मंगलवार, 15 मई 2018

जनता के धन से बंद हो राजनीतिक विलासिता [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत 7 मई को आए पूर्व मुख्यमंत्रियों से सम्बंधित सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महकमे में हड़कंप मचा दिया। एक गैर-सरकारी संगठन की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को जीवन भर के लिए सरकारी बंगले आवंटित करने वाला राज्य सरकार का क़ानून संविधान प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है। न्यायालय ने यह भी कहा कि पदमुक्त होने के बाद मुख्यमंत्री भी आम नागरिक जैसे हो जाते हैं, अतः आवश्यक होने पर उन्हें सुरक्षा आदि दी जा सकती है, परन्तु सरकारी बंगला देने का कोई औचित्य नहीं है। यूँ तो 2016 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगला आवंटित करने को गलत बताते हुए दो महीने के भीतर उन्हें खाली करवाने का निर्देश दिया था, लेकिन तब इस विषय में कुछ नहीं हुआ। बहरहाल, अब न्यायालय के मौजूदा निर्णय के बाद राज्य के छः जीवित पूर्व मुख्यमंत्रियों नारायण दत्त तिवारी, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह, मायावती और अखिलेश यादव को अपने बंगले खाली करने होंगे।

क्या है मामला ?
दरअसल इस पूरे मामले की शुरुआत 2016 तब हुई थी, जब उत्तर प्रदेश की तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार ने पूर्व मंत्रीगण (वेतन, भत्ता और विविध प्रावधान) क़ानून, 1981 में संशोधन करके पूर्व मुख्यमंत्रियों को उनके बंगलों का आजीवन स्वामित्व प्रदान कर दिया था। इस संशोधन के विरुद्ध ही एक गैर-सरकारी संगठन लोक प्रहरी ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी, जिसपर सुनवाई करते हुए अब न्यायालय ने अखिलेश यादव सरकार द्वारा किए गए संशोधन को निरस्त कर दिया है।

यहाँ उल्लेखनीय होगा कि अखिलेश यादव से काफी पहले बसपा प्रमुख मायावती ने भी पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगलों की हिफाजत के लिए एक कानून बनाया था। हुआ ये था कि 1997 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगले आवंटित करने की व्यवस्था को गलत बताते हुए बंगले खाली कराने का आदेश दिया था, जिसके बाद वीपी सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्र और कमलापति त्रिपाठी को पूर्व मुख्यमंत्री के तौर पर मिले बंगले खाली भी हो गए थे। लेकिन, जब बसपा-भाजपा गठबंधन की सरकार में मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंनेपूर्व मुख्यमंत्री आवास आवंटन नियमावली, 1997बनाकर न्यायालय के फैसले को पलट दिया, जिस कारण पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, रामनरेश यादव, नारायण दत्त तिवारी के बंगले खाली होने से बच गए। कहना गलत नहीं होगा कि सपा हो या बसपा, पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास देने के लिए क़ानून बनाने की इनमें होड़ रही है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद देखना दिलचस्प होगा कि वर्तमान योगी सरकार इसपर क्या रुख अपनाती है।
दैनिक जागरण

बंगलों से लगाव का कारण
दरअसल पूर्व मुख्यमंत्रियों को दिए जाने वाले बंगले, कोई साधारण बंगले नहीं होते बल्कि इनमें राजसी स्तर की सुख-सुविधाओं की व्यवस्था की जाती है। मुलायम, मायावती और अखिलेश ने सत्ता जाने के बाद अपने लिए चुने बंगलों का अलग से पुनर्निर्माण करवाकर ही उनमें प्रवेश किया। 2012 में सूचना के अधिकार के तहत सामने आई एक जानकारी के अनुसार, मायावती के बंगले के पुर्ननिर्माण में 86 करोड़ रूपए खर्च हुए थे, तो अखिलेश यादव के बंगले के बारे में यह आंकड़ा 100 करोड़ से ऊपर का है; जबकि नियमानुसार राज्य संपत्ति विभाग पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित बंगलों के पुनर्निर्माण पर 25 लाख से अधिक की रकम खर्च नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि यहाँ भी नियमों को धता बताते हुए बंगलों के पुनर्निर्माण पर मनमाना खर्च किया गया अब ऐसी भारी-भरकम धनराशि खर्च करके सुख-सुविधाओं से सुसज्जित करवाए गए बंगलों से हमारे पूर्व मुख्यमंत्रियों के लगाव का कारण समझा जा सकता है।        

