- पीयूष द्विवेदी भारत
डीएनए |
बीते लोकसभा चुनावों में २०० से ऊपर सीटों से
सीधे ४४ पर आ जाने के बावजूद कांग्रेस अब भी पूरी तरह से अपनी उन कमियों से बाहर
नहीं आ पाई है, जो कि चुनाव से पहले थीं। जिन कमियों के कारण उसे इतनी बड़ी हार
मिली, उन कमियों को दूर करने के बजाय कांग्रेस के नेता अब भी उन्हें गले लगाए बैठे
हैं। कहने का अर्थ ये है कि कांग्रेस अब भी अपनी इस भीषण हार से कोई बड़ा सबक लेती
नहीं दिख रही। गौरतलब है कि आम चुनाव में मिली हार के कारण तलाशने के लिए कांग्रेस
द्वारा गठित एंटनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है। रिपोर्ट में सोनिया और
राहुल के खिलाफ सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा गया है। हालांकि रिपोर्ट में हार के लिए
जिन बातों व कारणों को जिम्मेदार ठहराया गया है, उनमे से अधिकांश राहुल गाँधी की
पसंद के थे। कमेटी ने हर उस निर्णय जो राहुल गाँधी द्वारा लिए गए थे, पर उंगली तो
उठाई है। लेकिन, सीधे-सीधे राहुल गाँधी को हार के लिए जिम्मेदार ठहराने से एंटनी
कमेटी पूरी रिपोर्ट में बचती रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पार्टी द्वारा सही
समय पर सही निर्णय नहीं लिए गए जिनका खामियाजा हार के रूप में पार्टी को भुगतना
पड़ा। साथ ही, संगठन में किए गए अनावश्यक व औचित्यहीन प्रयोग भी पार्टी की हार के
लिए काफी हद तक जिम्मेदार रहे। इसके अलावा रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण बात ये कही
गई है कि पार्टी का युवा संगठन सक्रियता से कार्य नहीं किया। अब अगर इन बातों पर
विचार करें तो स्पष्ट होता है कि पार्टी में प्रयोग की बात हो या युवा संगठन की,
इन सब चीजों की कमान पूरी तरह से राहुल गाँधी के हाथों में थी। साफ़ है कि एंटनी
कमेटी हार के लिए राहुल को जिम्मेदार मानते हुए भी प्रत्यक्ष तौर पर कहने का साहस
नहीं कर पाई है। कुल मिलाकर ये रिपोर्ट दर्शाती है कि कांग्रेस में राहुल गाँधी के खिलाफ एक दबा-दबा सा आक्रोश है, जो पार्टी में सोनिया-राहुल के प्रभाव के
कारण बाहर नहीं आ पा रहा। उदाहरण, के तौर पर देखें तो आम चुनाव में हार के बाद
जहाँ एक तरफ ए के एंटनी, दिग्विजय सिंह आदि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं द्वारा राहुल
गाँधी की क्षमता पर दबी-दबी सी आवाज में सवाल उठाए गए, तो वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस
के कई छोटे नेताओं द्वारा भी राहुल गाँधी की क्षमताओं पर टीका-टिप्पणी की गई। केरल
कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष टी एच मुस्तफा ने तो राहुल गाँधी के लिए ‘जोकर’
शब्द तक का प्रयोग कर दिया और परिणामतः उन्हें कांग्रेस से निलंबित होना पड़ा।
स्पष्ट है कि कांग्रेस में सोनिया-राहुल के खिलाफ कुछ भी बोलने का अर्थ अपने पैरों
पर कुल्हाड़ी मारना है। पार्टी में सोनिया-राहुल
के प्रभाव का आलम ये है कि हार के बाद कांग्रेस की जो पहली बैठक हुई उसमे सोनिया
और राहुल गाँधी द्वारा इस्तीफे की पेशकश भी की गई, पर पार्टी द्वारा उसे स्वीकार
ही नहीं किया गया।
दरअसल, हमेशा से कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी रही है
कि वो नेहरु-गाँधी परिवार का पर्याय बनकर चलती आयी है और आज वो कमी अपने
चरमोत्कर्ष पर है। और ये एक प्रमुख कारण भी है कि आज कांग्रेस अपने सम्पूर्ण
राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर में है। हाँ, ये भी सही है कि कांग्रेस को जब-तब
उसके बुरे दिनों से उबारने में इस परिवार का काफी योगदान रहा है, लेकिन इससे भी
इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस को जब-तब बुरे दिन भी इसी परिवार की
अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं के कारण देखने पड़े हैं। इस चुनाव में भी कांग्रेस की
ये जो भीषण दुर्गति हुई है, उसके लिए कुशासन, महंगाई आदि मुद्दों के बाद सर्वाधिक
जिम्मेदार नेहरु-गाँधी परिवार की गलत व अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएं ही रही हैं। सोनिया
गाँधी की राहुल गाँधी को सत्ता के शिखर पर देखने की अतार्किक महत्वाकांक्षा ने इस
चुनाव कांग्रेस को डूबाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अतार्किक महत्वाकांक्षा इसलिए कि राहुल गाँधी में अब भी
राजनीतिक समझ व परिपक्वता का भारी अभाव है। अभी वे मजबूत नेतृत्व क्षमता से कोसो
दूर हैं। राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता ये है कि वे चुनाव आने पर लोगों के बीच आम
नागरिक बनकर तो ऐसे प्रकट होते हैं जैसे उनसे बड़ा जनहितैषी कोई है ही नहीं, लेकिन
चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसे गायब हो जाते हैं कि उनका मतदाता ठगा सा रह जाता है।
अगर चुनाव में जीत मिली तो श्रेय लेने में राहुल गाँधी सबसे आगे दिखते हैं और अगर
हार हुई तो जिम्मेदारी लेने के लिए राहुल गाँधी का कोई पता नहीं होता। राहुल गाँधी
की इन सभी कमियों से लोग बिहार और यूपी के विधानसभा चुनावों जहाँ राहुल गाँधी ने
पूरी तरह से स्वयं कमान सम्हाली थी, में ही वाकिफ हो गए थे। इसके अलावा अभी पिछले
वर्ष हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी राहुल गाँधी ने दिल्ली चुनाव में
काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी, लेकिन जब परिणामों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया
तो राहुल गाँधी दो लाइन का एक सीखने-सीखाने का भाषण देकर और सारा ठीकरा
कार्यकर्ताओं पर फोड़कर निकल लिए। जनता ने राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता की इन
नाकामियों को देखते हुए इस आम चुनाव में उन्हें पूरी तरह से खारिज कर दिया। यहाँ
तक कि वो अपनी खुद की अमेठी सीट जो नेहरु-गाँधी परिवार का गढ़ कही जाती है, को बड़ी मुश्किल
से बचा पाए। लिहाजा कुल मिलाकर आज कांग्रेस के लिए सबसे जरूरी यही है कि अगर उसे
२०१९ के चुनाव तक स्वयं को फिर से खड़ा करना है तो उसे नेहरु-गाँधी परिवार के प्रति
एकनिष्ठ समर्पण की संस्कृति से बाहर आना होगा।
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