मंगलवार, 29 नवंबर 2016

बाजवा के आने से भारत-पाक संबंधों में बदलाव की उम्मीद बेमानी [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
पाकिस्तान के सेना प्रमुख राहील शरीफ का कार्यकाल समाप्त हो रहा और अब उनकी जगह नये सेना प्रमुख के रूप में कमर जावेद बाजवा की नियुक्ति हुई है। नये सेनाध्यक्ष के आने के बाद पाकिस्तानी सेना का भारत को लेकर क्या रुख होगा, ये अभी देश के सुरक्षा विशेषज्ञों और रणनीतिज्ञों के लिए चर्चा का विषय है। मीडिया द्वारा भी इस विषय में तमाम कयास लगाए जा रहे हैं। इस विषय में जहां एक मत यह है कि बाजवा का रुख भारत के प्रति मित्रवत होगा तो एक दूसरा पक्ष यह भी है कि बाजवा भी भारत के प्रति पाक सेना के पुराने रुख का निर्वहन करेंगे। वैसे, अगर विचार करें तो यही आशंका प्रबल दिखती है कि बाजवा भी भारत के प्रति पाकिस्तानी सेना के पूर्व प्रमुख राहील शरीफ के रुख का ही अनुसरण करेंगे। उनसे ऐसी कोई उम्मीद करना कि वे भारत-पाक संबंधों में मधुरता के लिए सैन्य स्तर पर प्रयास करेंगे, पूरी तरह से बेमानी है।
 
राज एक्सप्रेस
बाजवा को पीओके और नियंत्रण रेखा से सम्बंधित मामलों की रणनीति में माहिर माना जाता है। वे पाकिस्तानी सेना की उस कॉर्प-10 टुकड़ी के प्रमुख रहे हैं, जो नियंत्रण रेखा और पाक के कब्जे वाले कश्मीर में सक्रिय रहती है। इसके अलावा वे बलूच रेजिमेंट से भी हैं। उन्हें राहील शरीफ द्वारा सुझाए गए चार नामों में से चुना गया है। पाकिस्तानी मीडिया के रिपोर्ट्स और एक्सपर्ट्स का मानना है कि बाजवा को चार सीनियर जनरलों के मुकाबले तवज्जो दिए जाने की वजह है कि वे लो-प्रोफाइल और लोकतंत्र समर्थक विचारों के हिमायती हैं। पाकिस्तान के प्रमुख अखबार 'द न्यूज' ने कहा, 'जनरल बाजवा का प्रोफाइल स्पष्ट तौर पर बताता है कि उनका लोकतंत्र समर्थक होना ही सेना प्रमुख के तौर पर उन्हें कमान सौंपे जाने की सबसे बड़ी वजह है।' पाकिस्तानी मीडिया के ही अनुसार, बाजवा के लिए सबसे बड़ी चुनौती प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की रणनीति को माना जा रहा है। वे नियंत्रण रेखा से जुड़े मसलों को बेहतरीन ढंग से समझते हैं और इसका उन्हें अनुभव भी रहा है, इस नाते आज जब सीमा पर भारत-पाक के बीच सम्बन्ध काफी हद तक असामान्य हैं, तो ऐसे में कहीं न कहीं बाजवा के अनुभव का लाभ लेते हुए पाकिस्तान स्वयं को मजबूत दिखाना चाहता है। बाजवा की नियुक्ति के पीछे भारत को लेकर पाकिस्तान की यही मंशाएं हैं, इस नाते उनके आने से भारत-पाक संबंधों के सुधरने की जो उम्मीद लगाईं जा रही है, उसका कोई अर्थ नहीं।
 
दरअसल बाजवा को लेकर भारतीय खेमे की उम्मीद का एक मुख्य कारण यह है कि वे आतंकवाद के खात्मे को लेकर बोलते रहे हैं। लेकिन, इसका ये अर्थ नहीं कि अब वो भारत के खिलाफ पाकिस्तानी नीतियों को बादल देंगे। बाजवा एक सैनिक हैं और किसी भी सैनिक के लिए उसका राष्ट्र, राष्ट्र की नीतियाँ और हित ही प्रमुख होते हैं। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि बाजवा भी भारत के प्रति वही रखेंगे, जो पाकिस्तानी सेना की रही है। 
 
बाजवा भारतीय सेना के पूर्व अध्यक्ष विक्रम सिंह के अधीन काम कर चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक अभियान के तहत २००७ में दोनों की पोस्टिंग कांगों में हुई थी, जहां बाजवा को विक्रम सिंह के अधीन काम करना था। इस दौरान के अनुभवों को साझा करते हुए विक्रम सिंह के बताया है कि बाजवा एक बेहतरीन सैनिक हैं, लेकिन अब उनके प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है, क्योंकि अभी वो अपने देश में हैं और इसलिए वहाँ की परिस्थितियों के हिसाब से ही काम करेंगे। विक्रम सिंह की यह बात ही वस्तु स्थिति की वास्तविकता है।
 
