सोमवार, 13 जनवरी 2020

वैचारिक असहिष्णुता से ग्रस्त वामपंथी बुद्धिजीवी [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत

देश का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय एकबार फिर चर्चा में है और चर्चा का कारण इसबार भी नकारात्मक है। पिछले दिनों कुछ नकाबपोश लोगों के विश्वविद्यालय परिसर में घुसकर छात्रों के साथ मारपीट करने की खबर आई और उसके बाद से ही इस मामले में बवाल मचा हुआ है। विडंबना ही है कि देश का ये प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपनी अकादमिक उपलब्धियों के कारण कम बेमतलब विवादों के कारण अधिक चर्चा में रहता है। 
दिल्ली पुलिस ने प्रेस कांफ्रेंस कर नौ आरोपियों के नाम सार्वजनिक किए हैं। इनमें छात्र संघ अध्यक्ष आईशी घोष का नाम भी शामिल है। पुलिस का कहना था कि अभी उसकी जांच चल रही है, लेकिन अफवाहों को देखते हुए उसे बीच में ही ये जानकारी साझा करनी पड़ी।
वास्तव में, सोशल मीडिया से सड़क पर तक छात्रों के प्रति समर्थन व्यक्त करने में जुटे बुद्धिजीवियों की भी अफवाह फैलाने में बड़ी भूमिका है। उनका रवैया किसी न्यायाधीश की तरह रहा है। ऐसा लगता है कि उन्होंने पीड़ित और पीड़क का निर्णय कर लिया है और उसीके आधार पर अभियान चलाने में लगे हैं।
यह ठीक है कि लोकतंत्र में सबको अपने विचार व्यक्त करने और सरकार के निर्णयों का लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध करने अधिकार है, लेकिन उसका भी एक तरीका होता है। विरोध को तथ्यपरक और भाषाई मर्यादा के दायरे में होना चाहिए। उसपर भी अगर आप बौद्धिक रूप से एक विशिष्ट पहचान रखते हैं तो आपका दायित्व और बढ़ जाता है। लेकिन नरेंद्र मोदी जिस दल और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके प्रति इस देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों का विरोध घृणा के स्तर तक जा पहुंचा है, जिसका प्रकटीकरण इनकी भाषा से लेकर कुतर्कों तक में देखा जा सकता है।

