गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

पाक-चीन दोस्ती से सतर्क रहे भारत [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और प्रजातंत्र लाइव में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
एक कहावत है कि शत्रु का शत्रु सबसे अच्छा मित्र होता है। चीन यह बात बहुत अच्छे से जानता है। इसी नाते वह भारत से शत्रुता मानने वाले भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान को साधने की लगातार ही कोशिश करता रहा है, जिसमे कि उसे अपेक्षित कामयाबी भी मिली है। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के वर्तमान पाकिस्तान दौरे को भी भारत के लिए कहीं न कहीं इसी उक्ति के आलोक में देखा जाना चाहिए। सबसे पहली चीज यह कि शी जिनपिंग का यह पाकिस्तान दौरा भारतीय प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के आगामी चीन दौरे से ठीक पहले हुआ है। इसमें भी कहीं न कहीं एक कूटनीतिक सन्देश छिपा हुआ है। शी जिनपिंग के इस दौरे पर चीन और पाकिस्तान के बीच कुल ५१ समझौते हुए हैं। चीनी राष्ट्रपति के इस दौरे के दौरान भारत की तमाम आपत्तियों के बावजूद गुलाम कश्मीर से होकर गुजरने वाले ४६ अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर की चीन-पाक द्वारा शुरुआत कर दी गई है। खबर तो यहां तक है कि चीन ग्वादर बंदरगाह में काम भी शुरू भी कर चुका है इस परियोजना के तहत चीन के जिनजियांग प्रान्त को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से रेल, सड़क आदि परिवहन माध्यमों के जरिये जोड़ा जाएगा। इसके तहत चीन गुलाम कश्मीर में सड़क, रेल नेटवर्क, ऊर्जा प्लांट आदि ढांचागत निर्माण का काम करेगा। गौरतलब है कि यह आर्थिक गलियारा ३००० किमी लम्बा है, जिससे सटे अक्साई चिन इलाके को लेकर भारत और चीन में काफी पुराना विवाद भी है। इसके अतिरिक्त चीन द्वारा पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में २८ अरब डॉलर निवेश के लिए अन्य कुछ समझौते भी किए गए हैं साथ ही पाकिस्तान को १२ अरब डॉलर का कर्ज देने की घोषणा भी चीनी राष्ट्रपति द्वारा की गई है। कहा गया है कि इस कर्ज के जरिये पाकिस्तान अपने ऊर्जा क्षेत्र, सामरिक क्षेत्र आदि को समृद्ध करने की दिशा में काम करेगा। गौरतलब है कि यह किसी भी चीनी राष्ट्रपति का नौ साल बाद हुआ पाकिस्तानी दौरा है। इस दौरे के समय चीनी राष्ट्रपति द्वारा कहा गया कि वह पहली बार पाकिस्तान जा रहे हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि वे अपने भाई के घर जा रहे हैं। बदले में उनके पाकिस्तान पहुँचने पर पाकिस्तान द्वारा भी पलक-पाँवड़े बिछाकर उनका स्वागत किया गया। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति समेत पाक  सेना प्रमुख आदि सभी लोग उनके स्वागत में उपस्थित रहे। साथ ही, उन्हें पाकिस्तान के सबसे उच्च सम्मान  निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित भी किया गया। यह तो सही है कि पाकिस्तान चीन की भारतीय विदेशनीति  व कूटनीति के केंद्र में हमेशा से रहा है, लेकिन अब सवाल यह है कि आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि चीन पाकिस्तान पर इतना मेहरबान हो रहा है ? ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि चीन पाकिस्तान पर अपनी उक्त मेहरबानियाँ यूँ ही दिखा रहा है, इसके पीछे उसके अपने कई स्वार्थ हैं। अपनी ही गलतियों से पैदा हुई विपन्नता के कारण प्रगति से वंचित हो रहे पाकिस्तान को प्रगति का लालच देकर चीन उसकी जमीन का इस्तेमाल अपने व्यापारिक, सामरिक हितों के लिए करने के उद्देश्य के तहत काम कर रहा है। यह सब मेहरबानी इसी मंशा की उपज है।
प्रजातंत्र लाइव
दरअसल विगत वर्ष भारत में नई सरकार के गठन के बाद से ही  भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारतीय विदेश नीति को जिस तरह से साधा गया है, उसने कहीं न कहीं भीतर ही भीतर चीन को परेशानी में डाल दिया है। फिर चाहें वो एशिया हो या योरोप..मोदी भारतीय विदेश नीति को सब जगह साधने में पूर्णतः सफल रहे हैं। एशिया के नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव, जापान  आदि देश हों, विश्व की द्वितीय महाशक्ति रूस हो या फिर यूरोप के फ़्रांस, जर्मनी हों अथवा स्वयं वैश्विक महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका हो, इन सबके दौरों के जरिये प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले १०-११ महीनों के दौरान भारतीय विदेशनीति को एक नई ऊँचाई दी है। साथ ही इनमें से अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्षों का भारत में आगमन भी हुआ है, जिसने न केवल एशिया में वरन पूरी दुनिया में भारत की साख में भारी इजाफा किया है। भारत की इस  बढ़ती वैश्विक साख ने चीन को परेशान किया हुआ था कि तभी भारत के दबाव में आकर श्रीलंका ने चीन को अपने यहाँ बंदरगाह बनाने की इजाजत देने से इंकार कर दिया। वहीँ दूसरी तरफ भारतीय प्राधानमंत्री नरेंद्र मोदी मॉरीशस और सेशेल्स में एक-एक द्वीप निर्माण की अनुमति प्राप्त कर लिए। इन बातों ने चीन को और परेशान कर के रख दिया। कहीं न कहीं भारत की इन्हीं सब कूटनीतिक सफलताओं से भीतर ही भीतर बौखलाए चीन की बौखलाहट शी जिनपिंग के इस पाकिस्तानी दौरे और पाकिस्तान पर हुई भारी मेहरबानी के रूप में सामने आई है। दरअसल, पाकिस्तान के जिस ग्वादर बंदरगाह को चीन द्वारा अपने जिनजियांग प्रान्त से जोड़ने की परियोजना पर काम किया जा  रहा है, उससे चीन को अरब की खाड़ी व होर्मुज की खाड़ी में सीधा प्रवेश मिल गया है। अब चूंकि, यह रास्ते भारत के पश्चिम एशिया से तेल आयात करने वाले मार्ग के बेहद निकट हैं, इसलिए इस सम्बन्ध भारत की चिंता बढ़ जाती है। ग्वादर बंदरगाह पर काबिज होने से चीन को कई लाभ हैं, जिनमे कि पश्चिम एशिया से तेल का आयात उसके लिए बेहद आसान और सस्ता हो जाएगा तथा सामरिक दृष्टि से भी वह भारत पर दबाव बना सकेगा। एक बात यह भी कि इसे भारत द्वारा मॉरीशस और सेशेल्स में द्वीप निर्माण की अनुमति प्राप्त करने का चीन की तरफ से जवाब भी माना जा सकता है।

