बुधवार, 22 जनवरी 2020

शोध की गुणवत्ता का प्रश्न [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

किसी भी देश की उच्च शिक्षा में शोध का विशेष महत्व होता है। कहीं न कहीं इसीसे अमुक देश की उच्च शिक्षा की स्थिति का पता भी चलता है। लेकिन दुर्भाग्य ही कहेंगे कि इस मामले में भारत की स्थिति चिंताजनक है। यह चिंता शोध की मात्रा को लेकर नहीं है, क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध की मात्रा में कोई कमी नहीं है बल्कि उसमें तो लगातार वृद्धि ही हो रही है, लेकिन जब प्रश्न शोध की गुणवत्ता और उपयोगिता का आता है तो स्थिति चिंताजनक लगने लगती है। देश में शोध की मात्रा में किस प्रकार वृद्धि हो रही है, इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की इस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसके अनुसार वर्ष 2014-15 में देश के विश्वविद्यालयों में जहां कुल 25 हजार शोध हुए थे, वहीं 2018-19 में इनकी संख्या बढ़कर 41 हजार तक जा पहुंची है।
शोध की इस मात्रा-वृद्धि के पीछे के कारणों को समझने का प्रयत्न करें तो इसका एक प्रमुख कारण इंटरनेट के प्रसार से बीते कुछ सालों के दौरान हुई देशव्यापी सूचना क्रांति प्रतीत होती है क्योंकि इन दोनों का कालखंड लगभग समानांतर ही है। 2014 के बाद से ही इंटरनेट का प्रसार देश में बढ़ने लगा था और फिर जिओ के आगमन ने तो इसे सर्वसुलभ ही बना दिया। सो प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं इंटरनेट के द्वारा हर प्रकार की सूचनाओं की सुलभता ने छात्रों के मन में शोध की कठिनाइयों का एक सीमा तक सरलीकरण करने का काम किया है, जिस कारण इसके प्रति उनमें रुझान बढ़ा है। यहाँ तक तो कोई समस्या नहीं है, लेकिन यह प्रश्न यथावत है कि क्या मात्रा के अनुरूप शोध की गुणवत्ता और उपयोगिता में भी कोई वृद्धि हुई है? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही है।

