रविवार, 28 मई 2017

पुस्तक समीक्षा : दिल के जज्बातों के टूटे-फूटे दस्तावेज़ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
दिमाग की दलीलों को दरकिनार कर अगर केवल दिल की सुनते हुए कहानी लिखी जाए तो वो कैसी होगी, इसीकी बानगी हैं ज्योति जैन के कहानी संग्रह ‘इबादत को इज़ाज़त है’ की कहानियां। इस संग्रह में कहने को तो कुल मिलाकर सोलह कहानियां हैं, मगर उनमें से कई कहानियां ऐसी हैं, जिन्हें कहानी कहने में शायद कहानी के मूलभूत तत्वों की अवमानना हो जाए। सीधे शब्दों में कहें तो लेखिका के दिल में जो उद्गार आए हैं, उसे उन्होंने बिना अतिरिक्त सोच-विचार के कागज़ पर उतार दिया है। कुछ एक कहानियों में कथानक की मौजूदगी रही है, तो कुछ ऐसी भी हैं जिनमें कथानक गौण रहा है। 
 
दैनिक जागरण
फ्रेंड्स फॉरएवर, रॉंग नंबर, बिना आई लव यू का प्यार, एसिड मेरा प्यार जैसी कुछ कहानियों में लेखिका ने प्रकट रूप से एक कच्चा-पका कथानक गढ़ा है; वहीँ इश्क महल, अधूरी, मौत का महापर्व, मुझे बचा लो आदि कहानियों में कथानक गौण रूप से मौजूद रहा है। अपनी कहानियों के चरित्रों को गढ़ने में लेखिका पूरी तरह से आदर्शवादी रही हैं। इन कहानियों के पात्र एकदम दिल से सोचते हैं। दोस्ती, प्यार, सच्चाई, ईमानदारी जैसी चीजों को निभाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार दिखते हैं। आधुनिक जीवन-मूल्यों के अनुसार इन कहानियों काफी कुछ असंभव और विचित्र सा लगता है, लेकिन जब हम इन कहानियों का मूल्यांकन दिल से सोचते हुए करते हैं, तो वो विचित्रता सामान्य प्रतीत होने लगती है। 

अब अगर बात गौण कथानक वाली कहानियों की करें तो ये कहानियां प्रभावोत्पादक हो सकती थीं, बशर्ते कि इनपर लेखिका ने थोड़ी और गंभीरता दिखाई होती। इन्हें थोड़ा और विस्तार दिया होता तथा सिर्फ किसी एक चरित्र के एकालाप तक सीमित रखने की बजाय कुछ और पात्रों के भी अंतर्द्वंद्वों को उकेरने का प्रयास किया होता। संग्रह की एक कहानी ‘डायरी के हर्फ़’ अपने प्रस्तुतिकरण की शैली से प्रभावित करती है। यह कहानी पूरी तरह से डायरी की शैली में लिखी गयी है। लेकिन, आखिर ये भी चरित्रों और कथानक का समुचित विस्तार न होने की समस्या से ग्रस्त दिखाई देती है। फिर भी इसे इस संग्रह की सबसे बेहतर कहानी कहा जा सकता है।

कुल मिलाकर लेखिका ने कहानियां दिल से लिखी हैं, जिस कारण उनमें काफी कुछ अटपटा और विचित्र-सा आ गया है, मगर बावजूद इसके ये प्रभाव छोड़ सकती थीं अगर इनके कथानक पर थोड़ी और गंभीरता, धैर्य और सजगता से काम किया गया होता। फिलहाल ये दिल के जज्बातों के टूटे-फूटे दस्तावेज़ बनकर रह गयी हैं, इन्हें कोई ठोस आकार नहीं मिल सका है। हालांकि शैली और भाषा के मामले में ये कहानियां अवश्य प्रभावित करती हैं।

गुरुवार, 18 मई 2017

अलगाववादियों के प्रति कठोरता का परिचय दे सरकार [राज एक्सप्रेस और दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत
जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेताओं की पाकिस्तान परस्ती की बातें तो आम-ख़ास चर्चाओं में अक्सर होती रहती हैं और देश की बहुसंख्य आबादी ऐसा मानती भी है, मगर अभी हाल ही में एक मीडिया चैनल द्वारा अपने स्टिंग के जरिये इन अलगाववादी नेताओं के पाकिस्तान से संबंधों की जो तस्वीर प्रस्तुत की गयी है, वो चौंकाती कम डराती ज्यादा है। इंडिया टुडे द्वारा किए गए इस स्टिंग में हुर्रियत कांफ्रेंस के एक अलगाववादी नेता को यह कहते हुए देखा और सुना जा सकता है कि उन्हें कश्मीर में अशांति फैलाने के लिए पाकिस्तान से हवाला के जरिये पैसे भेजे जाते हैं। यह अलगाववादी नेता यह भी स्वीकारता नज़र आ रहा है कि वे पत्थरबाजी से लेकर आगजनी तक तमाम तरीकों के द्वारा कश्मीर में अशांति फैलाते हैं। सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि कश्मीर में कोई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा नहीं होने के कारण इन अलगाववादियों के लिए पाकिस्तान से पैसा पहले दिल्ली आता है, फिर वहाँ से कश्मीर में पहुँचता है। ये स्टिंग उजागर करता है कि इस देश का खा-पीकर यहाँ बसे हुए ये अलगाववादी इस देश को ही नुकसान पहुँचाने के लिए किस हद तक बदनीयती के साथ लगे हुए हैं। हालांकि देश की बहुसंख्य आबादी के लिए अलगाववादियों की इस बदनीयती में शायद ही कुछ नया हो, मगर उनके कश्मीरी समर्थक भी अगर उनके असली चेहरे को पहचान लें तभी कुछ बात बनेगी। 

राज एक्सप्रेस
बहरहाल, यहाँ कुछ सवाल सरकार और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसियों पर भी उठते हैं, जिनके जवाब उन्हें देने चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यह कि पाकिस्तान से चलकर देश की राजधानी दिल्ली से होते हुए कश्मीर में अशांति फैलाने के लिए अलगाववादियों के पास पैसा पहुँच जाता है और देश की खुफिया एजेंसियों के कानों पर जू तक नहीं रेंगती। कैसा तंत्र है ? और कैसी खुफिया तैयारी है हमारी ? ये कहना मुश्किल है कि यह ख़ुफ़िया एजेंसियों की कमजोरी है या लापरवाही, मगर जो भी है, देश की सुरक्षा के सम्बन्ध में चिंतित करने वाली बात है। ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस सम्बन्ध में सतर्क और सचेत होने की आवश्यकता है। सरकार की बात करें तो अभी कुछ ही दिन पहले केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में यह बयान दिया था कि कश्मीरी पत्थरबाजों को पाकिस्तान से सहायता मिल रही है। स्पष्ट है कि उन्हें ऐसे किसी नेटवर्क की जानकारी रही होगी। फिर केवल बयान देकर ही उन्होंने अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली क्या ? अगर नहीं, तो इस नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए किसी प्रकार की कार्यवाही क्यों नहीं नज़र आई ? अगर कार्यवाही हुई होती तो क्या आज कश्मीर में पत्थरबाजी की समस्या बढ़ी होती ? क्या आज अलगाववादी नेता स्टिंग में पाकिस्तान से दिल्ली वाया कश्मीर जैसे किसी नेटवर्क का खुलासा करता ? क्या कश्मीर के हालात इतने अशान्तिपूर्ण होते ? शायद नहीं। मगर, इस नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए जिस स्तर की गंभीरता से कार्यवाही की जानी चाहिए थी, शायद नहीं की गयी।
दैनिक जागरण

