बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

नवरात्र का संदेश

  • पीयूष द्विवेदी भारत

भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर विभिन्न संदर्भों में यह एक तथ्य समान रूप से स्पष्ट होता है कि हमारे मनीषी पूर्वजों ने भारतीय पर्वों-अनुष्ठानों के माध्यम से प्राणिमात्र के कल्याण के अनेक उद्देश्यों को साधने व उनसे सम्बंधित संदेश देने का प्रयास किया है। भारतीय पर्व कोई रूढ़ परम्परा नहीं हैं, अपितु इस राष्ट्र और समाज को समय-दर-समय उसके विभिन्न कर्तव्यों के प्रति सजग कराने वाले जीवंत संदेश हैं। नवरात्र भी इस विषय में अपवाद नहीं है।

यद्यपि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी नवरात्र के संदर्भ में ऐसा कहते-लिखते दिख जाते हैं कि एक तरफ स्त्रियों से बलात्कार हो रहे और दूसरी तरफ कन्या-पूजन का दिखावा किया जा रहा। परन्तु, इस बात के पीछे केवल लच्छेदार भाषा ही नजर आती है, कोई ठोस तर्क नहीं दिखाई देता। क्योंकि यदि आज स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं, तब तो नवरात्र की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। कारण कि शक्ति की आराधना का यह उत्सव, स्त्री के सम्मान और सुरक्षा की भावना का व्यापक अर्थों में संयोजन किए हुए है।  

दैनिक जागरण
दरअसल भारतीय संस्कृति सदैव से नारी के सम्मान और सुरक्षा की भावना से पुष्ट रही है। हमारे पौराणिक एवं महाकाव्यात्मक इतिहास के ग्रंथों में ऐसे अनेक प्रसंग एवं उदाहरण उपस्थित हैं, जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है। एक प्रमुख उदाहरण यह है कि हमारे पुराण सृष्टि की आद्योपांत सम्पूर्ण व्यवस्था का संचालन करने वाले त्रिदेवों की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं, परन्तु, साथ ही यह भी बताते हैं कि अपनी शक्तियों के बिना त्रिदेव कुछ भी करने में असमर्थ हैं। इन्हीं त्रिदेवों की शक्तियां असुरों के विनाश के लिए विभिन्न रूप धारण करती हैं और उन्हीं रूपों की पूजा का अवसर नवरात्र होता है। शक्ति के उन रूपों की कल्पना कन्याओं में की जाती है, क्योंकि भारतीय परम्परा में नारी को देवी माना गया है। इस पृष्ठभूमि के बाद क्या अलग से यह बताने की आवश्यकता रह जाती है कि भारत में नारी का स्थान सम्मान को लेकर कैसी दृष्टि रही है। हमारे देश में अनुसूया, अरुंधती, गार्गी जैसी एक से बढ़कर एक तेजस्विनी और विद्वान् नारियों की भी परम्परा रही है।  लेकिन अब प्रश्न यह है कि आज क्यों समाज में नारियों के प्रति अपराध का बढ़ रहा है? ऐसा क्या हो गया कि कन्याओं का पूजन करने वाले समाज में लड़कियों के साथ अमानवीयता की घटनाएं दिखाई-सुनाई देने लगी हैं?

विचार करें तो यह स्थिति केवल आज के काल की ही नहीं है, अपितु हर काल में बहुसंख्यक अच्छे लोगों के बीच कुछ दुष्ट तत्व भी सक्रिय रहे हैं, जो नारी को अपना शिकार बनाते रहे हैं। प्राचीन कथाओं में भी ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि असुर किस प्रकार स्त्रियों का अपहरण कर लेते थे, उनके साथ दुष्कर्म करते थे और उन्हें अपमानित किया जाता था। यहाँ तक की देवी द्वारा जिन असुरों का विनाश किया गया है, वे भी देवी के प्रति ऐसी ही कुत्सित भावना रखते थे। ऐसे में आज यदि नारी के प्रति अपराध बढ़ रहा है, तो इसका हर मोर्चे पर प्रतिकार करने की आवश्यकता है। कानूनी कठोरता एक मोर्चा है, लेकिन इससे पूरी तरह से इस अपराध को रोका नहीं जा सकता। अन्य मोर्चों पर भी काम करने की आवश्यकता है।

