गुरुवार, 31 जुलाई 2014

प्रशासनिक नाकामी को दर्शाता सहारनपुर दंगा [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
धार्मिक स्थल को लेकर पश्चिमी यूपी के सहारनपुर में हुए दंगे ने देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द के साथ-साथ क़ानून व्यवस्था की दुर्दशा को भी एकबार फिर उजागर कर दिया है. पूरा मामला कुछ यों है कि सहारनपुर के कुतुबशेर इलाके में अम्बाला रोड पर आमने-सामने स्थित गुरूद्वारे और कब्रिस्तान की जमीन को लेकर दो समुदायों के बीच पुराना विवाद है. अभी हाल ही में इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा फैसला सुनाया गया जिसके बाद संप्रदाय विशेष के लोगों द्वारा गुरूद्वारे में कुछ निर्माण कार्य शुरू करवा दिया गया. दूसरे संप्रदाय के लोगों ने इस निर्माण कार्य का विरोध किया और थाने के सामने धरना देने लगे, जिसके चलते दोनों संप्रदायों के बीच कहासुनी से शुरू हुई बात मार-काट और खून-खराबे तक चली गई. धीरे-धीरे अम्बाला रोड स्थित सभी दुकानों में लूटपाट मच गई और वहाँ स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पहुंचे  पुलिस वालों पर फायरिंग भी हुई जिसमे कि पुलिस के एक जवान की मौत की भी खबर है. और फिर तो पता ना चला कि इस छोटे से जमीन विवाद के झगड़े ने कब एक भीषण सांप्रदायिक दंगे का रूप अख्तियार करके पूरे सहारनपुर जिले को अपनी चपेट में ले लिया. पूरे सहारनपुर में खून-खराबा, आगजनी, फायरिंग मच गई. ऐसा तक सामने आया कि कुछ बाइक सवार लोग नाम पूछकर लोगों को गोली मार देते थे. अब यहाँ सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जब अम्बाला रोड स्थित धार्मिक स्थलों को लेकर सम्प्रदाय विशेष के लोगों के बीच हिंसापूर्ण झड़प हो रही थी, उस समय वहाँ के स्थानीय प्रशासन ने पूरी ताकत और सख्ती से उस झड़प को समय रहते रोका क्यों नहीं ? अब दंगाइयों द्वारा जिस तरह से पुलिस वालों पर तक फायरिंग व पथराव आदि किया गया, उससे सिद्ध होता है कि स्थानीय पुलिस ने इस मामले को पूरी गंभीरता से नहीं लिया और इसी कारण वहाँ बिना किसी जानकारी व तैयारी के पहुँच गई. अगर संप्रदाय विशेष के धरने के समय ही कानूनी हस्तक्षेप करके इस मामले का निपटारा कर दिया गया होता तो शायद इतना बड़ा दंगा होने का अवसर ही न आता. इतना ही नहीं, यूपी की प्रशासनिक व्यवस्था को तो तब भी होश नहीं आया, जब इस छोटे-से जमीन विवाद की पृष्ठभूमि में पूरे सहारनपुर में जगह-जगह हिंसा होने लगी. एक तरफ सहारनपुर में ये सब हो रहा था और दूसरी तरफ हमारे उत्तर प्रदेश की प्रशासन व्यवस्था इन सब से बेखबर चैनो-अमन की चादर डाले सो रही थी. स्थिति को नियंत्रित करने के लिए प्रशासनिक स्तर पर तब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, जब तक कि स्थिति बेहद विकराल रूप न ले ली. जब हालात नियंत्रण से बाहर और अत्यन्त भयावह हो गए, तब जाके उत्तर प्रदेश के प्रशासन की नींद खुली. परिणाम ये हुआ कि तब तक इस दंगे की आग ने कितने घर, दुकाने और जिंदगियों को जलाकर ख़ाक कर दिया और हर तरफ सिर्फ तबाही के ही निशान बाकी रह गए. हालांकि छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो अब शहर में स्थिति काफी हद तक नियंत्रण में है और जमीन-आसमान सब तरफ से शहर की निगरानी की जा रही है; हर तरफ पुलिस और अर्द्धसैनिक बल के जवान तैनात हैं साथ ही दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश भी दिया जा चुका है. लेकिन, कहना गलत नहीं होगा कि ये नियंत्रण स्थापित करने में प्रशासन ने काफी देर कर दी. यूपी प्रशासन एकबार फिर समय रहते दंगे के माहौल को या तो भांपने में विफल रहा या फिर भांपकर भी खामोश रहा, जिसका खामियाजा निर्दोष लोगों को अपना जान-माल गंवाकर भुगतना पड़ा. सीधे शब्दों में कहें तो कुल मिलाकर इस दंगे के जरिये यूपी के पुलिस-प्रशासन व सुरक्षा तंत्र की नाकामी ही एकबार फिर उजागर हुई है.
    एक तो ये दंगा अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है, ऊपर से इसपर यूपी सरकार के मंत्रियों के जो बयान आए हैं, वे जख्म पर नमक का ही काम करते हैं. कहाँ तक सरकार इस दंगे की नैतिक जिम्मेदारी लेती, लेकिन यहाँ जिम्मेदारी लेना तो दूर, उलटे इस दंगे के लिए अन्य दलों को जिम्मेदार ठहराया गया है. एक बयान पर गौर करें तो यूपी सरकार के कैबिनेट मंत्री महबूब अली ने इस मामले में कहा है कि ये कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं महज एक जमीनी विवाद है, जिसे कि अमुक राजनीतिक दल द्वारा भड़काकर दंगा बना दिया गया है. हालाँकि उन्होंने किसी दल का नाम नहीं लिया. अपनी नाकामी छिपाने के लिए दूसरों पर आरोप लगाने की ये संस्कृति यूपी सरकार में नई नहीं है. इससे पहले भी अभी पिछले साल ही हुए मुजफ्फरनगर दंगे में भी यूपी सरकार के बोल कुछ ऐसे ही रहे थे. उसवक्त भाजपा आदि दलों के कुछेक क्षेत्रीय नेताओं को आरोपी बनाकर गिरफ्तार भी किया गया था, लेकिन आरोप साबित न होने के कारण वे नेता रिहा हो गए. अब ऐसे बयान देने वाले नेताओं से ये कौन पूछे कि चलिए ठीक है कि अमुक दल ने दंगा भड़काया, लेकिन आपकी सरकार उस दंगे को समय रहते रोक क्यों नहीं पाई ? क्या आपके राज्य का पुलिस-प्रशासन इतना कमजोर और लाचार है कि कोई भी आकर दंगा भड़का देता है और आप कुछ नहीं कर पाते ? और अगर किसीने ऐसा किया है तो आप अबतक उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किए ? जाहिर है कि इन सवालों का सिवाय कुतर्कों के कोई ठोस जवाब प्रदेश सरकार के नेताओं के पास नहीं होगा. बहरहाल, अब जो भी हो, लेकिन इस सहारनपुर दंगे से इतना तो साफ़ हो गया है कि अभी पिछले साल ही मुज़फ्फरनगर जैसा भीषण दंगा झेलने के बावजूद न तो यूपी की सरकार ही चेती है और न ही वहाँ के पुलिस-प्रशासन के ढुलमुल व सुस्त रवैये में ही कोई अंतर आया है. परिणाम ये है कि धीरे-धीरे यूपी सांप्रदायिक दंगों का गढ़  बनता जा रहा है जो कि बड़ी चिंता का विषय है.

