बुधवार, 26 अगस्त 2015

इन पूर्व सैनिकों की भी सुनिए सरकार [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और दैनिंक दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण
विगत दो महीने से दिल्ली के जन्तर-मंतर पर वन रैंक-वन पेंशन की मांग को लेकर धरने पर बैठे हैं और अब तो कुछ पूर्व सैनिक आमरण अनशन पर भी बैठ गए हैं जिस दौरान अनशनरत रिटायर्ड कर्नल पुष्पिंदर सिंह की तबियत भी बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। लेकिन इससे पूर्व सैनिकों का जोश न टूटा। कर्नल सिंह के अस्पताल जाते ही उनकी जगह हवालदार तेज सिंह अनशन पर बैठ गए। हालांकि इन सैनिकों के समर्थन में बहुत अधिक लोग नहीं जुटे हैं, मगर फिर भी यह सैनिक अपनी मांग पर डटे हुए धरनारत हैं। कितनी बड़ी विडम्बना है न कि सेना को लेकर जो देश हद से ज्यादा श्रद्धान्वित और भावुक होने की बात करता है, वहां पूर्व सैनिकों का साथ देने के लिए ठीकठाक अच्छी संख्या में लोग तक नहीं जुट रहे। सवाल यह उठता है कि कहीं हमारा सैन्य प्रेम सिर्फ प्रतीकात्मक या दिखावा भर तो नहीं है ? इन सैनिकों का साथ देने अगर ठीकठाक संख्या में जनता पहुँचती तो संदेह नहीं कि केंद्र की मोदी सरकार पर दबाव बनता और वो इनकी जल्द सुनवाई करती। लेकिन अधिक जन समर्थन न होने के कारण मोदी सरकार भी इन सैनिकों की तरफ से आँख-कान मूंदे बैठी है। जबकि इसी मोदी सरकार ने सत्ता में आने से पूर्व अपने घोषणापत्र में यह वादा किया था कि वो सत्ता में आते ही यथाशीघ्र वन रैन्क-वन पेंशन (ओआरओपी) को लागू करेगी। मोदी सरकार सत्ता में आई और पूर्व सैनिकों ने सरकार को ओआरओपी लागू करने के लिए समय भी दिया, मगर सरकार सिर्फ इसे जल्द से जल्द लागू करने की बातें ही करती रही, लागू नहीं कर सकी। अब पिछले दो महीने से पूर्व सैनिक धरने पर बैठे हैं और त्रासदी देखिए कि सरकार अब भी बस बातें ही कर रही है। कभी प्रधानमंत्री इसके जटिल होने की बात करते हैं तो कभी रक्षा मंत्री यह कहते हैं कि पूर्व सैनिकों के लिए जल्द ही अच्छी खबर आएगी। तमाशा बना दिया गया है सेना के इन पूर्व जवानों का। यहाँ समझ न आने वाली बात ये है कि आखिर ये पूर्व सैनिक ऐसा कौन-सा खजाना मांग रहे हैं कि सरकार को इतनी देरी लग रही है। कितनी बड़ी विडम्बना है न कि जिस देश में तथाकथित देशसेवा-जनसेवा के नाम पर नेताओं को गाड़ी, बंगला और जाने कितनी छूटें मिल जाती हैं, वहां देश की रक्षा-सुरक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर सीमा पर खड़े रहने वाले वास्तविक देशसेवक सेना के जवानों को सेवानिवृत होने के बाद एक अदद पेंशन में समानता देने में हुकुमत के लिए दशकों का समय भी कम पड़ जाता है। सवाल यह है कि आखिर इस मामले में ऐसी कौन सी जटिलता है जिससे विगत तीन दशकों से अधिक समय में पार नहीं पाया जा सका ? जाहिर है कि यहाँ समस्या इस मामले की जटिलता नहीं, इसके क्रियान्वयन के लिए हमारे हुक्मरानों में दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव होना है। इसी क्रम में यदि वन रैंक-वन पेंशन मामले को समझने का प्रयत्न करें तो इसका अर्थ यह है कि अलग-अलग समय पर सेवानिवृत हुए एक ही रैंक के जवानों को बराबर पेंशन दी जाय या उनकी पेंशन में अधिक अंतर न रहे। अभी स्थिति यह है कि जो सैन्य अधिकारी या सैनिक जब सेवानिवृत हुए हैं, उन्हें पेंशन के तत्कालीन नियमों