इस सम्बन्ध में वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हर नारी  भीतर से देवी दुर्गा बने। जो सामान्यतः तो शांत रहती हैं और अपने स्नेही जनों के प्रति मातृभाव रखती हैं, परन्तु यदि कोई दुष्ट आ जाता है, तो उसका विनाश करने में भी सक्षम हैं। आज उसी प्रकार नारी को आत्मरक्षा के लिए तन और मन दोनों से तैयार होना होगा। यह समय देवी के उस रूप को पूजने के साथ-साथ आत्मसात करने का भी है। इसके लिए आवश्यक साहस और दृढ़ता जैसे गुण तो स्त्रियों में हैं ही और जिन क्षेत्रों में भी अवसर मिला है, स्त्रियाँ अपने इन गुणों को सिद्ध भी कर रही हैं। परन्तु, अब इसे हर स्त्री को अपनाना होगा।

यह ठीक है कि स्त्री की एक शृंगार-केन्द्रित छवि रही है, लेकिन अब श्रृंगार के साथ-साथ उन्हें शौर्य को भी धारण करना होगा। शौर्य और शृंगार कोई विरोधी तत्व नहीं हैं कि एकसाथ इन्हें साधा नहीं जा सकता। अतः नारी को इस दिशा में बढ़ना चाहिए क्योंकि यह समय की मांग है और शक्ति की आराधना का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी यही है। सरकार को भी स्त्रियों को आत्मरक्षा के लिए तैयार करने हेतु कोई राष्ट्रव्यापी अभियान आरम्भ करे जिससे कि हर स्त्री के भीतर उपस्थित शक्ति को जागृत किया जा सके।

‘शक्ति’ के अतिरिक्त देवी का एक ‘माँ’ का भी रूप होता है। इस रूप में नारी अपनी संतान में संस्कार के ऐसे बीज यदि रोप सकें कि संसार का हर प्राणी सम्माननीय है, तो स्त्रियों के सम्मान और सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं का शायद पूर्णतः समाधान हो सकता है। यह अपेक्षाएं स्त्रियों से इसलिए हैं क्योंकि आज के समय में वे ही ‘शक्ति’ की प्रतीक हैं। उनके बिना न केवल पुरुष अपितु पूरा समाज शक्तिहीन ही है। अतः समाज में जो विकृतियाँ हैं, उनका शमन करने के लिए उनके जुटे बिना बात नहीं बनेगी। यह देश अनेक वीरांगनाओं से भरा रहा है। उनकी प्रेरणा और संकल्पों ने परिवार और समाज को समय-समय पर ऊर्जा प्रदान की है। वर्तमान समय की उनसे कुछ यही अपेक्षा है।  

रहे पुरुष तो वे इतना ही संकल्प ले लें कि नवरात्र में जिस आदर-भाव से कन्याओं का पूजन करते हैं, वो भाव वर्ष के अन्य दिनों में भी जीवन में मिलने वाली हर स्त्री के प्रति मन में बनाए रखेंगे। स्त्रियों बाकी सब अर्जित करने में समर्थ हैं, पुरुष केवल उन्हें सम्मान दें, इतना ही पर्याप्त होगा।

सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

फिल्म सिटी की सफलता से जुड़े सवाल

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत दिनों उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने राज्य में विश्वस्तरीय फिल्म सिटी बनाने की घोषणा की थी और अब सरकार इस दिशा में तेजी से बढ़ती हुई भी नजर आ रही है। नोएडा में एक हजार एकड़ में यह फिल्म सिटी बननी निश्चित हुई है। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं इस परियोजना में विशेष रुचि ले रहे हैं, जिसका अंदाजा इस सम्बन्ध में उनके द्वारा की गयी बैठकों से लगाया जा सकता है। अपने अधिकारियों के साथ तो वे बैठक कर ही रहे, पिछले दिनों फिल्म जगत के कई दिग्गज कलाकारों के साथ भी उन्होंने इस परियोजना को लेकर चर्चा बैठक की थी। फिल्म सिटी के लिए विश्वस्तरीय सलाहकार कंपनी का चयन करने के लिए निविदा जारी करने पर भी चर्चा चल रही है। ख़बरों के मुताबिक़, मुख्यमंत्री योगी चाहते हैं कि यथाशीघ्र इसकी औपचारिकताएं पूरी कर फिल्म सिटी के निर्माण का काम शुरू कर दिया जाए।