  भारत की बात करें तो ग्वादर-जिनजियांग मार्ग की परियोजना को लेकर भारत की अत्यधिक सुरक्षा चिंताएं हैं। चूंकि, वर्तमान में चीन भले ही यह कहे कि यह ग्वादर-जिनजियांग मार्ग सिर्फ व्यापारिक उद्देश्यों से प्रेरित है, लेकिन इस  आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि निकट अथवा दूर भविष्य में यह चीनी और पाकिस्तानी नौसेनाओं के एक संयुक्त अड्डे के रूप में परिणत हो जाय और चीन इसे भारत के विरुद्ध अपने सामरिक हितों के लिए प्रयोग करें। वैसे भी भारत के प्रति चीन के धोखे का जो इतिहास रहा है, वह भारत को इस परियोजना के प्रति सशंकित होने को बाध्य करता है। कुल मिलाकर स्पष्ट है कि भारत को चीन और पाकिस्तान की इस बढ़ती नजदीकी के प्रति पूरी तरह से सचेत रहना चाहिए तथा इस चीन-पाक आर्थिक कॉरीडोर परियोजना के मसले पर अपनी चिंता को चीन के साथ-साथ वैश्विक मंचों पर भी उठाना चाहिए। 

इस विलय का मतलब क्या है [कल्पतरु एक्सप्रेस व नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नेशनल दुनिया 
पिछले कई महीनों से विलय की चर्चाओं और बैठकों के बाद आख़िरकार गत १५ मार्च को जनता परिवार के दलों का विलय हो ही गया। इसमें कुल छः दलों का विलय हुआ है। यूपी से मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, बिहार से लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश की जनता दल यूनाइटेड, हरियाणा से आईएनएलडी, कर्नाटक से जेडीएस समेत समाजवादी जनता पार्टी भी शामिल हैं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के घर हुई इस विलय बैठक में शरद यादव, नीतीश कुमार, लालू यादव, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा, अभय चौटाला आदि उपस्थित रहे। इन सब दलों के विलय के बाद बने इस नए दल का नेतृत्व  मुलायम सिंह यादव के हाथों में सौंपा गया, वे इसके अध्यक्ष चुने गए हैं। हालांकि अभी इस नवगठित दल के नाम और चुनाव चिन्ह पर कोई भी सहमति नहीं बन सकी, इनका ऐलान टाल दिया गया। दरअसल आगामी छः महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में इस विलय को उस चुनाव में भाजपा को रोकने की एक कवायद के रूप में देखा जा रहा है। अब भले ही इस नए संगठन में सबसे बड़ी भाजपा विरोधी पार्टी यानि कांग्रेस फिलहाल किसी भी तरह से मौजूद न हो, लेकिन बावजूद इसके यह निर्विवाद है कि यह नया राजनीतिक मोर्चा भाजपा को ही रोकने के उद्देश्य से तैयार किया गया है। इस बात को और अच्छे से समझने के लिए इस बैठक में मौजूद नेताओं के बयानों पर यदि एक नज़र डालें तो इस नवगठित दल के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा कि नई सरकार बहुत घमंडी हो गई है, हमारी एक नहीं सुनती इसलिए ये मोर्चा बना है। वही लालू यादव ने तो खुलकर कहा कि हमने भाजपा को रोकने के लिए अपने अस्तित्व को एक किया है। स्पष्ट है कि यह सारा चक्रव्यूह केवल भाजपा को ध्यान में रखकर रचा गया है और इस नए संगठन के सभी घटक बेशक अभी गैर-कांग्रेसवाद  की बात करें, लेकिन आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि देर-सबेर इस संगठन में कांग्रेस भी बाहर से ही सही  अपनी मौजूदगी दर्ज करा दे।
कल्पतरु एक्सप्रेस 
बहरहाल, इसी क्रम में अब सवाल ये उठता है कि क्या ये नवगठित मोर्चा भाजपा को रोक सकेगा ? गौर करें तो इस नए दल के सभी घटक दलों की लोकसभा में १५ और राज्य सभा में ३० सीटें हैं यानि  कुल मिलाकर राष्ट्रीय राजनीति में इन छः दलों का अस्तित्व महज ४५ सीटों पर सिमटा हुआ है। इसके अलावा क्षेत्रीय राजनीति के स्तर पर भी सपा और जदयू को छोड़ दें तो किसी दल की हालत ठीक नहीं कही जा सकती। सपा के पास यूपी में बहुमत है और जदयू के पास बहुमत तो नहीं, पर वो बिहार में सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन इनके बाद बचे दलों में राजद के पास बिहार में महज २४ सीटें, आईएनएलडी के पास हरियाणा की ९० विधानसभा में से महज १८ सीटें और कर्नाटक की जेडीएस के पास वहां की २२५ में मात्र ४० सीटें ही हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि यूपी में मुलायम और बिहार में नीतीश को छोड़ इस नए मोर्चे का और कोई भी दल बेहतर स्थिति में नहीं दिखता। मुलायम और नीतीश भी फिलहाल सीटों के मामले में भले अच्छे हों, पर पुख्ता तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि उनका जनाधार अब भी अच्छा है। क्योंकि उनकी ये सीटें अबसे काफी पहले यानी पिछले विधानसभा चुनावों की हैं और तबसे अबतक उनके विरुद्ध जनता में काफी सत्ता विरोधी रुझान पनपा है, तो जाहिर तौर पर  अब यदि चुनाव होते हैं तो उनकी सीट संख्या  में गिरावट आने की पूरी संभावना है। एक और बात जो इस नवगठित दल के विरुद्ध जाती दिख रही है, वो ये कि इसके घटक दल भानुमती के कुनबे की तरह हैं। तात्पर्य यह है कि इन दलों का ये सम्मिलन विचारधारा, एजेंडे आदि से इतर केवल भाजपा को रोकने के अन्धोत्साह में बनाया गया है। गौर करें तो लालू-नीतीश-मुलायम आदि जो नेता पहले एक-दूसरे को जरा भी नहीं सुहाते थे, अब भाजपा विरोध के नाम पर अपनी सब विचारधारा  आदि को तिलांजलि देते हुए  एक-दुसरे से गलबहियां कर रहे हैं, तो क्या जनता इसे  स्वीकृति देगी ? इन सब बातों को देखते हुए पूरी संभावना है कि जनता को ये जबरन का गठजोड़ रास न आए और ये नवगठित मोर्चा इसके घटक दलों का नुकसान ही करे। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के सन्दर्भ में देखें तो फ़िलहाल बिहार में नीतीश की जेडीयू नंबर एक, भाजपा नंबर दो तो लालू की राजद नंबर तीन की पार्टी हैं। यह भी सर्वस्वीकार्य तथ्य है कि बिहार चुनावों में जातिगत समीकरण खूब काम करते है। लालू के अपने वोट  हैं, नितीश के अपने वोट हैं..अब जब ये दोनों  दल एक मोर्चे के अंतर्गत आ गए हैं तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इनके मतदाता अपने मत को लेकर भ्रम में आ जाएं और अपना मत इन दोनों से इतर भाजपा-लोजपा गठबंधन या कांग्रेस आदि को दे दें। स्पष्ट है कि ये नवगठित मोर्चा इसके घटक दलों के मौजूदा क्षेत्रीय वजूद को क्षति जरूर पहुँचा सकता है, लेकिन उन्हें कोई बड़ा राजनीतिक लाभ नहीं दे सकता। उसपर अभी तो यह मोर्चा बना है, धीरे-धीरे इसमें महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई भी छिड़ेगी ही, जिससे पार पाना इसके दलों के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। उपर्युक्त सब बातों को देखते हुए कह सकते हैं कि इस गठजोड़ को और कुछ तो नहीं पर ‘दिल बहलाने को ख्याल ठीक है ग़ालिब’ जरूर कहा जा सकता है।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