के हिसाब से पेंशन मिलती है। अब चूंकि सेना के पेंशन के नियम कई बार बदले हैं। ब्रिटिश शासन के समय फौजियों की पेंशन उनकी तनख्वाह की ८३ प्रतिशत थी जिसे आज़ादी के बाद सन १९५७ में भारत सरकार ने कम कर दिया और इसके मद से सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों जिन्हें तब वेतन का ३३ फीसदी पेंशन मिलती थी, की पेंशन को बढ़ा दिया। सन १९७१ में सेना के पेंशन के नियम यूँ थे कि सैनिक को उसके वेतन का ७५ प्रतिशत जबकि सैन्य अधिकारियों को ५० फीसदी पेंशन मिलती थी जिसे बाद में तीसरे वेतन आयोग ने घटाकर ५० फीसदी कर दिया। इस तरह सन १९७१ में सेवानिवृत हुए फौजियों तथा उसके बाद सेवानिवृत हुए फौजियों की पेंशन में भारी अंतर है। आगे भी जब-तब पेंशन के नियम बदले और ये अंतर भी आता गया। गौर करें तो सन २००५ और २००६ के में सेवानिव्रूत हुए फौजियों की पेंशनों के बीच लगभग १५००० रूपये तक का अंतर। स्थिति यह है कि २००६ के बाद सेवानिवृत कर्नल २००६ से पूर्व सेवानिवृत अपने से उच्च रैंक के मेजर जनरल से अधिक पेंशन पाता है। इन विसंगतियों के मद्देनज़र फौजियों की मांग यह है कि सेना में एक रैंक-एक पेंशन की व्यवस्था कर दी जाय जिसके तहत एक रैंक के अलग-अलग समय पर सेवानिवृत दो फौजियों की पेंशनों में कोई अंतर न हो। वन रैंक-वन पेंशन के लागू होने से तकरीबन २५  लाख भूतपूर्व फौजियों और लगभग १३ लाख वर्तमान फौजियों समेत ६।५ लाख से अधिक शहीदों की विधवाओं को भी लाभ मिलेगा।
दबंग दुनिया 
  सेना के पेंशन का यह मामला तो सन १९७३ से चल रहा है। सन २००८ में इस मुहीम के तहत इण्डियन सर्विसमैन मूवमेंट की स्थापना भी हुई। लेकिन इसने असल तूल सन २००९ में तब पकड़ा जब ३०० से अधिक भूतपूर्व सैनिकों ने इस मसले को लेकर राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया और अपने मेडल भी वापस कर दिए। मगर इस मामले पर तत्कालीन संप्रग सरकार से भी तब कुछ नहीं किया गया। संप्रग सरकार को होश तब आया जब लोकसभा चुनाव २०१४ का समय आया और चुनाव से ठीक पहले अपने अंतरिम बजट में संप्रग ने इस योजना के तहत ५०० करोड़ रूपये का प्रावधान किया। भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में वन रैंक वन पेंशन लागू करने का वादा किया। चुनाव के बाद भाजपानीत मोदी सरकार सत्ता में आई और उसने जुलाई २०१४ में पेश अपने पहले बजट में ही वन रैंक-वन पेंशन के लिए १००० करोड़ रूपये का प्रावधान किए। लेकिन अब मोदी सरकार का साल भर से अधिक समय पूरा हो चुका है और यह योजना अब तक लागू नहीं हुई है। चुनाव से पहले अपनी रेवाड़ी रैली में वन रैंक-वन पेंशन लागू करने का वादा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी अब कहते हैं कि उन्होंने इस मामले को जितना सरल समझा था, ये उतना सरल है नहीं। सवाल यह है कि ऐसी क्या जटिलता है जिससे प्रधानमंत्री मोदी की सरकार एक साल से अधिक समय में ख़त्म नहीं कर सकी ? इस योजना को लागू करने में एक अड़चन यह बताई जा रही है कि इस योजना के चलते सरकार पर शुरुआत में लगभग साढ़े ८ हजार करोड़ का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ेगा। दूसरी समस्या यह बताई जा रही है कि सेना में ऐसी व्यवस्था लाने पर दूसरे विभाग भी ऐसी मांग कर सकते हैं तो सरकार उनके लिए संसाधन कहाँ से जुटाएगी। इन बातों का एक यही उत्तर यह है कि सैनिक दिन-रात, बारिश-धूप, सर्दी-गर्मी