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

बेहतर निर्णय है इजरायल के खिलाफ वोटिंग [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
इजरायल द्वारा गाजा पट्टी पर की जा रही सैन्य कार्रवाई की जांच के संबंध में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा पेश प्रस्ताव का भारत द्वारा समर्थन किया गया है। कुल ४७ देशों वाली इस परिषद में से २९ देशों ने इस प्रस्ताव को  समर्थन दिया, जबकि १७ देशों ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया। अमेरिका एकलौता ऐसा देश रहा, जिसने इस प्रस्ताव के विरोध और इजरायल के पक्ष में वोट किया। बहरहाल, भारत की तरफ से  इजरायल हमले की जांच के प्रस्ताव का समर्थन किया जाना चौंकाने वाला निर्णय तो है। क्योंकि, इससे पूर्व संसद में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा कहा गया था कि इजरायल-फलिस्तीन मामले में भारत किसीका पक्ष नहीं लेगा। अतः, इस मतदान और इससे पूर्व सुषमा स्वराज द्वारा संसद में कही गई बातों में ऊपरी तौर पर कुछ-कुछ विरोधाभास तो अवश्य दिखता है। लेकिन, अगर इस पूरे मामले पर गंभीरता से विचार करते हुए ये समझने का प्रयास करें कि आखिर भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के प्रस्ताव पर इजरायल के विरोध में वोटिंग क्यों की तो इसके कई कारण स्पष्ट होते हैं। अब चूंकि, अमेरिका को छोड़ वोटिंग में हिस्सा लेने वाले सभी देशों द्वारा इजरायल के विरोध में ही वोटिंग की गई। ब्रिक्स के भी सभी देशों ने इजरायल के विरोध में ही वोटिंग की। स्पष्ट है कि बहुमत पूरी तरह से इजरायल के खिलाफ था। ऐसे में भारत द्वरा इजरायल के समर्थन में जाना न सिर्फ एशिया में उसके संबंधों में कड़वाहट लाने वाला निर्णय होता, बल्कि विश्व के रूस आदि तमाम राष्ट्रों जिनसे अभी भारत के अत्यंत मधुर संबंध हैं, से भी भारत के संबंध बिगड़ने की संभावना पैदा हो जाती है। माना कि अमेरिका ने इजरायल के पक्ष में वोट डाला, लेकिन एक अमेरिका के साथ होने के चक्कर में भारत का वैश्विक बहुमत के विरुद्ध जाना कतई बेहतर नहीं होता। वैसे भी, गौर करें तो ये सिर्फ एक जांच का प्रस्ताव था न कि किसी के विरोध का। इस प्रस्ताव को लाने का मूल उद्देश्य ये था कि इस बात की जांच हो कि इजरायल ने गाजा पट्टी पर जो सैन्य कार्रवाई की है, वो कितनी सही व आवश्यक थी। इस नाते इस जांच प्रस्ताव के विरोध में वोट करना न सिर्फ भारत बल्कि किसी भी राष्ट्र की वैश्विक छवि के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ एक जांच की बात है और अब अगर इजरायल अपनी कार्रवाई को सही और आवश्यक मानता है तो उसके लिए इस जांच प्रस्ताव से घबराने या आहत होने का कोई कारण नहीं है। अगर उसकी कार्रवाई जायज होगी तो वो इस जांच में पूरी तरह से साफ़ हो जाएगी।
    एक बात यह भी कही जा रही है कि भारत के लिए सबसे आदर्श स्थिति ये होती कि वो इस मतदान प्रक्रिया में हिस्सा ही नहीं लिया होता और तटस्थ भूमिका में रहता। लेकिन, ऐसा कहने वालों को ये कौन समझाए कि जब यूएन मानवाधिकार परिषद के कुल ४७ देशों में मौजूद सभी एशियाई देश मतदान किए  तो एशिया में हर मसले पर मजबूत स्थिति रखने वाले भारत का मतदान से किनारा कर लेना दुनिया को भारत की तरफ से कौन सा बेहतर संदेश देता ? अथवा ऐसा करने से एशिया में भारत की क्या साख रह जाती ? योरोपीय देशों ने इस मतदान से किनारा इसलिए किया, क्योंकि उनपर न तो इजरायल-फलीस्तीन के इस पूरे प्रकरण का कोई बहुत विशेष प्रभाव पड़ने वाला है और न ही मतदान में हिस्सा न लेने से ही उन्हें कोई खास अंतर पड़ने वाला है। लेकिन, भारत के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। अब जबकि चीन जैसे साम्राज्यवादी सोच के लिए मशहूर राष्ट्र ने भी इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया है, तब भारत जैसे उदारवादी राष्ट्र का इस प्रस्ताव के विरोध और इजरायल की कार्रवाई के समर्थन में उतरना या मतदान से किनारा कर लेना कहाँ से उचित होता। विचार करें तो इस प्रस्ताव के विरोध में जाने का परिणाम ये होता कि भारत एशिया समेत विश्व समुदाय में एक प्रकार से अलग-थलग पड़ जाता, जिसका पूरा लाभ चीन को मिलता। इस कारण चीन के मतदान के साथ ही भारत के लिए भी एक तरह से इस प्रस्ताव पर मतदान करना अनिवार्य हो गया था। भारत अगर इस प्रस्ताव पर मतदान से पीछे हटता तो उसे इसका एशिया में भारी नुक्सान उठाना पड़ सकता था। अब रही बात अमेरिका की तो उसका तो खुद का इतिहास ऐसी ही कार्रवाइयों से भरा पड़ा है। वो खुद अपने से कमजोर और आतंरिक समस्याओं से जूझते मुल्कों पर किसी न किसी बहाने सैन्य कार्रवाइयां करता रहा है और अपने वैश्विक वर्चस्व के दम पर उसने अपनी इन कार्रवाइयों की  कोई जांच भी नहीं होने दी है, जिससे कि सच सामने आ सके। इराक, अफ़गानिस्तान आदि देश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। कहने का अर्थ ये है कि अब जब अमेरिका का खुद का इतिहास ऐसा है, तो उसे तो इजरायली कार्रवाई की जांच के इस प्रस्ताव के विरोध में आना ही था। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि अमेरिका की स्थिति ऐसी है कि वो इस प्रस्ताव के विरोध में रहता या विरोध में उसका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। क्योंकि वो एक महाशक्ति राष्ट्र है और उसे विश्व समुदाय से किसी भी हाल में अलग-थलग नहीं किया जा सकता।

  बहरहाल, उपर्युक्त सभी बातों का निष्कर्ष ये है कि भारत द्वारा यूएन मानवाधिकार परिषद में इजरायली कार्रवाई की  जांच के प्रस्ताव के समर्थन में किया गया मतदान पूरी तरह से बेहतर और समयोचित निर्णय है। मौजूदा हालातों को देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि इस मामले में इससे बेहतर कोई अन्य निर्णय नहीं हो सकता था।

