- पीयूष द्विवेदी भारत
हाल
ही में पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ में निकाय चुनावों के परिणाम आये। इन चुनावों में
जनता ने भाजपा को ऐतिहासिक रूप से विजयी बनाया है। चंडीगढ़ निकाय के कुल 26
वार्डों में से 22 वार्डों में भाजपा ने अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 20 में
उसे जोरदार जीत हासिल हुई है। भाजपा की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को सिर्फ एक सीट
हाथ लगी, वहीँ पिछली बार के चुनावों में ११ सीटें जीतने वाली कांग्रेस को महज़ चार
सीटों से संतोष करना पड़ा। इससे पहले महाराष्ट्र और गुजरात के निकाय चुनावों में भी
भाजपा ने बड़ी जीतें हासिल की थी, लेकिन, चंडीगढ़ निकाय चुनावों की ये जीत उन सबसे
भी अधिक शानदार रही है। साथ ही, इन सब निकाय चुनावों से पहले मध्य प्रदेश, असम,
अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में खाली हुई लोकसभा और विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव
हुए थे, उनमें भी ज्यादातर सीटों पर भाजपा को जनता ने विजयी बनाया था। इन सब
चुनावों की सबसे विशेष बात ये रही है कि यह सब नोटबंदी के उस निर्णय के बाद हुए
है, जिसके विरोध में पूरा का पूरा विपक्षी खेमा एक सुर में लामबंद हुआ पड़ा है और
जिसके विरोध के नाम पर विपक्षी खेमे ने संसद के शीतकालीन सत्र को अपने हंगामें की
भेंट चढ़ा दिया। अब इन चुनाव परिणामों के बाद विपक्ष के विरोध की कलई भी पूरी तरह
से खुल चुकी है कि नोटबंदी के कारण जनता की जिस कथित पीड़ा और आक्रोश का गान करते
हुए ये भाजपा सरकार को बिना मतलब ही भरपूर कोस रहे हैं, वो जनता हर स्तर पर चुनाव
में इन्हें लगातार खारिज़ और सत्ताधारी दल को स्वीकार रही है। इसका एक अर्थ यह भी है
कि जनता नोटबंदी के निर्णय से बिलकुल भी नाराज़ नहीं है, बल्कि इसका बेमतलब विरोध
करने वालों से उसे अधिक नाराजगी हो रही है।
अब
तर्क यह दिया जा रहा है कि निकाय चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं होते, इसलिये
उनमें नोटबंदी कोई मुद्दा ही नहीं था। ये बात एक हद तक सही है कि निकाय चुनाव
स्थानीय मुद्दों पर आधारित होते हैं, लेकिन नोटबंदी देशव्यापी मुद्दा है और इससे
इन चुनावसंपन्न निकायों की जनता भी प्रभावित हुई है। अब अगर उस जनता के मन में
नोटबंदी के प्रति जरा-सा भी आक्रोश होता या इस निर्णय को वो गलत मानती तो हाल के
सभी निकाय चुनावों में भाजपा को बम्पर रूप से विजयी बनाने का काम क्यों करती ? अगर
जनता को लगता कि नोटबंदी पर विपक्ष का विरोध तार्किक और उचित है, तो वो विपक्षी
दलों को इन निकायों में तवज्जों क्यों नहीं देती ? सीधा निष्कर्ष है कि इन चुनावों में नोटबंदी
मुद्दा रहा है और कहीं न कहीं भाजपा की बम्पर जीत को सुनिश्चित करने में इसका महत्वपूर्ण योगदान भी रहा है। इन सबके बाद, एक
बार के लिये अगर मान लें कि इन निकाय चुनावों में नोटबंदी कोई मुद्दा नहीं रहा, तो
भी विपक्ष की जो दुर्दशा इनमें हुई है, वो क्या कम हो जाती है। अच्छी बात होगी कि
विपक्षी खेमा अब भी वास्तविकता को समझे कि सरकार के प्रति अंधविरोधी रुख और जनता
की नब्ज़ को पकड़ पाने में उसकी नाकामयाबी के कारण उसका जनाधार अब धीरे-धीरे समाप्त
होता जा रहा है। यह विपक्ष के लिये चेतने का समय है।
चूंकि, पंजाब में कुछ ही समय बाद विधानसभा चुनाव भी
होने हैं, इसलिये नोटबंदी से इतर इन निकाय चुनाव परिणामों के कुछ राजनीतिक
निहितार्थ भी हैं। अभी पंजाब में भाजपा और शिरोमणि अकाली दल के गठबंधन की सरकार है
और ऐसा कहा जा रहा है कि राज्य में सत्ता-विरोधी रुझान बहुत ज्यादा है, जिस कारण
अबकी सरकार बदलने की संभावना है। यह कयास एक हद तक सही भी है, क्योंकि अकाली दल के
मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के शासन में नेतृत्वहीनता और उससे उपजी अव्यवस्था
बहुत ज्यादा रही है। भाजपा इस सरकार की सहयोगी है, इस स्थिति में उसे अकालियों के
प्रति जनाक्रोश का भागीदार बनना पड़ सकता है। लेकिन, एक समीकरण है कि भाजपा अकाली
दल से अलग होकर अगर चुनाव में उतर जाये तो उसकी मुश्किलें आसान हो सकती हैं।
क्योंकि, पंजाब की जनता में अकालियों के प्रति अधिक गुस्सा है, अकाली दल से अलग हो
जाने की स्थिति में भाजपा पर वो नरम रह सकती है। इस बात का संकेत उसने चंडीगढ़ के
निकाय चुनावों अकाली दल को महज़ एक और भाजपा 20 सीटों पर विजयी बनाकर दिया भी है। स्पष्ट
है कि जनता ने अपना मिज़ाज़ जाहिर कर दिया है, अब ये भाजपा पर निर्भर करता है कि वो चंडीगढ़
निकाय चुनावों में छिपे जनता के इस संकेत को कितने बेहतर ढंग से समझ पाती है। भाजपा
यह निश्चित रूप से समझ ले कि पंजाब चुनाव उसके लिये किसी भी तरह आसान नहीं रहने
वाले और पंजाब में उसका कल्याण होने का सिर्फ एक मार्ग है कि वो पंजाब की नाकाम
अकाली सरकार का साथ छोड़े और अकेले चुनाव में उतरे। चंडीगढ़ निकाय चुनाव में उसके
लिये यही जनसंकेत उभरकर आया है, इसका अनुपालन करना ही पंजाब के आगामी विधानसभा
चुनाव में उसकी विजय का मार्ग का प्रशस्त करेगा।