आदि विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में  अपनी जान हथेली पर लेकर देश के लिए खड़े रहते हैं, उनके कार्य में अन्य किसी विभाग की अपेक्षा मेहनत और जोखिम बहुत अधिक है। इसलिए उनको हर तरह से विशिष्ट व्यवस्था मिलनी चाहिए और इससे किसी विभाग को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। कहने का अर्थ ये है कि यदि इन पूर्व फौजियों की इसी तरह उपेक्षा की जाती रही तो इससे हमारे वर्तमान फौजियों के मनोबल पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जो कि देश के लिए कतई अच्छा नहीं है।

बुधवार, 12 अगस्त 2015

मथुरा के किसानों की भी सुनें [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, कल्पतरु एक्सप्रेस, दैनिक जागरण राष्ट्रीय, नेशनल दुनिया और जनसत्ता में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत 
अमर उजाला कॉम्पैक्ट

एक तरफ आगामी पंद्रह तारीख को देश अपनी आज़ादी के ६८ साल पूरे करने वाला है और दूसरी तरफ देश की सर्वाधिक लोकसभा और विधानसभा सीटों वाले सूबे उत्तर प्रदेश के मथुरा में अपनी जमीन के बदले मुआवजा न मिलने के कारण पिछले सत्रह सालों से हलकान २५ हजार किसानों ने  राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पत्र लिखकर सामूहिक आत्महत्या के लिए अनुमति मांगी है। यह आश्चर्यजनक लगेगा किन्तु  सच्चाई है कि ये २५ हजार किसान पिछले १७ साल से अपने मुआवजे के लिए भटक रहे हैं। विगत वर्ष नवम्बर में इन किसानों ने मुआवजे की मांग को लेकर गोकुल बैराज पर धरना दिया तो पुलिस ने लाठी चार्ज और हवाई फायर किया जिसमे कि तमाम किसान घायल हो गए। इसके बाद पुलिस ने दर्जन भर किसानों को लूट, डकैती आदि के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। दरअसल सन १९९२ में मथुरा में गोकुल बैराज के निर्माण के दौरान क्षेत्र के लगभग ९ सौ से ऊपर परिवारों के २५ हजार किसानों की ७०० एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई थी। सन १९९८ में यह बाँध बनकर तैयार हुआ। लेकिन फिर किसानों के विरोध के चलते इस बैराज का एक फाटक बंद कर दिया गया जिससे अधिग्रहित भूमि जलमग्न हो गई। अब किसानों का कहना ये है कि जब इस भूमि का अधिग्रहण हुआ तो इन्हें कोई आधिकारिक सूचना नहीं दी गई और तिसपर अबतक उस भूमि के बदले उन्हें मुआवजा भी नहीं मिला। उनका ये भी कहना है कि आगे चलकर सरकार ने अधिग्रहित भूमि के आसपास का मूल्य भी बढ़ा दिया है। ऐसे में उन्हें इस सत्रह साल की देरी तथा भूमि के बढ़े हुए मूल्य के अनुसार उचित मुआवजा मिलना चाहिए। एक आंकड़े के मुताबिक़ इन किसानों को करीब ७०० करोड़ मुआवजा सरकार को देना है। इस मामले की गंभीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि मथुरा से भाजपा सांसद हेमा मालिनी इसे संसद में उठा चुकी हैं। आरएसएस का किसान संगठन भी किसानों के समर्थन में आवाज उठा चुका है। लेकिन दुर्भाग्य कि इन सब कवायदों का परिणाम कुछ भी नहीं निकला और आखिर आज ये पीड़ित किसान राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति मांग रहे हैं। इससे अधिक त्रासद और क्या होगा कि अंग्रेजों के तानाशाहीपूर्ण शासनकाल में किसानों ने जो जुल्म, अन्याय और तकलीफें सहीं, आज़ादी के ६८ साल पूरे करने जा रहे दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में भी वही सह रहे हैं। अनाज पैदा कर देश को जिंदा रखने वाले अन्नदाताओं के हालात इस व्यवस्था ने इतने बिगाड़ दिए हैं कि अब उनमे जिन्दा रहने की इच्छा ही मरती जा रही है। यह तो एक मामला है, अन्यथा पूरे देश में किसानों की हालत ऐसी या इससे भी बदतर है।
