गुरुवार, 5 सितंबर 2013

पारदर्शिता से भागते राजनीतिक दल [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत
अमर उजाला काम्पैक्ट
संविधान निर्माण के बाद डा. अंबेडकर ने कहा था कि अच्छे से अच्छा संविधान भी गलत लोगों के हाथ में पड़कर बर्बाद हो सकता है और बहुत बुरा संविधान भी अच्छे लोगों के द्वारा संचालित होने पर राष्ट्र हितैषी साबित हो सकता है ! बेशक भारतीय संविधान में भी तमाम खूबियों के साथ-साथ कुछ कमियां भी होंगी, लेकिन आज  भारतीय संविधान के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि वो गलत लोगों के हाथों में जा चुका है ! संविधान से प्राप्त अधिकारों की आड़ में भारतीय राजनितिक  खेमा अपने हितों को साधने के लिए एक बार फिर लामबंद और एकजुट खड़ा दिख रहा है  ! हमारे राजनितिक दलों का चरित्र ऐसा हो चुका है कि जब भी बात किसी जनहित के मुद्दे  की होती है तो उनमे ऐसी असहमति दिखती है कि जैसे वो कभी एक दूसरे से सहमत ही नही होंगे ! जबकि इसके उलट जब बात उनके निजी हितों से जुड़े मुद्दों की होती है तब  उनके बीच सहमति का ऐसा उदाहरण देखने को मिलता है, मानो इनमे कभी विरोध ही न रहा हो ! ताजा मामला केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा आरटीआई में राजनीतिक दलों को शामिल किए जाने के फैसले के विरोध में सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता का है ! गौरतलब है कि जून में केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने अपने एक फैसले में सभी छः राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को ‘सूचना के अधिकार’ क़ानून के अंतर्गत लाने की घोषणा की थी ! सीआईसी का कहना था कि छः राष्ट्रीय दलों को केन्द्र सरकार द्वारा परोक्ष रूप से काफी वित्तपोषण मिलता है, इसलिए उन्हें जन सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिए, क्योंकि आरटीआई कानून के तहत उनका स्वरूप सार्वजनिक इकाई का है ! इस फैसले के बाद पूरे राजनीतिक महकमे में अफरा-तफरी मच गई ! जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर सीआईसी के इस फैसले को पूरजोर समर्थन मिला, वहीँ राजनीतिक गलियारों से इसके लिए विरोध के स्वर ही सुनाई देते रहे ! सीआईसी द्वारा जनसूचना अधिकारी नियुक्त करने के लिए दिये छ: सप्ताह के समय सीमा के अंदर सिवाय भाकपा के किसी भी दल ने इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया ! हाँ, अंदरूनी तौर पर इस मुद्दे को लेकर  बैठक, विमर्श और मंथन हर दल में जरूर शुरू हो गया और इसी के परिणामस्वरुप आखिरकार आरटीआई के इस प्रावधान के लिए एक संशोधन विधेयक झटपट तैयार कर उसे प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट से मंजूरी भी दिला दी गई ! अब ये संशोधन विधेयक संसद के आगामी मानसून सत्र में पेश होगा और कोई दोराय नही कि निर्विरोध पारित भी कर दिया जाएगा ! इस संदर्भ में क़ानून मंत्री की तरफ से जो तर्क दिए गए हैं, वो बड़े ही विचित्र और अमान्य हैं ! उनका कहना है कि राजनीतिक दल कोई सार्वजनिक इकाईं नही, बल्कि  स्वेच्छिक संघ हैं अत: किसी भी लिहाज से यह प्रस्ताव स्वीकार्य नही हो सकता ! उनका दूसरा तर्क तो और भी हास्यपद है जिसमे कहा गया है  कि अगर राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाया जाता है, तो उनके पास आवेदनों की भरमार हो जाएगी ! अब इससे तो सिर्फ यही जाहिर होता है कि या तो सरकार की लोकतंत्र में आस्था नही रही अथवा वो पारदर्शिता से भाग रही है ! क्योंकि, अगर आप लोकतंत्र में आस्थावान हैं एवं आपकी कार्यप्रणाली पारदर्शी है तो आपको आवेदनों की संख्या से कोई समस्या नही होनी चाहिए ! आप अपने सूचना अधिकारी रखिए और आवेदनों का निस्तारण करवाइए ! पारदर्शिता से भागते नजर आ रहे ये राजनितिक दल चोर की दाढ़ी में तिनका की कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं !
   उपर्युक्त बातों से ही जुड़े एक और प्रकरण पर गौर करें, तो अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय द्वारा राजनीति में बढ़ रही आपराधिक सक्रियता पर लगाम लगाने के लिए अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा गया था कि कोई भी सांसद या विधायक अगर निचली अदालत में भी दोषी करार दिया जाता है, तो उसकी सांसदी या विधायकी तत्काल ही समाप्त हो जाएगी ! उसी दिन सर्वोच्च न्यायालय ने एक और फैसला दिया कि जेल अथवा हिरासत में होते हुवे अब से चुनाव भी नही लड़ा जा सकेगा ! सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों का भी प्रत्याशित रूप से राष्ट्र द्वारा स्वागत और राजनीतिक दलों द्वारा विरोध हुवा ! और आखिर इस फैसले को भी बदलने के लिए जल्द ही संशोधन विधेयक लाने की बात पर सभी दल एकजुट हो गए हैं, अतः कोई दोराय नही कि ये फैसला भी अपने हितों या अपराधों को छिपाने के लिए कुछ भी करने पर तुले इन राजनीतिक दलों के आगे ज्यादा दिन नही टिक पाएगा !
  यूँ तो खुद को जनहितैषी बताने पर भाषण देने के मामले में कोई दल किसीसे कम नही है, पर यहाँ समझ न आने वाली बात ये है कि आखिर आपकी ये कैसी  जनहितैषी प्रवृति हैं कि जिन फैसलों का राष्ट्र की  जनता द्वारा स्वागत और समर्थन हो रहा है, उनका आप विरोध कर रहे हैं ? अगर आप सच्चे जनहितैषी हैं तो जनता द्वारा की जाने वाली मांगों पर आपमें सहमति क्यों नही बन पाती है ? अगर आप इमानदार हैं, तो फिर सूचना अधिकारी रखने से क्यों भाग रहे हैं ? लोकतंत्र में जनता और तंत्र के बीच कैसा पर्दा ? कहना गलत नही होगा कि इन सभी प्रश्नों का राजनीतिक दलों के पास सिवाय कुतर्कों के कोई उत्तर नही होगा ! अब्राहम लिंकन ने कभी लोकतंत्र के संदर्भ में कहा था कि ‘लोकतंत्र, जनता द्वारा जनता के लिए किया जाने वाला, जनता का शासन है’ बहरहाल, भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में ये परिभाषा व्यंग्य ही प्रतीत होती ! यहाँ लोकतंत्र भी है, जनता भी है और शासन भी है, पर विडम्बना ये है कि वो शासन जनता के लिए होने की बजाय जनता पर हो रहा है !
संविधान निर्माण के बाद डा. अंबेडकर ने कहा था कि अच्छे से अच्छा संविधान भी गलत लोगों के हाथ में पड़कर बर्बाद हो सकता है और बहुत बुरा संविधान भी अच्छे लोगों के द्वारा संचालित होने पर राष्ट्र हितैषी साबित हो सकता है ! बेशक भारतीय संविधान में भी तमाम खूबियों के साथ-साथ कुछ कमियां भी होंगी, लेकिन आज  भारतीय संविधान के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि वो गलत लोगों के हाथों में जा चुका है ! संविधान से प्राप्त अधिकारों की आड़ में भारतीय राजनितिक  खेमा अपने हितों को साधने के लिए एक बार फिर लामबंद और एकजुट खड़ा दिख रहा है  ! हमारे राजनितिक दलों का चरित्र ऐसा हो चुका है कि जब भी बात किसी जनहित के मुद्दे  की होती है तो उनमे ऐसी असहमति दिखती है कि जैसे वो कभी एक दूसरे से सहमत ही नही होंगे ! जबकि इसके उलट जब बात उनके निजी हितों से जुड़े मुद्दों की होती है तब  उनके बीच सहमति का ऐसा उदाहरण देखने को मिलता है, मानो इनमे कभी विरोध ही न रहा हो ! ताजा मामला केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा आरटीआई में राजनीतिक दलों को शामिल किए जाने के फैसले के विरोध में सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता का है ! गौरतलब है कि जून में केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने अपने एक फैसले में सभी छः राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को ‘सूचना के अधिकार’ क़ानून के अंतर्गत लाने की घोषणा की थी ! सीआईसी का कहना था कि छः राष्ट्रीय दलों को केन्द्र सरकार द्वारा परोक्ष रूप से काफी वित्तपोषण मिलता है, इसलिए उन्हें जन सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिए, क्योंकि आरटीआई कानून के तहत उनका स्वरूप सार्वजनिक इकाई का है ! इस फैसले के बाद पूरे राजनीतिक महकमे में अफरा-तफरी मच गई ! जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर सीआईसी के इस फैसले को पूरजोर समर्थन मिला, वहीँ राजनीतिक गलियारों से इसके लिए विरोध के स्वर ही सुनाई देते रहे ! सीआईसी द्वारा जनसूचना अधिकारी नियुक्त करने के लिए दिये छ: सप्ताह के समय सीमा के अंदर सिवाय भाकपा के किसी भी दल ने इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया ! हाँ, अंदरूनी तौर पर इस मुद्दे को लेकर  बैठक, विमर्श और मंथन हर दल में जरूर शुरू हो गया और इसी के परिणामस्वरुप आखिरकार आरटीआई के इस प्रावधान के लिए एक संशोधन विधेयक झटपट तैयार कर उसे प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट से मंजूरी भी दिला दी गई ! अब ये संशोधन विधेयक संसद के आगामी मानसून सत्र में पेश होगा और कोई दोराय नही कि निर्विरोध पारित भी कर दिया जाएगा ! इस संदर्भ में क़ानून मंत्री की तरफ से जो तर्क दिए गए हैं, वो बड़े ही विचित्र और अमान्य हैं ! उनका कहना है कि राजनीतिक दल कोई सार्वजनिक इकाईं नही, बल्कि  स्वेच्छिक संघ हैं अत: किसी भी लिहाज से यह प्रस्ताव स्वीकार्य नही हो सकता ! उनका दूसरा तर्क तो और भी हास्यपद है जिसमे कहा गया है  कि अगर राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाया जाता है, तो उनके पास आवेदनों की भरमार हो जाएगी ! अब इससे तो सिर्फ यही जाहिर होता है कि या तो सरकार की लोकतंत्र में आस्था नही रही अथवा वो पारदर्शिता से भाग रही है ! क्योंकि, अगर आप लोकतंत्र में आस्थावान हैं एवं आपकी कार्यप्रणाली पारदर्शी है तो आपको आवेदनों की संख्या से कोई समस्या नही होनी चाहिए ! आप अपने सूचना अधिकारी रखिए और आवेदनों का निस्तारण करवाइए ! पारदर्शिता से भागते नजर आ रहे ये राजनितिक दल चोर की दाढ़ी में तिनका की कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं !
   उपर्युक्त बातों से ही जुड़े एक और प्रकरण पर गौर करें, तो अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय द्वारा राजनीति में बढ़ रही आपराधिक सक्रियता पर लगाम लगाने के लिए अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा गया था कि कोई भी सांसद या विधायक अगर निचली अदालत में भी दोषी करार दिया जाता है, तो उसकी सांसदी या विधायकी तत्काल ही समाप्त हो जाएगी ! उसी दिन सर्वोच्च न्यायालय ने एक और फैसला दिया कि जेल अथवा हिरासत में होते हुवे अब से चुनाव भी नही लड़ा जा सकेगा ! सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों का भी प्रत्याशित रूप से राष्ट्र द्वारा स्वागत और राजनीतिक दलों द्वारा विरोध हुवा ! और आखिर इस फैसले को भी बदलने के लिए जल्द ही संशोधन विधेयक लाने की बात पर सभी दल एकजुट हो गए हैं, अतः कोई दोराय नही कि ये फैसला भी अपने हितों या अपराधों को छिपाने के लिए कुछ भी करने पर तुले इन राजनीतिक दलों के आगे ज्यादा दिन नही टिक पाएगा !
  यूँ तो खुद को जनहितैषी बताने पर भाषण देने के मामले में कोई दल किसीसे कम नही है, पर यहाँ समझ न आने वाली बात ये है कि आखिर आपकी ये कैसी  जनहितैषी प्रवृति हैं कि जिन फैसलों का राष्ट्र की  जनता द्वारा स्वागत और समर्थन हो रहा है, उनका आप विरोध कर रहे हैं ? अगर आप सच्चे जनहितैषी हैं तो जनता द्वारा की जाने वाली मांगों पर आपमें सहमति क्यों नही बन पाती है ? अगर आप इमानदार हैं, तो फिर सूचना अधिकारी रखने से क्यों भाग रहे हैं ? लोकतंत्र में जनता और तंत्र के बीच कैसा पर्दा ? कहना गलत नही होगा कि इन सभी प्रश्नों का राजनीतिक दलों के पास सिवाय कुतर्कों के कोई उत्तर नही होगा ! अब्राहम लिंकन ने कभी लोकतंत्र के संदर्भ में कहा था कि ‘लोकतंत्र, जनता द्वारा जनता के लिए किया जाने वाला, जनता का शासन है’ बहरहाल, भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में ये परिभाषा व्यंग्य ही प्रतीत होती ! यहाँ लोकतंत्र भी है, जनता भी है और शासन भी है, पर विडम्बना ये है कि वो शासन जनता के लिए होने की बजाय जनता पर हो रहा है !

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