु हथियार हैं, तो परमाणु हथियारों का आतंकियों के हाथों लग जाना कोई बहुत मुश्किल नहीं है। वो भी तब जब पाकिस्तान की सेना और सुरक्षा एजेंसियों, जिनके जिम्मे वहाँ के परमाणु ठिकानों की सुरक्षा का दायित्व होगा, के तार आतंकियों से जुड़े होने की बातें अक्सर सामने आती रहती हैं।

उपर्युक्त समस्त बातों को देखते हुए समझा जा सकता है कि परमाणु हथियार विश्व समुदाय के लिए किस तरह से एक मौन किन्तु भीषण संकट के रूप में उपस्थित हैं। विश्व के सभी विकसित व विकासशील राष्ट्र इस संकट से परिचित हैं, परन्तु प्रश्न यही है कि इनके खात्मे की पहल कौन करे। नैतिकता का तकाजा तो यही कहता है कि इस संबंध में पहल अमेरिका और रूस जैसे देशों को करनी चाहिए, क्योंकि उनके पास ही परमाणु हथियारों का जखीरा है। ये देश अपने परमाणु हथियारों को नष्ट करने की दिशा में बढ़ें तो अन्य देशों में भी साहस आएगा। विश्व के महाशक्ति देशों को यह समझ लेना चाहिए कि परमाणु हथियार किसी भी प्रकार से लाभप्रद नहीं हैं। यहाँ तक कि किसी युद्ध में भी इनसे कोई लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि ये सिर्फ विनाश कर सकते हैं। ये विजित क्षेत्र की ऐसी दशा कर देंगे कि विजेता राष्ट्र के लिए उसका कोई उपयोग नहीं रह जाएगा। ऐसे में मानवता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले और सभ्य हो जाने का दंभ भरने वाले हमारे वर्तमान विश्व समाज को यह समझना चाहिए कि परमाणु हथियार केवल और केवल पशुता की निशानी हैं, मानवों के समाज में इनके लिए कोई स्थान नहीं है।

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

केरल में भाजपा की बढ़ती धमक [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

केरल की राजनीतिक हिंसा के विरुद्ध भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा जनरक्षा यात्रा की शुरुआत के गहरे अर्थ हैं। दरअसल केरल में आजादी के बाद से ही संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं पर हमले होते रहे हैं, जिनमें अबतक तीन सौ के आसपास कार्यकर्ताओं की जान जा चुकी है। इनमें सर्वाधिक हत्याएं केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन के क्षेत्र कन्नूर में होने की बात भी कही जाती रही है। संघ-भाजपा द्वारा इन हत्याओं के लिए राज्य के वामपंथी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया जाता है।

चूंकि, राज्य में भाजपा न तो कभी सत्ता में रही है और न ही उसका कोई ठोस राजनीतिक वजूद ही रहा है, ऐसे में उसके कार्यकर्ताओं की हत्या की जांच को यदि सत्ताधारी दलों द्वारा प्रभावित किया जाता हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भाजपा की तरफ से सत्ताधारी वामपंथी दलों पर ऐसे आरोप लगाए भी जाते रहे हैं। हालांकि केरल में सत्तारूढ़ वामपंथी मोर्चे का कहना है कि भाजपा-संघ के लोगों द्वारा उसके कार्यकर्ताओं की भी हत्या की गयी है। अब जो भी हो, मगर वस्तुस्थिति यही है कि केरल की राजनीतिक हिंसा को कभी मीडिया में उतनी चर्चा नहीं मिलती जितनी कि मिलनी चाहिए।

गौरी लंकेश, इखलाक आदि की हत्या पर देश भर में हंगामा मचा देने वाले असहिष्णुता विरोधी समूह की तरफ से भी इन हत्याओं पर खामोशी की चादर ओढ़ ली जाती है। इस स्थिति के मद्देनज़र ही भाजपाध्यक्ष अमित शाह द्वारा केरल की राजनीतिक हत्याओं के विरुद्ध जनरक्षा यात्रा का आरम्भ किया गया है, जिससे स्थानीय लोगों समेत समूचे देश का इस तरफ ध्यान आकर्षित किया जा सके। यात्रा के दूसरे दिन योगी आदित्यनाथ भी केरल पहुंचकर उसमें सम्मिलित हुए और उन्होंने इस्लामिक आतंक को संरक्षित करने का आरोप भी राज्य की वामपंथी सरकार पर लगाया। इधर पिछले दिनों अमित शाह ने दिल्ली में भी जनरक्षा यात्रा निकालकर देश में राजनीतिक हत्याओं के विरुद्ध एक माहौल बनाने की कोशिश की। 18 अक्टूबर तक चलने वाली इस यात्रा में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के सम्मिलित होने की योजना है।      

प्रश्न उठता है कि आखिर केरल, जहां भाजपा का कोई राजनीतिक वजूद नहीं रहा, में संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं की राजनीतिक हत्या क्यों की जा रही ? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें देश में वामपंथ की राजनीतिक स्थिति पर दृष्टि डालनी होगी। दरअसल ये वो वक्त है जब दुनिया में हाशिये पर जा चुका वामपंथ भारत में भी अपनी अंतिम साँसे गिन रहा है बंगाल में इनका कबका सफाया हो चुका है अन्य किसी राज्य में वामपंथी दलों और नेताओं की कोई चर्चा तक नहीं होती हालिया उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली बार भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) ने विधानसभा चुनावों के लिए साझा प्रत्याशी उतारे। उन्होंने सौ सीटों पर कम से कम प्रति सीट 10 से 15 हजार वोट हासिल करने का लक्ष्य रखा। यही नहीं, इनके बेहतर प्रदर्शन करने के लिए वामदलों से सीताराम येचुरी, डी. राजा, वृंदा करात, दीपांकर भट्टाचार्य जैसे करीब 70 दिग्गज नेताओं ने प्रचार किया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। आंकड़े बताते हैं कि करोड़ों की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में वामदल कुल मिलाकर 1 लाख 38 हजार 763 वोट ही हासिल कर सके। यह कुल मतों को .2 प्रतिशत होता है। वहीं नोटा के लिए प्रदेश की जनता ने 7 लाख 57 हजार 643 वोट दिए, यह करीब .9 फीसदी बैठता है। इन आंकड़ों से देश में वामपंथ की राजनीतिक बदहाली का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर वामपंथियों के पास फिलहाल केरल और त्रिपुरा सिर्फ ये दो राज्य बचे हैं। इनमें केरल में संघ ने धीरे-धीरे अपनी अच्छी पैठ स्थापित कर ली है। पिछले कई चुनावों के दौरान केरल और त्रिपुरा दोनों राज्यों में भाजपा के मत प्रतिशत में लगातार इजाफा देखने को मिला है। केरल में भाजपा का ये बढ़ता प्रभाव वाम दलों को बेहद खल रहा है, इस कारण राजनीतिक हिंसा का उनका स्वभाव अब और उग्र रूप में सामने आने लगा है। एक अनुमान के मुताबिक़ पी. विजयन द्वारा केरल की सत्ता संभालने के बाद से अबतक औसतन हर पच्चीस दिन पर एक संघ या भाजपा के कार्यकर्ता की हत्या हुई है।

