बुधवार, 21 दिसंबर 2016

निकाय चुनावों में भाजपा की जीत के निहितार्थ [राज एक्सप्रेस और हरिभूमि में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
हाल ही में पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ में निकाय चुनावों के परिणाम आये। इन चुनावों में जनता ने भाजपा को ऐतिहासिक रूप से विजयी बनाया है। चंडीगढ़ निकाय के कुल 26 वार्डों में से 22 वार्डों में भाजपा ने अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 20 में उसे जोरदार जीत हासिल हुई है। भाजपा की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को सिर्फ एक सीट हाथ लगी, वहीँ पिछली बार के चुनावों में ११ सीटें जीतने वाली कांग्रेस को महज़ चार सीटों से संतोष करना पड़ा। इससे पहले महाराष्ट्र और गुजरात के निकाय चुनावों में भी भाजपा ने बड़ी जीतें हासिल की थी, लेकिन, चंडीगढ़ निकाय चुनावों की ये जीत उन सबसे भी अधिक शानदार रही है। साथ ही, इन सब निकाय चुनावों से पहले मध्य प्रदेश, असम, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में खाली हुई लोकसभा और विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव हुए थे, उनमें भी ज्यादातर सीटों पर भाजपा को जनता ने विजयी बनाया था। इन सब चुनावों की सबसे विशेष बात ये रही है कि यह सब नोटबंदी के उस निर्णय के बाद हुए है, जिसके विरोध में पूरा का पूरा विपक्षी खेमा एक सुर में लामबंद हुआ पड़ा है और जिसके विरोध के नाम पर विपक्षी खेमे ने संसद के शीतकालीन सत्र को अपने हंगामें की भेंट चढ़ा दिया। अब इन चुनाव परिणामों के बाद विपक्ष के विरोध की कलई भी पूरी तरह से खुल चुकी है कि नोटबंदी के कारण जनता की जिस कथित पीड़ा और आक्रोश का गान करते हुए ये भाजपा सरकार को बिना मतलब ही भरपूर कोस रहे हैं, वो जनता हर स्तर पर चुनाव में इन्हें लगातार खारिज़ और सत्ताधारी दल को स्वीकार रही है। इसका एक अर्थ यह भी है कि जनता नोटबंदी के निर्णय से बिलकुल भी नाराज़ नहीं है, बल्कि इसका बेमतलब विरोध करने वालों से उसे अधिक नाराजगी हो रही है।
 
राज एक्सप्रेस
अब तर्क यह दिया जा रहा है कि निकाय चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं होते, इसलिये उनमें नोटबंदी कोई मुद्दा ही नहीं था। ये बात एक हद तक सही है कि निकाय चुनाव स्थानीय मुद्दों पर आधारित होते हैं, लेकिन नोटबंदी देशव्यापी मुद्दा है और इससे इन चुनावसंपन्न निकायों की जनता भी प्रभावित हुई है। अब अगर उस जनता के मन में नोटबंदी के प्रति जरा-सा भी आक्रोश होता या इस निर्णय को वो गलत मानती तो हाल के सभी निकाय चुनावों में भाजपा को बम्पर रूप से विजयी बनाने का काम क्यों करती ? अगर जनता को लगता कि नोटबंदी पर विपक्ष का विरोध तार्किक और उचित है, तो वो विपक्षी दलों को इन निकायों में तवज्जों क्यों नहीं देती ?  सीधा निष्कर्ष है कि इन चुनावों में नोटबंदी मुद्दा रहा है और कहीं न कहीं भाजपा की बम्पर जीत को सुनिश्चित करने में इसका  महत्वपूर्ण योगदान भी रहा है। इन सबके बाद, एक बार के लिये अगर मान लें कि इन निकाय चुनावों में नोटबंदी कोई मुद्दा नहीं रहा, तो भी विपक्ष की जो दुर्दशा इनमें हुई है, वो क्या कम हो जाती है। अच्छी बात होगी कि विपक्षी खेमा अब भी वास्तविकता को समझे कि सरकार के प्रति अंधविरोधी रुख और जनता की नब्ज़ को पकड़ पाने में उसकी नाकामयाबी के कारण उसका जनाधार अब धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। यह विपक्ष के लिये चेतने का समय है।
हरिभूमि