अब भी कम नहीं नक्सलियों का वर्चस्व [नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नेशनल दुनिया 
विगत ११ अप्रैल को नक्सलियों द्वारा छग के सुकमा जिले में बड़े दर्दनाक ढंग से एसटीएफ के ७ जवानों को मौत के घाट उतार तथा २४ घंटे के भीतर ही फिर दूबारा हमला करते हुए खनन कार्य में लगे १७ वाहनों को जाला दिया गया, ऐसी सारी अवधारणाओं को खोखला साबित कर दिया जिनके द्वारा यह समझा जा रहा था कि अब नक्सलियों का प्रभाव कम हो गया है। हुआ ये कि बीती ११ तारीख को एसटीएफ के कुछ जवान सुकमा जिले के बेहद नक्सल प्रभावित चिंतागुफा थाना क्षेत्र में खोजी अभियान पर निकले कि तभी उनपर नक्सलियों के एक समूह ने हमला कर दिया। इस हमले में जहाँ सात जवान अपनी जान गँवा बैठे, वहीँ  लगभग १२ जवान बुरी तरह से घायल भी हो गए। दिमाग पर थोड़ा जोर दें तो यह वही सुकमा है, जहाँ बीते वर्ष नक्सली हमले सीआरपीएफ के दो अधिकारियों समेत १३ जवान शहीद हो गए थे तो वहीँ २०१३ में सुकमा के ही झीरम घाटी कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं को नक्सलियों द्वारा ही मार डाला गया था। इससे पूर्व २०१० में भी सुकमा में ही एक नक्सली हमले में ७४ जवान शहीद हो गए थे। अब सवाल यह है कि एक से बढ़कर एक इतने भीषण हमलों के बावजूद सुकमा को नक्सलियों से प्रभाव से क्यों मुक्त नहीं कराया जा सका ? अभी कुछ महीनों पहले छग के मुख्यमंत्री महोदय ने कहा  था कि अब छग से नक्सलियों का प्रभाव ख़त्म हो रहा है। अब जब जमीनी हालत ये है तो फिर यह कैसे माना जाय कि छग में नक्सलियों का प्रभाव कम हो रहा है। दरअसल, तस्वीर यह है कि भाजपानीत राजग सरकार के केंद्र की सत्ता सम्हालने के बाद से छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़ दें तो छग में कोई बड़ी नक्सल वारदात नहीं हुई थी, साथ ही पिछले कुछ महीनों से नक्सलियों के आत्मसमर्पण में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई थी, तो संभव है कि इन सब बातों के कारण ही छग के मुख्यमंत्री महोदय को यह मुगालता हो गया था कि अब राज्य में नक्सली कमजोर हो रहे हैं। कहीं न कहीं इस मुगालते का शिकार केंद्र सरकार भी थी, तभी तो अभी कुछ समय पहले ही जब छग मुख्यमंत्री रमन सिंह द्वारा नक्सल अभियान में लगे जवानों पर होने वाले खर्च की भरपाई के लिए केंद्र से मदद मांगी गई तो केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अपने हाथ खड़े कर दिए। कहीं न कहीं केंद्र सरकार ने यही सोचा होगा कि अब तो राज्य में नक्सली कमजोर हो रहे हैं, ऐसे में बहुत मदद देने की क्या आवश्यकता ? केंद्र सरकार के इस रवैये के बाद नक्सलियों ने १३ सीआरपीएफ जवानों की हत्या कर केंद्र सरकार को अपनी धमक का एहसास कराया था। और अब इस ताज़ा कारनामे से उनने कम से कम छग के मुख्यमंत्री महोदय समेत केंद्र सरकार को भी उक्त मुगालते से बाहर ला ही दिया होगा। 