उदाहरण के तौर पर उल्लेखनीय होगा कि लेखक, शायर जावेद अख्तर ने जेएनयू छात्र संघ अध्यक्षा आईशी घोष के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी पर तंज करते हुए बीते दिनों ट्विट किया कि ‘जेएनयूएसयू अध्यक्ष के ख़िलाफ़ एफ़आईआर पूरी तरह से समझ में आती है। उसने अपने सिर से एक राष्ट्रवादी, देश प्रेमी लोहे की छड़ को रोकने की हिम्मत कैसे की।’ सवाल यह है कि जावेद अख्तर इसमें ‘राष्ट्रवादी’ शब्द का प्रयोग किस आधार पर कर रहे हैं? ऐसी क्या अधीरता है जो वे जांच पूरी होने तक का इंतजार करने की बजाय खुद ही दोषी तय करने में लगे हैं। साथ ही, अब जब पुलिस ने आरोपियों के नाम सार्वजनिक कर दिए हैं और उसमें आइशी घोष का नाम भी बतौर आरोपी शामिल है, तो इसपर वे क्या कहेंगे?
ज्यादा दिन नहीं हुए जब इनके पुत्र फरहान अख्तर सीएए के विरोध में उतर पड़े थे, लेकिन जब पूछा गया कि क्यों विरोध कर रहे तो बगले झाँकने लगे और कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाए। ऐसे में यही प्रतीत होता है कि इन लोगों के विरोध के पीछे कोई व्यावहारिक आधार नहीं, केवल और केवल वैचारिक असहिष्णुता है। यह असहिष्णुता फिल्म जगत से जुड़े तमाम और लोगों में भी है और इस कदर है कि वे प्रधानमंत्री के प्रति तू-तड़ाक की भाषा के इस्तेमाल करने पर तक उतर चुके हैं। फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप इसके ताजा उदाहरण हैं।      
इससे पूर्व सीएए के विरोध के दौरान भी हमें बुद्धिजीवी वर्ग का यही असहिष्णु चरित्र दिखाई दिया था। बीते दिनों केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राष्ट्रीय इतिहास कांग्रेस में अपना वक्तव्य देते हुए सीएए का जिक्र करना शुरू किया तो इसपर मार्क्सवादी इतिहासकार इरफ़ान हबीब एकदम से बौखला गए और राज्यपाल को रोकने के लिए बढ़ने लगे। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का कहना था कि अगर उनके एडीसी ने इन्हें नहीं रोका होता तो ये उनपर हमला कर देते। अब जो व्यक्ति राज्यपाल के प्रति सार्वजनिक रूप से इतनी आक्रामकता दिखा सकता है, उसमें विपरीत विचारों के लिए कितनी असहिष्णुता भरी होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
इन बुद्धिजीवियों की असहिष्णुता का एक और उदाहरण तो पिछले साल तब भी दिखा जब जेएनयू में बतौर  प्रोफेसर एमिरेट्स जुड़ीं रोमिला थापर विश्वविद्यालय प्रशासन के बायोडाटा मांगने पर बिगड़ गयीं। इसे वामपंथियों ने सरकार द्वारा बुद्धिजीवियों को दबाने की कोशिश करार दे दिया। सवाल है कि ये कैसी बुद्धिजीविता है जो मन से दंभ और असहिष्णुता को खत्म नहीं कर सकी।        
इतना ही नहीं, अपने अंधविरोध में इन बुद्धिजीवियों की भाषा का स्तर भी एकदम सतही होता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के दौरान ही लेखिका अरुंधती रॉय दिल्ली विश्वविद्यालय के एक विरोध प्रदर्शन में छात्रों के बीच पहुँचीं। वहां उन्होंने लोगों को सलाह देते हुए कहा कि एनपीआर में जब नाम-पता पूछा जाए तो वे रंगा-बिल्ला और सात रेसकोर्स बताएं। उनका इशारा मोदी और अमित शाह की तरफ था। अरुंधती रॉय को बताना चाहिए कि देश की जनता द्वारा बहुमत से निर्वाचित प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के प्रति इस तरह की आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करके इन्होने कौन-सी बौद्धिकता का परिचय दिया है?
आश्चर्य है कि इसके बाद भी ये लोग कहते फिरते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है और सरकार तानाशाही कर रही है। रामचंद्र गुहा, अमर्त्य सेन से लेकर साहित्य जगत के भी अनेक नाम हैं जो 2014 के बाद से सत्ता-विरोध की आड़ में किसी न किसी बहाने से अपने मोदी विरोध के एकसूत्रीय एजेंडे को हवा देने की कोशिश में लगे रहते हैं।
बुद्धिजीवी होने का अर्थ होता है कि आप की बौद्धिक चेतना किसी भी तरह के पूर्वाग्रह और वैचारिक संकीर्णता से मुक्त, बुद्धि और ज्ञान के विस्तृत धरातल पर प्रतिष्ठित हो। बुद्धिजीवियों से अपेक्षा की जाती है कि वे देश को दिशा दिखाएंगे। लेकिन क्या हमारे इन बुद्धिजीवियों से ऐसी कोई अपेक्षा की जा सकती है। एक आयातित विचारधारा के संकीर्ण दायरे में बैठकर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने दूसरी विचारधारा को निशाने पर लेने को ही अपना शगल बना लिया है। विपरीत विचार के विरोध में ये घृणा के स्तर तक जा पहुँचते हैं, लेकिन जब उसी स्वर में इनका प्रतिवाद होता है तो तानाशाही और अभिव्यक्ति की आजादी का विलाप भी करने लगते हैं। इनकी सारी बौद्धिकता केवल एक विचारधारा का विरोध करने मात्र के लिए समर्पित लगती है, उसके अलावा इन्हें देश में कोई और समस्या व चुनौती नहीं नजर आती। इनकी इस हालत पर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की यह पंक्ति बिलकुल सटीक लगती है कि ‘इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं’।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें