सोमवार, 30 सितंबर 2013

ऐसे नहीं थमेगा राजकोषीय घाटा [डीएनए में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

डीएनए
जैसे-जैसे देश में लोकसभा चुनाव का समय नजदीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे केन्द्र सरकार द्वारा चौतरफा नाकामियों तथा भ्रष्टाचार के कारण जनता की नजरों में धूमिल हुई अपनी छवि को ठीक करने के लिए तमाम प्रयास भी किए जा रहे हैं ! इस संबंध में ताजा मामला केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा देश के राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए गैरयोजनागत खर्चों पर नियंत्रण करने सम्बन्धी आदेश का है ! गौरतलब है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा सभी मंत्रालयों और विभागों के लिए खर्चों में किफ़ायत करने के लिए उपायों की नई सूची जारी की गई है ! इस सूची के अनुसार अब से सभी मंत्रियों व अधिकारियों को अपनी हवाई यात्राएं बिजनेस श्रेणी की बजाय इकोनॉमी श्रेणी में बैठकर करनी होंगी ! साथ ही सरकारी बैठकों आदि के लिए अब बड़े-बड़े पाँच सितारा होटलों पर भी पाबंदी लगा दी गई है ! किफ़ायत के लिए प्रावधान यहाँ तक है कि कोई भी विभाग अपने यहाँ नई भर्ती भी नहीं कर सकेंगे ! इसके अतिरिक्त खर्च में किफ़ायत करने सम्बन्धी और भी बहुत सारी बातों की फेहरिस्त वित्तमंत्रालय द्वारा सभी विभागों व मंत्रालयों के लिए जारी की गई है ! इस किफ़ायत के जरिये वित्तमंत्रालय का उद्देश्य है कि चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद को ५ फिसद के आसपास रखने के साथ साथ राजकोषीय घाटे में भी कुछ कमी लाई जा सके ! अब सवाल ये उठता है कि क्या इन खर्चों में कटौती के द्वारा सरकार राजकोषीय घाटे को थामने और सकल घरेलू उत्पाद के तय लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो पाएगी ? सरकार के शब्दों में तो इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ ही है, पर अगर थोड़ा विचार करें तो हम देखते हैं कि सरकार द्वारा इससे पहले भी कई दफे सरकारी खर्चे में इस तरह की कटौतियों के लिए आदेश दिए जा चुके हैं, पर उनका  नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है ! इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि वित्तवर्ष २००८-०९ तथा २०१२-१३ में भी वित्त मंत्रालय द्वारा आर्थिक मंदी से उबरने तथा राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए इस तरह की कटौती की गई थी, पर उसका क्या नतीजा निकला ? उससे हमारा राजकोषीय घाटा कितना कम हुआ ?  इन सवालों का सरकार के पास सिवाय कुतर्कों के कोई ठोस जवाब नही है ! सरकार के पास जवाब न होने का कारण ये है कि सरकार की ये कटौतियां सरकार की योजनाओं की तरह ही सिर्फ कागजों और बयानों तक सीमित रह जाती हैं ! हकीकत में इन कटौतियों का कोई खासा वजूद नही होता है ! सरकारी विभागों के खर्चों में कमोबेश कटौती हो भी जाए, पर मंत्रालयों के खर्च मंत्रियों की रौब और प्रतिष्ठा के कारण जस के तस चलते रहते हैं ! अगर असल मायने में इन खर्चों में कटौती होती तो राष्ट्रीय मुद्राकोष पर इसका कुछ तो प्रभाव अवश्य दिखता ! पर यहाँ तो राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है ! कुल मिलाकर कहने का आशय सिर्फ इतना है कि सरकारी खर्चों में कटौती का ये सारा तमाशा सिर्फ कागजी और जनता को दिखाने के लिए होता है जबकि यथार्थ के धरातल पर इसकी मौजूदगी न के बराबर ही होती है ! अगर सरकार वास्तव में कटौती के जरिये धन बचाना चाहती है तो उसे कोई ऐसी व्यवस्था भी कायम करनी चाहिए जो इस बात की निगरानी करे कि विभागों व मंत्रालयों में आदेशानुसार कटौती हो रही है अथवा नही ! नियम ये भी होना चाहिए कि जिस व्यक्ति या विभाग द्वारा कटौती न की जा रही हो, उसपर तत्काल कार्रवाई की जाए ! ऐसी व्यवस्था बनाने के बाद ही सरकार का सरकारी खर्चे में कटौती सम्बन्धी प्रयास जनता के बीच विश्वसनीयता भी पाएगा और राजकोषीय घाटे को कम करने में भी सहायक होगा ! हाँ पर इन सबके बाद इस बात से भी इंकार नही किया जा सकता कि अगर ये कटौतियां सही ढंग से होती हैं तो भी इन छोटी-मोटी कटौतियों से हमारे राजकोषीय घाटे को कोई बड़ी राहत मिलेगी, इसमे संदेह है ! राजकोषीय घाटे को बड़ी राहत देने के लिए बड़ी कटौतियों की जरूरत है ! बड़ी कटौतियों के रूप में सरकार की तमाम ऐसी योजनाएं हैं, जिनपर मोटा सरकारी धन व्यय हो रहा है, पर फिर भी व्यवस्थागत खामियों के चलते उनका कोई विशेष लाभ जनता तक नही पहुँच पा रहा ! सरकार को अस्थाई रूप से ऐसी योजनाओं पर विराम लगा देना चाहिए ! पर सरकार तो चुनावी लाभ के अन्धोत्साह में ऐसी योजनाओं में और बढोत्तरी ही करती जा रही है ! अभी हाल ही में संसद में पारित खाद्य सुरक्षा विधेयक इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ! इसमे कोई दोराय नही कि खाद्य सुरक्षा विधेयक से चुनावी लाभ लेने के लिए सरकार द्वारा भारी-भरकम खर्च वाला ये विधेयक हड़बड़ी में पारित करवाया गया और अब वैसे ही इसके क्रियान्वयन की भी तैयारी है ! कोई संदेह नही कि हड़बड़ी में क्रियान्वित हुई सरकार की ये योजना भी जनता का भला कम देश के पैसे की बंदरबाट ज्यादा करेगी जिससे हमारे राजकोषीय घाटे की हालत और भी खराब ही होगी !
  आज के समय में असल जरूरत इस बात की है कि हमारे नेता किसी विशेष स्थिति में नही, बल्कि हमेशा अपने खर्चों में कटौती करने का प्रयास करें ! नेताओं को चाहिए कि वो इस सच को स्वीकारें कि भारत अब भी एक गरीब देश है ! अतः खर्च उतना ही करें जितनी कि आवश्यकता हो ! साथ ही साथ अपने राजनीतिक हितों के लिए अध्ययनहीन व अनावश्यक योजनाओं में भी देश के पैसे की बर्बादी न करें ! अगर नेताओं द्वारा इन बातों पर ध्यान दिया जाता है तो देश की अर्थव्यवस्था का भला होने के साथ-साथ जनता की नजर में नेताओं की छवि में भी सुधार होगा !

शनिवार, 28 सितंबर 2013

सुरक्षा जाँच में आम-खास का भेद क्यों [आईनेक्स्ट इंदौर में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

आईनेक्स्ट
ब्रिटेन में एक कार्यक्रम के लिए गए बाबा रामदेव को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा हिथ्रों हवाई अड्डे पर रोककर पूछताछ क्या की गई कि भारत के राजनीतिक गलियारे में खलबली मच गई ! तमाम राजनीतिक दलों द्वारा ब्रिटिश अधिकारियों की इस गतिविधि पर अनेक प्रकार से विरोध जताया गया है ! जहाँ मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इसे अत्यंत गंभीर मुद्दा बताते हुए केन्द्र सरकार को इस विषय में संज्ञान लेने की नसीहत दी है, तो वहीँ सपा के आजम खान द्वारा इसे सुरक्षा के नाम पर भारतीयों का अपमान कहा गया है ! और तो और, खुद बाबा रामदेव की माने तो इसके पीछे उन्हें केन्द्र सरकार की साजिश नज़र आती है ! उनका कहना है कि केन्द्र सरकार ने राजनीतिक रंजिश के चलते इस विषय में ब्रिटिश अधिकारियों गुमराह किया है ! उल्लेखनीय होगा कि इससे पहले भी भारत के कई प्रसिद्ध लोगों के साथ विदेशों में इस तरह की घटनाएँ होती रही हैं ! अधिक पीछे जाने की जरूरत नही है, एक वाकया तो इसी साल अप्रैल का है जब सपा नेता आजम खान को अमेरिकी सुरक्षा अधिकारियों ने बोस्टन हवाई अड्डे पर पूछताछ के लिए रोक लिया था ! उस समय सपा द्वारा तमाम तरह से इस मामले को राजनीतिक-साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई थी, पर गनीमत कि इसमे उसे कोई विशेष सफलता नही मिली ! बहरहाल कुल मिलाकर भारतीय व्यवस्था के लिहाज से ये अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे मामलों को हम एक मुल्क द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति गंभीरता बरतने के रूप में देखने की बजाय खुद के मान-अपमान से जोड़कर देखने लगते हैं ! जबकि हमें ये समझना चाहिए कि जो देश अपनी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर आम-खास में कोई भेदभाव नही कर रहे, उनकी सुरक्षा व्यवस्था हमारी तुलना में कितनी अधिक मजबूत है ! पर क्या करें हमारी सोच ही ऐसी है और इस सोच के लिए हमारी सुरक्षा व्यवस्था में व्याप्त आम-खास के प्रति दोहरा नजरिया एक प्रमुख कारण है ! इस संदर्भ में थोड़ा विचार करें तो समझ में आता है कि अभी ब्रिटेन के हिथ्रो हवाई अड्डे पर रामदेव को जिस जांच व पूछताछ की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है, उससे आम भारतीयों को अक्सर गुजरना पड़ता होगा ! पर अब जब रामदेव की बात आई तो इसपे बवाला मच गया ! बस यही हमारी समस्या है कि हम हर बात में आम और खास का अंतर पैदा कर बैठे हैं ! हमारे यहाँ सुरक्षा व्यवस्था समेत प्रत्येक व्यवस्था आम और खास के बीच अंतर के आधार पर ही काम करती आयी है और अब भी कर रही है ! हमारा संविधान भले ही संपन्न-विपन्न सबमे हर तरह से समानता बरतने की बात करता हो, पर वर्तमान में और आजाद भारत के इतिहास में भी कभी संविधान में उल्लिखित इस समानता के सिद्धांत का व्यवस्था द्वारा समुचित रूप से पालन किया गया हो, ऐसा नही दिखता ! लिहाजा आम-खास के बीच हर तरह से असमानता प्रदर्शित करने वाली ऐसी व्यवस्था में रहते-रहते हमारे सुरक्षा अधिकारियों से लेकर क़ानून व्यवस्था तक के मन में यही बात बैठ गई है या राजनीतिक महकमे द्वारा बैठा दी गई है कि जो संपन्न और प्रसिद्ध है वो निर्दोष ही होगा ! इस कारण पुलिस समेत हमारी अन्य सुरक्षा एजेंसियां संदेह होने पर भी जल्दी किसी बड़े व्यक्ति पर हाथ नही डालती ! ये एक महत्वपूर्ण कारण है जो हमारी सुरक्षा व्यवस्था को विकसित देशों की सुरक्षा व्यवस्था से काफी पीछे ले जाता है !
  भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम को को भी एकबार न्यूयार्क हवाई अड्डे पर पूछताछ के लिए रोक लिया गया था ! इस मामले में भी तब बहुत हंगामा मचा था और बेशक अमेरिका द्वारा इसके लिए माफ़ी भी मांगी गई थी ! पर अब यहाँ सवाल ये उठता है कि कलाम जैसे विश्व प्रसिद्ध व्यक्ति से पूछताछ करने में अगर  अमेरिकी सुरक्षा अधिकारियों को कोई हिचक नही हुई, तो इसके लिए कारण क्या है ? इस सवाल पर विचार करने पर निष्कर्ष ये निकलता है कि अमेरिकी सुरक्षा अधिकारियों के मन में किसी भी आम या खास व्यक्ति के लिए देश की सुरक्षा से समझौता करने की प्रेरणा नही है  ! कारण कि उन्होंने ऐसा कभी किया ही नही है जबकि भारत के सुरक्षा अधिकारी राजनीतिक रौब के कारण हमेशा से खास लोगों के लिए हर तरह से रियायत देने के आदी रहे हैं ! इसी संदर्भ में आजाद भारत के समूचे इतिहास पर एक नजर डालें तो भी शायद ही ऐसा कोई वाकया मिले जिसमे हमारी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा किसी विदेशी नेता या प्रसिद्ध व्यक्ति को कहीं पर रोककर कोई पूछताछ की गई हो ! भारतीय सुरक्षा अधिकारियों और अमेरिका, ब्रिटेन आदी देशो के सुरक्षा अधिकारियों के बीच बस इसी सोच का अंतर है और इसीके कारण भारत की सुरक्षा व्यवस्था इन देशों की अपेक्षा काफी पिछड़ी है !
  आज जरूरत इस बात की है कि विदेशी मुल्कों में अपने देश के प्रसिद्ध लोगों के साथ पूछताछ आदि होने पर हो-हल्ला मचाने की बजाय उससे सीख ली जाय ! ऐसी व्यवस्था कायम करने का प्रयास किया जाए कि हमारे सुरक्षा अधिकारियों को किसी भी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति से पूछताछ करने में तनिक भी हिचकिचाहट न हो ! इसके लिए पहली आवश्यकता है कि हमारे सियासी हुक्मरान हमारी सुरक्षा एजेंसियों को इस बात के लिए आश्वस्त करें कि किसी भी आम-खास व्यक्ति के लिए सुरक्षा से समझौता नही किया जाएगा ! चाहें कोई भी हो, सबके साथ समान जांच व पूछताछ होनी चाहिए ! इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध व्यक्तियों व नेताओं आदि को भी चाहिए कि वो पूछताछ होने पर रामदेव और आजम खान जैसों की तरह तिलमिलाने की बजाय सुरक्षा अधिकारियों के साथ सहयोग करें ! इन सारी चीजों का क्रियान्वयन होने पर ही हमें मानना चाहिए कि हाँ हम सही मायने में सुरक्षित हैं !

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

बिछ चुकी है लोकसभा चुनाव की बिसात [डीएनए में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत 
डीएनए
तमाम अंदरूनी विरोधों को दरकिनार करते हुए आखिर भाजपा ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी को अपना पीएम उम्मीदवार घोषित कर ही दिया ! वैसे ये तो लगभग तय ही था कि चाहें आडवाणी या कोई भी नेता कितना भी विरोध कर ले, पर भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ही होंगे ! बहरहाल मोदी को अपना पीएम उम्मीदवार घोषीत करने के साथ ही भाजपा ने आगामी लोकसभा के मद्देनजर अपनी चुनावी रणनीति भी काफी हद तक साफ़ कर दी है ! अब इसमे कोई संदेह नही रह गया कि भाजपा लोकसभा चुनाव २०१४ नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के दम पर ही लड़ने का निश्चय कर चुकी है और इसके लिए वो कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है ! स्थिति ये है कि अब भाजपा के लिए छोटे-बड़े किसी नेता के रूठने-मानने से कहीं ज्यादा महत्व इस बात का है कि वो मोदी के नेतृत्व में लड़े ! कारण कि जनता में तो मोदी की जो लहर है सों है ही, इसके अतिरिक्त भाजपा की सबसे बड़ी ताकत संघ परिवार भी मोदी पर अत्यंत मेहरबान है ! अब मोदी पर संघ की मेहरबानी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मोदी के लिए संघ ने अपने अत्यंत प्रिय आडवाणी के विरोध तक को नजरंदाज करने में कोई कोताही नहीं की ! समझना आसान है कि भाजपा की तरफ से आगामी लोकसभा चुनाव की बिसात पर अपनी सबसे महत्वपूर्ण चाल चली जा चुकी है ! अब उस चाल का असर कितना और कैसा होगा, ये तो भविष्य के गर्भ में छुपा है ! पर एक बात एकदम साफ़-साफ़ समझी जा सकती है कि मोदी की विशाल लोकप्रियता और वर्तमान यूपीए सरकार की सभी क्षेत्रों में लगातार हो रही नाकामी से उपजे सत्ता-विरोधी रुझान का मिलाजुला प्रभाव आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से भाजपा के लिए काफी शुभ संकेत दे रहा है ! लिहाजा अगर आज भाजपा अपने गठबंधन का कुशलतापूर्वक प्रबंधन करने में सफलता पा ले, तो इससे कत्तई इंकार नही किया जा सकता कि आगामी लोकसभा चुनाव में उसके लिए सत्ता के दरवाजे खुलने की संभावना प्रबल हो जाएगी ! यहाँ गठबंधन के प्रबंधन की बात पर जोर इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि कांग्रेस की अपेक्षा भाजपा का पहले से ही कमजोर गठबंधन आज और भी कमजोर हो चुका है जो कि  उसके लिए निश्चित ही एक बड़ी चिंता का विषय है ! इस संदर्भ में भाजपा के गठबंधन राजग पर एक सरसरी निगाह डाले तो हम देखते हैं कि बिहार में भाजपा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण सहयोगी जदयू मोदी के ही कारण भाजपा से अलग हो चुका है और संदेह नही कि देर सबेर वो कांग्रेस से हाथ मिला ही लेगा ! साफ़ है कि इससे जहाँ भाजपा बिहार में कमजोर होगी, वहीँ कांग्रेस को मजबूती मिलेगी ! इसके अतिरिक्त भाजपा के और भी कई छोटे-बड़े घटकों का रुख मोदी को लेकर अभी कुछ साफ़ नहीं है ! अतः कुल मिलाकर कह सकते हैं कि अब राजनाथ सिंह लाख कहें कि मोदी को लेकर राजग में कोई मतभेद नही है, पर उनकी ये बात इतनी आसानी से गले नही उतरती ! क्योंकि शिवसेना आदि भाजपा के कई घटकों के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, अक्सर मोदी विरोधी आवाजें सुनने को मिलती रही हैं ! फिर भी हो सकता है कि भाजपा के इन घटक दलों ने मोदी के नाम पर सहमति दे दी हो, पर इससे भी इंकार नही किया जा सकता कि वो सहमति सिर्फ क्षणिक हो न कि स्थायी ! इस नाते भाजपा के लिए उचित होगा कि वो इस विषय में सावधान रहे ! क्योंकि एक बात तो तय है कि भाजपा, कांग्रेस या अन्य कोई भी चाहें जितने दाव-पेंच लगा ले, पर लोकसभा २०१४ में सरकार उसीकी बनेगी जिसका गठबंधन मजबूत होगा ! 
  उपर्युक्त बातें भाजपा की करने के बाद आवश्यक हो जाता है कि एक नजर केन्द्र में सत्तारूढ़ दल कांग्रेस पर भी डाली जाए ! कांग्रेस के संदर्भ में बात की शुरुआत यहीं से करनी होगी कि फिलहाल उसके लिए समय कुछ खास ठीक नही चल रहा ! केन्द्र में मौजूद उसकी यूपीए सरकार की हर मोर्चे पर लगातार हो रही नाकामी तथा केंद्रीय मंत्रियों के एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचारी कारनामें उजागर होने  के कारण   उसके प्रति जनता में गुस्से का माहौल दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है ! इसके अतिरिक्त कांग्रेस के लिए समस्या ये भी है कि जनता के गुस्से को कम करने के लिए उसके द्वारा किए जा रहे प्रयास भी कोई खासा प्रभाव नही दिखा रहे ! वैसे थोड़ा विचार करते ही समझ में आ जाता है कि इन तमाम मुश्किल परिस्थितियों के बीच आगामी लोकसभा २०१४ की चुनावी बिसात के लिए कांग्रेस के पास दो महत्वपूर्ण चालें हैं जिनमे से एक चाल खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित करवाके वो चल भी चुकी है ! इसके बाद उसकी दूसरी चाल राहुल गांधी को अपने पीएम प्रत्याशी के रूप में आधिकारिक रूप से घोषित करने की है ! पर पूरी संभावना है कि ये घोषणा चुनाव के अतिनिकट आ जाने पर ही की जाएगी ! क्योंकि अभी काग्रेस को लेकर जनता में जो गुस्सा है उसे देखते हुए इस घोषणा से उसे कोई लाभ नही होने वाला ! फ़िलहाल कांग्रेस के लिए इस घोषणा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण ये है कि वो अपने प्रति जनता में व्याप्त आक्रोश को कम करे ! खाद्य सुरक्षा विधेयक तथा बीते संसदीय सत्र में पारित हुए और भी कई विधेयकों के द्वारा वो यही करने का प्रयास कर रही है ! अब इसमे उसे कहाँ तक सफलता मिलती है, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा ! पर इतना जरूर कहा जा सकता  है कि फिलहाल अगर गठबंधन को छोड़कर देखें तो कांग्रेस और भाजपा में भाजपा का पलड़ा अधिक भारी नजर आता है ! इसका कुछ कुछ संकेत तो अभी हाल ही में आए डूसू चुनाव के परिणामों में भी देखा जा सकता है कि कैसे चार में से तीन सीटों पर भाजपा की छात्र इकाई एबीवीपी का कब्ज़ा रहा !
  बहरहाल, अभी लोकसभा चुनाव में कई महीने शेष हैं ! ऐसे में पूरी तरह से कुछ भी कहना कठिन होगा ! क्योंकि राजनीति में एक दिन में समीकरण बदल जाते हैं ! वैसे भी इस देश का पिछले दो-ढाई दशकों का राजनीतिक इतिहास बड़ी और अप्रत्याशित उलट-फेरों से भरा पड़ा है ! अतः आगामी लोकसभा चुनाव के विषय में स्पष्टतः अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी ही होगी ! हम अनुमान व्यक्त कर सकते हैं, भविष्यवाणी नही कर सकते !

बुधवार, 18 सितंबर 2013

हिंदी के लिए खतरा बनती हिंग्लिश [डीएनए में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत  

डीएनए
आज हमारे देश में अंग्रेजी-माध्यम की शिक्षा के प्रति जो सनक दिख रही है, कोई संदेह नही कि उसका मूल कारण रोजगार की विवशता ही है ! क्योंकि आज एक साधारण नौकरी के लिए भी अंग्रेजी अनिवार्य आवश्यकता है ! अतः इसकी तो अनदेखी संभव नहीं लगती, पर इस विषय में एक बात है जिसकी हम पूर्णतया अनदेखी ही कर रहे हैं ! वो ये कि आज अंग्रेजी सिर्फ रोजगार की विवशता तक सीमित नहीं रह गयी है, वरन धीरे-धीरे वो अपने को और विस्तारित कर रही है ! आज अंग्रेजी नौकरी के साक्षात्कारों तथा परीक्षा के प्रश्न-पत्रों आदि से आगे बढ़कर आम-बोलचाल में भी अपना अस्तित्व कायम करने के प्रयास में है ! इसका सशक्त प्रमाण आधुनिक-युवाओं द्वारा आम-बोलचाल में प्रयोग की जा रही एक भाषा है, जिसे उनके द्वाराहिंगलिशनाम दिया गया है ! हिंगलिश कोइ प्रामाणिक भाषा नहीं, वरन आधुनिक युवा मन की उपज मात्र है ! इसके अंतर्गत हिंदी-अंग्रेजी को मिश्रित करके बोला जाता है ! अगर हिंगलिश के परिप्रेक्ष्य में हम ये कहें, तो गलत नहीं होगा कि रोजगार के अवसरों पर अंग्रेजी के लगभग अनिवार्य अस्तित्व के बावजूद भी, सामान्य-बोलचाल में हिंदी का जो संप्रभु अस्तित्व था, उसमे हिंगलिश के रूप में अंग्रेजी द्वारा एक बड़ी सेंध लगाई जा चुकी है, जिसको कि या तो हम समझ पा नहीं रहे हैं, या फिर समझना चाहते ही नहीं हैं ! अबतक इतनी गनीमत थी कि लोग अंग्रेजी को सिर्फ व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखते थे ! आम बोलचाल में अंग्रेजी को कोई खास तवज्जो नही दी जाती थी ! यहाँ हिंदी तथा भारत की अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ का अधिकार था ! पर बदलते वक्त के साथ हिंग्लिश के रूप में अंग्रेजी धीरे-धीरे इस आम बोलचाल में भी सेंध लगाने का प्रयास कर रही है जो कि हिंदी के लिए बड़ी चिंता का विषय है !
  उल्लेखनीय होगा कि गांधी जी ने कभी भी अंग्रेजी का विरोध नही किया था ! पर बार-बार अगर वो हिंदी के संरक्षण और संवर्द्धन की बात करते थे तो सिर्फ इसलिए कि उनके राष्ट्रवादी ह्रदय को ये भय था कि अगर आज हिंदी पर ध्यान नही दिया गया, तो आने वाले समय में हिंदी को अपने ही घर में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है ! उन्हें अंदेशा था कि कहीं, कोइ अन्य भाषा हिंदी का विकल्प बन जाए और आखिर आज उनकी इस दुष्कल्पना का क्रितरूप, एक हिंदीभाषी राष्ट्र के सर्वक्षेत्रों में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चश्व के तौर पर हमारे सामने है ! यहाँ ये भी ध्यान देना होगा कि गांधी जी ने कभी अंग्रेजी को त्यागने की बात नहीं कही थी, वरन उनका कथनाम ये था कि अंग्रेजी बोलो, पर उसे आत्मसात मत करो, उससे आत्मा से मत जुड़ों ! पर वर्तमान में आधुनिक-युवा का अंग्रेजी-प्रेम आत्मसात करने जैसा ही हो गया है ! इसका सबसे अच्छा प्रमाण ये है कि यहाँ जो बच्चा हिंदी-माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहा है, उसे संज्ञा-सर्वनाम के साथ-साथ नाउन-प्रोनाउन तथा एक-दो के साथ-साथ वन-टू आदि भी पता है ! पर वहीँ अंग्रेजी-माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहा बच्चा सिर्फ नाउन-प्रोनाउन और वन-टू ही जानता है, संज्ञा-सर्वनाम और एक-दो का उसे कोई ज्ञान नही है !  इससे सिर्फ दो ही बातें साफ़ होती हैं कि या तो हिंदी-माध्यम की शिक्षा अंग्रेजी-माध्यम शिक्षा से अधिक गुणवत्तापूर्ण है, या फिर हम हिंदी से अधिक दिल से अंग्रेजी को सीख, समझ और अपना रहे हैं
 इससे कत्तई इंकार नही किया जा सकता कि आज के इस अर्थ-प्रधान युग में आर्थिक-अर्जन के लिए अंग्रेजी-शिक्षा एक अनिवार्य तत्त्व है, पर साथ ही हमें ये कहने में भी कोइ हिचक नहीं होनी चाहिए कि हर भारतीय का प्रथम दायित्व उस भाषा के प्रति होना चाहिए जो वास्तव में भारत की हो, न कि किसीके द्वारा थोपी गई ! इसके अतिरिक्त संविधान के द्वारा भी हिंदी राष्ट्रिय संपर्क-भाषा अधिकृत है, अतः हर भारतीय को चाहिए कि वो अपनी क्षेत्रीय भाषा को तो आगे ज़रूर लाए, पर ये बात अवश्य मन में रखे कि हिंदी के लिए भी उसीका दायित्व है, क्योंकि हिंदी भी भारत की ही भाषा है ! एक ऐसी भाषा जिसके बहुसंख्यक भाषी तो इस देश में हैं, पर फिर भी वो राष्ट्रभाषा नही है, तिसपर अंग्रेजी जैसा विकट प्रतिद्वंधी उसके सामने है ! अगर इन बातों के प्रति हम अभी सजग नहीं हुए, तो वो समय दूर नही, जब इस हिंदीभाषी राष्ट्र की आगामी पीढ़ियो  के लिए इस देश का हिंदीभाषी होना इतिहास की बात होगी ! वो अंग्रेजी बोलते परिवार में जन्मेंगे, अंग्रेजी बोलते समाज में पलेंगे-बढ़ेंगे और सिर्फ अंग्रेजी ही सीखेंगे, क्योंकि तब शायद हमारे देश में हिंदी होगी ही नही, या बहुत ही कम होगी !