जम्मू-कश्मीर के उप-मुख्यमंत्री निर्मल सिंह से जब इस स्टिंग के सम्बन्ध में बात की गयी तो उन्होंने कहा कि इसमें कुछ नया नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान आज़ादी के बाद से ही देश में अशांति फैलाने के लिए इस तरह की गतिविधियाँ अपनाता रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि पहले भी इस तरह के मामलों में दोषियों पर कार्यवाही हुई है और अब भी होगी। यहाँ सवाल देश की अबतक की सभी सरकारों पर उठता है कि जब यह जब-तब सामने आए मामलों के द्वारा स्पष्ट हो चुका है कि कश्मीर के अलगाववादी गुट पाकिस्तान के समर्थक और भारत विरोधी हैं, तो अबतक हम उन्हें क्यों ढोते आ रहे हैं ? उनके संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाकर उनपर कठोरतापूर्वक कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की गयी ? उन्हें एक राजनीतिक दल और नेताओं की तरह क्यों माना जाता है ?

कितनी बड़ी विडम्बना है कि हम पाकिस्तान से अपेक्षा करते हैं कि वह अपने देश में जमात-उद-दावा, अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों को प्रतिबंधित करे, वहीं दूसरी तरफ हम अपने देश में इन अलगाववादी संगठनों जो देशविरोधी कृत्यों में किसी आतंकी संगठन से कत्तई कम नहीं हैं, को पालने में लगे हैं। अलगाववादियों को प्रश्रय देने के लिए निस्संदेह देश में सर्वाधिक समय तक केंद्र की सत्ता में रहने वाली कांग्रेस सरकारों की कश्मीर के सम्बन्ध में तुष्टिकरण की राजनीति से प्रेरित नीतियाँ ही काफी हद तक जिम्मेदार रही हैं। कश्मीर समस्या को पैदा करने में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं नेहरू का जितना योगदान है, उनकी परवर्ती कांग्रेस सरकारों का उतना ही योगदान इस समस्या को जटिल से जटिलतम बनाने में है।

बहरहाल, पिछली सरकारों ने जो किया सो किया, वर्तमान सरकार को तो इन अलगाववादी संगठनों के फन को स्थायी रूप से कुचलने के लिए कदम उठाने में नहीं हिचकना चाहिए। ये अलगाववादी संगठन आतंकी संगठनों से अधिक खतरनाक हैं क्योंकि ये देश के छिपे हुए दुश्मन हैं। ये बात इंडिया टुडे के हालिया स्टिंग में सामने आयी है और पहले भी इनकी गतिविधियों के ज़रिये सामने आती ही रही है। अतः केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार से अपेक्षित है कि वो नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मामलों में जैसी दृढ इच्छाशक्ति का परिचय दे चुकी है, वैसी ही इच्छाशक्ति का एकबार फिर परिचय देते हुए इन अलगाववादी संगठनों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाए तथा इनपर यथासंभव कठोर कार्यवाही करे। साथ ही, ज़रूरत देश के ख़ुफ़िया तंत्र को और सजग करने की भी है, जिससे कि देश में पाकिस्तानी पैसे, हथियारों आदि का जो नेटवर्क चलने की बात सामने आती रहती है, उसका पता लगाकर उस नेटवर्क को समूल ध्वस्त किया जा सके। ये कदम न केवल कश्मीर के हालात सुधारने के मद्देनज़र आवश्यक हैं, बल्कि देश के समक्ष देश की सरकारों की कश्मीर नीति को लेकर जो एक भ्रमपूर्ण स्थिति बनी रही है, उसका निराकरण करने की दृष्टि से भी इनकी अत्यंत आवश्यकता है।

शनिवार, 6 मई 2017

बस्तर के प्रति आकर्षण जगाती पुस्तक [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
राजीव रंजन प्रसाद की पुस्तक बस्तर : पर्यटन और संभावनाएं बस्तर के प्रति आकर्षण के नये द्वार खोलती है। इसमें लेखक ने अपने यात्रा-वृत्तांतों, संस्मरणों और कुछेक निबंधों का संकलन किया है, परन्तु सबका मूल स्वर बस्तर की बनावट और बसावट में निहित सौन्दर्य  एवं आकर्षण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना है। इस पुस्तक में बस्तर के पर्यटन स्थलों से लेकर वहाँ सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं एवं लोकजीवन तक को अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें बस्तर की नदियों, झरनों, अभयारण्यों, गुफाओं समेत बस्तर वासियों की परम्पराओं रीति-रिवाजों आदि बातों पर पूरे विस्तार और गहराई से प्रकाश डाला गया है। चूंकि, लेखक मूलतः बस्तर के निवासी हैं साथ ही उन्होंने इन जगहों पर जाकर चीजों को देख और समझकर लिखा है, इसलिए इन बातों के वर्णन में कहीं कृत्रिमता के दर्शन नहीं होते। पूरा वर्णन एकदम जीवंत प्रतीत होता है।

पुस्तक का आरम्भ लेखक बस्तर के परिचय के साथ करते हैं, जिसमें बस्तर के नामकरण के कारणों पर विचार किया गया है। पौराणिक कथाओं के दण्डकारण्य से होते हुए राजतंत्रीय इतिहास के कान्तार, महाकान्तार के ब्रिटिश शासन में बस्तर के रूप में प्रसिद्ध होने के सम्बन्ध में लेखक अनेक जनश्रुतियों का उल्लेख करते हैं। इसके पश्चात् बस्तर की नदियों का वर्णन शुरू होता है, जिसमें महानदी, गोदावरी, इन्द्रावती, शबरी और तालपियर जैसी नदियों के ऐतिहासिक महत्व, भौगोलिक संरचना तथा उनसे प्रभावित होने वाले जन-जीवन की चर्चा करते हुए लेखक आगे बढ़ते हैं। झरनों के वर्णन में लेखक का भाषा-कौशल एकदम उभरकर सामने आया है। बस्तर के विश्वप्रसिद्ध झरने चित्रकोट का चित्रण करते हुए राजीव लिखते हैं, मैदान से बहकर आती इन्द्रावती नदी अचानक जहाँ निर्झर हो जाती है, वहीं एक मनोरम इन्द्रधनुष दृश्य की मोहकता को इस तरह बढ़ाता है कि देखने वाला बस मंत्रमुग्ध होकर रह जाए। पत्थर जितने कठोर होते हैं, उतने ही मोम भी; ये बात चित्रकोट में आके समझी जा सकती है। इस प्रोक्ति में हम देख सकते हैं कि भाषा केवल प्राकृतिक सुषमा को वर्णित करने वाली काव्यात्मकता से परिपूर्ण है, बल्कि इसमें पाठक के समक्ष दृश्य को साकार कर देने की सामर्थ्य भी निहित है। चित्रकोट के अलावा बस्तर के दक्षिण, उत्तर और पश्चिम में स्थित अन्य झरनों का विशद वर्णन देखने को मिलता है।

दैनिक जागरण
बस्तर की प्राकृतिक गुफाओं का वर्णन तो पाठक को एक अलग रहस्यलोक में ले जाने वाला है। धरती के सैकड़ों फीट अंदर तक जाती गुफाएं व्यक्ति को पाताललोक-सा अनुभव कराने के लिए पर्याप्त हैं। पुस्तक में संकलित कोटुमसर की गुफा के अपने यात्रा-वृत्तान्त में राजीव ने जिस भाषा-शैली में उसकी रहस्यात्मकता और रोमांच को उकेरा है, वो पाठक को भी एक सीमा तक गुफा की यात्रा का अनुभव करा देती है। राम और कृष्ण की कथाओं से सम्बंधित शकलनारायण गुफा का भी अत्यंत मनोरम और रोचक वर्णन किया गया है। इसके अलावा कैलाश, तुलार, अरण्यक आदि और भी अनेक गुफाओं के छोटे-बड़े यात्रा-वर्णन लेखक ने किए हैं। इस पूरे वर्णन में लेखक की प्रस्तुति तो रोचक रही ही है, इन प्राकृतिक गुफाओं के स्वनिर्मित होने की प्रक्रिया का सरल वैज्ञानिक विश्लेषण करने में भी लेखक को सफलता मिली है। इसके अलावा अभयारण्यों, राष्ट्रीय उद्यानों आदि का भी वर्णन किया गया है।
 
