रविवार, 20 अगस्त 2017

पुस्तक समीक्षा : माँ की तरह सिखाती-समझाती कविताएँ [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

किस तरह साहित्य के माध्यम से बच्चों के मस्तिष्क को सुसंस्कारित किया जा सकता है, इसका उत्तम उदाहरण हमें दिविक रमेश के बाल-कविता संग्रहछुट्कल मुट्कल बाल कविताएँकी कविताओं में मिलता है। इस संग्रह की कविताओं में समय और समाज के विभिन्न विषयों, आवश्यकताओं और विसंगतियों को ऐसे बातचीत के लहजे में पिरोया गया है कि बच्चे उन्हें सहज ही ग्रहण कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये कविताएँ बच्चों को माँ की तरह बड़े प्यार-दुलार और आत्मीयता के साथ चीजों को सिखाने समझाने की कोशिश करती हैं।
दैनिक जागरण
 
संग्रह की कुछ कविताओं पर दृष्टि डालें तो इसकी एक कविताहँसी का इंजक्शनमें दादा-पोते के संवाद के माध्यम से जहाँ बच्चों में अपने बड़ों के प्रति सेवा और आदर का भाव पैदा करने की सीख दी गयी है, तो वहींमैं पढ़ता दीदी भी पढ़तीजैसी कविता के जरिये बच्चों में परस्पर सहयोग और समानता का भाव विकसित करने का प्रयास नज़र आता है। साथ ही, इस कविता की ये पंक्तियाँमैं पढ़ता दीदी भी पढ़ती/ क्यों माँ चाहतीं दीदी ही पर/ काम करें घर के सारेबड़ों के समक्ष भी एक बड़े प्रश्न की तरह है। सोचने की जरूरत है कि अगर हमारा बच्चा हमसे ऐसा प्रश्न पूछ दे तो क्या इसका कोई तर्कसंगत उत्तर हमारे पास है ? संग्रह की एक अन्य कविताआओ महीनों आओ घरमें बड़े ही सुन्दर ढंग से बच्चों को साल के महीनों तथा उनमें पड़ने वाले विशेष त्योहारों की जानकारी दी गयी है। खेल-खेल में सिखाने का ये कविता एक अच्छा उदाहरण है। ऐसे ही इस संग्रह कीमैं तो सबको प्यार करूंगा’, ‘नाचते रहते भूल के सर्दी’, ‘हमें देश तो लगता जैसेआदि विभिन्न विषयों पर केन्द्रित कविताएँ बच्चों में अलग-अलग प्रकार की सीख-समझ और जानकारी का विकास करने का प्रयास करती हैं। बाल-साहित्य की भाषा सरल, सहज और मधुर होनी चाहिए जिससे बच्चे उससे आसानी से जुड़ सकें। इस संग्रह की कविताओं की भाषा इसी प्रकार की है. ये बच्चों को सहज ही आकर्षित कर सकती है। इसके अलावा अच्छी बात यह भी है कि ज्यादातर कविताएँ लयबद्ध हैं और गुनगुनाई जा सकती हैं।  बाल-साहित्य की बुनियादी शर्त यही होती है कि उसमें अलग से कुछ सिखाने का आग्रह नहीं होना चाहिए, और इस कसौटी पर ये कविताएँ सौ फीसदी खरी साबित होती हैं।

शनिवार, 5 अगस्त 2017

अनुचित है रसोई गैस सब्सिडी का खात्मा [जनसत्ता, अमर उजाला कॉम्पैक्ट और दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
लोकसभा में रसोई गैस कनेक्शनों की अनियमितताओं से सम्बंधित एक प्रश्न का उत्तर देते हुए पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने बताया कि सरकार द्वारा रसोई गैस सिलिंडरों की कीमतों में विगत जून से प्रतिमाह चार रूपये की बढ़ोत्तरी का आदेश तेल कम्पनियों को दिया गया है। इस आदेश के पीछे सरकार की योजना ३१ मार्च, २०१८ तक रसोई गैस सिलिंडरों से सब्सिडी को पूरी तरह से ख़त्म कर देने की है। यदि मार्च तक सब्सिडी समाप्त नहीं हुई तो इस मूल्य वृद्धि को आगे भी जारी रखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त मंत्री महोदय द्वारा यह जानकारी भी दी गयी कि सब्सिडी ख़त्म करने की दिशा में गत वर्ष जुलाई से रसोई गैस सिलिंडरों पर प्रतिमाह दो रूपये की बढ़ोत्तरी की जा रही थी। इस दौरान यह बढ़ोत्तरी लगभग दस बार हुई। यह भी उल्लेखनीय होगा कि जीएसटी लागू होने के बाद बीती ११ जुलाई को भी सरकार द्वारा सब्सिडी वाले गैस सिलिंडरों पर ३२ रूपये की वृद्धि की गयी थी।