दरअसल यूपी में फिल्म सिटी बनाने की बात दो हजार के दशक से ही हो रही है। 1993 में यह बात उठी लेकिन हुआ कुछ नहीं। इसी प्रकार अखिलेश सरकार के कार्यकाल में भी फिल्म सिटी का विषय आया था, लेकिन कुछ भी ठोस रूप में आकार नहीं ले सका। राज्य की फिल्म नीति में फिल्म सिटी की घोषणा मिलती है। अब योगी सरकार की सक्रियता देखकर उम्मीद जगती है कि शायद अबकी यह घोषणा सिर्फ घोषणा बनकर ही न रहे। यूँ तो अभी यूपी में फिल्म सिटी का काम प्राथमिक चरण में ही है, लेकिन एकबार के लिए यदि मान लें कि सरकार की सक्रियता से राज्य में फिल्म सिटी बनकर खड़ी हो जाएगी तो भी ऐसी कई बातें हैं, जिनपर काम किए बिना फिल्म सिटी के बहुत सफल होने की संभावना नहीं है।

दैनिक जागरण
दरअसल किसी भी फिल्म के निर्माण अभिनेता-अभिनेत्री से बड़ी भूमिका परदे के पीछे काम करने वाले तकनीशियनों की होती है। अब उत्तर प्रदेश ने फिल्म जगत को कलाकार तो खूब दिए हैं और अब भी दे ही रहा है, लेकिन फिल्म निर्माण के अन्य पक्षों से सम्बंधित प्रतिभाएं राज्य में पर्याप्त विकसित नहीं हो पाई हैं। कारण कि यहाँ उसके लिए आवश्यक व्यवस्था ही नहीं है। फिल्म निर्माण में छायांकन, संपादन जैसी चीजें महत्वपूर्ण होती हैं। आज के समय में लगभग हर फिल्म के लिए वीएफएक्स का काम भी आवश्यक हो चुका है। उत्तर प्रदेश में फिल्म निर्माण की इन जरूरतों को लेकर अभी तक कोई ठोस तैयारी नजर नहीं आती। फिल्म निर्माण से सम्बंधित इन तकनीकी विषयों के शिक्षण-प्रशिक्षण की कोई पुख्ता व्यवस्था अभी राज्य में विकसित नहीं हो पाई है। ऐसे में, केवल फिल्म सिटी का ढांचा खड़ा हो जाने से फिल्म निर्माण के वातावरण का निर्मित होना संभव नहीं है

उत्तर प्रदेश में 1999 में फिल्म नीति की घोषणा की गयी थी, जिसमें वर्तमान सरकार ने हाल ही में कुछ संशोधन कर नयी नीति जारी की है। इस फिल्म नीति का उद्देश्य ‘उत्तर प्रदेश में फिल्म उद्योग के समग्र विकास हेतु एक सुसंगठित ढांचा और एवं उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना’ निर्धारित किया गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राज्य सरकार ने ‘उप्र फिल्म बंधु’ का गठन किया है, जिसका दायित्व फिल्म-निर्माण के लिए उपयुक्त वातावरण सृजित कर, फिल्म संबधी गतिविधियों को बढ़ावा देकर प्रदेश को फिल्म निर्माण के हब के रुप में विकसित करना है। इसके अलावा नयी फिल्म नीति में राज्य में फिल्म प्रशिक्षण की व्यवस्था से लेकर स्टूडियो-लैब जैसी व्यवस्थाएं स्थापित करने की बात भी कही गयी है, लेकिन धरातल पर यह चीजें कब उतरेंगी, कहा नहीं जा सकता। फिलहाल होता केवल ये दिख रहा है कि कम बजट वाली फिल्मों के निर्माता यूपी में शूटिंग कर राज्य सरकार से सब्सिडी बटोरने में लगे हैं। इस साल की शुरुआत में ही फिल्म विकास परिषद और यूपी फिल्म बंधु द्वारा हिंदी-भोजपुरी की बाईस फिल्मों को ग्यारह करोड़ की सब्सिडी आवंटित की गयी है। फिल्म निर्माता-निर्देशक फिल्मों की कुछ शूटिंग यूपी में करते हैं, सब्सिडी लेते हैं और फिर ‘पोस्ट प्रोडक्शन’ का काम मुंबई में करवाने निकल जाते हैं, क्योंकि राज्य में इसके लिए जरूरी व्यवस्था अभी नहीं बन पाई है। ऐसे में राज्य को शूटिंग का कोई लाभ नहीं मिल पाता।  