चूंकि, पंजाब में कुछ ही समय बाद विधानसभा चुनाव भी होने हैं, इसलिये नोटबंदी से इतर इन निकाय चुनाव परिणामों के कुछ राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। अभी पंजाब में भाजपा और शिरोमणि अकाली दल के गठबंधन की सरकार है और ऐसा कहा जा रहा है कि राज्य में सत्ता-विरोधी रुझान बहुत ज्यादा है, जिस कारण अबकी सरकार बदलने की संभावना है। यह कयास एक हद तक सही भी है, क्योंकि अकाली दल के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के शासन में नेतृत्वहीनता और उससे उपजी अव्यवस्था बहुत ज्यादा रही है। भाजपा इस सरकार की सहयोगी है, इस स्थिति में उसे अकालियों के प्रति जनाक्रोश का भागीदार बनना पड़ सकता है। लेकिन, एक समीकरण है कि भाजपा अकाली दल से अलग होकर अगर चुनाव में उतर जाये तो उसकी मुश्किलें आसान हो सकती हैं। क्योंकि, पंजाब की जनता में अकालियों के प्रति अधिक गुस्सा है, अकाली दल से अलग हो जाने की स्थिति में भाजपा पर वो नरम रह सकती है। इस बात का संकेत उसने चंडीगढ़ के निकाय चुनावों अकाली दल को महज़ एक और भाजपा 20 सीटों पर विजयी बनाकर दिया भी है। स्पष्ट है कि जनता ने अपना मिज़ाज़ जाहिर कर दिया है, अब ये भाजपा पर निर्भर करता है कि वो चंडीगढ़ निकाय चुनावों में छिपे जनता के इस संकेत को कितने बेहतर ढंग से समझ पाती है। भाजपा यह निश्चित रूप से समझ ले कि पंजाब चुनाव उसके लिये किसी भी तरह आसान नहीं रहने वाले और पंजाब में उसका कल्याण होने का सिर्फ एक मार्ग है कि वो पंजाब की नाकाम अकाली सरकार का साथ छोड़े और अकेले चुनाव में उतरे। चंडीगढ़ निकाय चुनाव में उसके लिये यही जनसंकेत उभरकर आया है, इसका अनुपालन करना ही पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाव में उसकी विजय का मार्ग का प्रशस्त करेगा।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

फिर अपनी फजीहत कराने का बंदोबस्त कर रहे राहुल गाँधी [दबंग दुनिया और हरिभूमि में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
संसद का पूरा शीतकालीन सत्र नोटबंदी पर अपने फ़िज़ूल के हंगामे की भेंट चढ़ाने वाली कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने सत्र बीतते-बीतते अब एक नया बवाल खड़ा कर दिया है। गत 14 तारीख को एक प्रेसवार्ता में उन्होंने कहा कि उनके पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से जुड़ी जानकारी है, जिसे वे सार्वजनिक कर देंगे, इसलिए उन्हें संसद में बोलने नहीं दिया जा रहा। हालांकि उन्होंने ये नहीं बताया कि कौन उन्हें संसद में बोलने से रोक रहा है और कैसे ? क्या संसद में उन्हें हिदायत दी गई है कि बोलना मना है या किसी कानूनी प्रावधान के जरिये उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा ? राहुल गाँधी ने इस विषय में कुछ नहीं बताया। बताते तब न, जब बताने के लिए कुछ होता। सच्चाई तो ये है कि संसद का ये पूरा सत्र अगर बिना किसी ठोस काम-काज और चर्चा-बहस के यूँ ही बर्बाद चला गया तो इसके लिये मुख्य रूप से स्वयं राहुल गाँधी और उनकी पार्टी कांग्रेस जिम्मेदार है। सरकार ने कांग्रेस की हर संभव शर्त मानी ताकि सदन चल सके, लेकिन उसके शर्तों की फेहरिस्त दिन-प्रतिदिन लम्बी ही होती गई, जैसे कि कांग्रेस ठानकर बैठी थी कि सदन चलने नहीं देना है। पहले उसकी मांग थी कि नोटबंदी पर चर्चा हो, सरकार मान गई। फिर उसने मांग उठाई कि पीएम की मौजूदगी में चर्चा हो, पीएम भी आ गये। तब कांग्रेस ने मतदान के नियम से चर्चा कराने और पीएम के बयान की मांग खड़ी कर दी। इन मांगों को मानने के बाद संभव था कि कांग्रेस कुछ और मांग लेकर खड़ी हो जाती। सवाल ये है कि कांग्रेस आखिर किस अधिकार से पूर्ण बहुमत प्राप्त किये सत्ता पक्ष के समक्ष इस तरह की बेतुकी मांगे रख रही है, जबकि उसके पास संख्याबल का ऐसा अकाल है कि संवैधानिक रूप से विपक्ष की भूमिका तक उसे नहीं मिल सकी है। जनता द्वारा इस तरह से खारिज दल पूर्ण बहुमत प्राप्त सत्ता के समक्ष ये अतार्किक और हठी रवैया कैसे अपना रहा है, ये समझ से परे है। 
हरिभूमि