दैनिक जागरण
इन सब तथ्यों को देखते हुए समझा जा सकता है कि सरकार बेहद चतुराई से रसोई गैस की सब्सिडी ख़त्म करने की दिशा में बढ़ रही है। यह ऐसी चतुराई है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी टूटे। यानी कि सब्सिडी ख़त्म भी हो जाए और जनता को उसकी कोई विशेष भनक भी लगे। गौरतलब है कि पेट्रोलियम मंत्री के बताने से पूर्व यह बात देश में कम ही लोगों को ज्ञात होगी कि बीते एक वर्ष से हर महीने उनकी सब्सिडी में से दो रूपये की कटौती हो रही है। दरअसल सब्सिडी मिलने की प्रक्रिया ऐसी है कि इस कटौती का उपभोक्ता को कोई पता ही नहीं चल पाता होगा। प्रक्रिया के अनुसार पहले उपभोक्ता को सब्सिडी रहित मूल्य में सिलिंडर लेना होता है और फिर सब्सिडी की रक़म उसके खाते में पहुँचती है। सब्सिडी रहित सिलिंडरों के दामों में आए दिन कमी और वृद्धि होती रहती है, जिससे सब्सिडी युक्त सिलिंडरों की सब्सिडी भी प्रभावित होती है। इस प्रकार उपभोक्ता को कभी थोड़ी अधिक तो कभी कुछ कम सब्सिडी मिलती है। यानी कि सब्सिडी की रकम में प्रायः अस्थिरता रहती है, ऐसी अस्थिरता के बीच यदि प्रतिमाह सब्सिडी में दो रूपये की कटौती होती रही हो तो आम आदमी को उसका पता चलने की संभावना कम ही है। यहाँ दोष विपक्ष का भी है कि पूरे वर्ष सब्सिडी में दो रूपये की कटौती होती रही और वो इसपर मौन रहा। ये तो शुक्र है कि फिलहाल सदन में प्रश्नोत्तर के माध्यम से चार रूपये की कटौती सम्बन्धी जानकारी आज ख़बरों में है, अन्यथा संभव है कि गैस उपभोक्ताओं की गैरजानकारी में ये कटौती भी होती रहती।          

जनसत्ता
दरअसल सब्सिडी ख़त्म करने की यह अक्ल सरकार को गत वर्ष की शुरुआत में देश के कुछ अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गयी थी। अर्थव्यवस्था को उच्च आर्थिक वृद्धि दर के मार्ग पर लाने को अर्थशास्त्रियों ने आम बजट 2016-17 में कुछ अलोकप्रिय कदम उठाने और कठोर राजकोषीय अनुशासन में ढिलाई बरतने का सुझाव दिया था। अर्थशास्त्रियों का कहना था कि सरकार को रसोई गैस सब्सिडी को खत्म कर देना चाहिए। इसके बाद ही सरकार द्वारा गत वर्ष से सब्सिडी में प्रतिमाह दो रूपये की कटौती की योजना पर अमल शुरू किया गया।

बहरहाल, अब सवाल यह उठता है कि सरकार का सब्सिडी ख़त्म करने का यह कदम कितना उचित है ? यह ठीक है कि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था और राजकोषीय घाटे से जूझ रहे देश के लिए सब्सिडी कोई अच्छी चीज नहीं कही जा सकती। परन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संवैधानिक रूप से भारत एक कल्याणकारी राज्य है, अतः सरकार का दायित्व बनता है कि समाज के सभी वर्गों तक समान रूप से संसाधनों का वितरण सुनिश्चित करे। क्योंकि, अर्थव्यवस्था की मजबूती के महत्वाकांक्षी मोह में गरीब जनता की अनदेखी करना एक कल्याणकारी राष्ट्र का चरित्र नहीं होता है। दूसरी बात कि सरकार का सब्सिडी खत्म करने का यह तरीका भी बेहद गलत है। धीरे-धीरे सब्सिडी खत्म करने के इस तरीके को आर्थिक विशेषज्ञ भले से इस तर्क के आधार पर उचित ठहराएं कि इससे एकबार में उपभोक्ता पर अधिक बोझ नहीं पड़ेगा। मगर इस तरीके से सरकार की यह मंशा भी प्रतीत होती है कि वो धीरे-धीरे आम आदमी को महंगाई के प्रति अभ्यस्त बना देना चाहती है। 