   विचार करें तो अगर आज नक्सलियों की ताकत ऐसी है कि हमारे प्रशिक्षित  सुरक्षा बालों के लिए भी उनसे पार पाना बेहद मुश्किल हो रहा है तो इसके लिए काफी हद तक इस देश की पिछली सरकारों की नक्सलियों के प्रति सुस्त व लचर नीतियां ही कारण हैं। इनके शुरूआती दौर में तत्कालीन सरकारों द्वारा इन्हें कत्तई गंभीरता से नहीं लिया गया और इनसे सख्ती से निपटने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। दिन ब दिन ये अपना और अपनी ताकत विस्तार करते गए और परिणामतः पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ ये सशस्त्र आन्दोलन धीरे-धीरे देश के कई राज्यों में अपनी जड़ें जमा लिया। हालांकि यहाँ यह भी एक तथ्य गौर करने लायक है कि सत्तर के दशक में जिन उद्देश्यों व विचारों के साथ इस नक्सल आंदोलन का जन्म हुआ था, वो काफी हद तक सही और शोषित वर्ग के हितैषी थे। पर समय के साथ जिस तरह से इस आन्दोलन से वे विचार और उद्देश्य लुप्त होते गए उसने इस आन्दोलन की रूपरेखा ही बदल दी। उन उद्देश्यों व विचारों से हीन इस नक्सल आन्दोलन की हालत ये है कि आज ये बस कहने भर के लिए आन्दोलन रह गया है अन्यथा हकीकत में तो इसका अर्थ सिर्फ बेवजह का खून-खराबा और खौंफ ही हो गया है। आज यह अपने प्रारंभिक ध्येय से अलग एक हानिकारक, अप्रगतिशील व अनिश्चित संघर्ष का रूप ले चुका है। आन्दोलन विचारों से चलता है, पर इस तथाकथित नक्सल आन्दोलन में अब हिंसा को छोड़ कोई विचार नहीं रह गया है। हालांकि नक्सलियों की तरफ से अब भी ये कहा जाता है कि वे शोषितों के मसीहा हैं और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन वास्तविकता इससे एकदम भिन्न है। क्योंकि आज जिस तरह की वारदातें नक्सलियों द्वारा अक्सर अंजाम दी जाती हैं, उनमे मरने वाले अधिकाधिक लोग शोषित व बेगुनाह ही होते हैं। अब ऐसे में नक्सलियों की शोषितों के हितों के रक्षण व जनहितैषिता वाली बातों को सफ़ेद झूठ न माना जाय तो क्या माना जाय ? यहाँ समझना मुश्किल है कि आखिर यह किस आन्दोलन का स्वरूप है कि अपनी मांगें मनवाने के लिए बेगुनाहों का खून बहाया जाय ? सरकार द्वारा नक्सलियों से बातचीत के लिए अक्सर प्रयास किए जाते रहे हैं कि वे हथियार छोड़कर आत्मसमर्पण कर दें तो उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाया जाएगा। तमाम नक्सली ऐसा किए भी हैं, पर उनकी संख्या बेहद कम है। स्पष्ट है कि नक्सलियों का उद्देश्य विकास की मुख्यधारा में शामिल होना नहीं बन्दूक के दम पर सरकार को झुकाना है या कि इस देश के लोकतंत्र को चुनौती देना हो गया है। हालांकि नक्सलियों के इस विचार व उद्देश्य से हीन तथाकथित आन्दोलन से इनके क्षेत्र में रहने वाले लोगों जो इनकी सबसे बड़ी ताकत हैं, का भी धीरे-धीरे मोहभंग हो रहा है। इसकी एक झाँकी तो अबकीलोकसभा चुनाव में दिखी जब नक्सलियों के तमाम ऐलानों, विरोधों के बावजूद छग, एमपी आदि राज्यों के बहुतायत नक्सल प्रभावित इलाकों में भी लोग जमकर मतदान करने निकले। कुल मिलकर कहने का अर्थ यह है कि छग, एमपी आदि सभी नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सलियों का प्रभाव कुछ कम अवश्य हुआ है, पर इसका यह कत्तई अर्थ नहीं कि उनकी तरफ से निश्चिंत हो लिया जाय। पिछली सरकारों के उनकी तरफ से काफी हद तक निश्चिंत होने के कारण ही तो वे इतना बढ़ गए। अतः जरूरत तो यह है कि इतिहास से सबक लेते हुए मौजूदा सरकारें नक्सलियों के प्रति पूर्णतः गंभीर व सजग रहें। उचित होगा कि अब जब उनका प्रभाव कुछ कम हुआ है तो इस मौके का लाभ उठाया जाय और उनके इस तथाकथित आन्दोलन को ऐसे कुचल दिया जाय कि ये फिर सिर न उठा सके।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

कहानी : पाखंडी [त्रैमासिक पत्रिका कथाबिम्ब में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

