राजीव रंजन प्रसाद की पुस्तक ‘बस्तर : पर्यटन और संभावनाएं’ बस्तर के प्रति आकर्षण के नये द्वार खोलती है। इसमें लेखक ने अपने यात्रा-वृत्तांतों, संस्मरणों और कुछेक निबंधों का संकलन किया है, परन्तु सबका मूल स्वर बस्तर की बनावट और बसावट में निहित सौन्दर्य एवं आकर्षण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत
करना है। इस पुस्तक में बस्तर के पर्यटन स्थलों से लेकर वहाँ सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं एवं लोकजीवन तक को अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें बस्तर की नदियों, झरनों, अभयारण्यों, गुफाओं समेत बस्तर वासियों की परम्पराओं व रीति-रिवाजों आदि बातों पर पूरे विस्तार और गहराई से प्रकाश डाला गया है। चूंकि, लेखक मूलतः बस्तर के निवासी हैं साथ ही उन्होंने इन जगहों पर जाकर चीजों को देख और समझकर लिखा है, इसलिए इन बातों के वर्णन में कहीं कृत्रिमता के दर्शन नहीं होते। पूरा वर्णन एकदम जीवंत प्रतीत होता है।
पुस्तक का आरम्भ लेखक बस्तर के परिचय के साथ करते हैं, जिसमें ‘बस्तर’ के नामकरण के कारणों पर विचार किया गया है। पौराणिक कथाओं के दण्डकारण्य से होते हुए राजतंत्रीय इतिहास के कान्तार, महाकान्तार के ब्रिटिश शासन में बस्तर के रूप में प्रसिद्ध होने के सम्बन्ध में लेखक अनेक जनश्रुतियों का उल्लेख करते हैं। इसके पश्चात् बस्तर की नदियों का वर्णन शुरू होता है, जिसमें महानदी, गोदावरी, इन्द्रावती, शबरी और तालपियर जैसी नदियों के ऐतिहासिक महत्व, भौगोलिक संरचना तथा उनसे प्रभावित होने वाले जन-जीवन की चर्चा करते हुए लेखक आगे बढ़ते हैं। झरनों के वर्णन में लेखक का भाषा-कौशल एकदम उभरकर सामने आया है। बस्तर के विश्वप्रसिद्ध झरने चित्रकोट का चित्रण करते हुए राजीव लिखते हैं, ‘मैदान से बहकर आती इन्द्रावती नदी अचानक जहाँ निर्झर हो जाती है, वहीं एक मनोरम इन्द्रधनुष दृश्य की मोहकता को इस तरह बढ़ाता है कि देखने वाला बस मंत्रमुग्ध होकर रह जाए। पत्थर जितने कठोर होते हैं, उतने ही मोम भी; ये बात चित्रकोट में आके समझी जा सकती है।’ इस प्रोक्ति में हम देख सकते हैं कि भाषा न केवल प्राकृतिक सुषमा को वर्णित करने वाली काव्यात्मकता से परिपूर्ण है, बल्कि इसमें पाठक के समक्ष दृश्य को साकार कर देने की सामर्थ्य भी निहित है। चित्रकोट के अलावा बस्तर के दक्षिण, उत्तर और पश्चिम में स्थित अन्य झरनों का विशद वर्णन देखने को मिलता है।
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दैनिक जागरण |
बस्तर की प्राकृतिक गुफाओं का वर्णन तो पाठक को एक अलग रहस्यलोक में ले जाने वाला है। धरती के सैकड़ों फीट अंदर तक जाती गुफाएं व्यक्ति को पाताललोक-सा अनुभव कराने के लिए पर्याप्त हैं। पुस्तक में संकलित कोटुमसर की गुफा के अपने यात्रा-वृत्तान्त में राजीव ने जिस भाषा-शैली में उसकी रहस्यात्मकता और रोमांच को उकेरा है, वो पाठक को भी एक सीमा तक गुफा की यात्रा का अनुभव करा देती है। राम और कृष्ण की कथाओं से सम्बंधित शकलनारायण गुफा का भी अत्यंत मनोरम और रोचक वर्णन किया गया है। इसके अलावा कैलाश, तुलार, अरण्यक आदि और भी अनेक गुफाओं के छोटे-बड़े यात्रा-वर्णन लेखक ने किए हैं। इस पूरे वर्णन में लेखक की प्रस्तुति तो रोचक रही ही है, इन प्राकृतिक गुफाओं के स्वनिर्मित होने की प्रक्रिया का सरल वैज्ञानिक विश्लेषण करने में भी लेखक को सफलता मिली है। इसके अलावा अभयारण्यों, राष्ट्रीय उद्यानों आदि का भी वर्णन किया गया है।