बहरहाल, बाजवा चाहें जो रुख रखें लेकिन फिलहाल वास्तविकता यही है कि प्रधानमंत्री मोदी की सूझबूझ भरी कूटनीतियों और साथ में भारतीय सेना की करारी मार से पाकिस्तान की हालत इस वक़्त सीमा से लेकर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक हर तरह से एकदम खस्ताहाल हो रही है। इन स्थितियों में बाजवा बहुत कुछ नहीं कर सकते। अतः भारत के लिहाज से यही सही होगा कि वो न तो उनसे कोई बहुत उम्मीद ही रखे और न ही उनके प्रति बहुत अधिक सशंकित ही रहे। वे भारत के लिए न तो ख़ुशी की वजह हैं और न ही गम की। भारत पाकिस्तान के प्रति जिस नीति पर चल रहा है, उसे उसीपर चलते रहना चाहिए।

सोमवार, 21 नवंबर 2016

वामपंथियों ने की हिंदी कविता की दुर्दशा [पांचजन्य में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक अपनी विकास-यात्रा की सहस्त्राब्दी पूरी कर चुकी हिंदी कविता के भाव, भाषा और शिल्प में भिन्न-भिन्न कालखंडों की परिस्थितियों के अनुसार अनेक परिवर्तन आए हैं। इनमे से सर्वाधिक परिवर्तनों का साक्षी आधुनिक काल ही रहा है। आधुनिक काल में हिंदी कविता में परिवर्तनों के यूँ तो अनगिनत पड़ाव हैं, परन्तु मुख्यतः भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावादी युग, छायावादोत्तर युग, प्रगतिवादी युग , प्रयोगवादी युग  और नई कविता, ये सात पड़ाव ही महत्वपूर्ण रहे हैं। इन युगों में हुए परिवर्तनों से होते हुए हमारी कविता ने आजतक की अपनी यात्रा पूरी की है। लेकिन, वर्तमान हिंदी कविता की जो भी वर्तमान रूप-रेखा है, उसके निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका आधुनिक काल के वामपंथी विचारधारा से प्रभावित प्रगतिवादी युग और उत्तर-प्रगतिवादी युगों की रही है। प्रगतिवादी और प्रयोगवादी कविता के ही सम्मिश्रित और विकसित रूप का निर्वहन नई कविता ने किया। इसके बाद हुए अकविता, युयुत्सावादी कविता, बीट कविता, विचार कविता आदि अनेक तथाकथित काव्यान्दोलनों का हिंदी कविता पर अलग ही प्रभाव पड़ा। इन सब युगों से प्रभावित होते हुए बढ़ी हिंदी कविता आज कहाँ पहुंची है और उसकी दशा-दिशा कैसी है, ये देखने पर अत्यंत निराशा होती है। हम देखते हैं कि हिंदी कविता की मुख्यधारा के वामपंथी विचारधारा से प्रेरित वर्तमान कर्णधारों ने कैसे इसकी छंद, लय, तुक, बिम्ब, अलंकार जैसी कसौटियों जो इसे सहज रूप से संप्रेषणीय बनाती हैं, को मुख्यधारा के काव्य से बाहर कर इसे इस कदर कमजोर और हल्का कर दिया है कि अब इसमे से साधना का वो तत्व जो कभी इसका प्राण हुआ करता था, विलुप्तप्राय हो गया है।
काव्य-कसौटियों का ये क्षरण एकदिन में नहीं हुआ है, बल्कि इसकी शुरुआत प्रगतिवादी युग से ही हो गई थी। प्रगतिवादी युग में हिंदी कविता को छायावाद के कल्पनालोकों से हकीकत की जमीन पर लाकर सामाजिक यथार्थ से जोड़ने के नाम पर वामपंथी रचनाकारों द्वारा जिस तरह से इसकी शिल्पगत कसौटियों को एक-एक कर भंग करने की कु-परम्परा का सूत्रपात किया गया, उसीने हिंदी कविता की वर्तमान दुर्दशा की पृष्ठभूमि का निर्माण किया। इसके बाद तो प्रयोगों के नाम पर हिंदी काव्य-विधानों के चीर-फाड़ का ऐसा दौर चला जो हिंदी कविता को शिल्प और भावों की सुन्दरता से एकदम हीन करता गया। प्रश्न यह है कि जिस युगीन सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए प्रगतिवादी यानी वामपंथी कवियों ने हिंदी कविता की पारंपरिक शिल्पगत कसौटियों का निरंकुश विनाश किया, उसकी अभिव्यक्ति क्या शिल्पगत मर्यादाओं में रहते