भाग : १

“केशरलाल ‘उग्र’कभी तो कुछ तार्किक व तथ्यात्मक लिख लिया करो कि बस हवाबाजी ही आती है। खुशियाँ मनी थीं तुम्हारे संघ में गोडसे के कृत्य परआज खूब गांधी याद आ रहे हैंतुम जैसे दोगलों से बहस करने में अपना टाइम नहीं ख़राब कर सकती..उगलते रहो तुम, जो जी में आए..पर यहाँ नहीं!” अपनी पोस्ट पर यह टिप्पणी पोस्ट करने के बाद सुप्रिया ने उक्त शख्स की प्रोफाइल खोली और फिर उसका कर्सर सीधे ब्लॉक के विकल्प पर ही आकर रुका। उक्त शख्स को ब्लॉक करने के बाद उसने चैट बॉक्स पर नज़र डाली। ढाई सौ के आसपास लोग ऑनलाइन थे, पर शायद उसके काम का कोई नहीं। अब उसका कर्सर लॉगआउट पर था और वो उसपर क्लिक करने ही जा रही थी कि तभी चैट बॉक्स में एक नाम के आगे की बत्ती हरी हो गई। उसके चेहरे पर हल्की सी क्रोधमिश्रित मुस्कान आई और उसका कर्सर तुरंत लॉगआउट से हटकर उस नाम पर पहुँच गया। नाम पर क्लिक करते ही चैट खुल गई। नाम था विवेक कुमार।
कथाबिम्ब 
“आज आए क्यों नहीं ? पूरे आधे घंटे वेट कीं तुम्हारा, पर तुम तो लापता….नम्बर भी बंद ? थे कहाँ ?” यह लिखकर उसने इंटर का बटन दबाया। विवेक कुमार के आगे यह सन्देश खुला..वह अभी ‘वीर सावरकर’ के विचारों से सम्बंधित एक पोस्ट पर टिप्पणी डालने में मशगूल था। उसने एक नज़र सन्देश पर डाली और हल्का मुस्कुरायाऔर बिना जवाब दिए टिप्पणी लिखता रहा”आज जब  पश्चिमी (कु)लेखकों सहित भारत के भी लाल सलामी प्रज्ञाचक्षुओं द्वारा हमारे इतिहास का कचड़ा किया जा रहा है, ऐसे समय में सावरकर और उनके लिखे की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। इस समय में उनका लिखा हमें हमारे अतीत की सही पहचान करा सकता है।” इस प्रकार टिप्पणी पूरी करके उसने इंटर का बटन दबाया। फिर सुप्रिया के सन्देश की तरफ देखा जो पिछले पांच-छः मिनट से आया पड़ा था। इधर सुप्रिया बेचैन थी कि पांच मिनट हो गए मैसेज भेजे और अबतक जवाब नहीं। कहीं लॉग इन करके कुछ और तो नहीं करने लगा या कहीं किसी और के साथ तो नहीं न? कर क्या रहा है आखिर? ‘विवेक इज टाइपिंग’ चैट में ऐसा दिखते ही सुप्रिया को कुछ राहत हुई।
“सॉरी फॉर वेट डियर! कॉलेज के बाद थोड़ा कुछ काम था..उसीमे फंस गया था।” यह सन्देश आया।
“व्हाट सॉरी! कितना वेट करवाए.. और अभी भी रिप्लाई करने में पांच मिनट लग गए? वैसे क्या काम था कि एक फोन तक नहीं कर सके ?”
“अरे यार! कॉलेज के बाद अचानक प्रोग्राम बन गयागोवध के खिलाफ प्रोटेस्ट करने की तैयारी हो गई। बस उसीमे निकल गया। फिर तो प्रोटेस्ट, पुलिस, खींचतान वगैरह-वगैरह में सच कहूँ तो तुम्हारा ख्याल ही दिमाग से निकल गया।”
“ओह! फिर भी बता दिए होते तो सही रहता वैसे, ठीक तो होकहीं चोट-वोट तो नहीं न लगी ?”
“ठीक हूंतभी तो तुमसे चैटिया रहा हूं वर्ना तो कहीं पड़ा होताकिसी अस्पताल में..आह-उह कर रहा होता।”
“ओके..ओकेअब ज्यादा नौटंकी नहीं। कहती हूं कि इन फालतू के प्रोटेस्ट वगैरह से दूर रहा करो तो सुनते नहीं हो। खैर छोड़ो! मै भी किसे समझाने लगी। अच्छा! अब जल्दी बताओ कि कब मिल रहे हैं, फिर मै लॉगआउट करूँ। अभी मोटा सा असाइंमेंट भी करना है। जल्दी बताओ?”
“मिलते हैं कल उसी टाइम उसी पार्क में, जहाँ आज मिलना थालेकिन मेरे प्रोटेस्ट को गलत कहने से पहले याद कर लो कि तुम मेरी इस तरह की समझावन  कितनी सुनती-मानती हो ?” इस मैसेज को पढ़ सुप्रिया के चेहरे पर हल्की-सी  मुस्कान आ गई, उत्तर में भी वो मुस्कान यानि स्माइली ही भेजी  और फिर लॉगआउट कर गई। लॉगआउट के बाद असाइंमेंट करने की तरफ मुड़ी, लेकिन उसके दिमाग में अब भी विवेक के ही ख्याल चल रहे थे। और ख्याल हों भी क्यों न! आखिर विवेक के ही कारण तो आज वो सही-सलामत थी। अपने गांव-घर से हजारों किलोमीटर दूर, इस दिल्ली शहर में जहाँ उसके गिनती के एकाध वो भी बस कहने भर के रिश्तेदार रहते हैं, तब कौन पूछने वाला था उसे, अगर विवेक न होता। लगभग दस महीने ही तो हुए जब एक मंत्री के महिला पहनावों पर दिए विवादित बयान के विरोध में आइसा ने मंत्री के घर के सामने प्रदर्शन का कार्यक्रम बनाया था। वह भी थी बैनर लिए। मंत्री के घर के पास पहुँचते ही पुलिस की धर-पकड़ शुरू हो गई, धक्का-मुक्की हुई, लाठियां चलीं….पता ही नहीं चला कि अहिंसा और एकजुटता के साथ शुरू हुआ विरोध कब हिंसात्मक होकर बिखर  गया। कुछ कंकड़-पत्थर चलाकर गिरफ्तार हुए, कुछ भाग गए। इसी धर-पकड़ में भागते हुए वो एक बाइक की चपेट में आ गई। बाइक एक पाँव को रौंदते हुए निकल गई थी।  चोट बहुत ज्यादा नहीं थी लेकिन इतनी थी कि दर्द के मारे उससे चला नहीं जा रहा था। बाइक वाला तो तुरंत निकल लिया, और कोई भी खुलकर मदद को आगे नहीं आ रहा था। छटपटा रही थी वो कि तभी बगल से गुजर रही एक ऑटो रुकी और उसमे से एक लड़का उतरा। वो था विवेक।  झटपट उसको सहारा देकर ऑटो में बिठाया। ऑटो सीधे अस्पताल पर रुकी थी। डॉक्टर ने जांच के बाद कोई विशेष अंदरूनी क्षति न होने की घोषणा करते हुए मरहम-पट्टी आदि कर दी। वो नहीं चाहती थी कि इस थोड़ी सी चोट के लिए घर पर लोग परेशान हों। घरवालों की परेशानी से भी ज्यादा दिक्कत उसे पापा से थी क्योंकि वे कभी नहीं चाहते थे कि वो पढने के लिए उनसे दूर दिल्ली जाए। वे वाराणसी में सरकारी मुलाजिम थे और चाहते थे कि सुप्रिया वहीँ बीएचयू से अपनी पढ़ाई करे। लेकिन काफी जिद और जिरह के बाद वो यहाँ दिल्ली आई थी। इन्हीं सब कारणों से जब विवेक ने उसके घर सूचना देने के लिए नंबर माँगा तो उसने मना कर दिया कि यह सूचना मिलते ही पापा आकर उसे घर चलने के लिए भाषण सुनाने लगेंगे। सोचा कि जब ठीक हो जाएगी तब बता देगी। एकदिन अस्पताल में रहने के बाद अपने मित्रों जिनके साथ वो रहती थी, को बुलाकर उनके साथ अपने आवास चली गई। लेकिन इस एकदिन में विवेक ने उसकी जो मदद की थी, जो ख्याल रखा था, उस कारण  विवेक को लेकर एक आकर्षण सा महसूसने लगी थी वो। इसीलिए तो रिकवर करने के बाद उसने विवेक से दोस्ती बढ़ा ली। फोन से लेकर मुलाकात तक। बातों-बातों में पता चला कि वो डीयू में राजनीति शास्त्र से परास्नातक कर रहा है। वो खुद भी जेएनयू से यही तो कर रही थी। इस तरह विषय तो मिले, पर विचार नहीं….लेकिन विचार अपनी जगह होते हैं और मानवीय संवेदनाएं अपनी जगह। आखिर सब विचारों, वादों से पहले हर कोई एक मनुष्य ही तो होता है। विवेक की मानवीय संवेदना उसने देखी थी इसलिए विचारों को दरकिनार कर उससे करीबी बढ़ाती गई। उनके बीच वैचारिक चर्चा कभी नहीं छिड़ती। इस तरह दोस्ती बढ़ी….और फिर धीरे-धीरे जाने कब यह दोस्ती उस रिश्ते में बदल गई जिसे इश्क, लव, प्यार वगैरह कहा जाता हैअभी घड़ी में रात के दो बज रहे थे, असाइंमेंट पूरा हो चुका था। उसने लाइट बंद की और नींद के हवाले हो गई।

भाग : २

पार्क काफी हद तक खाली था। काफी दूरी-दूरी पर लोग दिख जाते थे। अधिकत्तर लोग युवा ही थे। इन्हीं के बीच एक किनारे एक पेड़ के नीचे ये जोड़ा मौजूद था। सुप्रिया की जींस ढकित जाँघों पर सिर रखकर लेटे विवेक का हाथ रह-रहके कभी उसके बालों, कभी गालों, कभी उरोजों पर पहुँच जाता था। सुप्रिया के चेहरे से लग रहा था कि वो विवेक की इन हरकतों से अच्छा नहीं महसूस कर रही। असहजता के भाव थे। लेकिन विवेक को उसकी परवाह कहाँ वो तो अपनी धुन में मस्त था। धीरे-धीरे उसके होठ सुप्रिया के चेहरे की तरफ बढ़ने लगे। सुप्रिया के चेहरे पर असहजता बढ़ती जा रही थी।
“विवेक! कब सुधरोगेयू नो आई डोंट लाइक दिस टाइप ऑफ़ थिंग्स….फिर भी?” उसने मनचले हो रहे विवेक को झटकते हुए कहा।