उक्त तथ्यों से दो बातें साफ़ होती हैं। एक कि राज्य में फिल्म निर्माण के लिए जरूरी वातावरण अभी नहीं है और दूसरी कि इस वातावरण को तैयार करने से सम्बंधित लगभग सभी बातें राज्य की फिल्म नीति में सम्मिलित हैं। यानी कि यदि फिल्म नीति का समुचित क्रियान्वयन हो जाए तो उत्तर प्रदेश फिल्म निर्माण की भरपूर संभावनाओं से युक्त हो सकता है। फिल्म नीति के क्रियान्वयन का काम मुख्यमंत्री नहीं देख सकते। इसके लिए फिल्म विकास परिषद् की स्थापना की गयी है। लेकिन राज्य की फिल्म विकास परिषद् का अध्यक्ष पद राजनीतिक रेवड़ी के रूप में बंटता आया है। सपा सरकार में अमर सिंह के दबाव में जया प्रदा को इसका उपाध्यक्ष बनाया गया था। फिलहाल इसके अध्यक्ष स्टैंडअप कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव हैं। राजू उम्दा हास्य कलाकार हैं, लेकिन यह प्रतिभा उन्हें इस महत्वपूर्ण पद के लिए योग्य नहीं बनाती। जरूरत है कि इस पद पर फिल्म जगत की आवश्यकताओं की गंभीर समझ रखने वाले किसी अनुभवी व्यक्ति को होना चाहिए, ताकि राज्य की फिल्म नीति को सही ढंग से धरातल पर उतारने में यह परिषद् अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन कर सके। अतः फिल्म सिटी निर्माण के समानांतर योगी सरकार को इन बिंदुओं पर भी काम करने की आवश्यकता है। ऐसा होने की स्थिति में, जबतक फिल्म सिटी बनकर तैयार होगी तबतक राज्य में फिल्म निर्माण के लिए जरूरी आधार और वातावरण भी तैयार हो चुका होगा। निश्चित रूप से इसका लाभ उत्तर प्रदेश को मिलेगा।

रविवार, 4 अक्तूबर 2020

पशुओं की भी है ये धरती

  • पीयूष द्विवेदी भारत

अपनी सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे आदमी को अब यह अंदाजा ही नहीं रह गया है कि वो अपने साथ-साथ अन्य जीवों के लिए इस धरती के वातावरण को कितना मुश्किल बनाता जा रहा है। लगातार कटते पेड़ों से जानवरों का जीवन संकट में है। कितने ही पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं, तो कितनी लुप्त होने की ओर बढ़ रही हैं। ऐसी ‘विश्व पशु दिवस’ का महत्व और बढ़ जाता है।

दैनिक जागरण आईनेक्स्ट

हर साल पशुप्रेमी संत फ्रांसिस ऑफ़ एसीसी के जन्मदिन 4 अक्टूबर को दुनिया भर में यह दिवस मनाया जाता है। इसके पीछे जहाँ एक तरफ पशुओं की विभिन्न प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने और उनकी रक्षा करने की बात है, वहीं हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि हम पशुओं पर क्रूरता करने से बचें। इस दिवस का मूल उद्देश्य विलुप्त हुए प्राणियों की रक्षा करना और मानव से उनके संबंधों को मजबूत करना था। साथ ही पशुओं के कल्याण के सन्दर्भ विश्व पशु कल्याण दिवस का आयोजन करना है। ताकि उनके प्रति संवेदना स्थापित करने के साथ-साथ पशुओं की हत्या और क्रूरता पर रोक लगायी जा सके।  विश्व के सभी देशों में अलग-अलग तरह से इस दिवस को मनाया जाता है। जन जागरण और जन शिक्षण के माध्यम से पशुओं को संवेदनशील प्राणी का दरजा देने के लिए समाज के सभी वर्गों का योगदान आवश्यक है। यह दुनिया मनुष्य के साथ-साथ जानवरों के लिए भी एक बेहतर स्थान बन सके, यह इस दिवस का मूल भाव है।