दैनिक जागरण
देश में किसानों की बदहालाती को आंकड़ों के जरिये समझें तो आज देश के ९० फीसदी किसानों के पास खेती योग्य भूमि २ हेक्टेयर से भी कम है और इनमे से ५२ फीसदी किसान परिवार भारी कर्ज में डूबे हुए हैं। उल्लेखनीय होगा कि अभी कुछ समय पहले  भारतीय ख़ुफ़िया ब्यूरों (आईबी) द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को देश के किसानों की समस्याओं व उनकी दुर्दशा से सम्बंधित एक ख़ुफ़िया रिपोर्ट सौंपते हुए सरकार को  इस विषय में चेताया गया । इस रिपोर्ट में आईबी की तरफ से सरकार को किसान आत्महत्या को लेकर विशेष तौर पर चेताया गया है और इस विषय में गंभीर होने की सलाह दी गई है। कहा गया है कि महाराष्ट्र, केरल, पंजाब आदि राज्यों में तो किसानों की आत्महत्याओं का बाहुल्य है ही, यूपी और गुजरात जैसे राज्यों में भी अब इस तरह के मामले ठीकठाक संख्या में सामने आने लगे हैं। इस  रिपोर्ट में सरकार द्वारा किसान आत्महत्या को रोकने के लिए किए जाने वाले ऋण माफ़ी, बिजली बिल माफ़ी समेत राहत पैकेज आदि उपायों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ये उपाय किसानों को फौरी राहत देते हैं न कि उनकी समस्याओं का स्थायी समाधान करते हैं। परिणामतः किसानों की समस्याएँ बनी रहती हैं जो देर-सबेर उन्हें आत्महत्या को मजबूर करती हैं।
कल्पतरु एक्सप्रेस
जनसत्ता 










यह जानने के लिए आज किसी शोध की जरूरत नहीं कि किसान आत्महत्या काफी हद तक खेती की समस्याओं व हमारे किसानों की दुर्दशा से सम्बद्ध है। इसी क्रम में अगर भारत के किसानों की समस्याओं पर नज़र डालें तो उनकी एक लम्बी फेहरिस्त सामने आती है। चूंकि, भारत में खेती का उद्देश्य व्यावसायिक नहीं, जीविकोपार्जन का रहा है। इस नाते किसान की स्थिति तो हमेशा से दयनीय ही रहती आई है। हालांकि इसे व्यावसायिक रूप देने की कवायदें होती रही हैं, मगर इसमे कोई विशेष सफलता मिली हो ऐसा नहीं कह सकते। तिसपर यहाँ खेती लगभग भाग्य भरोसे ही होती है कि अगर सही समय पर आवश्यकतानुरूप वर्षा हो गई, तब तो ठीक, वर्ना फसल बेकार। आज पेड़-पौधों में कमी के कारण वर्षा का संतुलन बिगड़ रहा है और इसका बड़ा खामियाजा हमारे किसानों को उठाना पड़ रहा है। हाल के कुछ वर्षों में तो कोई ऐसा साल नहीं गया, जिसमे कि देश में कुछ इलाके पूरी तरह से तो कुछ आंशिक तौर पर सूखे की चपेट में न आएं हों। हालांकि उपकरणों की सहायता से सिंचाई करने की तकनीक अब हमारे पास है। लेकिन, एक तो यह सिंचाई काफी महँगी होती है, उसपर इस सिंचाई से फसल को बहुत लाभ मिलने की भी गुंजाइश नहीं होती। क्योंकि एक तरफ आप सिंचाई करिए, दूसरी तरफ धूप सब सुखा देती है।  
ऐसे किसान जिनकी पूरी आर्थिक निर्भरता केवल खेती पर ही होती है, खेती के लिए बैंक अथवा साहूकार आदि से कर्ज लेते हैं, लेकिन मौसमी मार के चलते अगर फसल ख़राब हुई तो फिर उनके पास कर्ज से बचने के लिए आत्महत्या के सिवाय शायद और कोई रास्ता नहीं रह जाता।सूखे की समस्या के अलावा कुछ हद तक जानकारी व जागरूकता का अभाव भी हमारे किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। हालांकि किसानों में जानकारी बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा किसान कॉल सेंटर जैसी व्यवस्था की गई है, मगर जमीनी स्तर पर यह व्यवस्था किसानों को बहुत लाभ दे पाई हो, ऐसा नहीं कह सकते। ये तो किसानों की कुछ प्रमुख समस्याओं की बात हुई, इसके अलावा और भी अनेकों छोटी-बड़ी समस्याओं से संघर्ष करते हुए हमारे किसान खेती करते हैं।