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

काटजू के खुलासे के मायने [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और वर्तमान में प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू द्वारा अपने ब्लॉग में संप्रग-१ सरकार द्वारा अपने शासनकाल में एक दागी जिला न्यायाधीश को प्रोन्नति देने के खुलासे के बाद से हमारे सियासी अखाड़े में बवंडर मचा हुआ है। सत्तापक्ष समेत कई  अन्य  दल भी इस खुलासे का अपने-अपने तरीके से और अपने-अपने पक्ष में इस्तेमाल करने में लग गए हैं। इस खुलासे की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी गर्मी संसद तक में पहुँच गई है। अन्नाद्रमुक द्वारा इसपर संसद के दोनों सदनों में भारी हंगामा किया गया तथा ये मांग की गई कि तत्कालीन दौर में दागी जज से जमानत पाने वाले द्रमुक नेता का नाम सामने लाया जाए। वहीँ दूसरी तरफ गाजा पट्टी पर इजरायली हमले आदि को लेकर  संसद में विपक्षी एकजुटता के जरिये भाजपा सरकार को घेरने की कोशिश कर रही कांग्रेस इस खुलासे के बाद पूरी तरह से शांत और शिथिल हो गई है। हाँ, कांग्रेस की तरफ से वीरप्पा मोइली द्वारा कांग्रेस के  बचाव में काटजू पर निशाना साधते हुए ये जरूर कहा गया है कि तब सारे फैसले कोलेजियम द्वारा लिए जा रहे थे, तो सरकारी हस्तक्षेप का सवाल ही नहीं था और काटजू दस वर्ष बाद ये खुलासा क्यों कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस दलील से कोई संतुष्ट होता नहीं दिखा। अगर विचार करें तो इस खुलासे ने न सिर्फ सत्तारूढ़ भाजपा को कांग्रेस को बैकफुट पर लाने का एक मौक़ा दिया है, बल्कि न्यायपालिका पर सवाल उठाते हुए जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम से अलग एक वैकल्पिक व्यवस्था बनाने के उसके एजेंडे को पुनः चर्चा में लाने  का  अवसर भी पैदा कर दिया है। अगर याद हो तो अभी हाल ही में एक जज की नियुक्ति को लेकर भाजपा सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के बीच में काफी तल्खी देखी गई थी। लिहाजा, जस्टिस काटजू के इस खुलासे के बाद संभव है कि भाजपा सरकार जजों की नियुक्ति की वैकल्पिक व्यवस्था के अपने एजेंडे समेत राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की बात को पुनः चर्चा में लाए तथा इस दिशा में कोई पहल करे। इससे पहले जब सरकार के क़ानून मंत्री ने इस विषय में एक साक्षात्कार में कहा था तो उनका भारी विरोध हुआ था, लेकिन काटजू के इस खुलासे के बाद अब सरकार को  न्यायिक आयोग बनाने के एजेंडे के लिए ठोस आधार मिल चुका है। इसीका संकेत केंद्रीय क़ानून मंत्री  रविशंकर प्रसाद द्वारा संसद में ये कहके दिया गया है कि जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाया जाएगा। कुल मिलाकर इतना तो साफ़ है कि जस्टिस काटजू का ये खुलासा मौजूदा भाजपा सरकार के लिए बेहद लाभकारी सिद्ध होता दिख रहा है।
   अब अगर एक नज़र इस पूरे खुलासे पर डालें तो जस्टिस काटजू ने अपने ब्लॉग में एक  दागी जिला न्यायाधीश के मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्ति की प्रक्रिया में तत्कालीन संप्रग-१  सरकार की जिस भूमिका का जिक्र किया है, बस उसी से ये सारा बवाल मचा है। काटजू के अनुसार, एक बड़े नेता को जमानत देने के पुरस्कार के रूप में सन २००५ में एक दागी जिला जज को तत्कालीन संप्रग-१ सरकार ने मद्रास उच्च न्यायालय का एडिशनल जज नियुक्त करवा दिया। बकौल काटजू उस जज पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप थे तथा तत्कालीन दौर में मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए स्वयं उन्होंने उस जज  की आईबी से जांच कराने के लिए तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर सी लाहोटी से    अनुरोध किया था। और तो और, जांच भी हुई और सबूत भी पाए गए, लेकिन सरकारी दबाव के चलते उस जज पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, बल्कि आगे चलकर उसे स्थायी भी कर दिया गया। हालांकि, उन्होंने अपने इस पूरे वर्णन में न तो उस कथित दागी जज का नाम ही उजागर किया है और न ही उस जमानत पाने वाले नेता का ही नाम बताने की जहमत उठाई है। हाँ, ये जरूर कहा है कि उस जज की अब मृत्यु हो चुकी है। ऐसे में अब कुछ सवाल जस्टिस काटजू से भी पूछे जाने चाहिए कि आखिर उन्हें ये मामला दस साल बाद उजागर करने की क्या सूझी ? अबसे पहले उन्होंने इसका खुलासा क्यों नहीं किया ? कहीं वो किसी विशेष समय की प्रतीक्षा में तो नहीं थे ? उल्लेखनीय होगा कि काटजू का प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष पद का कार्यकाल इसी वर्ष समाप्त होने वाला है। लिहाजा, ये सवाल तो उठता है कि अब जब काटजू पदमुक्त होने वाले हैं, ऐसे में कहीं  मौजूदा सरकार से अपनी किसी आकांक्षा पूर्ति के उद्देश्य से तो उन्होंने दस साल पुराने इस मामले को अब उजागर नहीं किया है ?  वैसे, खुलासे के समय के  सवाल पर जस्टिस काटजू गोल-मोल जवाब देके बचते ही नज़र आए। उनका कहना था कि खुलासे का समय महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि अहम यह है कि इसकी जांच हो और ये पता चले कि तब ऐसा क्यों हुआ।

  अब जो भी हो, पर जस्टिस काटजू के इस खुलासे की आधिकारिक जांच तो होनी ही चाहिए और इसकी असल हकीकत को सामने लाया जाना चाहिए। क्योंकि, खुलासा कोई छोटा-मोटा खुलासा नहीं है, वरन इससे हमारी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और गरिमा जुड़ी हुई है। ये खुलासा भारतीय न्यायपालिका के प्रति भी लोगों के मन में एक तरह का अविश्वास पैदा करेगा। ऐसे में इस मामले का दूध का दूध और पानी का पानी होना चाहिए। अतः हालिया जरूरत ये है कि इस मामले का राजनीतिकरण करने की बजाय इसकी जांच करवाई जाए और तस्वीर को पूरी तरह से साफ़ होने दिया जाए। साथ ही, जस्टिस काटजू को भी सिर्फ ये खुलासा करके मौन नहीं धारण करना चाहिए, वरन इस मामले से सम्बंधित लोगों के नामों को भी सार्वजनिक करना चाहिए। 

सोमवार, 21 जुलाई 2014

साहित्य का लैंगिक विभाजन अर्थहीन [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