इस स्थिति को देखते हुए ही यूजीसी अब ऐसे दिशानिर्देश तैयार करने में जुटा है, जिसके जरिये शोध की गुणवत्ता ही नहीं, उसकी उपयोगिता भी सुनिश्चित की जा सके। इसके जरिये सरकार की कोशिश देश में होने वाले ऐसे तमाम शोधों, जो समाज या उद्योग के हितों की दृष्टि से कोई महत्व नहीं रखते और केवल शैक्षिक दिखावे के लिए हो रहे हैं, पर लगाम लगाने की है। अतः यूजीसी जिन नए दिशानिर्देशों को बना रहा है, उनके तहत किसी भी नए शोध को मंजूरी दिलाने के लिए उसे सामाजिक और औद्योगिक उपयोगिता की कसौटी पर खरा सिद्ध होना होगा। जाहिर है, इस पहल के जरिये सरकार का प्रयास सही और योग्य छात्रों को अवसर देकर शोध की गुणवत्ता व उपयोगिता में सुधार लाना  तो है ही, साथ ही शोध क्षेत्र से सम्बंधित संसाधनों का अनुचित लाभ लेने वाले दिखावे के शोधार्थियों पर अंकुश लगाना भी है। सरकार का मानना है कि किसी भी शोध का मूल उद्देश्य समाज और आम जनजीवन से जुड़ी समस्याओं के समाधान का मार्ग दिखाना होना चाहिए लेकिन देखा जाए तो भारत में होने वाले अधिकांश शोध इस कसौटी पर बिलकुल खरे नहीं उतरते।
आईआईटी आदि संस्थानों के कुछ शोधों को अपवाद मान लें तो ऐसा न के बराबर ही सुनने में आता है कि देश के किसी शैक्षिक संस्थान में समाज व आम आदमी के जीवन की किसी समस्या का समाधान करने वाला कोई शोध हुआ है। देश की पत्र-पत्रिकाओं में भी अक्सर येल, ऑक्सफ़ोर्ड आदि अनेक विदेशी शैक्षिक संस्थानों में हुए विविध शोधों की ख़बरें दिखती रहती हैं, लेकिन क्या यह सवाल कभी आपके मन में उठा है कि किसी भारतीय विश्वविद्यालय के शोध की खबर क्यों नहीं दिखाई देती? कहना न होगा कि ये बातें भारतीय विश्वविद्यालयी शोध की गुणवत्ता की वस्तुस्थिति का परिचय देने के लिए पर्याप्त हैं।
वस्तुतः यह समस्या ऐसी है जिसमें किसी एक व्यक्ति, संस्था या कारण को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। नीति-निर्धारकों की समस्या यह है कि वे छात्रों के प्रति दोष-दृष्टि तो रखते हैं, परन्तु व्यवस्था की विसंगतियों पर नजर नहीं डालते। यह नहीं देखते कि विश्वविद्यालय के जिन शिक्षकों के मार्गदर्शन में छात्र शोध करते हैं, वे कितने योग्य हैं। विश्वविद्यालयी शिक्षकों की अयोग्यता की बातें जब-तब सामने आती रही हैं जो कि विश्वविद्यालयी शिक्षण व शोध से जुड़ी एक बड़ी समस्या है।
दूसरी तरफ छात्रों पर यह आरोप लगता है कि वे शोध के लिए मिलने वाली अनुदान राशि का उपयोग पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह तथा रोजगार खोजने के लिए करते हैं और जैसे ही अच्छा रोजगार मिलता है, शोध को अधूरा छोड़ निकल जाते हैं या फिर जैसे-तैसे पूरा कर लेते हैं। चूंकि शोध करते वक्त छात्र की उम्र पारिवारिक दायित्व उठाने वाली हो जाती है, अतः यदि वो प्राप्त अनुदान राशि का कुछ उपयोग इस रूप में करता है तो गलत नहीं है, लेकिन यदि कोई छात्र शोध अधूरा छोड़कर, अपने विषय से अलग किसी अन्य क्षेत्र में कोई रोजगार प्राप्त कर चला जाता है, तो इसे नैतिक रूप से ठीक नहीं कहा जा सकता। ऐसे छात्रों से अनुदान राशि वापस लेने पर विचार किया जा सकता है।
इन सबसे अलग शोध की गुणवत्ता में कमी का एक प्रमुख कारण इसके प्रति शोधार्थियों की अगंभीर मानसिकता है। चूंकि स्नातकोत्तर के बाद पीएचडी रोजगार के लिए आवश्यक है, इसलिए बहुत-से छात्र बेमन से भी शोध में संलग्न होते हैं और शोध ग्रन्थ की गुणवत्ता से इतर इस प्रयत्न में रहते हैं कि किसी भी तरह शोधकार्य पूरा हो और डाक्टरेट की उपाधि मिल जाए। कई बार शिक्षकों की अयोग्यता भी इसमें सहयोगी भूमिका निभाती है। फिर अलग-अलग शोधों और इंटरनेट से लम्बी-लम्बी नकल उतार लेने से लेकर पैसे देकर के थीसिस लिखवाने जैसे कृत्य तक किए जाते हैं। हालांकि शोधकार्य में नकल रोकने के लिए यूजीसी ने कुछ सख्त नियम बनाए हैं और सॉफ्टवेयर भी लाया गया है, लेकिन शोध के प्रति छात्रों में अगम्भीरता और बेपरवाही की मानसिकता तथा शिक्षकों में योग्यता का अभाव जबतक खत्म नहीं होता, इन सब चीजों से बहुत लाभ की उम्मीद बेमानी है।
छात्रों को समझना चाहिए कि शोध केवल एक डिग्री प्राप्ति का उपक्रम भर नहीं होता बल्कि उसके द्वारा देश और समाज को दिशा देने का काम भी किया जाता है। इससे किसी भी देश की उच्च शैक्षिक व्यवस्था के स्तर का परिचय भी मिलता है। अतः यदि शोधकार्य में हाथ डालते हैं, तो उसे पूरे मनोयोग से, अपना एक लक्ष्य बनाकर करें। इस प्रकार से किया गया शोध न केवल व्यक्तिगत रूप से उनके लिए बल्कि देश-समाज के लिए भी हितकारी होगा।

सोमवार, 13 जनवरी 2020

वैचारिक असहिष्णुता से ग्रस्त वामपंथी बुद्धिजीवी [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत

देश का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय एकबार फिर चर्चा में है और चर्चा का कारण इसबार भी नकारात्मक है। पिछले दिनों कुछ नकाबपोश लोगों के विश्वविद्यालय परिसर में घुसकर छात्रों के साथ मारपीट करने की खबर आई और उसके बाद से ही इस मामले में बवाल मचा हुआ है। विडंबना ही है कि देश का ये प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपनी अकादमिक उपलब्धियों के कारण कम बेमतलब विवादों के कारण अधिक चर्चा में रहता है। 
दिल्ली पुलिस ने प्रेस कांफ्रेंस कर नौ आरोपियों के नाम सार्वजनिक किए हैं। इनमें छात्र संघ अध्यक्ष आईशी घोष का नाम भी शामिल है। पुलिस का कहना था कि अभी उसकी जांच चल रही है, लेकिन अफवाहों को देखते हुए उसे बीच में ही ये जानकारी साझा करनी पड़ी।
वास्तव में, सोशल मीडिया से सड़क पर तक छात्रों के प्रति समर्थन व्यक्त करने में जुटे बुद्धिजीवियों की भी अफवाह फैलाने में बड़ी भूमिका है। उनका रवैया किसी न्यायाधीश की तरह रहा है। ऐसा लगता है कि उन्होंने पीड़ित और पीड़क का निर्णय कर लिया है और उसीके आधार पर अभियान चलाने में लगे हैं।
यह ठीक है कि लोकतंत्र में सबको अपने विचार व्यक्त करने और सरकार के निर्णयों का लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध करने अधिकार है, लेकिन उसका भी एक तरीका होता है। विरोध को तथ्यपरक और भाषाई मर्यादा के दायरे में होना चाहिए। उसपर भी अगर आप बौद्धिक रूप से एक विशिष्ट पहचान रखते हैं तो आपका दायित्व और बढ़ जाता है। लेकिन नरेंद्र मोदी जिस दल और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके प्रति इस देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों का विरोध घृणा के स्तर तक जा पहुंचा है, जिसका प्रकटीकरण इनकी भाषा से लेकर कुतर्कों तक में देखा जा सकता है।