“हे हेलो! इतना क्यों भड़क रही हो यार! अब जवान हूं, तुम जैसी मस्त जीएफ पास में है तो क्या इतने से भी गया ?” विवेक उससे थोड़ा अलग हो गया। सुप्रिया को लगा कि वो थोड़ी ज्यादा ही बेरुखी कर गई। स्थिति सम्हालते हुए वो थोड़े हलके लहजे में बोली, “यार जगह तो देखो! कितने लोग हैंक्या राजनीति की पढाई करते हो, इतना भी नही पता कि  पब्लिक प्लेस में ऐसे उत्तेजक कृत्य की अनुमति  हमारा संविधान भी नहीं देता मिस्टर विवेक!”
“ओहो! हे संविधान की ज्ञानी देवीतो चलिए न कहीं एकांत में चलकर सहवास करें।” विवेक भी उसीके अंदाज में जवाब दिया। यह सुन वो मुस्कुरा दी और जरा अलग हुए विवेक को अपनी तरफ खींच ली। उसका यह खींचना विवेक को उत्तेजित कर गया और अबकी उसके होठ नहीं रुके। सुप्रिया ने भी कोई विशेष विरोध नहीं किया। अगले कुछ पल तक उन्हें भान नहीं रहा कि वे कहाँ हैं तथा यह बाहरी दुनिया है, वे तो बस एकदुसरे की साँसों और छुअन को महसूसते रहे। कुछ पल बाद दोनों को होश हुआ, लेकिन विवेक का उत्तेजित मन अब भी शांत नहीं था। यह उत्तेजना तो सुप्रिया में भी थी, पर वो जस-तस उसे दबाए हुए थी।
“यार चलो न! कहीं एकदम अकेले में चलते हैं….अभी थोड़ा और मूड हैचलो न!”
“एकदम अकेले में….व्हाट डू यू मीन…….यू नो बेटर आई डोंट लाइ
“कितने बार बताओगीआई नो, यू डोंट लाइक! बट, फिर भी चलो न! ऑनली वन टाइम….फिर नहीं कहूँगा..प्लीज!”
“अजीब है यार..जब कह रही हूं कि मुझे अच्छा नहीं लगता ये सब...इन सब चीजों का भी एक टाइम होता है...कि कभी भी, कहीं भी..”
“कब टाइम होता है...बुढ़ापे में...यही तो टाइम है, थोड़ा एन्जॉय करने का..”
“ये एन्जॉय नहीं पढ़ाई का टाइम है..इन सब एन्जॉयमेंट के लिए आफ्टर मैरिज बहुत टाइम मिलेगा...खैर छोड़ो! तुम अभी नहीं सुनोगे...मै जा रही हूं। दिमाग शांत करो, फिर मिलेंगे।” वह उठने को हुई कि विवेक ने उसका हाथ पकड़कर बिठा लिया, “आफ्टर मैरिज तो ठीक है...पर अगर अभी थोड़ा एन्जॉय कर लेंगे तो क्या हो जाएगा...और तुम कब से शादी के बाद की बात करने लगी...फेसबुक पर तो खूब सेक्स के अधिकार टाइप बातों की पैरवी होती है...तो यहाँ क्या हो गया ?” विवेक ने वैचारिक चीजों को घुसेड़ दिया था।
“वो दूसरी चीज है...उसको और इसको मत जोड़ो..” विवेक की बात पर निरुत्तर थी वो इसलिए ये कहके जान छुड़ाई लेकिन फिर कुछ सोचकर बोली, “और तुम भी तो फेसबुक पर खूब संस्कारों, मर्यादाओं  की ढोल पीटते हो तो अभी...?” उसके ऐसा कहने के बाद विवेक भी निरुत्तर हो गया था। विवेक ने उसके हाथ पर से अपनी पकड़ ढीली कर दी। वो कुछ पल बैठी रही, फिर उठी और, “दिमाग ठंडा हो तो फोन करना...फिर मिलते हैं, ओके! बाय!” कहके चली गई। विवेक कुछ पल वहीँ बैठा रहा फिर एक तरफ निकल गया। आज पहली बार उनके बीच मौजूद वो विचारधारात्मक टकराहट, जिसे जानते हुए भी वे गौण रखना चाहते थे, अचानक प्रत्यक्ष हो गई थी। और संयोग कि इस वैचारिक टकराव में अपने-अपने विचारों के साथ दोनों ही पराजित हुए थे।

भाग : ३

“हेलो विवेक! यार आज नहीं मिल पाऊंगी..कुछ काम आ गया है इसलिए आना मुश्किल है। सो प्लीज डोंट वेट। सॉरी!”
“ओके स्वीटहार्ट! फोकस ऑन योर वर्क...आय विल मैनेज...टेक केयर!”
“थैंक्स यार! लव यू...” ये कहके सुप्रिया ने फोन काट दिया और दोस्तों के हुजूम की तरफ बढ़ी। यह जेएनयू के भीतर का ही कोई स्थान था। लगभग १५-२० लड़के-लड़कियां एक गोलाकार मेंज के अगल-बगल कुर्सियां लगाकर बैठे थे। सुप्रिया ने भी एक कुर्सी लेकर बैठते हुए कहा, “सो, फाइनली...व्हाट इज प्रोग्राम कामरेड...?”
“प्रोग्राम तो फिक्स ही है...बस टाइम एंड प्लेस की बात चल रही है।” एक बोला।
अगले २०-२५ मिनट तक उनकी चर्चा चलती रही और फिर कुछ निर्णय हुआ। उनका जो प्रेसिडेंट था, वो बोला,
“कामरेड्स लिसेन केयरफुली! तो फायनली यह तय रहा कि कल कॉलेज के बाद उन खोखली सभ्यता, नकली मर्यादा वालो के सामने ही हमारा आन्दोलन होगा..उससे पहले आज सोशल साइट्स पर इवेंट्स, पोस्ट्स वगैरह के जरिए इसकी जो प्रोमोशन हो रही है उसे और फैला दिया जाएगा...फिर मिलते हैं कल उन संघियों के कार्यालय के सामने..”
“बिलकुल ऐसा ही होगा, कामरेड!” सब एकसाथ बोले।
“सो ओके! कलतक के लिए लाल सलाम!”
“लाल सलाम!”