विचार : मृदुला गर्ग
प्रस्तुति : पीयूष द्विवेदी  


राष्ट्रीय सहारा 
स्त्री-साहित्य के संदर्भ में सबसे पहले तो ये मूल बात स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि स्त्री-साहित्य काफी हद तक एक औचित्यहीन और अनावश्यक पद है । अब स्त्री-साहित्य जैसे पद का सृजन करके और कुछ तो नहीं, साहित्य में भी स्त्री का पृथकीकरण ही किया गया है ठीक वैसे ही जैसे दलित-साहित्य, प्रवासी साहित्य आदि आदि  । कहने का अर्थ ये है कि अगर साहित्य सिर्फ साहित्य ही रहे और सब साहित्यकार जाति-वर्ग-पंथ आदि से परे सिर्फ साहित्यकार ही रहें, तो क्या बुराई है कि इस तरह का पृथकीकरण किया गया है ? विचार करें तो कितनी अजीब बात है न कि यहाँ स्त्री-साहित्य तो अलग से है, पर उसके सामानांतर कोई पुरुष-साहित्य नहीं है । अर्थात जो पुरुष लिखे वो तो सिर्फ साहित्य होता है, पर जो स्त्री लिखे तो वो विभाजित रूप से स्त्री-साहित्य हो जाता है अलबत्ता घर-गृहस्थी के कामकाज से सम्बन्धित सामग्री को हमारे देश में अवश्य, अब तक, स्त्री और केवल स्त्री के लिए उपयोगी माना जाता है और उसे छापने वाली पत्रिकाएं, स्त्रियों की पत्रिकाएं मानी जाती हैं । लगता है जैसे पुरुष पृथ्वी के बजाय किसी और ग्रह पर रहने वाले जीव हों । इन पत्रिकाओं में जो  कथानुमा लेखन भी रहता है, उसके विषय में मान्यता है कि वो ख़ास तौर पर स्त्रियों के लिए लिखा जाता है ।
  वैसे, स्त्री-साहित्य का क्या अर्थ है ? ये पद उचित है या अनुचित ? आदि कत्तई बहुत महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं  । क्योंकि, समकालीन हिंदी साहित्य या स्त्री-साहित्य को लेकर तमाम अन्य तथा अत्यंत महत्वपूर्ण बातें हैं जिनपर चिंतन-मनन की आवश्यकता है  । यह भी उल्लेखनीय होगा कि साहित्य को लेकर यहाँ जो भी चिंतनीय बातें हैं, वह हर आयु-वर्ग-जाति के स्त्री-पुरुष द्वारा लिखे साहित्य पर लागू होती हैंयथा, क्या आज के साहित्य में सृजन, कल्पना, वाँछा, संवेदना, सरोकार और सौन्दर्य बोध का ह्रास हो रहा है ? क्या भाषा को ले कर लापरवाही बरती जा रही है ? क्या जो पहले लिखा जा चुका है, उसी को दुहराया जा रहा है ? क्या रचनाकार रूढ़ियों को तोड़ने से कतरा रहे हैं ? क्या वे नये सामयिक मूल्यों की पड़ताल करने से जी चुरा रहे हैं ? क्या वे शोध पर ज़रूरत से ज़्यादा बल दे कर विचार विनिमय और संवेदनशील तर्क से परहेज़ कर रहे हैं ? क्या ऐसी रचनाएं निरन्तर आ रही हैं जो अब तक क़रीब क़रीब अनछुए रह गये विषयों पर हों और साथ ही शैली, शिल्प, भाषा में मौलिक प्रयोग भी करें ? कहीं अंग्रेज़ी का आतंक हिन्दी के लेखकों को और कूपमन्डूक तो नहीं बना रहा ? भय ये है कि इनमें से कोई चिंता निर्मूल नहीं है । इन चिंताओं में एक बेहद गंभीर चिंता ये भी जुड़ गई है कि क्या साहित्य से सम्बंधित उपर्युक्त मूल प्रश्नों से बचने के लिए हमारे विद्वजन स्त्री साहित्य, दलित साहित्य, अल्पसंख्यक साहित्य, प्रवासी साहित्य जैसी श्रेणियाँ निर्मित करके साहित्य को विभाजित तो नहीं कर रहे ? लगता है कर रहे हैं और ऐसा करके हिंदी साहित्यकारों के बीच आपस में ही बेमानी संघर्ष पैदा कर रहे हैं, जिससे कि लोगों का ध्यान मूल विषयों से इतर इधर-उधर भटका रहे । असर यह हो रहा है कि हम व्यापक स्तर पर विचार विनिमय करने के बजाय लघु और महत्व हीन मुद्दों में उलझ कर साहित्य को प्रज्ञा और भावबोध, दोनों से खारिज कर रहे हैं । सीधे शब्दों में कहें तो आज हिंदी साहित्य का राजनीतिकरण होता जा रहा  है और स्त्री-साहित्य को भी इसी राजनीतिकरण की एक उपज कहा जा सकता है ।
 वर्तमान परिदृश्य में समकालीन हिंदी साहित्य पर एक प्रश्न ये भी उठने लगा है कि आजकल बहुतायत अश्लील साहित्य लिखा जा रहा है तमाम तरफ से ऐसी आवाजें आ रही हैं कि समकालीन लेखक/लेखिकाएं नए सामाजिक मूल्यों पर आधारित प्रगतिशील साहित्य रचकर प्रसिद्धि पाने के अन्धोत्साह में साहित्य का पोर्नोग्राफ़ीकरण  करते जा रहे हैं लेखिकाओं पर ये आरोप विशेष रूप से लग रहा है कि वे स्त्री को नहीं, बल्कि उसकी देह को केन्द्र में रखकर लिख रही हैं   लेकिन, इन बातों में सचाई न के बराबर है  । असल में लोग चाहते हैं कि ऐसा हो, कि पोर्नोग्राफ़ी पढने के लिए उन्हें अंग्रेज़ी की शरण में न जाना पड़े । पर ऐसा है नहीं । स्त्री द्वारा लिखे साहित्य में सतही सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों वाले लेखन से ले कर सामाजिक, राजनीतिक व वैयक्तिक सरोकारों के अन्तर्सम्बन्ध की गम्भीर पड़ताल और जिज्ञासु दृष्टि वाले कथानक व काव्य लिखे जा रहे हैं । अनेक किस्में हैं, अनेक स्तर, अनेक स्वर, अनेक विधाएं, अनेक विधागत प्रयोग । हाँ, उसमें कुछ अंश स्त्री की देह की विषमता व मन और देह के द्वेत पर भी है, पर बहुत कम । जो है वह स्थूल ज़्यादा है, क्रान्तिकारी या विचारणीय नहीं है । रही बात अर्थ  की तो वो बाज़ार में बिक्री का है, पर दुर्भाग्य से वह लक्ष्य भी सिद्ध नहीं हो रहा । क्योंकि उस हिसाब से हिंदी का स्त्री-साहित्य अंग्रेज़ी, बांगला या मलयाळम के लेखन की माँग के पासंग कहीं नहीं ठहरता । बिक्री बहुत अधिक भले न हो, पर इसका ये अर्थ नहीं कि हिंदी में बेहतरीन रचनाएँ व रचनाकार नहीं  हैं । अगर कुछ नामों का उल्लेख करें तो ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मंजुल भगत, सूर्यबाला, मधु कांकरिया, चंद्रकांता, गीतांजलि श्री, नासिरा शर्मा, मन्नू भंडारी आदि तमाम लेखिकाओं द्वारा एक से बढ़कर एक बेहतरीन कृतियों की रचना की गई है और कितनों द्वारा तो अब भी की जा रही है । पर यहाँ बात स्त्री की है तो कुछ कृतियों का नाम ले रही हूँ । चन्द्रकान्ता का उपन्यास ऐलान गली ज़िन्दा है; नासिरा शर्मा का उपन्यास अजनबी जज़ीरा; मंजुल भगत का ख़ातुल; अल्पना मिश्र की कहानी छावनी में बेघर, गीतांजली श्री का तिरोहित । इन सभी कृतियों में स्त्री का रचाव उतना ही बहुपक्षीय है, जितना कि पुरुष का । इनमे स्त्री पुरुष का विलोम नहीं, स्वयं समाज है । हाँ, केन्द्रीय पात्र ज़रूर कोई स्त्री है । और अगर स्त्री की ही बात करनी हो तो माँ-बेटी के रिश्ते के माध्यम से उनसे इतर परिवार-समाज की संवेदनहीनता अभिव्यक्त करने के लिए सुनीता जैन का काव्य संग्रह जाने लड़की पगली को एक बेहतरीन कृति कहा जा सकता है ।

  किसी भी भाषा के साहित्य की समृद्धि की एक प्रमुख शर्त यह भी होती है कि उसके रचनाकार अपनी कृतियों में केवल बनी बनाई परम्पराओं पर न चलें बल्कि नई परम्पराओं का निर्माण भी करें । कहने का अर्थ है कि रचनाकार, विशेषतः नवोदित रचनाकार, रचना के दौरान एक बात का विशेष ध्यान रखें कि वे परम्परा और गुरु को यूँ न आंकें कि उनकी तरह लिख कर बनी बनाई लीक पर चल पड़ें, बल्कि उन्हें इस तरह याद करें कि गुरु वही बन पाया जिसने लीक तोड़ी । इसलिए उसे मानने का मतलब है कि तुम भी लीक तोड़ो ।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

अब भी बदलाव को तैयार नहीं कांग्रेस [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
बीते लोकसभा चुनावों में २०० से ऊपर सीटों से सीधे ४४ पर आ जाने के बावजूद कांग्रेस अब भी पूरी तरह से अपनी उन कमियों से बाहर नहीं आ पाई है, जो कि चुनाव से पहले थीं। जिन कमियों के कारण उसे इतनी बड़ी हार मिली, उन कमियों को दूर करने के बजाय कांग्रेस के नेता अब भी उन्हें गले लगाए बैठे हैं। कहने का अर्थ ये है कि कांग्रेस अब भी अपनी इस भीषण हार से कोई बड़ा सबक लेती नहीं दिख रही। गौरतलब है कि आम चुनाव में मिली हार के कारण तलाशने के लिए कांग्रेस द्वारा गठित एंटनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है। रिपोर्ट में सोनिया और राहुल के खिलाफ सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा गया है। हालांकि रिपोर्ट में हार के लिए जिन बातों व कारणों को जिम्मेदार ठहराया गया है, उनमे से अधिकांश राहुल गाँधी की पसंद के थे। कमेटी ने हर उस निर्णय जो राहुल गाँधी द्वारा लिए गए थे, पर उंगली तो उठाई है। लेकिन, सीधे-सीधे राहुल गाँधी को हार के लिए जिम्मेदार ठहराने से एंटनी कमेटी पूरी रिपोर्ट में बचती रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पार्टी द्वारा सही समय पर सही निर्णय नहीं लिए गए जिनका खामियाजा हार के रूप में पार्टी को भुगतना पड़ा। साथ ही, संगठन में किए गए अनावश्यक व औचित्यहीन प्रयोग भी पार्टी की हार के लिए काफी हद तक जिम्मेदार रहे। इसके अलावा रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण बात ये कही गई है कि पार्टी का युवा संगठन सक्रियता से कार्य नहीं किया। अब अगर इन बातों पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि पार्टी में प्रयोग की बात हो या युवा संगठन की, इन सब चीजों की कमान पूरी तरह से राहुल गाँधी के हाथों में थी। साफ़ है कि एंटनी कमेटी हार के लिए राहुल को जिम्मेदार मानते हुए भी प्रत्यक्ष तौर पर कहने का साहस नहीं कर पाई है। कुल मिलाकर ये रिपोर्ट दर्शाती है कि कांग्रेस  में राहुल गाँधी के खिलाफ एक दबा-दबा सा आक्रोश  है, जो पार्टी में सोनिया-राहुल के प्रभाव के कारण बाहर नहीं आ पा रहा। उदाहरण, के तौर पर देखें तो आम चुनाव में हार के बाद जहाँ एक तरफ ए के एंटनी, दिग्विजय सिंह आदि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं द्वारा राहुल गाँधी की क्षमता पर दबी-दबी सी आवाज में सवाल उठाए गए, तो वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस के कई छोटे नेताओं द्वारा भी राहुल गाँधी की क्षमताओं पर टीका-टिप्पणी की गई। केरल कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष टी एच मुस्तफा ने तो राहुल गाँधी के लिए ‘जोकर’ शब्द तक का प्रयोग कर दिया और परिणामतः उन्हें कांग्रेस से निलंबित होना पड़ा। स्पष्ट है कि कांग्रेस में सोनिया-राहुल के खिलाफ कुछ भी बोलने का अर्थ अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। पार्टी  में सोनिया-राहुल के प्रभाव का आलम ये है कि हार के बाद कांग्रेस की जो पहली बैठक हुई उसमे सोनिया और राहुल गाँधी द्वारा इस्तीफे की पेशकश भी की गई, पर पार्टी द्वारा उसे स्वीकार ही नहीं किया गया।

दरअसल, हमेशा से कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी रही है कि वो नेहरु-गाँधी परिवार का पर्याय बनकर चलती आयी है और आज वो कमी अपने चरमोत्कर्ष पर है। और ये एक प्रमुख कारण भी है कि आज कांग्रेस अपने सम्पूर्ण राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर में है। हाँ, ये भी सही है कि कांग्रेस को जब-तब उसके बुरे दिनों से उबारने में इस परिवार का काफी योगदान रहा है, लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस को जब-तब बुरे दिन भी इसी परिवार की अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं के कारण देखने पड़े हैं। इस चुनाव में भी कांग्रेस की ये जो भीषण दुर्गति हुई है, उसके लिए कुशासन, महंगाई आदि मुद्दों के बाद सर्वाधिक जिम्मेदार नेहरु-गाँधी परिवार की गलत व अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएं ही रही हैं। सोनिया गाँधी की राहुल गाँधी को सत्ता के शिखर पर देखने की अतार्किक महत्वाकांक्षा ने इस चुनाव कांग्रेस को डूबाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अतार्किक  महत्वाकांक्षा इसलिए कि राहुल गाँधी में अब भी राजनीतिक समझ व परिपक्वता का भारी अभाव है। अभी वे मजबूत नेतृत्व क्षमता से कोसो दूर हैं। राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता ये है कि वे चुनाव आने पर लोगों के बीच आम नागरिक बनकर तो ऐसे प्रकट होते हैं जैसे उनसे बड़ा जनहितैषी कोई है ही नहीं, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसे गायब हो जाते हैं कि उनका मतदाता ठगा सा रह जाता है। अगर चुनाव में जीत मिली तो श्रेय लेने में राहुल गाँधी सबसे आगे दिखते हैं और अगर हार हुई तो जिम्मेदारी लेने के लिए राहुल गाँधी का कोई पता नहीं होता। राहुल गाँधी की इन सभी कमियों से लोग बिहार और यूपी के विधानसभा चुनावों जहाँ राहुल गाँधी ने पूरी तरह से स्वयं कमान सम्हाली थी, में ही वाकिफ हो गए थे। इसके अलावा अभी पिछले वर्ष हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी राहुल गाँधी ने दिल्ली चुनाव में काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी, लेकिन जब परिणामों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया तो राहुल गाँधी दो लाइन का एक सीखने-सीखाने का भाषण देकर और सारा ठीकरा कार्यकर्ताओं पर फोड़कर निकल लिए। जनता ने राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता की इन नाकामियों को देखते हुए इस आम चुनाव में उन्हें पूरी तरह से खारिज कर दिया। यहाँ तक कि वो अपनी खुद की अमेठी सीट जो नेहरु-गाँधी परिवार का गढ़ कही जाती है, को बड़ी मुश्किल से बचा पाए। लिहाजा कुल मिलाकर आज कांग्रेस के लिए सबसे जरूरी यही है कि अगर उसे २०१९ के चुनाव तक स्वयं को फिर से खड़ा करना है तो उसे नेहरु-गाँधी परिवार के प्रति एकनिष्ठ समर्पण की संस्कृति से बाहर आना होगा।

सब मिल करें जल संरक्षण [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, जनसत्ता और दैनिक जागरण राष्ट्रीय और कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला 
प्राणी मात्र के जीवन के लिए वायु के बाद अगर किसी चीज की सर्वाधिक आवश्यकता होती है तो वो है पानी। स्थिति ये है कि बिना पानी के मनुष्य से लेकर पशु-पक्षि, पेड़-पौधों तक किसी के भी जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। लेकिन, आज जिस तरह से मानवीय जरूरतों की पूर्ति के लिए निरंतर व अनवरत भू-जल का दोहन किया जा रहा है, उससे साल दर साल भू-जल का स्तर गिरता जा रहा है। पिछले एक दशक के भीतर भू-जल स्तर में आई गिरावट को अगर इस आंकड़े के जरिये समझने का प्रयास करें तो अब से दस वर्ष पहले तक जहाँ ३० मीटर की खुदाई पर पानी मिल जाता था, वहाँ अब पानी के लिए ६० से ७० मीटर तक की खुदाई करनी पड़ती है। साफ़ है कि बीते दस सालों में दुनिया का भू-जल स्तर बड़ी तेजी से घटा है और अब भी बदस्तूर घट रहा है, जो कि बड़ी चिंता का विषय है। अगर केवल भारत की बात करें तो भारतीय केंद्रीय जल आयोग द्वारा अभी हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार देश के अधिकांश बड़े जलाशयों का जलस्तर बीते वर्ष के मुकाबले घटता हुआ पाया गया है।
दैनिक जागरण 
आयोग के अनुसार देश के बारह राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, त्रिपुरा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के जलाशयों के जलस्तर में काफी गिरावट आई है। आयोग की तरफ से ये भी बताया  गया है कि पिछले वर्ष इन राज्यों का जलस्तर जितना अंकित किया गया था, वो तब ही काफी कम था। लेकिन, इस वर्ष वो गिरकर तब से भी कम हो गया है। गौरतलब है कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्लूसी) देश के ८५ प्रमुख जलाशयों की देख-रेख व भंडारण क्षमता की निगरानी करता है। हालांकि घटते जलस्तर को लेकर जब-तब देश में पर्यावरण विदों द्वारा चिंता जताई जाती रहती हैं, लेकिन जलस्तर को संतुलित रखने के लिए सरकारी स्तर पर कभी कोई ठोस प्रयास किया गया हो, ऐसा नहीं दिखता। अब सवाल ये उठता है कि आखिर भू-जल स्तर के इस तरह निरंतर रूप से गिरते जाने का मुख्य कारण क्या है ?  अगर इस सवाल की तह  में जाते हुए हम घटते भू-जल स्तर के कारणों को समझने का प्रयास करें तो तमाम बातें सामने आती  हैं। घटते भू-जल के लिए सबसे प्रमुख कारण तो उसका अनियंत्रित और अनवरत दोहन ही है। आज दुनिया  अपनी जल जरूरतों की पूर्ति के लिए सर्वाधिक रूप से भू-जल पर ही निर्भर है। लिहाजा, अब एक तरफ तो भू-जल का ये अनवरत दोहन हो रहा है तो वहीँ दूसरी तरफ औद्योगीकरण के अन्धोत्साह में हो रहे प्राकृतिक विनाश के चलते पेड़-पौधों-पहाड़ों आदि की मात्रा में कमी आने के कारण बरसात में भी काफी कमी आ गई है, परिणामतः धरती को भू-जल दोहन के अनुपात में जल की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। सीधे शब्दों में कहें तो धरती जितना जल दे रही है, उसे उसके अनुपात में बेहद कम जल मिल रहा है। बस, यही वो प्रमुख कारण है जिससे कि दुनिया का भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। दुखद और चिंताजनक बात ये है कि कम हो रहे भू-जल की इस विकट समस्या से निपटने के लिए अब तक वैश्विक स्तर पर कोई भी ठोस पहल होती नहीं दिखी है। ये एक कटु सत्य है कि अगर दुनिया का भू-जल स्तर इसी तरह से गिरता रहा तो कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले समय में लोगों को पीने के लिए भी पानी मिलना मुश्किल हो जाएगा। 
कल्पतरु एक्सप्रेस

जनसत्ता 
   ऐसा कत्तई नहीं है कि कम हो रहे पानी की इस समस्या का हमारे पास कोई समाधान नहीं है। इस समस्या से निपटने के लिए सबसे बेहतर समाधान तो यही है कि बारिश के पानी का समुचित संरक्षण किया जाए और उसी पानी के जरिये अपनी अधिकाधिक जल जरूरतों की पूर्ति की जाए। बरसात के पानी के संरक्षण के लिए उसके संरक्षण माध्यमों को विकसित करने की जरूरत है, जो कि सरकार के साथ-साथ प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का भी दायित्व है। अभी स्थिति ये है कि समुचित संरक्षण माध्यमों के अभाव में वर्षा का बहुत ज्यादा जल, जो लोगों की तमाम जल जरूरतों को पूरा करने में काम आ सकता है, खराब और बर्बाद हो जाता है। अगर प्रत्येक घर की छत पर वर्षा जल के संरक्षण के लिए एक-दो टंकियां लग जाएँ व घर के आस-पास कुएँ आदि की व्यवस्था हो जाए, तो वर्षा जल का समुचित संरक्षण हो सकेगा, जिससे जल-जरूरतों की पूर्ति के लिए भू-जल पर से लोगों की निर्भरता भी कम हो जाएगी। परिणामतः भू-जल का स्तरीय संतुलन कायम रह सकेगा। इसके अलावा अपने दैनिक कार्यों में सजगता और समझदारी से पानी का उपयोग कर के भी जल संरक्षण किया जा सकता है। जैसे, घर का नल खुला न छोड़ना, साफ़-सफाई आदि कार्यों के लिए खारे जल का उपयोग करना, नहाने के लिए उपकरणों की बजाय साधारण बाल्टी आदि का इस्तेमाल करना आदि तमाम ऐसे सरल उपाय हैं, जिन्हें अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन काफी पानी की बचत कर सकता है। कुल मिलाकर कहने का अर्थ ये है कि जल संरक्षण के लिए लोगों को सबसे पहले जल के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। जल को खेल-खिलवाड़ की अगंभीर दृष्टि से देखने की बजाय अपनी जरूरत की एक सीमित वस्तु के रूप में देखना होगा। हालांकि, ये चीजें तभी होंगी जब जल की समस्या के प्रति लोगों में आवश्यक जागरूकता आएगी और ये दायित्व दुनिया के उन तमाम देशों जहाँ भू-जल स्तर गिर रहा है, की सरकारों समेत सम्पूर्ण विश्व समुदाय का है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि जल समस्या को लेकर दुनिया में बिलकुल भी जागरूकता अभियान नहीं चलाए जा रहे। बेशक, टीवी, रेडियो आदि माध्यमों से इस दिशा में कुछेक प्रयास जरूर हो रहे हैं, लेकिन गंभीरता के अभाव में वे प्रयास कोई बहुत कारगर सिद्ध होते नहीं दिख रहे। लिहाजा, आज जरूरत ये है कि जल की समस्या को लेकर गंभीर होते हुए न सिर्फ राष्ट्र स्तर पर बल्कि विश्व स्तर पर भी एक ठोस योजना के तहत घटते भू-जल की समस्या की भयावहता व  जल संरक्षण आदि इसके समाधानों के बारे में बताते हुए एक जागरूकता अभियान चलाया जाए, जिससे जल समस्या की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हो और वे इस समस्या को समझते हुए सजग हो सकें। क्योंकि, ये एक ऐसी समस्या है जो किसी कायदे-क़ानून से नहीं, लोगों की जागरूकता से ही मिट सकती है। लोग जितना जल्दी जल संरक्षण के प्रति जागरुक होंगे, घटते भू-जल स्तर की समस्या से दुनिया को उतनी जल्दी ही राहत मिल सकेगी।