उदाहरण के तौर पर उल्लेखनीय होगा कि लेखक, शायर जावेद अख्तर ने जेएनयू छात्र संघ अध्यक्षा आईशी घोष के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी पर तंज करते हुए बीते दिनों ट्विट किया कि ‘जेएनयूएसयू अध्यक्ष के ख़िलाफ़ एफ़आईआर पूरी तरह से समझ में आती है। उसने अपने सिर से एक राष्ट्रवादी, देश प्रेमी लोहे की छड़ को रोकने की हिम्मत कैसे की।’ सवाल यह है कि जावेद अख्तर इसमें ‘राष्ट्रवादी’ शब्द का प्रयोग किस आधार पर कर रहे हैं? ऐसी क्या अधीरता है जो वे जांच पूरी होने तक का इंतजार करने की बजाय खुद ही दोषी तय करने में लगे हैं। साथ ही, अब जब पुलिस ने आरोपियों के नाम सार्वजनिक कर दिए हैं और उसमें आइशी घोष का नाम भी बतौर आरोपी शामिल है, तो इसपर वे क्या कहेंगे?
ज्यादा दिन नहीं हुए जब इनके पुत्र फरहान अख्तर सीएए के विरोध में उतर पड़े थे, लेकिन जब पूछा गया कि क्यों विरोध कर रहे तो बगले झाँकने लगे और कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाए। ऐसे में यही प्रतीत होता है कि इन लोगों के विरोध के पीछे कोई व्यावहारिक आधार नहीं, केवल और केवल वैचारिक असहिष्णुता है। यह असहिष्णुता फिल्म जगत से जुड़े तमाम और लोगों में भी है और इस कदर है कि वे प्रधानमंत्री के प्रति तू-तड़ाक की भाषा के इस्तेमाल करने पर तक उतर चुके हैं। फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप इसके ताजा उदाहरण हैं।      
इससे पूर्व सीएए के विरोध के दौरान भी हमें बुद्धिजीवी वर्ग का यही असहिष्णु चरित्र दिखाई दिया था। बीते दिनों केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राष्ट्रीय इतिहास कांग्रेस में अपना वक्तव्य देते हुए सीएए का जिक्र करना शुरू किया तो इसपर मार्क्सवादी इतिहासकार इरफ़ान हबीब एकदम से बौखला गए और राज्यपाल को रोकने के लिए बढ़ने लगे। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का कहना था कि अगर उनके एडीसी ने इन्हें नहीं रोका होता तो ये उनपर हमला कर देते। अब जो व्यक्ति राज्यपाल के प्रति सार्वजनिक रूप से इतनी आक्रामकता दिखा सकता है, उसमें विपरीत विचारों के लिए कितनी असहिष्णुता भरी होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
इन बुद्धिजीवियों की असहिष्णुता का एक और उदाहरण तो पिछले साल तब भी दिखा जब जेएनयू में बतौर  प्रोफेसर एमिरेट्स जुड़ीं रोमिला थापर विश्वविद्यालय प्रशासन के बायोडाटा मांगने पर बिगड़ गयीं। इसे वामपंथियों ने सरकार द्वारा बुद्धिजीवियों को दबाने की कोशिश करार दे दिया। सवाल है कि ये कैसी बुद्धिजीविता है जो मन से दंभ और असहिष्णुता को खत्म नहीं कर सकी।        
इतना ही नहीं, अपने अंधविरोध में इन बुद्धिजीवियों की भाषा का स्तर भी एकदम सतही होता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के दौरान ही लेखिका अरुंधती रॉय दिल्ली विश्वविद्यालय के एक विरोध प्रदर्शन में छात्रों के बीच पहुँचीं। वहां उन्होंने लोगों को सलाह देते हुए कहा कि एनपीआर में जब नाम-पता पूछा जाए तो वे रंगा-बिल्ला और सात रेसकोर्स बताएं। उनका इशारा मोदी और अमित शाह की तरफ था। अरुंधती रॉय को बताना चाहिए कि देश की जनता द्वारा बहुमत से निर्वाचित प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के प्रति इस तरह की आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करके इन्होने कौन-सी बौद्धिकता का परिचय दिया है?
आश्चर्य है कि इसके बाद भी ये लोग कहते फिरते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है और सरकार तानाशाही कर रही है। रामचंद्र गुहा, अमर्त्य सेन से लेकर साहित्य जगत के भी अनेक नाम हैं जो 2014 के बाद से सत्ता-विरोध की आड़ में किसी न किसी बहाने से अपने मोदी विरोध के एकसूत्रीय एजेंडे को हवा देने की कोशिश में लगे रहते हैं।
बुद्धिजीवी होने का अर्थ होता है कि आप की बौद्धिक चेतना किसी भी तरह के पूर्वाग्रह और वैचारिक संकीर्णता से मुक्त, बुद्धि और ज्ञान के विस्तृत धरातल पर प्रतिष्ठित हो। बुद्धिजीवियों से अपेक्षा की जाती है कि वे देश को दिशा दिखाएंगे। लेकिन क्या हमारे इन बुद्धिजीवियों से ऐसी कोई अपेक्षा की जा सकती है। एक आयातित विचारधारा के संकीर्ण दायरे में बैठकर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने दूसरी विचारधारा को निशाने पर लेने को ही अपना शगल बना लिया है। विपरीत विचार के विरोध में ये घृणा के स्तर तक जा पहुँचते हैं, लेकिन जब उसी स्वर में इनका प्रतिवाद होता है तो तानाशाही और अभिव्यक्ति की आजादी का विलाप भी करने लगते हैं। इनकी सारी बौद्धिकता केवल एक विचारधारा का विरोध करने मात्र के लिए समर्पित लगती है, उसके अलावा इन्हें देश में कोई और समस्या व चुनौती नहीं नजर आती। इनकी इस हालत पर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की यह पंक्ति बिलकुल सटीक लगती है कि ‘इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं’।

बुधवार, 1 जनवरी 2020

ध्यान खींचने में कामयाब किताबें [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