दरअसल कांग्रेस के पास संख्याबल नहीं है, जिस कारण वो लोकतान्त्रिक ढंग से सदन में सरकार को रोक नहीं सकती, इसीलिए हंगामे को अपनाकर कामकाज बाधित करने की रणनीति पर चल रही है। मगर, इसमें सदन के वक़्त और देश के पैसे का जो नुकसान हो रहा है, उसका उत्तरदायित्व क्या कांग्रेस लेगी ? राहुल गाँधी को इसका जवाब देना चाहिये था, मगर वे तो एक नया राग आलापने लगे हैं कि पीएम मोदी के भ्रष्टाचार की जानकारी उजागर कर देंगे। तिसपर ये कि उन्हें सदन में बोलने नहीं दिया जा रहा, ये तो बिलकुल ही ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली बात है।
 
दबंग दुनिया
राहुल गाँधी से एक पीढ़ी ऊपर के कांग्रेसी इतिहास में झाँके तो एक दौर था, जब वीपी सिंह राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स घोटाले के सबूत होने और सत्ता में आने पर उन्हें जेल भिजवाने की ताल ठोंका करते थे। ऐसा जताते थे कि बोफोर्स घोटाले के सबूत उनकी जेब में रखे हैं। इसी बोफोर्स घोटाले का डंका बजाकर उन्होंने सत्ता हासिल कर ली, लेकिन सत्ता मिलते ही बोफोर्स का नाम ऐसे भूले कि फिर कभी उसकी चर्चा तक न किये। कहना गलत नहीं होगा कि आज राहुल गांधी वीपी सिंह का वही दाँव पीएम मोदी के खिलाफ इस्तेमाल करने की सोच रहे हैं। लेकिन, वीपी सिंह और राहुल गांधी में बहुत अंतर है। वीपी सिंह राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री मंत्री रहे थे और अपने बगावती तेवरों के कारण बाहर हुए थे साथ ही उनके द्वारा उठाये गये बोफोर्स मामले में दम भी था। राजीव गांधी आज भी उस मामले में संदिग्ध माने जाते हैं।  इसलिए तब वीपी सिंह का दाँव चल गया था, मगर राहुल गाँधी सिर्फ कपोल-कल्पित बयान दे रहे हैं। अगर उनके पास पीएम के खिलाफ कोई आरोप और उसके पक्ष में साक्ष्य हैं, तो इतने दिन तक सदन में हंगामा करने की बजाय उन्हें सदन के सामने रखे होते। खैर! अब भी देर नहीं हुई है, वे प्रेसवार्ता करके उन साक्ष्यों को सार्वजनिक कर दें। अगर वे यह सब नहीं कर सकते तो पीएम के सम्बन्ध में ऐसे विवादास्पद और हवा-हवाई बयान देना बंद करें बल्कि यह प्रोपोगैंडा फैलाने के लिए माफ़ी मांगें।