बस्तरवासी आदिम समाज की जीवन-शैली पर चर्चा करते हुए लेखक ने उनके रहन-सहन, खान-पान, पहनाव-पोशाक का विश्लेष्णात्मक वर्णन किया है। यह वर्णन निबंधात्मक शैली में किया गया है, किन्तु इसे भी यथासंभव सजीव रखने का प्रयत्न दृष्टिगत होता है। बस्तर के आदिम समाज की लोक-कलाओं पर भी प्रकाश डालने का प्रयास लेखक ने किया है। गुदना, बांस कला, काष्ठ कला, भित्तिचित्र इत्यादि बस्तरिया आदिम समाज की अनेक लोक-कलाओं का विशद वर्णन किया गया है। इनमें लेखक ने न केवल इन कलाओं के विषय में बताया है, बल्कि आदिवासी समाज में इनका किस-किस प्रकार से महत्व है इस पर भी प्रकाश डाला है। आदिवासी समाज में गुदना कला के महत्व और आवश्यकता पर विचार करते हुए राजीव लिखते हैं, ‘गुदना को कला इसलिए कह रहा हूँ, चूंकि आदिवासी जीवन की अपनी मौलिकता और कल्पनाशीलता इसमें झांकती है। बस्तर में तीस से अधिक जनजातियाँ अवस्थित हैं; गुदना हर किसीकी परम्परा का हिस्सा है और उनकी एकता का साथी भी; साथ ही साथ उन्हें एकदूसरे से भिन्न पहचान प्रदान करने में भी यही गोदने सहायक होते हैं।’ इस प्रकार के वर्णनों में प्रायः वर्णनात्मक और यथास्थान विश्लेषणात्मक शैली अपनायी गयी है, जो कि इस प्रस्तुत अंश में देखी भी जा सकती है।
भाषा की बात करें तो वो अधिकांशतः सीधी-सरल हिंदी रही है, किन्तु यथास्थान आवश्यकतानुसार उसमें काव्यात्मकता का गुण भी परिलक्षित होता है। यथा; जब किसी स्थान-विशेष की प्राक्रतिक सुषमा का वर्णन हो, तो लेखक की भाषा में गंभीरता से इतर एक मनोरम काव्यात्मकता उभर आती है। शब्दों में प्रायः हिंदी के ही तत्सम और तद्भव शब्दों का आधिक्य है; हालांकि उर्दू, फ़ारसी के शब्दों से भी कोई परहेज नहीं है। अंग्रेजी के केवल उन्हीं शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनके पर्यायवाची हिंदी में नहीं हैं। कुल मिलाकर भाषा इस सीमा तक सरल है कि एक सामान्य रूप से अध्ययनशील व्यक्ति भी इसे बड़ी सहजता से समझ सकता है।
दरअसल बस्तर को लेकर देश के आम जनमानस के भीतर नक्सलियों के गढ़ जैसा एक भाव लम्बे समय से रहा है और अब भी काफी हद तक बना हुआ है। लोगों की अवधारणा रही है कि बस्तर में नक्सलवाद और जंगल-झाड़ के अलावा कुछ और नहीं है। ये पुस्तक इस प्रकार की सभी मिथकीय अवधारणाओं को न केवल ध्वस्त करती है, बल्कि बस्तर में छुपी पर्यटन की संभावनाओं और आकर्षण को भी उद्घाटित करती है। सबसे अच्छी बात ये है कि इस पुस्तक में शोध और अध्ययन से अधिक बस्तरिया लेखक का अनुभव बोला है, जिस कारण यह एक सच्ची और महत्वपूर्ण कृति बन गयी है।