शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

सुस्त न्याय प्रक्रिया से उबरने की जरूरत [आईनेक्स्ट इंदौर में प्रकाशित}



  • पीयूष द्विवेदी भारत

आईनेक्स्ट
ये बिलकुल सही है कि देर से मिला न्याय असल मायने में न्याय नही रह जाता ! पर भारतीय न्याय व्यवस्था के संदर्भ में ये बात बेजां ही मालूम होती है ! क्योंकि यहाँ न्याय का मतलब ही है देरी ! आलम ये है कि यहाँ छोटे-बड़े कितने मामले लोगों द्वारा सिर्फ इसलिए दर्ज नही करवाए जाते क्योंकि लोग न्याय व्यवस्था की प्रक्रियात्मक सुस्ती के कारण उसमे पड़ना ही नही चाहते ! उन्हें लगता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था सिर्फ उनके समय और पैसे की बर्बादी करेगी न कि समुचित न्याय देगी और ये बात काफी हद तक सही भी है ! वैसे न्याय व्यवस्था की इस सुस्ती को खुद न्यायपालिका समेत सरकार आदि के द्वारा भी स्वीकार तो किया जाता है, पर ये दुर्भाग्य ही है कि इस सुस्ती को खत्म करने के लिए सिवाय चंद कोरम पूरा करने के किसीके द्वारा कुछ ठोस नही किया जाता ! इस संबंध में ताजा मामला निर्भया प्रकरण में दोषियों को सजा का है ! गौरतलब है कि १६ दिसंबर को रात के समय दिल्ली के बसंत विहार इलाके में कुछ मानवरूपी दरिंदों ने घर जा रही एक लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया जिसके बाद पारम्परिक और सोशल मीडिया के कारण देखते ही देखते उस लड़की के समर्थन में और दोषियों को फांसी की मांग लिए हजारों-लाखों लोग देश की सड़कों पर उतर आए ! उसवक्त लोगों की मांग सिर्फ दोषियों को सजा देने तक नही थी, बल्कि यह भी थी कि दोषियों को जल्द से जल्द सजा दी जाए ! कारण कि लोगों को ये तो मालूम था कि इतने जघन्य अपराध के बाद दोषी सजा से बच नही पाएंगे, पर अपनी न्याय व्यवस्था की सुस्त प्रक्रियाओं को देखते हुए देश के मन में ये प्रश्न अवश्य था कि दोषी सजा कब पाएंगे ! बस इसी कारण लोग बार-बार मांग करते रहे कि दोषियों को जल्द से जल्द सजा दो ! उस जनदबाव का असर हुआ और सरकार ने इस मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में करवाने का निर्णय लिया और राजधानी दिल्ली में तुरंत पाँच फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया गया ! इस मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में ही हुई, पर फिर भी करते-धरते लगभग सात महीने लग ही गए सुनवाई पूरी होने और दोषियों को सजा मिलने में ! हमें ध्यान देना होगा कि ये हालत उस मामले में है जिसकी सुनवाई एक फास्ट ट्रैक कोर्ट में हुई और जिसमें सरकार एवं व्यवस्था के ऊपर मीडिया और जनता का भारी दबाव काम कर रहा था ! ये देखते हुए हम अंदाजा लगा सकते हैं कि जो मामले सामान्य अदालतों में चलते हैं उनके निस्तारण में कितना समय लगता होगा !
  कुछ साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा था कि अगर उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की बढोत्तरी नही की गई तो लंबित पड़े मामलों के निपटारे में ४५० साल का समय लग सकता है ! अब ये बात सुनने में थोड़ी अटपटी भले लगे, पर भारतीय न्याय व्यवस्था की वास्तविकता इससे काफी हद तक मिलती-जुलती ही है ! एक आंकड़े की माने तो अभी देश के उच्च और जिला अदालतों में लगभग तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित पड़े अपने अंजाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं ! इतने अधिक मामले लंबित होने के लिए यूँ तो छोटे-बड़े बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, पर यहाँ हम कुछ महत्वपूर्ण कारणों पर बात करेंगे ! इस संबंध में सबसे बड़ा कारण तो यही है कि आज हमारी न्याय व्यवस्था जजों की किल्लत से जूझ रही है ! सभी छोटी-बड़ी अदालतों में जजों की संख्या आवश्यकता से काफी कम है ! एक आंकड़े के अनुसार आज जहाँ देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के ३२ फिसदी पद रिक्त हैं वहीँ निचली अदालतों में भी ये आंकड़ा २० प्रतिशत से ऊपर है ! समझा जा सकता है कि जिस न्याय व्यवस्था में आवश्यकतानुसार जजों की मौजूदगी ही न हो वहाँ जनता को तय समय में समुचित न्याय भला कैसे मिल सकता है ! समस्या सिर्फ इतनी हो तो कहें भी, पर यहाँ तो समस्याओं की फेहरिस्त पड़ी है ! जजों की कमी के अतिरिक्त पुलिस की धीमी जांच और चार्जशीट दायर करने में की जाने वाली देरी भी एक प्रमुख कारण है न्यायिक प्रक्रिया में देरी के लिए ! चार्जशीट दायर होने के बाद भी कितने बार पुलिस की कमजोर और तथ्यहीन जांच के कारण न्यायालय द्वारा उसे दूबारा चार्जशीट दायर करने के लिए कह दिया जाता है जिस कारण न्यायिक प्रक्रिया में समय की खासा बर्बादी होती है ! ये तथा और भी बहुतों कारण हैं जिनके चलते हमारी न्याय व्यवस्था अत्यंत सुस्त रही है और लोगों को न्याय के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ता रहा है ! किसी भी न्याय व्यवस्था के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि कितने मामलों में अदालत का फैसला आने में इतनी देरी होती है कि मामले से सम्बंधित लोगों की मौत तक हो जाती है और अदालत का फैसला नही आ पाता है !
  सन २००१ में केन्द्र सरकार द्वारा पुराने मामलों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया गया था ! आगे चलकर इन अदालतों के कार्यक्षेत्र में विस्तार हुआ और ये सिर्फ पुराने पड़े मामलों की बजाय हर तरह के मामले देखने लगीं ! फास्ट ट्रैक अदालतों की खासियत ये है कि इनमे सामान्य अदालतों की अपेक्षा न्यायिक प्रक्रिया थोड़ी तेजी से चलती है ! फास्ट ट्रैक अदालतों के काम-काज की तेजी का पता इसी बात से चलता है कि २००१ से अबतक लगभग १००० फास्ट ट्रैक अदालतों ने तीस लाख से अधिक मामलों का निपटारा किया है ! वैसे फास्ट ट्रैक अदालतों के फैसलों का प्रायः ये कहकर आलोचना की जाती है कि ये फैसले जल्दबाजी में लिए गए और गुणवत्ता से हीन होते हैं ! अब जो भी हो, पर भारत के आम आदमी की माने तो फास्ट ट्रैक अदालतें देश की न्याय व्यवस्था का भला ही कर रही हैं, बुरा नही !  
  वर्तमान दौर में भारतीय लोकतंत्र की स्थिति ये है कि उसके तीनों स्तंभों में जनता को अगर सर्वाधिक विश्वास किसी पर है, तो न्यायपालिका पर ! न्यायपालिका द्वारा सरकार की मनमानियों पर नियंत्रण लगाने वाले कुछ फैसलों तथा वक्त दर वक्त सरकार को सचेत करते रहने के कारण जनता अपने लिए न्यायपालिका को एकलौती उम्मीद के रूप में देख रही है ! ऐसी स्थिति में ये आवश्यक हो जाता है कि न्यायपालिका के काम-काज में तेजी आए और जनता को ससमय समुचित न्याय मिले जिससे उसका विश्वास न्यायपालिका पर और भी मजबूत हो ! साथ ही, न्याय प्रक्रिया इतनी दुरुस्त और तेज हो कि अपराधी उसका भय माने और अपराध करने से पहले सौ बार सोचें ! इसके लिए पहली जरूरत ये है कि हमारी पुलिस अपनी ढुलमुल जांच प्रक्रिया को छोड़े और मामलों की तेजी से जांच करे ! दूसरी बात कि न्यायालयों में रिक्त पड़े जजों के पदों पर यथाशीघ्र जजों की नियुक्ति की जाए तथा आखिर में हर राज्य में आवश्यकतानुसार फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन करने के साथ-साथ ऐसी व्यवस्था कायम करने की कोशिश की जाय कि देश की सामान्य अदालतें भी फास्ट ट्रैक अदालतों की तरह तेजी से काम कर सकें ! अगर ऐसा होता है तभी हम सही मायने में जनता के मन में भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास उत्पन्न कर पाएंगे !

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सार्थक आलेख है पियूष जी मैं भी आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ बहुत बहुत बधाई अपनी कलम की धार को इसी तरह बरकरार रखिये शुभकामनायें

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय राजेश कुमारी जी !

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