हुए संभव नहीं थी ? बिलकुल संभव थी, बल्कि प्रगतिवादी कविता के लगभग समान्तर ही ऐसी कविता हो भी रही थी, जिसे छायावादोत्तर कविता से परिभाषित किया जाता है। राष्ट्रकवि दिनकर से लेकर सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंश राय बच्चन और भगवती चरण वर्मा तक हिंदी साहित्य के अनेक महान हस्ताक्षर इसी छायावादोत्तर युग की थाती हैं। ऐसा भी नहीं है कि इन कवियों ने प्रयोग नहीं किए। इन्होने भी खूब प्रयोग किए, मगर वे प्रयोग प्रगतिवादियों की तरह निरंकुश और विनाशकारी नहीं, मर्यादित और रचनात्मक थे।  
अगर प्रगतिवादी कविता और छायावादोत्तर कविता में तत्कालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति के स्वरों की मुखरता का दोनों धाराओं की कविताओं के द्वारा तुलनात्मक मूल्यांकन करें तो प्रगतिवादी धारा के धुर वामपंथी कवि केदारनाथ अग्रवाल अपनी एक कविताजन-क्रांति में लिखते हैं, राख की मुर्दा तहों के बहुत नीचे/ नींद की काली गुफाओं के अँधेरे में तिरोहित/ मृत्यु के भुज-बंधनों में चेतानाहत/ जो अंगारे खो गए थे पूर्वी जन-क्रांति के/ भूकंप ने उनको उबारा/और वह दहके सबल शस्त्रास्त्र लेकर/ रक्त के शोषक विदेशी शासकों पर/ और देशी भेड़ियों पर अब लगभग इसी तरह की जन-क्रांति की हुंकार भरती छायावादोत्तर युग के कवि दिनकर की कविता की कुछ पंक्तियाँ भी देखिये सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी/ मिटटी सोने का ताज पहन इठलाती है/ उठो, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/ सिंघासन खाली करो कि जनता आती है इन दोनों कविताओं के कथ्य का मूल-भाव लगभग एक है, लेकिन पहली कविता जहां हिंदी काव्य के पारंपरिक शिल्प-विधान को ध्वस्त करते हुए लिखी गई है तो वहीँ दूसरी उस विधान का सम्मान करते हुए। दोनों कविताओं में श्रेष्ठ कौन है, इसका प्रमाण यही है कि दिनकर की यह कविता जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन का नारा ही बन गई थी, जबकि केदारनाथ अग्रवाल की इस कविता का काव्यप्रेमियों को भी शायद ही आज स्मरण हो। निष्कर्ष यह है कि अगर कवि में साधने की योग्यता हो तो हिंदी कविता के पारंपरिक शिल्प-विधान में वह सबकुछ कहने की सामर्थ्य निहित है, जिसके लिए प्रगतिवादी कवियों ने उसमें तोड़-फोड़ करके उसका विनाश कर दिया। वस्तुतः वामपंथी विचारधारा से पूर्णतः प्रभावित प्रगतिवादी कवि जब हमारी कविता के पारंपरिक शिल्प को साध सके तो अपनी विफलता को छुपाने के लिए उन्होंने साध्य ही बदल दिया।   आज काव्य-कसौटियों की रिक्तता के फलस्वरूप स्थिति ये है कि कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़ भानुमती के कुनबे जैसी आठ-दस पंक्तियाँ लिख कोई भी कवि या कवयित्री हो जाता है और फिर हिंदी कविता के वामी कर्णधारों द्वारा ऐसी ही सौ-पचास कविताओं में से देर-सबेर किसी एक को पुरस्कृत कर श्रेष्ठ समकालीन कविता के रूप में स्थापित भी कर दिया जाता है। इसके पीछे अनेक कारण होते हैं, जैसे कि पुरस्कृत कवि/कवयित्री पर निर्णायकों का कोई विशेष गुप्त स्नेह, वाम विचारधारा के रचनाकारों को स्थापित करवाना आदि। तिसपर सम्बंधित रचनाकार की कविताओं में अगर कुछ हिन्दू विरोधी तत्व हों तब तो वामी निर्णायक मंडल द्वारा उसको पुरस्कृत किए जाने की संभावना प्रबलतम हो जाती है। हिंदी काव्य सम्मानों के पुरस्कारों का हालिया इतिहास टटोलने पर ही इन बातों के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।    