दरअसल राहुल गाँधी सिर्फ कांग्रेस की ठप्प पड़ी गाड़ी को जबरन रफ़्तार देने के लिए ये सब नकली कहानियाँ गढ़ रहे हैं। हाल ही में उन्होंने यह भी कहा था कि बोलूँगा तो भूकंप आयेगा, जिसपर उनकी फजीहत अबतक हो रही है। ये कोई पहली बार नहीं है, इससे पहले भी उन्होंने ऐसे ही एक रैली में संघ को ‘महात्मा गाँधी का हत्यारा’ बता दिया था, जिसपर न्यायालय में उनकी बुरी तरह से फज़ीहत हुई। ऐसे ही और भी कई मामले हैं, जिनमें उन्होंने अपनी किरकिरी करवाई है और अब इस ताज़ा पीएम मोदी से सम्बंधित मामले में भी कहीं न कहीं ऐसा ही कुछ बंदोबस्त कर रहे हैं। समय रहते अगर कांग्रेस ने उन्हें नहीं संभाला तो उनका ये बेपरवाह बोलना कांग्रेस के लिए एकबार फिर भूकंप लाने का ही काम करेगा। कांग्रेस की दयनीय दशा को राहुल गांधी का ये बड़बोलापन और दयनीय बनाने वाला साबित होगा।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

एंटोनियो गेटेरेस के आने से भारत की सुरक्षा परिषद् की दावेदारी को मिलेगा बल [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
पिछले दिनों पुर्तगाल के पूर्व प्रधानमंत्री एंटोनियो गुटेरेस ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के नये महासचिव के रूप में शपथ ली उन्हें यूएन महासभा के अध्यक्ष जॉन विलियम्स द्वारा ये शपथ दिलाई गई और अब वे आगामी एक जनवरी को अपना पदभार संभाल लेंगे वे पिछले दस वर्षों से संयुक्त राष्ट्र महासचिव के रूप में कार्यरत बान की मून की जगह लेंगे ये यूएन के नौवें महासचिव बने हैं बान की मून १३ अक्टूबर, २००६ को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बने थे और तबसे अबतक वे इस पद पर हैं ये उनके पांच वर्षों का दूसरा कार्यकाल है, जो कि 31 दिसंबर को पूरा हो जायेगा बहरहाल, बान की मून के जाने और एंटोनियो के आने से ये उम्मीद जगी है कि संयुक्त राष्ट्र के ढाँचे और कार्यपद्धति में बदलाव आयेगा शपथ ग्रहण के समय दिये अपने वक्तव्य में उन्होंने इस तरह की बातों के संकेत भी दिये हैं

गुटेरेस ने अपने शपथ ग्रहण के बाद संयुक्त राष्ट्र के १९३ सदस्य देशों को संबोधित करते हुए कहा कि संयुक्त राष्ट्र संगठन बहुपक्षीयता में अहम है और इसने दशकों की सापेक्षिक शांति में योगदान दिया है, लेकिन चुनौतियां उनसे निबटने की हमारी क्षमता से आगे निकल रही हैं, ऐसे में संयुक्त राष्ट्र को बदलाव के लिए तैयार रहना चाहिए उन्होंने यह भी कहा कि संयुक्त राष्ट्र को फुर्तीला, कार्यकुशल एवं प्रभावी होने की जरूरत है उसे प्रक्रिया पर कम, सेवाओं की आपूर्ति पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, नौकरशाही पर कम और लोगों पर अधिक बल देना चाहिए गुटेरेस की इन बातों का सार तत्व यही है कि उनका प्राथमिक लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र में हर स्तर पर बदलाव लाना होगा, संभव है कि इसमें सांगठनिक बदलाव भी सम्मिलित होगा उसकी कार्यपद्धति को लचीला बनाने पर भी उनका जोर होगा
राज एक्सप्रेस