‘माय बॉडी माय राईट’, ‘नहीं चलेगी मोरल पुलिसिंग’ जैसे बैनरों, नारों से सजा हुजूम अगले दिन तय कार्यक्रम के हिसाब से निकला। बहुत अधिक संख्या तो नहीं थी, पर जो भी थे उन्मत्त हुए चले। लड़कों की अपेक्षा लड़कियां कम थीं। पर जो थीं उन्हीमे एक सुप्रिया भी थी। संघ कार्यालय के सामने आन्दोलन कहा जाने वाला वह कृत्य कुछ समय तक होता रहा। संघ के कुछेक समर्थकों ने उसे रोकने को जोर लगाया पर जो होना था, होता रहा। बदन से बदन, होठ से होठ रगड़े गए। लड़कियां कम थीं, लड़के ज्यादा....सो एक लड़की कई-कई लड़कों का इस आन्दोलन में सहयोग कर रही थी..मीडिया के कैमरे इस अदभुत आन्दोलन के नज़ारे को कैद कर रहे थे। कुछ समय में पुलिस आ गई। कुछ पकड़े गए, कुछ भाग गए...और फिर ये आन्दोलन अधिक देर तक नहीं टिका। जल्दी ही सब समाप्त!
कथाबिम्ब 
‘सुप्रिया! ये सब क्या है...? ये कैसे फोटोज, वीडियोज दिख रहे हैं मीडिया में ?” कड़क आवाज थी विवेक की।
“मै समझी नहीं...अब अगर तुम कल के आन्दोलन पर कुछ कह रहे हो तो रहने दो..अभी घरवालों को समझा के परेशान हूं...अब मै तुम्हे नहीं समझा सकती..”
“व्हाट! नहीं समझा सकती...मैंने उसदिन थोड़ा सा एन्जॉय करने को कह दिया तो मुझे संविधान, टाइम, शादी के बाद जैसे ज्ञान देने लगी...और आज कितने लड़कों के साथ चुम्मा-चाटी कर रही हो..तो कहती हो कि समझा नहीं सकती..”
“तुम फिर दो अलग बातों को जोड़ने लगे...तुमने उसदिन जो कहा वो अलग बात है..और ये अलग..इट्स जस्ट अ प्रोटेस्ट..”
“अच्छा प्रोटेस्ट बनाया है जी! प्रोटेस्ट के नाम पर मजे लो..क्या आयोजन किया है मार्क्स की औलादों ने..”
“कंट्रोल विवेक! ये कुछ ज्यादा हो रहा है...तुम्हारी ऐसी चीजों में मैंने कभी कोई इंटरफेयर नहीं किया...तुम भी दूर रहो..”
“मै कोई किसीको पकड़ के चूमने-चूसने का आन्दोलन थोड़े न करता हूं...जो तुम्हे इंटरफेयर की जरूरत हो...मै भी जाता हूं किसीके साथ यही करने...फिर मत करना इंटरफेयर..?”
“स्टॉप! यू कैन नॉट अंडरस्टैंड माय फीलिंग्स...जाओ...जिसके साथ...जो दिल में आए करो..बट मुझे छोड़ो...कॉल मी नेवर..!” झुंझलाहट में यह कहके सुप्रिया ने फोन काट दिया। विवेक को लगा था कि सुप्रिया उससे माफ़ी वगैरह मांगेगी लेकिन उसके ऐसे व्यवहार से विवेक का गुस्सा और बढ़ गया। वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। एकदम बदहवास सी हालत हो गई थी उसकी।
इधर सुप्रिया ने झुंझलाहट में बोल तो दिया, पर जब थोड़ा शांत हुई तो उसे अपनी गलती का अंदाज़ा हुआ। उसने सोचा कि चलो थोड़े देर बाद विवेक को फोन करेगी, तबतक उसका गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा। यह सोच वो तैयार होकर कॉलेज निकल गई। लंच टाइम में उसने विवेक को फोन किया, पर उसका फोन बंद था। कोलेज ख़त्म होने के बाद भी वो लगातार उसका नंबर मिलाती रही, लेकिन वही फोन  बंद। उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी कि तभी विवेक आता हुआ दिखा। वो काफी खुश हुई...कि तभी वातावरण उसकी चीखों से भर गया। पास पहुँचते ही विवेक ने उसपर चाक़ू के दनादन कई वार कर दिए थे। वो वहीँ ढेर हो गई। यह देख मौजूद लोग अवाक् थे कि तभी विवेक ने अपने मुँह में कुछ डाल लिया और देखते ही देखते वह भी वहीँ गिर गया। उसके अंतिम शब्द जो सुनाई पड़े – सॉरी जान!