किराया भी बकाया
गौरतलब है कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित बंगलों के लिए किराए की एक बेहद मामूली रकम चुकानी होती है। बाजार दर की तुलना में ये किराया काफी कम होता है। लेकिन, गजब यह है कि किराए की ये मामूली रकम भी हमारे माननीयों से चुकाई नहीं जाती। उत्तर प्रदेश के सभी वर्तमान पूर्व मुख्यमंत्रियों पर किराए की कुछ कुछ रकम बाकी है। मुलायम सिंह यादव ने एक साल से किराया जमा नहीं किया है, जिस कारण इस समय उनपर लगभग पैतालीस हजार का किराया बाकी है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय होगा कि अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री पद से हटे थे, तो मुलायम सिंह के बंगले पर लाखों का बिजली बिल बकाया होने की बात भी सामने आई थी। ऐसे में, कहना गलत नहीं होगा कि अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में और किसीका ख्याल भले रखा हो, मगर अपने पिता का ख्याल रखने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती है। 

मुलायम के अलावा कल्याण सिंह पर 18419, नारायण दत्त तिवारी पर 25149, राजनाथ सिंह पर 13438 और अखिलेश यादव पर दो महीने का 8580 रूपये किराया बाकी है। बसपा प्रमुख मायावती का भी एक महीने का किराया बाकी होने की बात सामने आई है।
अब जब सर्वोच्च न्यायालय ने इन पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले खाली करवाने का आदेश दे दिया है, तो ऐसे में राज्य संपत्ति विभाग इनसे किराया वसूलने की भी तैयारी में लग गया है। मगर, सवाल यही है कि आखिर इतने दिनों तक इन मुख्यमंत्रियों से किराया वसूलने की याद राज्य के संपत्ति विभाग को क्यों नहीं आई ? दूसरी चीज कि किराए की इतनी मामूली रकम भी पूर्व मुख्यमंत्री महोदयों से समय पर क्यों नहीं चुकाई जाती ?

वास्तव में बात किराए की रकम की नहीं है, बात हमारे राजनेताओं की व्यवस्था का उपहास उड़ाने वाली उस अहंकारी मानसिकता की है, जिसके कारण उन्होंने यह मान लिया है कि वे हर व्यवस्था से ऊपर हैं और किराया जमा करने पर भी उन्हें उनके बंगलों से उन्हें कोई हिला नहीं सकता। दुर्भाग्यवश अबतक हर राज्य सरकार द्वारा उनकी इस मानसिकता का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन ही किया जाता रहा है।

अलग राज्यों के अलग नियम
अलग-अलग राज्यों में पूर्व मुख्यमंत्रियों को लेकर अलग-अलग प्रकार की व्यवस्था है। कुछ राज्यों में उत्तर प्रदेश की ही तरह  पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगले दिए जाने का प्रावधान है, तो कुछ राज्य ऐसे भी हैं, जहां वर्तमान में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है। यूपी से ही विभाजित होकर अस्तित्व में आए उत्तराखण्ड में पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगला आवंटित करने का कोई प्रावधान नहीं है। हरियाणा में भूपेंदर सिंह हुड्डा सरकार के समय बंगला देने का प्रावधान था, परन्तु मनोहर लाल खट्टर ने मुख्यमंत्री बनने के बाद उसे समाप्त कर दिया। हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगला देने की कोई व्यवस्था नहीं है। हालांकि बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब और जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों में पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले मिले हुए हैं। 

जनप्रतिनिधियों के वेतन पर भी सवाल
जनहित के मुद्दों पर अक्सर रार मचाने वाले अलग-अलग दलों के सांसदों और विधायकों के बीच जब उनकी वेतन-वृद्धि का विषय आता है, तो उनके बीच अभूतपूर्व सहमति कायम हो जाती है। थोड़े-थोड़े अंतराल पर प्रायः हमारे इन निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा एक सुर में अपने वेतन-भत्ते आदि बढ़ाने की मांग उठाई जाने लगती है। एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2014 में सरकार द्वारा सांसदों के वेतन-भत्तों पर 176 करोड़ की धनराशि खर्च की गयी। इसमें प्रत्येक सदस्य पर 2.7 लाख रूपये वेतन-भत्तों के रूप में प्रत्येक महीने व्यय हुए। ये आज से चार वर्ष पूर्व का आंकड़ा है, अबतक इसमें और अधिक वृद्धि हो चुकी होगी। वेतन-भत्तों के अलावा हमारे जनप्रतिनिधि पदमुक्त होने के बाद पेंशन के भी हकदार हो जाते हैं। स्पष्ट है कि करदाताओं के पैसे से हमारे जनप्रतिनिधियों पर कितनी भारी-भरकम और मनमानी रकम खर्च की जाती है। इसके बावजूद ये माननीय कभी अपने वेतन से संतुष्ट नहीं दिखते बल्कि थोड़े-थोड़े अंतराल पर उसमें वृद्धि की मांग करते रहते हैं। 