इस दिवस को पहली बार 24 मार्च, 1925 को जर्मन लेखक हेनरिक जिमर्मन द्वारा मनाया गया था। हालांकि तब भी इसको मनाने का विचार 4 अक्टूबर को ही था, लेकिन इस तारीख को आयोजन के लिए निर्धारित स्थल खाली नहीं था, इसलिए इसे मार्च में मना दिया गया। परन्तु, फिर बाद में 4 अक्टूबर, 1931 को इसे इटली में आयोजित विज्ञानशास्त्रियों के सम्मलेन में मनाया गया।

विचार करें कि आज हम पशु कल्याण दिवस तो मना रहे, लेकिन क्या उससे दुनिया में जानवरों के प्रति लोगों की सोच में कोई बदलाव आया है, तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखाई देती। स्थिति ये है कि आज भी ज्यादातर आदमी जानवरों को महत्व केवल तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ या सुख से सम्बन्ध रखते हों। जैसे कि बहुत से लोगों को कुत्ते-बिल्ली पालने का शौक होता है, तो वे उन्हें पकड़कर बाँध के रख लेते हैं और उनसे अपना मनोरंजन करते हैं। कुछ लोग कुत्ते से घर की रखवाली का शौक रखते हैं, क्योंकि वो वफादार होता है। इसी तरह कुछ लोग सरपट भागने वाले खरगोश को भी पालतू बनाकर चारदीवारी में कैद कर लेते हैं। गाय पालते हैं, क्योंकि उससे दूध मिलता है। घोडा-हाथी लोगों को इसलिए प्रिय है कि वे आवागमन के काम में आते हैं। यह आदमी का पाखण्ड नहीं तो और क्या है कि पहले उसने अपने स्वार्थ के लिए पेड़ काट-काटकर जानवरों के जंगल छीन लिए और अब उन्हें अपने घर के एक कोने में बांधकर रखते हुए वो खुद को पशुप्रेमी साबित करने में लगा रहता है।

कुछ जानवर तो आदमी के लिए केवल उसके स्वाद की वस्तु हैं। चिकन से लेकर मीट और बीफ तक असंख्य जानवरों को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है कि ताकि कुछ लोगों के खाने में स्वाद आ सके। आज दुनिया के अधिकांश देशों में मीट एक उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है और इसके व्यापार से वहाँ की सरकारों का खजाना भरता है। आज प्रतिवर्ष दुनिया में लगभग 320 मिलियन टन मीट का उत्पादन होता है और इसकी खपत भी हो जाती है। तकरीबन 80 बिलियन जानवरों को प्रतिवर्ष मांस प्राप्त करने के उद्देश्य से मार दिया जाता है। इनमें सबसे बड़ी तादाद मुर्गों की है। लेकिन ये करने के बाद भी सब देश पशुप्रेमी होने का दावा करने से नहीं चूकते। इस काम के पक्ष में माँसाहारी लोगों के पास दलीलें भी खूब होती हैं। वे कहते हैं कि यदि इस तरह जानवरों को नहीं मारा जाएगा तो धरती का संतुलन बिगड़ जाएगा और हर तरफ जानवर ही जानवर फ़ैल जाएंगे। इस तर्क के हिसाब से चलें तब तो जहां मनुष्य की आबादी बहुत ज्यादा हो रही है, वहां उन्हें भी मारना शुरू कर देना चाहिए। लेकिन यह कोई तरीका नहीं होता। इन तथ्यों का निष्कर्ष यही है कि दुनिया का पशुप्रेम दिखावा ही अधिक है, उसमें वास्तविकता बहुत कम है।