2019 बीतने को है, तो यह प्रश्न मौजू हो जाता है कि हिंदी लेखन क्षेत्र के लिए ये साल कैसा रहा? यह भी कि साहित्य, इतिहास, दर्शन आदि सभी प्रकार के विषयों से सम्बद्ध कैसी किताबें इस साल आईं और उनका कैसा प्रभाव रहा? बात की शुरुआत ‘सेपियंस’ नामक किताब के जरिये दुनिया भर में छा जाने वाले लेखक युवाल नोआ हरारी की एक और किताब ‘होमो डायस’ से करना उपयुक्त होगा। यह किताब मूलतः अंग्रेजी में है, लेकिन इसका हिंदी अनुवाद इस साल आया है। यह किताब इस मायने में अनूठी है कि इसमें भविष्य का इतिहास लिखने की कोशिश की गयी है। भविष्य का मनुष्य कैसा होगा और दुनिया की क्या स्थिति होगी, इसका तथ्यपरक और रोचक वर्णन यह किताब करती है।
इतिहास पुस्तकों की चर्चा में युवा लेखक प्रवीण झा की ‘कुली लाइंस’ भी उल्लेखनीय है। यह गिरमिटिया मजदूरों और उनके वंशजों पर केन्द्रित एक गंभीर, शोधपूर्ण एवं रोचक पुस्तक है। पाठकों द्वारा इस किताब को मिला अच्छा प्रतिसाद दिखाता है कि युवा लेखक कथा-कविता के सुरक्षित घेरे को छोड़ने का साहस यदि कर सकें तो अन्य क्षेत्रों में भी उनके लिए भरपूर संभावनाएं बनी हुई हैं।

