मंगलवार, 29 जुलाई 2014

बेहतर निर्णय है इजरायल के खिलाफ वोटिंग [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
इजरायल द्वारा गाजा पट्टी पर की जा रही सैन्य कार्रवाई की जांच के संबंध में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा पेश प्रस्ताव का भारत द्वारा समर्थन किया गया है। कुल ४७ देशों वाली इस परिषद में से २९ देशों ने इस प्रस्ताव को  समर्थन दिया, जबकि १७ देशों ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया। अमेरिका एकलौता ऐसा देश रहा, जिसने इस प्रस्ताव के विरोध और इजरायल के पक्ष में वोट किया। बहरहाल, भारत की तरफ से  इजरायल हमले की जांच के प्रस्ताव का समर्थन किया जाना चौंकाने वाला निर्णय तो है। क्योंकि, इससे पूर्व संसद में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा कहा गया था कि इजरायल-फलिस्तीन मामले में भारत किसीका पक्ष नहीं लेगा। अतः, इस मतदान और इससे पूर्व सुषमा स्वराज द्वारा संसद में कही गई बातों में ऊपरी तौर पर कुछ-कुछ विरोधाभास तो अवश्य दिखता है। लेकिन, अगर इस पूरे मामले पर गंभीरता से विचार करते हुए ये समझने का प्रयास करें कि आखिर भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के प्रस्ताव पर इजरायल के विरोध में वोटिंग क्यों की तो इसके कई कारण स्पष्ट होते हैं। अब चूंकि, अमेरिका को छोड़ वोटिंग में हिस्सा लेने वाले सभी देशों द्वारा इजरायल के विरोध में ही वोटिंग की गई। ब्रिक्स के भी सभी देशों ने इजरायल के विरोध में ही वोटिंग की। स्पष्ट है कि बहुमत पूरी तरह से इजरायल के खिलाफ था। ऐसे में भारत द्वरा इजरायल के समर्थन में जाना न सिर्फ एशिया में उसके संबंधों में कड़वाहट लाने वाला निर्णय होता, बल्कि विश्व के रूस आदि तमाम राष्ट्रों जिनसे अभी भारत के अत्यंत मधुर संबंध हैं, से भी भारत के संबंध बिगड़ने की संभावना पैदा हो जाती है। माना कि अमेरिका ने इजरायल के पक्ष में वोट डाला, लेकिन एक अमेरिका के साथ होने के चक्कर में भारत का वैश्विक बहुमत के विरुद्ध जाना कतई बेहतर नहीं होता। वैसे भी, गौर करें तो ये सिर्फ एक जांच का प्रस्ताव था न कि किसी के विरोध का। इस प्रस्ताव को लाने का मूल उद्देश्य ये था कि इस बात की जांच हो कि इजरायल ने गाजा पट्टी पर जो सैन्य कार्रवाई की है, वो कितनी सही व आवश्यक थी। इस नाते इस जांच प्रस्ताव के विरोध में वोट करना न सिर्फ भारत बल्कि किसी भी राष्ट्र की वैश्विक छवि के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ एक जांच की बात है और अब अगर इजरायल अपनी कार्रवाई को सही और आवश्यक मानता है तो उसके लिए इस जांच प्रस्ताव से घबराने या आहत होने का कोई कारण नहीं है। अगर उसकी कार्रवाई जायज होगी तो वो इस जांच में पूरी तरह से साफ़ हो जाएगी।
    एक बात यह भी कही जा रही है कि भारत के लिए सबसे आदर्श स्थिति ये होती कि वो इस मतदान प्रक्रिया में हिस्सा ही नहीं लिया होता और तटस्थ भूमिका में रहता। लेकिन, ऐसा कहने वालों को ये कौन समझाए कि जब यूएन मानवाधिकार परिषद के कुल ४७ देशों में मौजूद सभी एशियाई देश मतदान किए  तो एशिया में हर मसले पर मजबूत स्थिति रखने वाले भारत का मतदान से किनारा कर लेना दुनिया को भारत की तरफ से कौन सा बेहतर संदेश देता ? अथवा ऐसा करने से एशिया में भारत की क्या साख रह जाती ? योरोपीय देशों ने इस मतदान से किनारा इसलिए किया, क्योंकि उनपर न तो इजरायल-फलीस्तीन के इस पूरे प्रकरण का कोई बहुत विशेष प्रभाव पड़ने वाला है और न ही मतदान में हिस्सा न लेने से ही उन्हें कोई खास अंतर पड़ने वाला है। लेकिन, भारत के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। अब जबकि चीन जैसे साम्राज्यवादी सोच के लिए मशहूर राष्ट्र ने भी इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया है, तब भारत जैसे उदारवादी राष्ट्र का इस प्रस्ताव के विरोध और इजरायल की कार्रवाई के समर्थन में उतरना या मतदान से किनारा कर लेना कहाँ से उचित होता। विचार करें तो इस प्रस्ताव के विरोध में जाने का परिणाम ये होता कि भारत एशिया समेत विश्व समुदाय में एक प्रकार से अलग-थलग पड़ जाता, जिसका पूरा लाभ चीन को मिलता। इस कारण चीन के मतदान के साथ ही भारत के लिए भी एक तरह से इस प्रस्ताव पर मतदान करना अनिवार्य हो गया था। भारत अगर इस प्रस्ताव पर मतदान से पीछे हटता तो उसे इसका एशिया में भारी नुक्सान उठाना पड़ सकता था। अब रही बात अमेरिका की तो उसका तो खुद का इतिहास ऐसी ही कार्रवाइयों से भरा पड़ा है। वो खुद अपने से कमजोर और आतंरिक समस्याओं से जूझते मुल्कों पर किसी न किसी बहाने सैन्य कार्रवाइयां करता रहा है और अपने वैश्विक वर्चस्व के दम पर उसने अपनी इन कार्रवाइयों की  कोई जांच भी नहीं होने दी है, जिससे कि सच सामने आ सके। इराक, अफ़गानिस्तान आदि देश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। कहने का अर्थ ये है कि अब जब अमेरिका का खुद का इतिहास ऐसा है, तो उसे तो इजरायली कार्रवाई की जांच के इस प्रस्ताव के विरोध में आना ही था। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि अमेरिका की स्थिति ऐसी है कि वो इस प्रस्ताव के विरोध में रहता या विरोध में उसका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। क्योंकि वो एक महाशक्ति राष्ट्र है और उसे विश्व समुदाय से किसी भी हाल में अलग-थलग नहीं किया जा सकता।

  बहरहाल, उपर्युक्त सभी बातों का निष्कर्ष ये है कि भारत द्वारा यूएन मानवाधिकार परिषद में इजरायली कार्रवाई की  जांच के प्रस्ताव के समर्थन में किया गया मतदान पूरी तरह से बेहतर और समयोचित निर्णय है। मौजूदा हालातों को देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि इस मामले में इससे बेहतर कोई अन्य निर्णय नहीं हो सकता था।

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