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

कहीं ये न्यायपालिका पर नियंत्रण की कवायद तो नहीं [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
किसी ने बिलकुल सही कहा है कि सियासत में अवसर का सबसे अधिक महत्व होता है और जो अवसर के अनुसार स्वयं को ढाल ले वही सियासत के मैदान में अधिक समय तक टिक भी सकता है। अगर आपको याद हो तो अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब केन्द्र की पिछली संप्रग-२ सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के लिए एक संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था। तत्कालीन दौर में उस संशोधन विधेयक को न्यायपालिका की स्वतंत्रता  पर चोट बताते हुए मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने उसका भारी विरोध किया था। लेकिन, आज जब वही भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता में आ चुकी है, तब उसके क़ानून मंत्री संप्रग सरकार के उस विधेयक को कुछ परिवर्तनों के साथ पुनः लाने की बात करते नज़र आ रहे हैं। दरअसल, अभी हाल ही में सरकार के क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक साक्षात्कार में कहा है कि वे जजों की नियुक्ति सम्बन्धी संप्रग सरकार के उस विधेयक को कुछ परिवर्तनों के साथ पुनः लाएंगे। गौरतलब है कि केंद्रीय क़ानून मंत्री का ये बयान ऐसे वक्त में आया है जब एक जज की नियुक्ति को लेकर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच काफी तनातनी देखने को मिली है। पूरा मामला कुछ यों है कि सर्वोच्च न्यायालय की कोलेजियम की तरफ से जजों की नियुक्ति के लिए चार नाम सरकार को भेजे गए थे। अब सरकार की तरफ से उनमे से तीन नामों को तो स्वीकार लिया गया, लेकिन एक नाम को पुनर्विचार के आग्रह के साथ वापस कर दिया गया। इस पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा द्वारा बेहद तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा गया था कि सरकार न्यायपालिका पर नियंत्रण का प्रयास न करे, अगर ऐसा होता है तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। हालांकि सरकार के पास ये अधिकार जरूर है कि वो चाहे तो कोई नाम पुनर्विचार के लिए वापस कर सकती है, लेकिन जस्टिस लोढ़ा की नाराजगी का कारण ये था कि नाम वापस करने से पहले सरकार ने उन्हें जानकारी देना या उनसे राय लेना भी जरूरी नहीं समझा। अब जो भी हो, पर यहाँ सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि विपक्ष में रहते हुए जब भाजपा ने उस संसोधन विधेयक का विरोध किया था, तो अब ऐसा क्या हो गया कि कुछ परिवर्तनों के साथ ही सही, उसे लाने की बात कर रही है ? उसका ये रवैया तो कहीं ना कहीं उसकी राजनीतिक अवसरवादिता को ही दर्शाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता में आने से पहले भाजपा संप्रग सरकार पर न्यायपालिका पर नियंत्रण कायम करने का जो आरोप लगा रही थी, अब वो स्वयं न्यायपालिका पर वही नियंत्रण स्थापित करने की कवायद कर रही है ? यह सवाल इसलिए उठ रहा है, क्योंकि जजों की नियुक्ति संबंधी जो व्यवस्था अभी देश में काम कर रही है, वो न्यायिक स्वायत्तता के लिहाज से अत्यंत उपयुक्त है। अतः उसमे किसी भी तरह के बदलाव, सुधार आदि का कोई औचित्य ही नहीं दिखता। अभी जजों की नियुक्ति की जो व्यवस्था है, उसके अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति स्वयं उसका ही एक कोलेजियम करता है जिसमे सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश समेत अन्य जज भी होते हैं। इसमें कार्यपालिका आदि का कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं होता। इस नियुक्ति प्रक्रिया पर कोई सवाल इसलिए भी नहीं उठाया जाना चाहिए कि आज इस देश की संवैधानिक व्यवस्था की तीनों इकाइयों में सर्वाधिक जन विश्वसनीयता न्यायपालिका के प्रति ही दिखती है। अब अगर जजों की नियुक्ति प्रक्रिया गलत या भ्रष्ट होती, तो उन्हें ये विश्वसनीयता कहाँ से मिलती ? खासकर कि पिछली संप्रग सरकार के दौरान जिस तरह से कार्यपालिका के भ्रष्टाचार तथा गलत निर्णयों आदि को लेकर न्यायपालिका सख्त रही, उसने लोगों में उसके प्रति विश्वास को कई गुना बढ़ाया है। और संभवतः इसी कारण संप्रग सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए संसद में संशोधन विधेयक लाया गया था। अब अगर भाजपा-नीत राजग सरकार उस संशोधन विधेयक को पुनः लाती है तो इसका सीधा संदेश ये जाएगा कि ये सरकार भी स्वयं को न्यायपालिका से बचाना चाहती है और बस इसीलिए ऐसा कर रही है।   हालांकि इस पर भाजपा सरकार की तरफ से बड़े ही गोल-मोल तरीके से कहा जा गया है कि वे ये संशोधन विधेयक केंद्रीय न्यायिक आयोग बनाने व न्यायिक सुधारों के अपने वादे को पूरा करने के मकसद से ला रहे हैं। लेकिन, प्रश्न यथावत है कि आप न्यायिक सुधार करिए, पर उसके लिए ये संशोधन विधेयक लाकर न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका को घुसाने की क्या आवश्यकता है ? अब इस विधेयक में चाहे सरकार कितना भी बदलाव करके लाए, पर इसका मूल स्वरूप ही ऐसा है कि जैसे-तैसे न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ ही जाएगा, जो कि वर्तमान परिदृश्य में तो कत्तई उचिन नहीं है। सीधे शब्दों में कहें तो चाहें कितने भी बदलाव के साथ हो या किसी भी रूप में, फ़िलहाल इस संशोधन विधेयक की कोई आवश्यकता ही नहीं है। अगर सरकार वाकई में न्यायिक सुधार के प्रति इतनी प्रतिबद्ध है तो पहले अदालतों में रिक्त पड़े पदों पर जजों की नियुक्ति करे, जिससे कि लंबित पड़े मामले निपटें और पीड़ितों को न्याय मिल सके। साथ ही, न्याय को सरल, सहज व सस्ता बनाने के लिए भी प्रयास करे, जिससे गरीब व्यक्ति के मन में भी न्यायिक व्यवस्था के प्रति आस्था जग सके और वो भी न्याय के लिए लड़ सके। इन चीजों को करके सरकार न सिर्फ सही मायने में न्यायिक सुधार के अपने वादे को पूरा करेगी, बल्कि जनता के मन उसके प्रति विश्वास भी जगेगा।