रविवार, 5 अप्रैल 2015

किसान आत्महत्या पर गंभीर होने की जरूरत [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, कल्पतरु एक्सप्रेस और नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
अमर उजाला
असमय बारिश और ओलावृष्टि के कारण हुई फसल की भारी बर्बादी ने देश के खासकर उत्तर भारत के किसानों की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं, जिस कारण हाल-फ़िलहाल किसान आत्महत्या के मामलों में भारी वृद्धि हुई है। सरकार की तरफ से इसपर चिंता तो जताई जा रही है, लेकिन इस सम्बन्ध में किसानों को राहत देने के लिए कुछ ठोस किया जा रहा हो, ऐसा नहीं कह सकते। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जो खेती इस देश की अर्थव्यवस्था में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, उसको करने वाले किसान की हालत इतनी ख़राब है कि देश का पेट भरने वाली उसकी खेती खुद उस का पेट नहीं भर पाती। एक आंकड़े की मानें तो आज देश के ९० फीसदी किसानों के पास खेती योग्य भूमि २ हेक्टेयर से भी कम है और इनमे से ५२ फीसदी किसान परिवार भारी कर्ज में डूबे हुए हैं। इसी सन्दर्भ में उल्लेखनीय होगा कि अभी कुछ ही समय पहले  भारतीय ख़ुफ़िया ब्यूरों (आईबी) द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को देश के किसानों की समस्याओं व उनकी दुर्दशा से सम्बंधित एक ख़ुफ़िया रिपोर्ट सौंपते हुए सरकार को  इस विषय में चेताया गया । आम तौर पर सरकार से देश की सुरक्षा से जुड़ी अत्यंत संवेदनशील सूचनाएं साझा करने वाली आईबी ने जब इस दफे किसानों की समस्याओं जैसे मसले पर सरकार को ख़ुफ़िया रिपोर्ट दी है, तो इस मसले की गंभीरता अपने आप में और बढ़ जाती है। इस रिपोर्ट में आईबी की तरफ से सरकार को किसान आत्महत्या को लेकर विशेष तौर पर चेताया गया है और इस विषय में गंभीर होने की सलाह दी गई है। कहा गया है कि महाराष्ट्र, केरल, पंजाब आदि राज्यों में तो किसानों की आत्महत्याओं का बाहुल्य है ही, यूपी और गुजरात जैसे राज्यों में भी अब इस तरह के मामले ठीकठाक संख्या में सामने आने लगे हैं। इस  रिपोर्ट में सरकार द्वारा किसान आत्महत्या को रोकने के लिए किए जाने वाले ऋण माफ़ी, बिजली बिल माफ़ी समेत राहत पैकेज आदि उपायों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ये उपाय किसानों को फौरी राहत देते हैं न कि उनकी समस्याओं का स्थायी समाधान करते हैं। परिणामतः किसानों की समस्याएँ बनी रहती हैं जो देर-सबेर उन्हें आत्महत्या को मजबूर करती हैं।
कल्पतरु 
  आईबी की इस रिपोर्ट पर विचार करें तो ये रिपोर्ट किसानों के लिए राहत पैकेजों का ऐलान कर उनके हितों का दावा करने वाली राज्य सरकारों समेत केंद्र सरकार को भी आइना दिखाने वाली है। इस रिपोर्ट के जरिये संभव है कि हमारे हुक्मरानों की आँखें खुलें और वे किसानों की समस्याओं के प्रति वास्तव में गंभीर हों। यह सही है कि इस देश के किसान की हालत कभी बहुत अच्छी नहीं रही, लेकिन वह इतनी बुरी नहीं रहती थी कि किसानों को आत्महत्या करनी पड़े। लेकिन, आज अगर देश में किसान आत्महत्या अपने आप में एक बड़ी व राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुकी है तो इसके लिए सबसे प्रमुख कारण हमारी सरकारों का इस समस्या को समय रहते न पहचान पाना तथा इसके प्रति अ-गंभीर रहना ही है। किसान आत्महत्या की शुरुआत मुख्यतः २० वी सदी के अंतिम दशक में महाराष्ट्र में हुई, जब महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में कपास किसानों की आत्महत्याओं के मामले सामने आए। इन आत्महत्याओं को रेखांकित करते हुए अंग्रेजी अख़बार द हिन्दू में इसपर खबर भी आई। इसके बाद उस दशक के कुछ वर्षों में प्रतिवर्ष लगभग दस हजार किसानों के आत्महत्या करने के मामले दर्ज किए गए। लेकिन, किसान आत्महत्या के इन भयावह आंकड़ों के बावजूद तत्कालीन हुकूमतों का ध्यान इस समस्या की विकरालता की तरफ नहीं गया और उन्होंने इस समस्या को बढ़ने से रोकने के लिए सिवाय जांच समितियां गठित करने के कुछ ख़ास नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि महाराष्ट्र से शुरू हुई यह समस्या देश के अन्य हिस्सों में भी फैलती गई और धीरे-धीरे इतना विकराल रूप ले ली कि सन १९९७ से लेकर २००६ तक यानी नौ सालों में डेढ़ लाख से ऊपर किसानों की आत्महत्याओं के मामले सामने आए। आज किसान आत्महत्या की समस्या महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, पंजाब आदि देश के तमाम राज्यों में फ़ैल चुकी है। हमारे सियासतदां इस समस्या को इसके शुरूआती समय में ताड़ने में तो विफल रहे सो रहे, लेकिन आज के हुक्मरान जो  इस समस्या व इसके कारणों आदि से पूरी तरह से वाकिफ हैं, वे भी इसके समाधान के लिए बहुत गंभीर नहीं दिख रहे।
  यह जानने के लिए आज किसी शोध की जरूरत नहीं कि कि
नेशनल दुनिया 
सान आत्महत्या काफी हद तक खेती की समस्याओं व हमारे किसानों की दुर्दशा से सम्बद्ध है। इसी क्रम में अगर भारत के किसानों की समस्याओं पर नज़र डालें तो उनकी एक लम्बी फेहरिस्त सामने आती है। चूंकि, भारत में खेती का उद्देश्य व्यावसायिक नहीं, जीविकोपार्जन का रहा है। इस नाते किसान की स्थिति तो हमेशा से दयनीय ही रहती आई है। तिसपर यहाँ खेती लगभग भाग्य भरोसे ही होती है कि अगर सही समय पर आवश्यकतानुरूप वर्षा हो गई, तब तो ठीक, वर्ना फसल बेकार। आज पेड़-पौधों में कमी के कारण वर्षा का संतुलन बिगड़ रहा है और इसका बड़ा खामियाजा हमारे किसानों को उठाना पड़ रहा है। हाल के कुछ वर्षों में तो कोई ऐसा साल नहीं गया, जिसमे कि देश में कुछ इलाके पूरी तरह से तो कुछ आंशिक तौर पर सूखे की चपेट में न आएं हों। हालांकि उपकरणों की सहायता से सिंचाई करने की तकनीक अब हमारे पास है। लेकिन, एक तो यह सिंचाई काफी महँगी होती है, उसपर इस सिंचाई से फसल को बहुत लाभ मिलने की भी गुंजाइश नहीं होती। क्योंकि एक तरफ आप सिंचाई करिए, दूसरी तरफ धूप सब सुखा देती है। सूखे की समस्या के अलावा कुछ हद तक जानकारी व जागरूकता का अभाव भी हमारे किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। हालांकि किसानों में जानकारी बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा किसान कॉल सेंटर जैसी व्यवस्था की गई है, मगर जमीनी स्तर पर यह व्यवस्था किसानों को बहुत लाभ दे पाई हो, ऐसा नहीं कह सकते। ये तो किसानों की कुछ प्रमुख समस्याओं की बात हुई, इसके अलावा और भी अनेकों छोटी-बड़ी समस्याओं से संघर्ष करते हुए हमारे किसान खेती करते हैं।  ऐसे किसान जिनकी पूरी आर्थिक निर्भरता केवल खेती पर ही होती है, खेती के लिए बैंक अथवा साहूकार आदि से कर्ज लेते हैं, लेकिन मौसमी मार के चलते अगर फसल ख़राब हुई तो फिर उनके पास कर्ज से बचने के लिए आत्महत्या के सिवाय शायद और कोई रास्ता नहीं रह जाता। आईबी की उक्त रिपोर्ट में किसानों की ऐसी ही समस्याओं को रेखांकित करते हुए इनके कुछेक समाधान भी सरकार के समक्ष रखे गए हैं। सिंचाई के लिए सस्ती व्यवस्था उपलब्ध कराने, किसानों को साहूकारों के चंगुल से निकालने के लिए सरकारी बैंकों के जरिये सस्ता कर्ज उपलब्ध कराने तथा खेती उत्पादों के लिए सही मूल्य व बाजार तय कर किसानों को आर्थिक शोषण से बचाने आदि तमाम उपाय आईबी ने सरकार को सुझाए हैं। उचित हो कि केंद्र व राज्य सरकारें सिर्फ कुछ कर्ज माफ़ कर या राहत पैकेज देकर किसानों के प्रति अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री न समझें,  बल्कि आईबी की इन बातों को गंभीरता से लेते हुए इनके क्रियान्वयन के लिए भी ठोस कदम उठाएं। क्योंकि, इन उपायों को ठीक ढंग से अमल में लाकर  देश के किसानों को दुर्दशा से बाहर निकाल एक सम्मानित व स्तरीय जीवन देने की दिशा में बढ़ा जा सकता है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद आवश्यक है।