- पीयूष द्विवेदी भारत
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर विभिन्न संदर्भों में यह एक तथ्य समान रूप से स्पष्ट होता है कि हमारे मनीषी पूर्वजों ने भारतीय पर्वों-अनुष्ठानों के माध्यम से प्राणिमात्र के कल्याण के अनेक उद्देश्यों को साधने व उनसे सम्बंधित संदेश देने का प्रयास किया है। भारतीय पर्व कोई रूढ़ परम्परा नहीं हैं, अपितु इस राष्ट्र और समाज को समय-दर-समय उसके विभिन्न कर्तव्यों के प्रति सजग कराने वाले जीवंत संदेश हैं। नवरात्र भी इस विषय में अपवाद नहीं है।
यद्यपि कुछ
तथाकथित बुद्धिजीवी नवरात्र के संदर्भ में ऐसा कहते-लिखते दिख जाते हैं कि एक तरफ
स्त्रियों से बलात्कार हो रहे और दूसरी तरफ कन्या-पूजन का दिखावा किया जा रहा।
परन्तु, इस बात के पीछे केवल लच्छेदार भाषा ही नजर आती है, कोई ठोस तर्क नहीं
दिखाई देता। क्योंकि यदि आज स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं, तब तो नवरात्र
की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। कारण कि शक्ति की आराधना का यह उत्सव, स्त्री
के सम्मान और सुरक्षा की भावना का व्यापक अर्थों में संयोजन किए हुए है।
दैनिक जागरण |
विचार करें तो यह
स्थिति केवल आज के काल की ही नहीं है, अपितु हर काल में बहुसंख्यक अच्छे लोगों के
बीच कुछ दुष्ट तत्व भी सक्रिय रहे हैं, जो नारी को अपना शिकार बनाते रहे हैं।
प्राचीन कथाओं में भी ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि असुर किस प्रकार स्त्रियों का अपहरण
कर लेते थे, उनके साथ दुष्कर्म करते थे और उन्हें अपमानित किया जाता था। यहाँ तक
की देवी द्वारा जिन असुरों का विनाश किया गया है, वे भी देवी के प्रति ऐसी ही
कुत्सित भावना रखते थे। ऐसे में आज यदि नारी के प्रति अपराध बढ़ रहा है, तो इसका हर
मोर्चे पर प्रतिकार करने की आवश्यकता है। कानूनी कठोरता एक मोर्चा है, लेकिन इससे
पूरी तरह से इस अपराध को रोका नहीं जा सकता। अन्य मोर्चों पर भी काम करने की
आवश्यकता है।
इस सम्बन्ध में
वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हर नारी भीतर से देवी दुर्गा बने। जो सामान्यतः तो शांत
रहती हैं और अपने स्नेही जनों के प्रति मातृभाव रखती हैं, परन्तु यदि कोई दुष्ट आ
जाता है, तो उसका विनाश करने में भी सक्षम हैं। आज उसी प्रकार नारी को आत्मरक्षा
के लिए तन और मन दोनों से तैयार होना होगा। यह समय देवी के उस रूप को पूजने के
साथ-साथ आत्मसात करने का भी है। इसके लिए आवश्यक साहस और दृढ़ता जैसे गुण तो
स्त्रियों में हैं ही और जिन क्षेत्रों में भी अवसर मिला है, स्त्रियाँ अपने इन
गुणों को सिद्ध भी कर रही हैं। परन्तु, अब इसे हर स्त्री को अपनाना होगा।
यह ठीक है कि स्त्री
की एक शृंगार-केन्द्रित छवि रही है, लेकिन अब श्रृंगार के साथ-साथ उन्हें शौर्य को
भी धारण करना होगा। शौर्य और शृंगार कोई विरोधी तत्व नहीं हैं कि एकसाथ इन्हें
साधा नहीं जा सकता। अतः नारी को इस दिशा में बढ़ना चाहिए क्योंकि यह समय की मांग है
और शक्ति की आराधना का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी यही है। सरकार को भी स्त्रियों को
आत्मरक्षा के लिए तैयार करने हेतु कोई राष्ट्रव्यापी अभियान आरम्भ करे जिससे कि हर
स्त्री के भीतर उपस्थित शक्ति को जागृत किया जा सके।
‘शक्ति’ के
अतिरिक्त देवी का एक ‘माँ’ का भी रूप होता है। इस रूप में नारी अपनी संतान में
संस्कार के ऐसे बीज यदि रोप सकें कि संसार का हर प्राणी सम्माननीय है, तो स्त्रियों
के सम्मान और सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं का शायद पूर्णतः समाधान हो सकता है। यह
अपेक्षाएं स्त्रियों से इसलिए हैं क्योंकि आज के समय में वे ही ‘शक्ति’ की प्रतीक
हैं। उनके बिना न केवल पुरुष अपितु पूरा समाज शक्तिहीन ही है। अतः समाज में जो
विकृतियाँ हैं, उनका शमन करने के लिए उनके जुटे बिना बात नहीं बनेगी। यह देश अनेक
वीरांगनाओं से भरा रहा है। उनकी प्रेरणा और संकल्पों ने परिवार और समाज को समय-समय
पर ऊर्जा प्रदान की है। वर्तमान समय की उनसे कुछ यही अपेक्षा है।
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