वरिष्ठ भाजपा नेता और गंभीर चिंतक-लेखक ह्रदय नारायण दीक्षित की इस साल ‘ज्ञान का ज्ञान’ नामक एक महत्वपूर्ण किताब आई है। ईशावास्योपनिषद, प्रश्नोंपनिषद, माण्डुक्योपनिषद और कठोपनिषद इन चारों उपनिषदों के श्लोकों का भाष्य इस पुस्तक में लिखा गया है। भारत के उपनिषदीय ज्ञान को सामान्य लोगों के लिए सहज प्रस्तुति देने में यह पुस्तक उपयोगी प्रतीत होती है।
इस क्रम में वरिष्ठ लेखक प्रमोद भार्गव की पुस्तक ‘दशावतार’ का जिक्र जरूरी होगा। भगवान विष्णु के दस अवतारों की विज्ञानसम्मत दृष्टि के साथ व्याख्या करती इस औपन्यासिक कृति में रोचकता और गंभीरता का बहुत सुंदर समावेश मिलता है। जिन अवतारों को मिथकीय प्रसंग मानकर देखा जाता है, उन्हें जैविक विकास की प्रक्रिया से जोड़ते हुए वैज्ञानिक धरातल देने का अच्छा प्रयास इस पुस्तक में किया गया है।
राजनीतिक किताबों के लिहाज से भी ये साल अच्छा रहा है। चर्चित लेखक विजय त्रिवेदी की पुस्तक बीजेपी : कल, आज और कल’ इसी साल आई जो भारतीय जनता पार्टी को उसकी विकास यात्रा के आईने में समझने का प्रयास करती है। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू पर केन्द्रित पत्रकार पीयूष बबेले की किताब ‘नेहरू : मिथक और सत्य’ भी उल्लेखनीय है। यह किताब दावा करती है कि इसमें नेहरू को लेकर फैलाए गए कथित झूठ और विभ्रमों को ख़त्म कर उनके सत्य को सामने लाया गया है। अपने दावे पर यह किताब कितनी खरी है, इसकी पड़ताल तो इतिहासकार ही करेंगे, लेकिन संशय नहीं कि अपने विषय और प्रस्तुति के लिहाज से यह एक पढ़े जाने लायक किताब है।
हिंदी माध्यम से आईएएस की परीक्षा निकालकर अधिकारी बने निशांत जैन की प्रेरणादायक (मोटिवेशनल) पुस्तक ‘रुक जाना नहीं’ बीते नवम्बर में आई है। यह किताब प्रतियोगी परीक्षाओं के छात्रों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है। इसमें व्यक्तित्व विकास, परीक्षा के दौरान तनावमुक्त रहने, समय प्रबंधन, लेखन कौशल आदि पर बात की गयी है। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए यह पुस्तक सहायक सिद्ध हो सकती है।
कविता कोश वेबसाइट से इंटरनेट पर सक्रिय कोई साहित्यप्रेमी शायद ही अपरिचित हो,  इसी कविता कोश के संस्थापक ललित कुमार की किताब ‘विटामिन जिंदगी’ भी इस साल आई है और निश्चित ही साल की एक ख़ास किताब है। यूँ तो यह किताब लेखक के निजी संस्मरणों की है, लेकिन पढ़ने में यह केवल एक व्यक्ति के जीवन का दस्तावेज मात्र नहीं लगती बल्कि जीवन-संघर्ष में जूझते हर व्यक्ति के लिए प्रेरणास्पद प्रतीत होती है।   
नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास ‘औघड़’ भी इस साल आई एक उल्लेखनीय किताब है। यह ठीक है कि गंभीर से गंभीर विषय को हल्के-फुल्के और मजेदार अंदाज में प्रस्तुत करने का कौशल नयी वाली हिंदी के लेखकों के पास है, लेकिन इस कौशल का असल लाभ हिंदी साहित्य को तब मिलेगा जब वे अपने समय से आगे देखते हुए उस भविष्य को अपने साहित्य में लाने का साहस करेंगे। समय से आगे देखने के संदर्भ में इस साल आए रत्नेश्वर सिंह के उपन्यास ‘एक लड़की पानी पानी’ का जिक्र समीचीन होगा। यह उपन्यास भावी जल संकट की आधार कथा के साथ स्त्री-नेतृत्व की बात भी करता है। इससे पूर्व रेखना मेरी जानउपन्यास में रत्नेश्वर ग्लोबल वार्मिंग के भावी दुष्परिणामों पर लिख चुके हैं। ये किताबें उन विषयों को छू रही हैं जिनपर आज हिंदी में बहुत कम साहित्य मिलता है लेकिन आने वाले समय की चुनौतियाँ यही हैं।
चर्चित लेखक यतीन्द्र मिश्र के संपादन में इस साल आई अख्तरी भी साल की एक चर्चित किताब है जो मशहूर गायिका बेगम अख्तर के व्यक्तित्व, संगीत और उनके जीवन-वृत्त में समाहित दुर्लभ किस्सों-कहानियों को समेटे हुए है। यह किताब साल की शुरुआत में आई और पूरे साल चर्चा में रही। संगीत से ही सम्बंधित एक और किताब ‘माया का मालकौंस’ भी उल्लेखनीय है। पत्रकार व लेखक सुशोभित की इस किताब में हिंदी फिल्मों के गीतों का उसके बोल, संगीत, उसमें चल रहे दृश्य, अभिनय आदि विभिन्न बिन्दुओं के आधार पर विश्लेषण किया गया है। हालांकि इसका आकार में काफी छोटा होना इसके प्रभाव को कुछ कम अवश्य करता है, लेकिन तब भी तमाम किताबों की भीड़ में यह अपनी अलग उपस्थिति दर्ज कराती है।
लोकप्रिय अपराध कथा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथाहम नहीं चंगे बुरा न कोयभी साल की एक उल्लेखनीय किताब है। गौरतलब है कि हिंदी साहित्य के विचारधारा विशेष के मठाधीशों ने सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा जैसे लोकप्रिय लेखकों के लेखन को लुगदी साहित्य कहकर मुख्यधारा से बाहर रखा लेकिन आज जब हिंदी का एक प्रतिष्ठित प्रकाशन सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा को प्रकाशित कर रहा है, तो लगता है कि अब साहित्य में लोकप्रिय लेखन से परहेज की प्रवृत्ति का क्षरण होने लगा है जो हिंदी साहित्य के लिए एक शुभ संकेत ही है।
लोकप्रिय लेखन की तरह ही मंचीय कविता के प्रति भी हिंदी साहित्य की मुख्यधारा के मठाधीश बौद्धिकों में एक उपेक्षा की भावना रही है। वे इस प्रकार की कविता और इसके कवियों को उपेक्षात्मक दृष्टि से देखते रहे हैं। लेकिन इस साल आई लोकप्रिय मंचीय कवि डॉ. कुमार विश्वास की किताब ‘फिर मेरी याद’ ने पाठकों में जो लोकप्रियता प्राप्त की, इसके बाद इन बौद्धिकों को अपनी राय बदलने पर अवश्य विचार करना चाहिए। स्पष्ट है कि लगभग हर तरह के विषयों व विधाओं में कोई न कोई अच्छी किताब इस साल आई है, अतः हिंदी किताबों के मामले में यह साल विविधतापूर्ण और समृद्ध कहा जा सकता है।