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

चीन के प्रति सजग रहे भारत [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
किसी विद्वान ने सही ही कहा है कि ‘अटैक इज द बेस्ट डिफेंस’ ! चीन शुरू से ही भारत के प्रति यही नीति अपनाता रहा है, पर भारत ने हमेशा से चीन के प्रति रक्षात्मक रवैया अख्तियार करने में ही विश्वास किया है ! लिहाजा आज वही रक्षात्मक रवैया भारत के गले की फांस बनता नज़र आ रहा है ! हालत ये है कि चीन लगातार हमारी सीमाओं के भीतर घुसकर हमें सरेआम  धमका रहा है  और हम चंद वार्ताओं और बयानबाजियों के अतिरिक्त कुछ नही कर पा रहे ! अभी हाल ही में चीनी सैनिक लद्दाख में ऊँचाई पर स्थित १३५ किमी लंबी पैगांग झील के भारत अधिकृत क्षेत्र में मोटरबोट लिए घुस आए ! हालांकि भारतीय सैनिकों के विरोध के बाड़ वे लौट गए ! इसके अतिरिक्त सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश को अपना बताने को लेकर भी चीन की हरकतें थमने का नाम नहीं ले रहीं ! हाल में चीन द्वारा जारी एक नक़्शे में अरुणाचल प्रदेश समेत कश्मीर के भी कुछ हिस्सों को अपना बताया गया है ! भारत ने इसपर अपना ऐतराज तो जता दिया है, लेकिन उसका चीन पर कोई प्रभाव पड़ेगा, ऐसा लगता नहीं ! हालांकि चीन का अरुणाचल पर आधिपत्य ज़माने का ये मामला कोई नया नहीं है, इससे पहले भी कभी अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ के जरिए तो कभी नक़्शे आदि के जरिए चीन अरुणाचल को अपना बताता रहा है ! अब सवाल ये है कि चीन की इन बदमाशियों पर आखिर हम क्यों कुछ नही कर पा रहे ? इस सवाल का सिर्फ एक ही जवाब है कि हम कुछ करना ही नही चाहते हैं और ये ‘कुछ न करने’ की प्रथा आज से नही आजादी के समय से चली आ रही है ! इतिहास गवाह है कि १९५७ में पं जवाहर लाल नेहरू द्वारा चीन के साथ पंचशील नामक एक शांति समझौता किया गया था, जिसे चीन ने तत्कालीन दौर में भी कभी नही माना ! बावजूद इसके शांतिप्रिय नेहरू ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का अपना काल्पनिक नारा तबतक रटते रहे, जबतक कि हमने ६२ के युद्ध में हजारों जांबाज सैनिकों को नही खो दिया और पराजय का दंश झेलने को विवश नही हो गए ! इस युद्ध से जुड़ी अत्यंत गोपनीय हैंडरसन ब्रुक्स-भगत रिपोर्ट अभी हाल ही में सामने आयी है, जिसमें मौजूद तथ्यों ने इस बात को पूरी तरह से पुख्ता कर दिया है कि इस युद्ध में भारत की पराजय का मुख्य कारण चीन के प्रति नेहरू का लापरवाह और रक्षात्मक रवैया था ! दुर्भाग्य ये है कि वो रवैया हमारे वर्तमान हुक्मरानों में भी जस का तस कायम  है ! हम तब भी रक्षात्मक व लापरवाह थे और अब भी हैं ! न तो उसवक्त चीन ने किसी समझौते को माना था और न ही अब मान रहा है ! उदाहरणार्थ, अप्रैल २०१३ में जब चीनी सैनिक लद्दाख के दिपसांग इलाके में १९ किमी तक घुसकर बाकायदा तम्बू लगाकर जमे रहे थे और भारत कुछ नहीं कर पाया था ! इस गतिरोध के बाद दोनों देशों के बीच अक्तूबर, २०१३ में नया सीमा समझौता हुआ, पर उस सीमा समझौते को चीन ने कई दफे तोडा और भारतीय हद में घुसने की हिमाकत की ! कुल मिलाकर कहने का मतलब ये है कि भारत द्वारा चीन के सामने हमेशा दबा-दबा सा रुख अपनाया जाता रहा है और बस, यही कारण है कि आज चीन हमारे सिर पर चढ़ा हुआ है !  ऐसे में आज जब नई सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी द्वारा चीन से बेहतर संबंधों की बात की जा रही है, तो इसमे कुछ गलत न होते हुए भी इतना जरूर है कि वे भारत के प्रति चीनी गतिविधियों को लेकर सजग व सचेत रहें ! क्योंकि, इतिहास गवाह है कि हमेशा से चीन की नीति मुह में राम बगल में छुरी वाली ही रही है !
  हम जब चीन के प्रति सख्त होने की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य युद्ध से कत्तई नहीं होता है ! युद्ध को तो निश्चित ही कोई विकल्प नही कहा जा सकता, पर जब प्रश्न राष्ट्र की गरिमा और अखण्डता की रक्षा का हो, तो एक हद तक उसपर भी विचार किया जा सकता है ! पर, फिलहाल स्थिति इतनी विकट नही है ! अगर समय रहते भारत चीन के प्रति अपने रक्षात्मक और लापरवाह रवैये को किनारे कर सजग होते हुए आक्रामक रुख अपना ले, तो अभी सबकुछ अपने हाथ में ही है ! भारत अगर चाहे तो चीन को उन्ही नीतियों के द्वारा न सिर्फ खुद पर हावी होने से रोक सकता है, बल्कि दबा भी सकता है, जिनके द्वारा चीन अबतक भारत को मात देता रहा है ! इस संबंध में भारत की पहली ज़रूरत ये है कि वो सीमा पर ढांचागत सुविधाएँ विकसित करे, जोकि चीन द्वारा बहुत पहले से की जा चुकी हैं ! चीन ने अपनी सीमा तक रेलमार्ग तथा सड़कों का जाल पूरी तरह से बिछा लिया है, इस नाते किसी भी आपदा की स्थिति में अधिकाधिक २४ घंटे में वो बड़े आराम से सीमा तक रसद और सैनिकों की आपूर्ति कर सकता है ! बेशक, इस मामले में चीन, भारत से कोसो आगे है, पर देर से ही सही, भारत को भी इस संबंध में अब तीव्र प्रयास शुरू करने चाहिए ! अच्छी बात ये है कि सरकार की तरफ से इस दिशा में हल्की-फुल्की कवायदें शुरू हो गई हैं ! भारत को यह भी चाहिए कि वो चीन की दुखती रग को पकड़े, जैसा कि चीन हमेशा से भारत के साथ करता रहा है ! चीन द्वारा  कश्मीर मामले में बार-बार हस्तक्षेप की कोशिश करना, उसकी इसी नीति का हिस्सा है ! इस स्तर पर चीन को पटकनी देने के लिए भारत के पास तिब्बत का मुद्दा एक अच्छे विकल्प के रूप में है ! भारत को दलाई लामा, जो प्रायः भारतीय विचारों के समर्थक और चीन के कट्टर विरोधी रहे हैं, को अपने साथ जोड़कर, चीनी नाराज़गी की परवाह किए बगैर, तिब्बत मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाते हुए चीन पर दबाव बनाना चाहिए कि वो तिब्बत को स्वतंत्र करे ! इसके अलावा भारत को दक्षिण एशिया के राष्ट्रों समेत चीन के निकटवर्ती जापान आदि राष्ट्रों को भी अपने से मिलाने का कूटनीतिक प्रयास करना  चाहिए ! सुखद है कि नई सरकार के गठन के साथ ही इस दिशा में कुछ पहल दिखने लगी है !

  बहरहाल, जबतक हमारे हुक्मरानों द्वारा दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय नही दिया जाता तथा शांति के नाम पर किसी भी तरह के समझौते को तैयार रहने वाली घिसी-पिटी सोच नही बदली जाती, तबतक उपर्युक्त सभी बातों का सिर्फ उतना ही अर्थ है, जितना कि भैंस के आगे बीन बजाने का !