उदाहरण के रूप में हम यहाँ एक ताज़ा मामले पर गौर करें तो विगत दिनों भारत भूषण अग्रवाल सम्मान की घोषणा हुई। इसबार यह सम्मान कथित युवा कवयित्री शुभम श्री को उनकी कविता पोएट्री मैनेजमेंट के लिए देने का ऐलान किया गया। इसके बाद से सोशल मीडिया पर लेखकों-कवियों और विचारकों के बीच इसपर काफी विवाद मचा। बहुधा वरिष्ठ कवि और लेखक इस कविता को बकवास करार देते हुए इस पुरस्कार के विरोध में रहे तो इस पुरस्कार को देने वाली निर्णायक मंडली से प्रभावित कई कवि-लेखक इसे सही सिद्ध करने में कृतसंकल्पित नज़र आए। शुभम श्री की जिस कविता को यह सम्मान देने की घोषणा हुई, उसकी बात करें तो उसकी पंक्तियों को अगर क्रमबद्ध ढंग से रख दिया जाय तो यह पुरस्कृत कविता तुरंत गद्य का रूप ले लेगी। अर्थात कि उसमे कविता जैसा कुछ नहीं है, सिवाय टूटी-फूटी और बेसिर-पैर की पंक्तियों के। लेकिन, प्रयोगों के नाम पर हिंदी कविता का विनाश करते आए वामपंथी कवियों को इसमें भी एक नए तरह का काव्य-प्रयोग ही नज़र रहा है। संभवतः इसीलिए इसे उनके वैचारिक आधिपत्य वाले निर्णायक मंडल द्वारा भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से नवाजा गया है। कारण वही कि शुभम श्री उसी विचारधारा की हैं, जैसा कि उनकी कविताओं से जाहिर होता है, जिस विचारधारा का इस सम्मान का निर्णय करने वाला निर्णायक मंडल था। तिसपर शुभम श्री नेवीणा वादिनी.सुनो बेबीजैसी हिन्दू आस्था पर कुठाराघात करने वाली एक कथित कविता भी लिख दी है, इस कारण वामी निर्णायकों द्वारा उन्हें सम्मानित करना अनिवार्य ही हो गया था।
बहरहाल, इस तरह की कथित कविताओं को खारिज करने पर इनके पक्षधर दो-तीन पुराने और बड़े कवियों के रटे हुए नामों का उदाहरण देने लगते हैं। वे कहते हैं कि निराला और मुक्तिबोध को भी उनके समकालीनों ने खारिज किया था, पर आज उनका काव्य स्वीकृत और स्थापित है। उनके ऐसा कहने से यही प्रतीत होता है कि शायद उन्होंने निराला को पढ़ा और समझा ही नहीं है, वर्ना आज के इस पोएट्री मैनेजमेंट के  बचाव में उन्हें खर्च करने का साहस तो कम से कम नहीं करते। निराला का काव्य बहुधा छंदमुक्त अवश्य है, किन्तु उसमें भी अन्तर्निहित लय है, जिससे उसकी छंदमुक्तता का कहीं आभास नहीं होता। निराला ने छंदमुक्तता को काव्य-साधना से बचने के लिए नहीं अपनाया था, बल्कि उन्होंने एक अलग प्रकार की काव्य-साधना का मानक स्थापित किया। रहे मुक्तिबोध तो जरा गौर कीजिये कि आज कितने काव्यप्रेमियों को मुक्तिबोध की आधा दर्जन कविताओं की कुछ पंक्तियाँ भी कंठस्थ होंगी ?  जिसकी कविता सहज ही जनमानस को संप्रेषित भाव से विभोर कर सके, वो किस बात का कवि! मुक्तिबोध की कविता का कथ्य तो शानदार है, प्रतीक भी अनूठे हैं, लेकिन केवल एक लय  और संगीत को छोड़ने की वजह से वे तब भी स्वीकृत नहीं हो पाए थे और आज भी सिर्फ उस विचारधारा जिसके वे वाहक थे, की बौद्धिक चारदीवारी तक ही स्वीकृत और सीमित हैं। अब बिना लय और संगीत के कोई रचना और कुछ तो हो सकती है, पर कविता नहीं हो सकती। किन्तु, दुर्योग कि स्वनामधन्य वामपंथी रचनाकारों की बौद्धिक चौकड़ी से घिरी मुख्यधारा की हिंदी कविता आज अतुकांत और छंदमुक्त के नाम पर दिन-प्रतिदिन शुष्क और नीरस रूप लेती जा रही है। इस स्थिति को देखते हुए ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर इस बौद्धिक चौकड़ी से समय रहते हिंदी कविता को आजाद नहीं किया गया तो आने वाले दशकों में कविता के नाम पर हिंदी के पास सिर्फ और सिर्फ गद्य का भण्डार ही रह जाएगा।