गौर करें तो गुटेरेस की तमाम बातें वही हैं, जिनको अक्सर भारत भी कहता  रहा है। भारत की तरफ से भी अक्सर यूएन सुधार सम्बन्धी इसी तरह बातें की जाती रही हैं। वर्ष २०१४ में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से इस तरह की बातें और भी मुखर रूप से कही जाने लगी हैं। उल्लेखनीय होगा कि गत वर्ष संयुक्त राष्ट्र के अपने संबोधन में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में सुधार पर जोर देते हुए कहा था, ‘सुरक्षा परिषद समेत संयुक्त राष्ट्र में सुधार अनिवार्य है ताकि इसकी विश्वसनीयता और औचित्य बना रहे सके। साथ ही, हम ऐसे विश्व का निर्माण कर सकें जहां प्रत्येक जीव मात्र सुरक्षित महसूस कर सकें, सभी को अवसर और सम्मान मिले।पीएम के इस वक्तव्य में स्पष्ट है कि भारत यूएन में सुधार पर जोर देता रहा है और अब यूएन के नये महासचिव गुटेरेस भी उसमें सुधार लाने की बात कर रहे हैं, तो ये भारत की मांग को बल देने वाला सिद्ध हो सकता है।

दरअसल यह तो समय की आवश्यकता है कि संयुक्त राष्ट्र का सांगठनिक विस्तार किया जाए और इसकी कार्यपद्धति में लचीलापन लाया जाए संयुक्त राष्ट्र का वर्तमान स्वरुप कितना संकुचित और अड़ियल है, इसका अंदाज़ा इसीसे लगाया जा सकता है कि भारत जैसे वैश्विक पटल पर मजबूती से अपनी छाप छोड़ रहे देश को यूएन की सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता नहीं मिल पा रही, जबकि परिषद् के पांच में से चार स्थायी सदस्य देश भारत की सदस्यता के पक्षधर हैं मगर, सिर्फ एक चीन इसमें बिना किसी वास्तविक वजह के बस भारत से अपनी व्यक्तिगत खुन्नस के कारण वीटो का रोड़ा लगा देता है और बात अटक जाती है इस अड़ियल व्यवस्था को लचीला किए जाने की आवश्यकता है, जिससे और देशों को भी उसमें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने का अवसर मिल सके भारत के अलावा जापान, ब्राजील, जर्मनी इत्यादि तमाम देश हैं, जो संयुक्त राष्ट्र किस स्थायी सदस्यता की अहर्ता रखते हैं, उन्हें इससे वंचित रखना संयुक्त राष्ट्र के एक वैश्विक और निष्पक्ष निकाय के रूप स्थापित अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा और संभव है कि तब ये देश उसकी अवहेलना की नीति अपनाना भी शुरू कर दें वैसे भी, सिर्फ पांच देश मिलकर दुनिया की सुरक्षात्मक नीतियाँ निर्धारित कैसे कर सकते हैं अतः अगर संयुक्त राष्ट्र को अपनी प्रासंगिकता और महत्व को बरकरार रखना है तो सभी योग्य राष्ट्रों को उसमें समान रूप से भागीदारी मिलनी ही चाहिए  

बान की मून काफी लम्बे समय तक यूएन के महासचिव रहे, लेकिन इन सब बिन्दुओं पर वे या तो सिर्फ शिकायतें सुनते रहे या कोरा आश्वासन देते रहे कदम उठाने में उन्होंने कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई अब एंटोनियो गुटेरेस द्वारा सुधार की बात करने के बाद उम्मीद तो जगी है कि इन बिन्दुओं पर कुछ बात बढ़ेगी, लेकिन जबतक वे कुछ ठोस कदम उठाएं तबतक कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी देखना होगा कि वे यूएन में सुधार सम्बन्धी अपनी बातों पर किस तरह से बढ़ते हैं और क्या कदम उठाते हैं हालांकि भारत जैसे देशों को उनके पदभार सँभालने के बाद यूएन में सुधार की अपनी मांग को और पूरजोर ढंग से उठाकर उनपर दबाव बनाए रखना चाहिए