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि अपनी आज़ादी का ६८वां वर्ष पूरा करने की दहलीज पर खड़े इस देश के हुक्मरानों को चाहिए कि वे देश के अन्नदाताओं की सिर्फ भाषणों में नहीं, जमीन पर उतरकर उनकी सुधि लें। उनके प्रति मन में संवेदना पैदा करें। अधिक नहीं तो कम से कम इतना ही किया जाय कि आज़ादी के इस उत्सव में मथुरा के उन २५ हजार किसानों जो बदहाली से तंग आकर आत्महत्या की अनुमति चाहते हैं, को उनका मुआवजा दे दिया जाय। हमारे हुक्मरानों को इस दिशा में जरूर सोचना चाहिए। अगर  यह किया जाय तो ही यह देश वास्तव में आज़ादी का जश्न मनाने का हकदार होगा।


रविवार, 9 अगस्त 2015

समकालीन हिंदी कहानी का समृद्ध दौर [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]



विचार : तेजेंद्र शर्मा
प्रस्तुति : पीयूष द्विवेदी
राष्ट्रीय सहारा
हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं में कहानी ही एक ऐसी विधा है जिसमें लगातार प्रगति हुई है। गुलेरी जी की कहानी उसने कहा थाजिसे कहानी-तत्वों के आधार पर हिंदी की पहली पूर्ण कहानी माना जाता है, अब सौ वर्ष की हो चुकी है। सौ वर्ष यानि कि दस दशक। हर दशक की अपनी एक पहचान रही है। हालांकि इन सौ वर्षों के दौरान कविता की तरह कहानी में भी आन्दोलन और नारेबाज़ियां पैदा हुईं, मगर वे कहानी के कहानीपन को नष्ट नहीं कर पाईं। जैसे फ़िल्मी गायन में के.एल. सहगल के जमाने को मुहम्मद रफ़ी ने और मुहम्मद रफ़ी की परम्परा को किशोर कुमार ने आगे की राह दिखाई, ठीक वैसे ही पिछले सौ वर्षों में विभिन्न कहानीकारों के माध्यम से हिंदी कहानी भी गांव से शहर और वहां से महानगर तक पहुंची। पहले कहानी घर के बाहर घटित होती थी, फिर अचानक रसोई, बरामदे और बेडरूम तक पहुंच गई। यदि इन सौ वर्षों के नामों की सूचि बनाना शुरू करेंगे तो कथा साहित्य में ऐसे तमाम  नाम सामने आएंगे जिन्होंने हिन्दी कहानी को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। मगर यह भी सच है कि हर बड़ा लेखक अपनी दो या तीन कहानियों के लिये ही जाना जाता है। प्रेमचन्द को लगभग दस महान् कहानियां लिखने के लिये तीन सौ से अधिक कहानियां लिखनी पड़ीं।
गुलेरी जी के बाद प्रेमचन्द, प्रसाद, जैनेन्द्र से लेकर यशपाल, अज्ञेय और इलाचंद्र जोशी तक तमाम ऐसे कहानीकार हुए जिन्होंने न केवल हिंदी कहानी को सुदृढ़ता प्रदान की, वरन आगे भी ले गए। फिर  कृष्णा सोबती, मन्नु भण्डारी, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा आदि तमाम महिला कथाकारों ने भी न केवल हिंदी कहानी के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वरन महिला कथाकारों को मुख्यधारा के कथाकार के रूप में स्थापित भी किया। हालांकि इस दौरान एक ऐसा समय भी आया, जब हिन्दी कहानी पर वामपंथी विचारधारा का अतिरिक्त दबाव आ गया था। उस काल में एक सी कहानियां लिखी जाती रहीं। पाठक कहानियों से विमुख हो गये। लेखक पाठकों की जगह