अब जनरक्षा यात्रा के जरिये भाजपा ने राज्य में अपनी बढ़ती धमक की एक बानगी भी दिखा दी है। वामपंथी दल भले यह कहते रहें कि इस यात्रा का कोई असर नहीं पड़ेगा, मगर वास्तविकता यही है कि ये केरल में वामपंथी शासन के समक्ष भाजपा की चुनौती के एक आधिकारिक ऐलान की तरह है। यदि राजनीतिक हत्याओं का ये मुद्दा चल गया तो भाजपा केरल में सत्ता भले न पाए, मगर आधिकारिक रूप से विपक्ष की भूमिका में जरूर आ सकती है। केरल के अलावा अब भाजपा की नजरें आसन्न विधानसभा चुनाव में त्रिपुरा में अच्छा प्रदर्शन करने के साथ 2019 के लोकसभा चुनाव में पूर्वोत्तर में 20-25 सीटें जीतने पर हैं। अगले वर्ष त्रिपुरा में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी भाजपा ने शुरू कर दी है। इसी कड़ी में पिछले दिनों अमित शाह वहां रैली कर चुके है। त्रिपुरा की कुल 38 लाख आबादी में 21 लाख मतदाता हैं। चार विधानसभा क्षेत्रो में कुल 2 लाख मतदाता मणिपुरी हैं। मणिपुर में भाजपा सत्ता हासिल कर चुकी है और भाजपा को इन पर काफी भरोसा है।
अब अपने आखिरी बचे इन गढ़ों में भाजपा की धमक से वामपंथी हुक्मरान अंदर ही अंदर सन्नाटे में हैं। उन्हें समझना चाहिए कि भाजपा यदि आज देश में भर में बेहतर प्रदर्शन कर रही है, तो इसके पीछे मुख्य कारण केंद्र और राज्यों में उसकी सरकारों का बेहतरीन प्रदर्शन तथा संगठन के रूप में जमीनी मेहनत है। सत्तारूढ़ दल होने के बावजूद भाजपाध्यक्ष अमित शाह लगातार कार्यकर्ताओं और जनता से संवाद कर रहे हैं। राष्ट्रव्यापी भ्रमण कर रहे हैं। ये भाजपा की विजय का कारण है। अगर वामपंथियों को भाजपा का मुकाबला करना है, तो उन्हें भी शासन और संगठन दोनों स्तरों पर जनता से जुड़ना चाहिए। लोकतंत्र का यही दस्तूर है। अब यदि वे राजनीतिक हिंसा से भाजपा को रोकने की कोशिश करेंगे तो भाजपा को तो रोक नहीं पाएंगे, मगर अपना बड़ा नुकसान अवश्य कर लेंगे।

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

सेकुलर निशाने पर 'महामना का मंदिर' [पांचजन्य में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) अपनी शैक्षणिक गतिविधियों और भारतीय संस्कृति के संवर्द्धन के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। शायद यही बात सेकुलर मीडिया में बैठे वामपंथियों और सेकुलरों को पसंद नहीं है। इसलिए ये लोग एक कथित छेड़छाड़ के मामले को लेकर पिछले कुछ दिनों से बीएचयू और उसके कुलपति के विरुद्ध गलत खबरें चला रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण हैं। इस समाचार को जब लिखा जा रहा था तब एक चैनल खबर चला रहा था कि बीएचयू के कुलपति प्रो. गिरीश चंद्र त्रिपाठी को जबरन छुट्टी पर भेजा गया। वहीं सोशल मीडिया पर यह खबर भी चली कि कुलपति से सारे अधिकार छीन   लिए गए हैं।
 
इन खबरों के बारे में जब विश्वविद्यालय के प्रवक्ता डॉ. राजेश सिंह से पूछा तो उन्होंने कहा कि ये सारी खबरें फर्जी हैं। कुछ सत्ता विरोधी तत्व विश्वविद्यालय को घृणित राजनीतिक हथकंडों का अखाड़ा बनाना चाहते हैं। ये तत्व सोशल मीडिया पर गलत समाचार फैला रहे हैं और चैनल तथा वेबसाइट वाले सोशल मीडिया से ही खबरें लेकर चला रहे हैं। तो यह है इनका हाल। इसलिए पिछले दिनों बीएचयू में जो हंगामा हुआ और जिस तरह से उसकी खबरें चलाई गर्इं, उसके    पीछे की मंशा को समझना कोई मुश्किल   काम नहीं है।
 
पांचजन्य
कहा गया कि पीड़ित लड़की की बात को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा गंभीरता से नहीं लिया गया। मगर, ये सब बातें सिर्फ कहे-सुने पर आधारित थीं, इनमें से किसी बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। यहां तक कि पीड़ित लड़की द्वारा छेड़छाड़ के आरोपी लड़कों तक की भी शिनाख्त नहीं हो सकी है। लेकिन बिना जांच-पड़ताल और तथ्यों के परीक्षण के ही सुनी-सुनाई बातों के आधार पर  ऐसा हंगामा खड़ा किया गया जैसे कि देश के किसी विश्वविद्यालय में पहली बार इस तरह का कोई मामला सामने आया हो। खाली बैठे विपक्ष को भी अवसर मिल गया और विश्वविद्यालय के इस प्रकरण को आधार बनाकर अनर्गल ढंग से सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा गया। इसमें सेकुलर मीडिया से जुड़े लोगों और कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों का हाथ रहा। जेएनयू की पूर्व छात्रा ममता बीएचयू प्रकरण पर कहती हैं, ‘‘ये वही लोग हैं जो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘अनमोल रत्नों’ के बलात्कारी कारनामों, हिमाचल प्रदेश के जघन्य बलात्कार काण्ड, हैदराबाद में काजियों द्वारा शेखों को लड़कियां बेचे जाने आदि मामलों पर खामोशी की चादर ओढ़े रहते हैं, लेकिन बीएचयू में कथित तौर पर छेड़छाड़ की बात सामने क्या आ गई, पूरा आसमान ही सिर पर उठा लिया।’’
 
इस मामले में बीएचयू के कुछ छात्रों का कहना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन की सुस्ती तो रही, मगर उनका यह भी कहना है कि विरोध का कुछ लोगों ने जान-बूझकर राजनीतिकरण कर दिया। वहीं कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी (साक्षात्कार बॉक्स में पढ़ें) कहते हैं कि पीड़ित लड़की ने खुद उनसे मिलकर कहा कि वह सिर्फ उन लड़कों के विरुद्ध कार्रवाई चाहती है, जबकि बाहर विरोध कर रहे लोग जबरन उसे विरोध का हिस्सा बनाए हुए हैं। दूसरी चीज कि कुलपति जब छात्राओं से मिलने के लिए त्रिवेणी छात्रावास जा रहे थे, तो उनका रास्ता रोक दिया गया। उन्हें छात्राओं से मिलने नहीं दिया गया। लड़कियों के आंदोलन का नेतृत्व करने वाली एकता सिंह कहती हैं कि हमें लड़कियों ने बताया कि कुलपति को छात्रावास में बुलाया है और वे आ भी रहे हैं।  फिर जब मैं दो मिनट के लिए अपने कमरे में गई, तब मुझे पता चला कि कुलपति आए थे, मगर उनका इतना विरोध हुआ कि उन्हें लौटना पड़ा। यह विरोध उन लोगों ने किया जो जबरन इस आंदोलन का हिस्सा बने थे। उन्हीं लोगों ने कुलपति और लड़कियों के बीच संवाद नहीं होने दिया। एकता ने यह भी बताया कि उनके आंदोलन पर कुछ वामपंथी संगठनों ने कब्जा कर लिया। इस तरह आंदोलन का मुद्दा नेपथ्य में चला गया और इसे प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा और राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के विरोध का उपक्रम बनाकर रख दिया गया।
 
यहां समझने वाली बात यह है कि जब कुलपति त्रिवेणी छात्रावास गए तब यदि उनकी छात्राओं से मुलाकात हो जाती तो यह बिगड़ा मामला फिर भी संभल जाता। लेकिन कुलपति से लेकर एकता तक की बातों से जाहिर है कि यह मुलाकात होने नहीं दी गई यानी यह उन तत्वों को पसंद नहीं था, जो इस बहाने संघ और भाजपा का विरोध करना चाहते थे। अब मीडिया पर प्रश्न यह उठता है कि जब कुलपति छात्राओं से मिलने गए थे, (यह अलग विषय है कि मुलाकात नहीं हो पाई), फिर ऐसी खबरें क्यों चलीं कि कुलपति छात्राओं से मिलने को तैयार नहीं हैं!
इन सब बातों को देखने से यही प्रतीत होता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन के कुछ कर्मचारियों की भूलों के कारण इस मामले में छात्राओं को आंदोलन के लिए बाध्य होना पड़ा, मगर उसके बाद उनको नेपथ्य में करते हुए इसे पूरी तरह से राजनीतिक रंग देने का काम विशेष तौर पर वामपंथियों और दिल्ली में बैठ मीडिया के एक धड़े द्वारा किया गया। इसका वहां के छात्र और शिक्षक विरोध भी कर रहे हैं।
 
बीएचयू को बदनाम करने के विरोध में इन लोगों ने प्रदर्शन भी किया है। बहरहाल, अब इस मामले में प्रदेश सरकार द्वारा न्यायिक जांच का आदेश दिया गया है। उम्मीद है कि इस जांच से सभी वास्तविक दोषियों के चेहरे से नकाब उतर जाएगी।   

बीएचयू के कुलपति गिरीश चन्द्र त्रिपाठी से हुई बातचीत के कुछ अंश

छेड़खानी से शुरू हुआ मामला इतना अधिक कैसे बिगड़ गया ?

