रविवार, 11 दिसंबर 2016

पुस्तक समीक्षा : बाल-साहित्य में जरूरी हस्तक्षेप [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश की पुस्तक 'बचपन की शरारत' उनकी अबतक की समस्त गद्य बाल-रचनाओं का संग्रह है। इस कारण इन रचनाओं में विविधता भी भरपूर है और इस विविधतानुसार ही ये रचनाएँ अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित भी हैं। मौलिक कहानियाँ, नाटक, संस्मरण समेत पौराणिक और देश-विदेश की लोक कथाओं का पुनर्लेखन, इन सब श्रेणियों में दिविक रमेश की समस्त गद्य बाल-रचनाओं को विभाजित कर इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। इस श्रेणी-विभाजन के कारण पुस्तक स्वाभाविक रूप से रोचक बन गई है।

रचनाओं पर दृष्टि डालें तो दिविक रमेश के मौलिक बाल-चरित्र लूलू से जुड़ी कहानियाँ आज के बच्चों के स्वभाव समेत उनके समक्ष उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों, समस्याओं तथा उनके प्रभाव से उपजी उनकी मनोस्थिति को बड़े ही सहज ढंग से प्रकट करती हैं। इन कहानियों में यह भी बड़ी ही ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है कि बच्चों की कमियों-खूबियों-शंकाओं आदि पर अभिभावकों को किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए और कैसे बच्चों को समझाना-बहलाना चाहिए। बच्चों को ध्यान में रखकर ये कहानियाँ लिखी ही गई हैं तो स्वाभाविक रूप से उनके लिए तो इसमें बहुत कुछ सीखने-समझने और आनंद लेने को है, किन्तु साथ ही वयस्कों के लिए भी ये पठनीय और अत्यंत उपयोगी हैं। बच्चों के प्रति अभिभावकों का व्यवहार किस तरह का होना चाहिए औए कैसे व्यवहार के क्या हानि-लाभ होते हैं, इन सब चीजों की सीख-समझ अभिभावकों को इन कहानियों से मिल सकती है। 
 
दैनिक जागरण
कहानियों के अलावा कुछेक नाटक भी हैं, जिनमें से ज्यादातर कहानियों को ही नाटक के शिल्प में ढालकर बनाए गए हैं। नाटक के बाद इसमें लेखक के अन्य साहित्यकारों से मिलने-जुलने से सम्बंधित कुछ संस्मरण भी सम्मिलित हैं। अब पहले पहल तो यहाँ ये सवाल खटकता है कि बाल-साहित्य की रचनाओं में संस्मरणों और उनमें भी साहित्यकारों से मिलने-जुलने से सम्बंधित संस्मरणों को सम्मिलित करने का क्या अर्थ है ? लेकिन, जब हम इन संस्मरणों को पढ़ते हैं तो लगता है कि बच्चों के लिए इनसे अच्छा साहित्य शायद ही किसी कहानी आदि के जरिये प्रस्तुत किया जा सके। इन संस्मरणों में वो सबकुछ है, जो बाल-साहित्य की किसी भी रचना के लिए आवश्यक होता है। उसपर सबसे महत्वपूर्ण चीज है इन संस्मरणों के प्रस्तुतिकरण  का अत्यंत रोचक ढंग। यह इतनी रोचक शैली में प्रस्तुत किए गए हैं कि एकबार पढ़ना शुरू करने के बाद ख़त्म किए बिना छोड़ना संभव नहीं रह जाता। इसके अलावा भाषा की बाल-साहित्य के अनुरूप सहजता, सरलता और लालित्य अलग ही आकर्षित करता है। ये संस्मरण इस बात की तस्दीक करते हैं कि बाल-साहित्य का अर्थ सिर्फ कहानी-कविता नहीं है, बल्कि अगर रचनाकार पूरे मनोयोग और समर्पण से प्रयत्न करे तो साहित्य की किसी भी विधा में अच्छे से अच्छा बाल-साहित्य रचा जा सकता है। ये संस्मरण बाल-साहित्य को हल्केपन और अगंभीर साहित्य की दृष्टि से देखने वालों को भी आईना दिखाने का काम करते हैं।