आलोचकों के लिये कहानियां लिखने लगे थे। वैसे, इस नकारात्मक काल में भी कुछ बेहतरीन कहानियों का सृजन हुआ। मगर इस काल में हिंदी कहानी का जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई आज तक नहीं हो सकी है। बहरहाल, उपर्युक्त सभी रचनाकारों के रचना-कौशल से गुजरते हुए हिंदी कहानी आदर्शोन्मुख  यथार्थवाद, रोमांटिक यथार्थवाद, केवल यथार्थवाद, कलावाद, आधुनिकतावाद नई कहानी, विचारधारा वाली कहानी आदि आन्दोलनों से निकलती हुई आज 21वीं सदी में खरे सोने की तरह उभर कर सामने आई है।
इस समय हिन्दी कहानी शायद अपने बेहतरीन दौर से गुज़र रही है। चूंकि, आज हिन्दी कहानी की कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय हैं। वरिष्ठ और युवा दोनों तरह के कहानीकार एक साथ रचनाशील हैं। युवा लेखकों की तो एक लम्बी-सी कतार है। आज कहानी वामपन्थी दबावों से भी बाहर आ चुकी है और  उसमे कहानीपन वापस आ रहा है। मेरा मानना है कि कहानी में किस्सा होना ज़रूरी है। आपके पास कहने के लिये कुछ होना चाहिए। केवल शब्दों के फन्दे बुनना कहानी लिखना नहीं है।
हिन्दी कहानी को यदि विश्व कथा साहित्य को चुनौती देनी है तो पहले कहानीकारों को पढ़ने की आदत डालनी होगी। एम.ए. हिन्दी में जो साहित्य पढ़ा है, उसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ पढ़ना होगा। अंग्रेज़ी, फ़्रेंच और अफ़्रीकी साहित्य की जानकारी हासिल करनी होगी। कहानी न तो  गांव में कैद करके रखने की चीज है और न ही उसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने का औज़ार ही बना के रखा जा सकता हैं। ऐसी चीजें कहानी को सीमित करने की कोशिशें हैं जिन्हें विफल कर देना चाहिए। कहानी का फ़लक विशाल है। जीवन में इतने विषय बिखरे पड़े हैं कि आपकी हर कहानी आपकी दूसरी कहानी से अलग हो सकती है। यहाँ ये याद रखना होगा कि विचारधारा ऊपर से थोपी जाती है जबकि विचार लेखक के भीतर से निकलता है। हमें कहानी विचार से लिखनी होगी। यदि उस पर विचारधारा थोपी जाएगी तो कहानी एक पैम्फ़लेट भर बनकर रह जाएगी।
वैसे उपर्युक्त तमाम अच्छी बातों के बावजूद समकालीन हिन्दी कहानी की सबसे बड़ी चुनौती है पाठक को वापिस लाना। एक अच्छी बात यह है कि अब नामवर आलोचक हिन्दी कहानी के परिदृश्य से ग़ायब हो रहे हैं। इसलिये ज़रूरी है कि लेखक बिना किसी अतिरिक्त दबाव के अपने मन की बात कहें। हिन्दी के लेखक को अपने लेखन पर निगाह डालनी होगी और सोचना होगा कि आख़िर पाठक हमसे क्यों दूर भाग गया है ? क्यों धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार जैसी पत्रिकाएं बन्द हो जाती हैं ? दरअसल, हिन्दी में लोकप्रिय साहित्य और साहित्य के बीच एक बहुत बड़ी खाई है। यहाँ लोकप्रिय साहित्य को अछूता माना जाता है। जरूरत यह है कि हमारे कहानीकार मिडल ऑफ़ दि रोड सिनेमाकी तरह लेखन करें। इस संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि बिमल राय, ब्लैक अण्ड व्हाइट फ़िल्मों वाले राज कपूर, गुरूदत्त, गुलज़ार आदि स्वस्थ फ़िल्में बनाते थे। इनकी फ़िल्में न तो घोर कमर्शिलय होती थीं और न ही ऐसी कला फ़िल्में जिससे सिरदर्द होने लगे। इसी प्रकार हमारे कथाकारों को भी आम आदमी से जुड़े विषयों को पठनीय बना कर पेश करना होगा। हिन्दी में जासूसी, कॉमेडी या फ़ैन्टेसी लेखन को नीची निगाह से देखा जाता है। ये सब विषय भी हिन्दी कहानी लेखन को अपनाने होंगे, तभी हिन्दी कहानी वापिस अपने पाठक पा सकेगी।