जवाब - यह मामला बेहद संवेदनशील है। लेकिन, लोग इसे मेरे पास लाने की बजाय सड़क पर ले गए। इस मामले में लड़की को न्याय दिलाने का प्रयास होना चाहिए, लेकिन इसपर फिजूल हंगामा मचाया गया जिसमें पहले दिन से बाहरी तत्व शामिल थे। मैं उसदिन प्रधानमंत्री के लोकार्पण कार्यक्रम में था, जब लौटा तो विरोध कर रहे लोगों से बार-बार आग्रह किया कि आइये, हम जो कर सकते हैं, करेंगे। लेकिन, ये लोग नहीं आए। बाद में (संभवतः २३ तारीख को) पीड़ित लड़की और उसकी कुछ सहेलियां मुझसे मिले। लड़की ने अपनी पूरी बात बताई साथ ही यह भी बताया कि मैं ये नहीं चाहती जो ये लोग कर रहे हैं। लेकिन, ये मुझे वहाँ से आने नहीं दे रहे, जबरदस्ती बिठाए हुए हैं। मैं वाशरूम का बहाना बनाकर यहाँ आई हूँ। खैर, उन लड़कियों से मेरी बात हुई। लड़की सिर्फ अपने साथ बदतमीजी करने वालों पर कार्यवाही चाहती थी, हमने उसे भरोसा दिया और एफआईआर की बात कही। उसके साथ मौजूद लड़कियां चाहती थीं कि ये सुनिश्चित किया जाए कि आगे से फिर ऐसा नहीं होगा। मैंने कहा कि हम अपने सुरक्षा इंतजामों का पुनरावलोकन करेंगे और उसमें लड़कियों को भी शामिल करेंगे। फिजिकल और स्पोर्ट्स की लड़कियों से हमारी बात भी हुई और उन्हें सुरक्षा प्रणाली में शामिल करने को लेकर राय बनी। लड़कियां चाहती थीं कि मैं होस्टल में जाकर सभी लड़कियों से ये सब बातें कहूँ। ये तय हुआ कि मैं त्रिवेणी संकुल जाऊँगा और लड़कियों से बात करूँगा। इसके बाद महिला महाविद्यालय की लड़कियां भी मुझसे मिलीं। मैंने कहा कि मैं आपके यहाँ भी आऊंगा। मैं जब त्रिवेणी संकुल जा रहा था, तो अचानक पता नहीं कहाँ से कुछ चालीस-पचास लड़के-लड़कियों का दल आकर उसके बाहर धरने पर बैठ गया। मुझे लौटना पड़ा। मैंने महिला महाविद्यालय जाने की सोचा तभी वहाँ पथराव होने लगा। आगजनी हुई, पेट्रोल बम चले।  

बाहरी तत्वों के शामिल होने की बात किस आधार पर कह रहे ?

जवाब - पहले दिन से बाहरी लोग थे। कुछ नाम बताऊँ तो आम आदमी पार्टी के संजीव सिंह, आइसा दिल्ली से जुड़े सुनील यादव आदि लोग पहले दिन से लगे हुए थे। मेरे पास विडियोग्राफी है, जिसमें संजीव सिंह पहले दिन भाषण दे रहे हैं। बाहरी लड़कियां भी थीं। पहले दिन हमारे डीन, विश्वविद्यालय के कई अधिकारी उन्हें समझाते रहे। लड़कियां मान जातीं, लेकिन ये जो बाहरी लोग थे, उन्हें रोक रहे थे। आखिर वे जाकर उस जगह धरने पर बैठ गए जहां से प्रधानमंत्री गुजरने वाले थे। एक और मामले पर ध्यान दीजिये, जब धरना दे रहे लोगों में से कुछ ने महामना की प्रतिमा पर कालिख पोतने की कोशिश की (पोती नहीं गयी) और विश्वविद्यालय के नाम की जगहशेम बीएचयूका बैनर लगाना चाहा तो उनके बीच ही दो गुट हो गए। विद्यार्थी ऐसा करने वालों को रोकने लगे कि विश्वविद्यालयों के प्रति हम ऐसी अभद्रता नहीं होने देंगे। मैं अपने कार्यकाल के अनुभव के आधार पर कह रहा कि बीएचयू का विद्यार्थी महामना और बीएचयू के प्रति सम्मान का भाव रखता है, वो उनके प्रति अपमान कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस मामले से भी जाहिर है कि उसमें बाहरी लोग थे। मैंने प्रशासन को दो पत्र लिखे कि यहाँ बाहरी लोग गए हैं, जो स्थिति को बिगाड़ सकते हैं। लेकिन, पुलिस २३ की रात में तब आई जब स्थिति काफी बिगड़ चुकी थी।