इस संदर्भ में भारत की बात करें तो पशुपालन भारतीय अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सत्रहवीं पशु गणना की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के कुल भैसों का 57 प्रतिशत और गाय-बैलों का लगभग 14 प्रतिशत भारत में है। कृषि और मवेशी गतिविधियों के अंतर्गत इनका पूरा उपयोग भी होता है। गाय को देश में माँ समान मानकर पूजा जाता है।  लेकिन साथ ही साथ देश में इस तरह के पशुओं का उपयोग न होने की स्थिति में उन्हें छुट्टा छोड़ देने की समस्या भी खूब है। अब ट्रैक्टर आ जाने से बैल की उपयोगिता कम हो गयी है, तो अक्सर लोग उन्हें खुले में छोड़ देते हैं। दूध देना बंद कर देने पर गाय-भैंस जैसे पशुओं को छोड़ दिया जाता है। ऐसी स्थिति में ये पशु बिना किसी व्यवस्था के इधर-उधर फिरते हैं और सड़क पर पड़े कूड़े के ढेर में अपने लिए भोजन तलाशने को विवश होते हैं। यह नहीं हुआ तो लोग इन्हें बूचड़खाने को बेच देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि गाय को पूजने वाले इस देश में गोवंश की देखरेख की कोई बेहतर व्यवस्था अभी नहीं बन पाई है और इन पशुओं के प्रति भी मानव का व्यवहार अपने स्वार्थों पर ही आधारित है।

हालांकि इससे इतर भारत में पशु संरक्षण के लिए कई मोर्चों पर प्रयास भी होते रहे हैं, जिसमें कुछ मोर्चों पर सफलता भी मिली है। जैसे कि बाघ संरक्षण के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों से उनके संरक्षण में सफलता मिली है। बाघ संरक्षण के लिये किये जा रहे प्रयासों के परिणामस्वरूप बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर हर चार वर्ष बाद आधुनिक तरीकों से बाघों की संख्या की गिनती की जाती है। बाघ रेंज के देशों ने 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग में घोषणा के दौरान 2022 तक अपनी-अपनी रेंज में बाघों की संख्या दोगुनी करने का संकल्प व्यक्त किया था। सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित इस चर्चा के समय भारत में 1411 बाघ होने का अनुमान था जो कि ‘अखिल भारतीय बाघ अनुमान 2014’ के तीसरे चक्र के बाद दोगुना होकर 2226 हो गया। अभी इस वर्ष पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर द्वारा बाघों पर "स्टेटस ऑफ़ टाइगर्स - कोप्रिडेटर्स एंड प्रेय इन इंडिया" नामक रिपोर्ट जारी करते हुए जानकारी दी गयी कि 2014 से 2018 के बीच देश में बाघों की संख्या 2226 से बढ़कर 2967 तक पहुंच गयी है। स्पष्ट है कि बाघ संरक्षण में देश को बहुत हद तक सफलता मिली है। बाघ प्रोजेक्ट की तरह ही देश ने अलग-अलग समय पर हाथी, गैंडा, घड़ियाल, गिद्ध, डॉलफिन, बर्फीले तेंदुआ, सोहन चिड़िया, लाल पांडा आदि अनेक जीवों के संरक्षण के लिए कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इनमें से कुछ में लक्ष्यों को हासिल करने में सफलता भी मिली है। लेकिन आज हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि किसी भी पशु के अस्तित्व पर ऐसा संकट आए ही नहीं कि उसके संरक्षण की आवश्यकता उपस्थित हो। यह तभी होगा जब मनुष्य जाति अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर पशु कल्याण की दृष्टि को अपनाएगी। भारतीय संस्कृति में जीव मात्र के कल्याण की भावना रही है। हमें इस भावना को अपने आचरण में उतारते हुए मन से यह बात स्वीकारने की आवश्यकता है कि ये धरती पशुओं की भी उतनी ही है जितनी मनुष्यों की। यह बात अगर हम समझ सकें तो ही विश्व पशु दिवस के आयोजन की कोई सार्थकता होगी।