वेतन-वृद्धि के नियमों पर गौर करें तो इस वर्ष के आम बजट से पूर्व तक संसद के दोनों सदनों के सदस्यों वाली एक संसदीय समिति सांसदों के वेतन और भत्ते के मामले में सिफारिशें करती थी और सरकार उस पर निर्णय कर संशोधन विधेयक लाती थी। इन संशोधित प्रस्तावों को संसद में बड़े आराम से आम सहमति से मंजूरी भी मिल जाती थी। दूसरे शब्दों में कहें, तो सांसदों के ही पास उनके वेतन-वृद्धि का अधिकार था। इस नियम की काफी आलोचना होने के कारण इस वर्ष आम बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सांसदों के वेतन-वृद्धि के नए नियम की घोषणा की। इस नए नियम के तहत हर पांच साल में सांसदों का वेतन स्वतः ही तत्कालीन मुद्रास्फीति दर के अनुरूप बढ़ा दिए जाने की व्यवस्था की गयी है। हालांकि उम्मीद कम ही है कि हमारे माननीय अपने वेतन-वृद्धि को लेकर पांच साल तक धीरज रखेंगे।

राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री की सुविधाओं पर भी सवाल
पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले वापस लिए जाने के निर्णय के बाद कुछ ऐसी मांगे भी उठी हैं कि पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व प्रधानमंत्रियों से भी सरकारी आवास अन्य सुविधाएं वापस ली जाएं। ये अनुचित मांग है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ऐसे पद होते हैं, जिनपर कार्य करने के पश्चात् व्यक्ति को ऐसी तमाम बातें ज्ञात होती हैं, जिनके कारण उसका सुरक्षित रहना देश के लिए आवश्यक हो जाता है। यह कहें तो गलत नहीं होगा कि इन पदों पर कार्य कर लेने के बाद व्यक्ति देश की धरोहर हो जाता है। दूसरी चीज कि इन पदों से मुक्त होने के बाद प्रायः व्यक्ति उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी पहुँच चुका होता है। ऐसे में, इन व्यक्तियों की सुख-सुविधाओं और सुरक्षा का ध्यान देश को रखना ही चाहिए। परन्तु, इस आधार पर पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी सरकारी आवास और सुविधाएं देने का तर्क खड़ा नहीं किया जा सकता। 

यूपी ही नहीं, देश भर में लागू हो नियम
भाजपा नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने एकबार कहा था कि हर राज्य में एक टावर बनाकर उसमें सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को छः कमरों के एक-एक फ़्लैट रहने के लिए दे देने चाहिए तथा उसमें उनकी सुरक्षा के लिए भी संयुक्त रूप से एक ही व्यवस्था कर दी जानी चाहिए। सुझाव बुरा नहीं है, मगर सवाल है कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास और अन्य सुविधाएं देने की जरूरत क्या है ? मुख्यमंत्री हर राज्य में होते हैं और कई-कई बार थोड़े-थोड़े कार्यकाल पर ही बदलते भी रहते हैं, ऐसे में करदाताओं का पैसा उनकी सुख-सुविधाओं पर किस कारण बहाया जाए ?

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में बिलकुल उचित कहा है कि पदमुक्त होने के बाद मुख्यमंत्री आम नागरिक जैसे ही हो जाते हैं। ऐसे में, बेशक उनके पूर्व पद के कारण उन्हें कुछ सुरक्षा प्रदान कर दी जाए, मगर सुख-सुविधाएं देकर उन्हें आमजन से अलग खड़ा श्रेणी का व्यक्ति सिद्ध कर देना समानता के संवैधानिक अधिकार के विरुद्ध है। न्यायालय का यह निर्णय भले यूपी के संदर्भ में आया है, परन्तु यह एक संवैधानिक व्याख्या पर आधारित है, अतः इसे पूरे देश में लागू होना चाहिए। इससे केवल करदाताओं के पैसे का एक बड़ा हिस्सा तो बचेगा ही, साथ ही पूर्व मुख्यमंत्रियों को दिए जाने वाले आवासों का राज्य सरकारें बाजार दर के हिसाब से व्यावसायिक उपयोग करके और धन कमाने के विकल्प पर भी विचार कर सकती हैं।