इस पूरे प्रकरण के दौरान मीडिया का रवैया कैसा रहा ?
जवाब - मीडिया का रवैया बेहद नकारात्मक रहा है। मामले पर मीडिया का एकपक्षीय नजरिया रहा। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में कुछ अच्छा है, ऐसा कहीं नहीं दिखा। बस बुराई की गई। मेरे कई बयानों को गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। अभी कुछ महीने पहले यहाँ राजदीप सरदेसाई आए थे, लैंगिक भेदभाव की बात का खुलासा कर रहे थे। और भी कई अफवाहें उड़ाई। वास्तव में, लड़कियों को आगे करके संस्थान का माहौल ख़राब करने की कोशिश लगातार की जा रही है। इस मामले में अवसर मिल गया तो मीडिया के एक धड़े ने इसे बढ़ा-चढ़ाकर दिखा दिया कि देखो, हम जो पहले से कह रहे थे, वही बात है। बिना बात मामले को राष्ट्रीय रूप दे दिया गया। 

देश के अन्य शिक्षण संस्थानों के छात्रों की राय

इस मुद्दे पर बीएचयू प्रशासन की कुछ लापरवाही तो सामने आती है,पर सबसे ग़लत बात है इसका राजनीतिकरण। वहाँ की कुछ छात्राओं से बात करने पर पता चला कि किस तरह उनका विरोध प्रदर्शन हाईजैक कर राजनीतिकरण किया जा रहा है। देश के हर हिस्से में आंदोलन करने वाले लोग, इसी तरह की अन्य घटनाओं पर चुप क्यों हो जाते हैं? क्या ये आंदोलनकारी चुने हुए मुद्दों पर आंदोलन करते हैं?
अनुराग सिंह
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

छात्राओं और महिलाओं के हित की बात अगर है तो उसे वहीं तक रहने दीजिए ना, हमारी लड़ाई विश्वविद्यालय प्रशासन से होनी चाहिए। हर बात में विरोध के लिए प्रधानमंत्री मोदी को बीच में लिए चले आना महिलाओं के स्वयं के मुद्दे को ही कमज़ोर करेगा।
श्रुति गौतम
जामिया मिल्लिया इस्लामिया 

बाहर के तत्व आये और हिंसा फैली, इतने लोग एक तो गए उसपर से तब जब प्रधानमंत्री की रैली होनी थी। इसमें साज़िश की बू आती है।
कनिष्का तिवारी
भारतीय जनसंचार संस्थान  

यह आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा था फिर कौन लोग आकर आंदोलन को हिंसक बनाए ? यह गंभीर मामला है। एक के बाद एक विश्वविद्यालयों को बदनाम करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। इस षड्यंत्र को उजागर करने की जरूरत है।
आदर्श तिवारी 
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, नोएडा

कई वर्षों से कम्युनिस्टों की कुदृष्टि राष्ट्रवादी चिंतन की प्रधानता वाले विश्वविद्यालय पर थी। इस बार ये काफी हद तक छात्र-छात्राओं को गुमराह कर उसमें सफल भी हुए, लेकिन इस सांस्कृतिक भूमि को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी। बीएचयू कल भीसेफ था, आज भी है और आगे भी रहेगा।
शिवदत्त द्विवेदी
वर्धा विश्वविद्यालय