बस्तरवासी आदिम समाज की जीवन-शैली पर चर्चा करते हुए लेखक ने उनके रहन-सहन, खान-पान, पहनाव-पोशाक का विश्लेष्णात्मक वर्णन किया है। यह वर्णन निबंधात्मक शैली में किया गया है, किन्तु इसे भी यथासंभव सजीव रखने का प्रयत्न दृष्टिगत होता है। बस्तर के आदिम समाज की लोक-कलाओं पर भी प्रकाश डालने का प्रयास लेखक ने किया है। गुदना, बांस कला, काष्ठ कला, भित्तिचित्र इत्यादि बस्तरिया आदिम समाज की अनेक लोक-कलाओं का विशद वर्णन किया गया है। इनमें लेखक ने केवल इन कलाओं के विषय में बताया है, बल्कि आदिवासी समाज में इनका किस-किस प्रकार से महत्व है इस पर भी प्रकाश डाला है। आदिवासी समाज में गुदना कला के महत्व और आवश्यकता पर विचार करते हुए राजीव लिखते हैं, गुदना को कला इसलिए कह रहा हूँ, चूंकि आदिवासी जीवन की अपनी मौलिकता और कल्पनाशीलता इसमें झांकती है। बस्तर में तीस से अधिक जनजातियाँ अवस्थित हैं; गुदना हर किसीकी परम्परा का हिस्सा है और उनकी एकता का साथी भी; साथ ही साथ उन्हें एकदूसरे से भिन्न पहचान प्रदान करने में भी यही गोदने सहायक होते हैं।इस प्रकार के वर्णनों में प्रायः वर्णनात्मक और यथास्थान विश्लेषणात्मक शैली अपनायी गयी है, जो कि इस प्रस्तुत अंश में देखी भी जा सकती है।

भाषा की बात करें तो वो अधिकांशतः सीधी-सरल हिंदी रही है, किन्तु यथास्थान आवश्यकतानुसार उसमें काव्यात्मकता का गुण भी परिलक्षित होता है। यथा; जब किसी स्थान-विशेष की प्राक्रतिक सुषमा का वर्णन हो, तो लेखक की भाषा में गंभीरता से इतर एक मनोरम काव्यात्मकता उभर आती है। शब्दों में प्रायः हिंदी के ही तत्सम और तद्भव शब्दों का आधिक्य है; हालांकि उर्दू, फ़ारसी के शब्दों से भी कोई परहेज नहीं है। अंग्रेजी के केवल उन्हीं शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनके पर्यायवाची हिंदी में नहीं हैं। कुल मिलाकर भाषा इस सीमा तक सरल है कि एक सामान्य रूप से अध्ययनशील व्यक्ति भी इसे बड़ी सहजता से समझ सकता है।
 
दरअसल बस्तर को लेकर देश के आम जनमानस के भीतर नक्सलियों के गढ़ जैसा एक भाव लम्बे समय से रहा है और अब भी काफी हद तक बना हुआ है। लोगों की अवधारणा रही है कि बस्तर में नक्सलवाद और जंगल-झाड़ के अलावा कुछ और नहीं है। ये पुस्तक इस प्रकार की सभी मिथकीय अवधारणाओं को केवल ध्वस्त करती है, बल्कि बस्तर में छुपी पर्यटन की संभावनाओं और आकर्षण को भी उद्घाटित करती है। सबसे अच्छी बात ये है कि इस पुस्तक में शोध और अध्ययन से अधिक बस्तरिया लेखक का अनुभव बोला है, जिस कारण यह एक सच्ची और महत्वपूर्ण कृति बन गयी है।