अमर उजाला कॉम्पैक्ट
गौर करें तो अभी सरकार द्वारा निर्धारित ३२ रूपये प्रति व्यक्ति दैनिक आय के गरीबी रेखा निर्धारित करने वाले अनुचित मानक के बावजूद आधिकारिक तौर पर देश की लगभग २२ फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन-निर्वाह कर रही है। इस आबादी की आर्थिक दशा  यह है कि सब्सिडी के बावजूद रसोई गैस का नियमित रूप से उपयोग कर पाना इसके लिए संभव नहीं है। ऐसे में, रसोई गैस पर से सब्सिडी समाप्त कर देना, इस आबादी की मुश्किलें और बढ़ाने वाला कदम ही कहा जाएगा। रसोई गैस जीवन की भोजन जैसी एक बुनियादी जरूरत से  सम्बंधित संसाधन है, अतः देश की गरीब जनता के लिए उसके उपयोग को और महंगा बनाना उचित नहीं कहा जा सकता।      

इस संदर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय होगा कि केंद्र सरकार द्वारा मई, २०१६ को प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की शुरुआत की गयी, जिसके तहत देश के पांच करोड़ गरीब परिवारों को मुफ्त गैस कनेक्शन वितरित करने का लक्ष्य रखा गया था। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अबतक इस योजना के तहत दो करोड़ चौंसठ लाख से अधिक गैस कनेक्शन वितरित किए जा चुके हैं। अब सरकार को बताना चाहिए कि जिन गरीब परिवारों की आर्थिक दशा ऐसी भी नहीं थी कि कुछ हजार रूपये जुटाकर एक अदद गैस कनेक्शन ले सकें, वे परिवार क्या सब्सिडी समाप्त होने के बाद महँगी दरों पर उज्ज्वला योजना के तहत मिले गैस सिलिंडर का नियमित उपयोग कर पाएंगे ? प्रधानमंत्री कहते हैं कि इस योजना के जरिये वे माताओं-बहनों को धुएं से मुक्ति दिलाना चाहते हैं, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या रसोई गैस सब्सिडी ख़त्म करके सरकार अपनी इसी योजना के लक्ष्यों की मिट्टीपलीद नहीं कर रही ? एक आंकड़े के मुताबिक़ अभी देश में साढ़े उन्नीस करोड़ से अधिक एलपीजी कनेक्शन हैं । सरकार ने २०१९ तक देश की पंचानवे प्रतिशत आबादी को रसोई गैस उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है। संभव है कि सरकार अपने इस लक्ष्य में कामयाब भी हो जाए। मगर, गैस भरवाना महँगा होने पर इसमें से बहुतायत गरीब लोग गैस सिलिंडर होते हुए भी लकड़ी-चूल्हे का ही रुख कर लेंगे, ऐसे में सरकार द्वारा घर-घर में रसोई गैस सिलिंडर पहुँचाने के लक्ष्य का क्या अर्थ रह जाएगा ? घर में सिलिंडर गैस होने के बावजूद लोग लकड़ी के चूल्हे का रुख कर धुएँ से जूझने को मजबूर होंगे। जरूरत है कि सरकार इस स्थिति को समझे और फिलहाल रसोई गैस सब्सिडी समाप्त करने के अपने इरादे पर विराम लगाए। भोजन जैसी बुनियादी जरूरत से जुड़े संसाधन रसोई गैस की सब्सिडी तबतक जारी रखना हमारा दायित्व है, जबतक हम देश के गरीब तबके की प्रति व्यक्ति आय को एक उचित स्तर तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो जाते।

अब रही बात राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए खर्चों में कटौती की, तो सरकार उसके लिए केन्द्रीय वेतन आयोगों समेत अन्य सरकारी खर्चों में कटौती करने जैसे अन्य विकल्पों पर विचार कर सकती है। लेकिन, रसोई गैस से सब्सिडी खत्म करना इसका उचित विकल्प नहीं है।