शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

काटजू के खुलासे के मायने [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और वर्तमान में प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू द्वारा अपने ब्लॉग में संप्रग-१ सरकार द्वारा अपने शासनकाल में एक दागी जिला न्यायाधीश को प्रोन्नति देने के खुलासे के बाद से हमारे सियासी अखाड़े में बवंडर मचा हुआ है। सत्तापक्ष समेत कई  अन्य  दल भी इस खुलासे का अपने-अपने तरीके से और अपने-अपने पक्ष में इस्तेमाल करने में लग गए हैं। इस खुलासे की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी गर्मी संसद तक में पहुँच गई है। अन्नाद्रमुक द्वारा इसपर संसद के दोनों सदनों में भारी हंगामा किया गया तथा ये मांग की गई कि तत्कालीन दौर में दागी जज से जमानत पाने वाले द्रमुक नेता का नाम सामने लाया जाए। वहीँ दूसरी तरफ गाजा पट्टी पर इजरायली हमले आदि को लेकर  संसद में विपक्षी एकजुटता के जरिये भाजपा सरकार को घेरने की कोशिश कर रही कांग्रेस इस खुलासे के बाद पूरी तरह से शांत और शिथिल हो गई है। हाँ, कांग्रेस की तरफ से वीरप्पा मोइली द्वारा कांग्रेस के  बचाव में काटजू पर निशाना साधते हुए ये जरूर कहा गया है कि तब सारे फैसले कोलेजियम द्वारा लिए जा रहे थे, तो सरकारी हस्तक्षेप का सवाल ही नहीं था और काटजू दस वर्ष बाद ये खुलासा क्यों कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस दलील से कोई संतुष्ट होता नहीं दिखा। अगर विचार करें तो इस खुलासे ने न सिर्फ सत्तारूढ़ भाजपा को कांग्रेस को बैकफुट पर लाने का एक मौक़ा दिया है, बल्कि न्यायपालिका पर सवाल उठाते हुए जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम से अलग एक वैकल्पिक व्यवस्था बनाने के उसके एजेंडे को पुनः चर्चा में लाने  का  अवसर भी पैदा कर दिया है। अगर याद हो तो अभी हाल ही में एक जज की नियुक्ति को लेकर भाजपा सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के बीच में काफी तल्खी देखी गई थी। लिहाजा, जस्टिस काटजू के इस खुलासे के बाद संभव है कि भाजपा सरकार जजों की नियुक्ति की वैकल्पिक व्यवस्था के अपने एजेंडे समेत राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की बात को पुनः चर्चा में लाए तथा इस दिशा में कोई पहल करे। इससे पहले जब सरकार के क़ानून मंत्री ने इस विषय में एक साक्षात्कार में कहा था तो उनका भारी विरोध हुआ था, लेकिन काटजू के इस खुलासे के बाद अब सरकार को  न्यायिक आयोग बनाने के एजेंडे के लिए ठोस आधार मिल चुका है। इसीका संकेत केंद्रीय क़ानून मंत्री  रविशंकर प्रसाद द्वारा संसद में ये कहके दिया गया है कि जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाया जाएगा। कुल मिलाकर इतना तो साफ़ है कि जस्टिस काटजू का ये खुलासा मौजूदा भाजपा सरकार के लिए बेहद लाभकारी सिद्ध होता दिख रहा है।
   अब अगर एक नज़र इस पूरे खुलासे पर डालें तो जस्टिस काटजू ने अपने ब्लॉग में एक  दागी जिला न्यायाधीश के मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्ति की प्रक्रिया में तत्कालीन संप्रग-१  सरकार की जिस भूमिका का जिक्र किया है, बस उसी से ये सारा बवाल मचा है। काटजू के अनुसार, एक बड़े नेता को जमानत देने के पुरस्कार के रूप में सन २००५ में एक दागी जिला जज को तत्कालीन संप्रग-१ सरकार ने मद्रास उच्च न्यायालय का एडिशनल जज नियुक्त करवा दिया। बकौल काटजू उस जज पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप थे तथा तत्कालीन दौर में मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए स्वयं उन्होंने उस जज  की आईबी से जांच कराने के लिए तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर सी लाहोटी से    अनुरोध किया था। और तो और, जांच भी हुई और सबूत भी पाए गए, लेकिन सरकारी दबाव के चलते उस जज पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, बल्कि आगे चलकर उसे स्थायी भी कर दिया गया। हालांकि, उन्होंने अपने इस पूरे वर्णन में न तो उस कथित दागी जज का नाम ही उजागर किया है और न ही उस जमानत पाने वाले नेता का ही नाम बताने की जहमत उठाई है। हाँ, ये जरूर कहा है कि उस जज की अब मृत्यु हो चुकी है। ऐसे में अब कुछ सवाल जस्टिस काटजू से भी पूछे जाने चाहिए कि आखिर उन्हें ये मामला दस साल बाद उजागर करने की क्या सूझी ? अबसे पहले उन्होंने इसका खुलासा क्यों नहीं किया ? कहीं वो किसी विशेष समय की प्रतीक्षा में तो नहीं थे ? उल्लेखनीय होगा कि काटजू का प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष पद का कार्यकाल इसी वर्ष समाप्त होने वाला है। लिहाजा, ये सवाल तो उठता है कि अब जब काटजू पदमुक्त होने वाले हैं, ऐसे में कहीं  मौजूदा सरकार से अपनी किसी आकांक्षा पूर्ति के उद्देश्य से तो उन्होंने दस साल पुराने इस मामले को अब उजागर नहीं किया है ?  वैसे, खुलासे के समय के  सवाल पर जस्टिस काटजू गोल-मोल जवाब देके बचते ही नज़र आए। उनका कहना था कि खुलासे का समय महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि अहम यह है कि इसकी जांच हो और ये पता चले कि तब ऐसा क्यों हुआ।

  अब जो भी हो, पर जस्टिस काटजू के इस खुलासे की आधिकारिक जांच तो होनी ही चाहिए और इसकी असल हकीकत को सामने लाया जाना चाहिए। क्योंकि, खुलासा कोई छोटा-मोटा खुलासा नहीं है, वरन इससे हमारी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और गरिमा जुड़ी हुई है। ये खुलासा भारतीय न्यायपालिका के प्रति भी लोगों के मन में एक तरह का अविश्वास पैदा करेगा। ऐसे में इस मामले का दूध का दूध और पानी का पानी होना चाहिए। अतः हालिया जरूरत ये है कि इस मामले का राजनीतिकरण करने की बजाय इसकी जांच करवाई जाए और तस्वीर को पूरी तरह से साफ़ होने दिया जाए। साथ ही, जस्टिस काटजू को भी सिर्फ ये खुलासा करके मौन नहीं धारण करना चाहिए, वरन इस मामले से सम्बंधित लोगों के नामों को भी सार्वजनिक करना चाहिए। 

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