अगली श्रेणी 'पुनर्लेखन' में दिविक रमेश द्वारा भारत की पौराणिक और लोक-कथाओं समेत विदेशों की भी लोक-कथाओं को बाल-साहित्य के सांचे में ढालकर रची गई कहानियाँ शामिल हैं। हालांकि इनमें भारत की कम कोरिया, युक्रेन, जापान आदि विदेशों की लोक कथाओं पर आधारित कहानियाँ ही अधिक शामिल हैं। बच्चों के लिए तो स्वाभाविक रूप से ये कहानियाँ उपयोगी और मजेदार हैं ही, लेकिन साथ ही इन कहानियों को पढ़ने पर सहज ही वयस्क व्यक्तियों में भी एक नॉस्टेल्जिक भाव आ सकता है। क्योंकि, इनमें से ज्यादातर कहानियों को हम सभी बचपन में दादी-नानी-बाबा आदि के जरिये थोड़े-बहुत अलग रूप में सुन चुके हैं। पौराणिक चरित्रों राम-कृष्ण आदि की कथाओं को भी बड़े ही सुन्दर ढंग से बाल-साहित्य के सांचे में ढाला गया है। इन सभी कहानियों के प्रस्तुतिकरण के दौरान एक बात का विशेष ख्याल लेखक ने रखा है कि इनका कोई चमत्कारी प्रसंग ऐसे न प्रस्तुत हो जाय कि बच्चों को बहुत अधिक विचित्र लगे अथवा उनमें अन्धविश्वास के भाव को बढ़ावा देने वाला सिद्ध हो। सभी बातों को एक ठोस वजह के साथ प्रस्तुत करने का लेखक ने यथासंभव प्रयास किया है। कहीं-कहीं कुछ-कुछ भटक भी गया है, लेकिन संभवतः वो सम्बंधित कथानक के मूल स्वरुप से ही जुड़ी चीज है, इस नाते उससे अधिक छेड़छाड़ संभव ही प्रतीत नहीं होती। खासकर विदेशी कहानियों के मामले में अधिक जगह ऐसा हुआ है।  हर कहानी के जरिये लेखक द्वारा बच्चों को कुछ न कुछ सीख और शिक्षा देने का भी पूरा प्रयत्न किया गया है। साथ ही, विदेशी लोक कथाओं पर आधारित कहानियों के जरिये तो न केवल सीख बल्कि सम्बंधित देशों के परिवेश का ज्ञान भी बच्चों को देने का लेखक का प्रयास स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। अच्छी बात ये है कि अपने इन प्रयासों में लेखक काफी हद तक सफल भी रहे हैं। बाल-साहित्य सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि हर उम्र के लोगों के लिए पठनीय और उपयोगी है, इस बात पर ये कहानियाँ पूरी तरह से बल देती हैं।

बाल-साहित्य की रचना-प्रक्रिया के अंतर्गत शब्द-शब्द के प्रयोग में इस बात का ख्याल रखना होता है कि अमुक शब्द बच्चों के लिए सहज और सुग्राह्य हो। सरल वाक्य बनाने पड़ते हैं ताकि बच्चे उन्हें सहजता से समझ सकें। कुल मिलाकर कहें तो भाषा-शैली के प्रति बाल-साहित्य के लेखक को अत्यंत सजग रहना होता है। भाषा का ज़रा भी बोझिल और उबाऊ होना, बाल-साहित्य के स्वरुप को बिगाड़ देता है और वो अपने वास्तविक पाठक यानी बच्चों को बाँधे रख पाने में विफल सिद्ध हो जाता है। इस दृष्टि से दिविक रमेश की लगभग सभी उक्त रचनाए सफल कही जा सकती हैं। क्योंकि, उनकी भाषा में कोई बनावटीपन नहीं है। सीधी-सरल हिंदी में वे अपनी बात कहते जाते हैं। शब्दों को लेकर उनमें हिंदी-अंग्रेजी आदि के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं दिखता। अंग्रेजी के जिन शब्दों का हिंदी में ठीक विकल्प उपलब्ध नहीं है, उनका अंग्रेजी रूप में ही वे सहज भाव से इस्तेमाल किए हैं। हाँ, कुछ रचनाओं में कहीं-कहीं कुछ अधिक ही भारी-भरकम शब्द तथा बच्चों के लिहाज से कुछ अधिक दुरूह वाक्य अवश्य आ गए हैं, पर उनकी मात्रा बेहद कम है। शैली को रोचक रखने का प्रयास स्पष्ट रूप से दिखता है और अच्छी बात कि ये प्रयास काफी हद सफल भी रहा है।
 
इन सब बातों को देखते हुए कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आज के समय में जब हिंदी साहित्य-जगत में बाल-साहित्य के प्रति अधिकांश वरिष्ठ साहित्यकारों में एक उपेक्षा का भाव है, ऐसे में वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश का बाल-साहित्य के प्रति इतने समर्पण और तन्मयता से सृजनरत रहना अपने आप में अद्भुत और प्रशंसनीय है। इस पुस्तक में संकलित उनकी रचनाएँ बाल-साहित्य को समृद्धि प्रदान करने  वाली हैं और आगे भी रहेंगी।

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