आज हिंदी कहानी के पोर्नोग्रोफिकरण को भी कुछ हद तक उसकी एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल, स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ ऐसा काम हुआ भी है। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि कहानियों में सेक्स का चित्रण बहुत पुराना है। हाँ, वर्तमान में विमर्श के साथ जुड़ कर इसने परेशान तो किया है। मगर बावजूद इसके यह भी सच है कि आज की कहानी में कुछ बेहतरीन रचनाएं भी सामने आ रही हैं। समकालीन कहानी कथा, शिल्प, भाषा और संवेदन सभी स्तरों पर सृजनात्मकता को आगे ले जा रही है।  उसमें ऐसी कहानियां आटे में नमक के बराबर हैं, जिन्हें हम पोर्नोग्राफ़ी के समकक्ष रख सकें। ऐसे लेखक एवं लेखिकाएं जानती हैं कि यह टोटका अधिक दिन चलने वाला नहीं है। और अंततः बचेगा वही जो जंचेगा। कुल मिलाकर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी कहानी का वर्तमान परिदृश्य आश्वस्त करता है कि इसकी  यात्रा केवल आगे से आगे बढ़ने वाली है।
  आज के युवा रचनाकारों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। उनके पास प्रेमचन्द से लेकर आज तक की लम्बी-चौड़ी धरोहर है। अब उस धरोहर में अपनी मेधा को मिला कर वे बेहतरीन रचनाएं लिख रहे हैं जो कि प्रभावित करने वाली हैं। आज के कुछ युवा रचनाकारों की कहानियों में मनोज रूपड़ा की टॉवर ऑफ़ साइलेंस, प्रभात रंजन की जानकीपुल, संजय कुन्दन की झील वाला कम्पयूटर, शशि भूषण द्विवेदी की शिल्पहीन, मनीषा कुलश्रेष्ठ की स्वांग एवं कठपुतलियां, अजय नावरिया की गोदना, न्याय-कथा, गीताश्री की और अन्त में प्रार्थना, पंकज सुबीर की कसाब.गांधी@यरवदा.इन, आदि उल्लेखनीय हैं।
  वैसे, आखिर में एक समस्या यह भी है कि बिना पढ़े ही हम किसी लेखक या किसी प्रकार के लेखन के बारे में एक राय बना लेते हैं और उसकी तारीफ़ या बुराई करने लगते हैं, जबकि इससे हम न केवल उस लेखक के साथ अन्याय करते हैं, वरन स्वयं को भी धोखा देते हैं। कहने का आशय यह है कि लेखक युवा पीढ़ी का हो, प्रवासी हो या कैसा भी हो, वह अच्छा तभी लिख सकेगा जब वह खूब पढ़ेगा। पढ़ना और खूब पढ़ना..अच्छा लिखने की प्राथमिक शर्त है, इसे याद रखने की जरूरत है।


गुरुवार, 6 अगस्त 2015

नगा समझौते के निहितार्थ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय, दबंग दुनिया और कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण
आखिरकर लगभग डेढ़ दशक के समय और ८० दौर की वार्ताओं के बाद पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठन एनएससीएन आइएम (नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड आइएम) से शांति समझौता हो गया है। अब चूंकि वर्तमान में भाजपानीत मोदी सरकार सत्ता में है  और उसने ही लम्बे समय से अटके इस ऐतिहासिक समझौते को अमलीजामा पहनाया है, लिहाजा इसका श्रेय उसे ही जाएगा और जाना भी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की प्रधानमंत्री आवास पर मौजूदगी में एनएससीएन के प्रमुख टी मुइया और सरकारी वार्ताकार आर एन रवि के बीच इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इसी क्रम में इस समझौते के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो सबसे पहले हमें जिक्र करना होगा एनएससीएन का जिसकी स्थापना सन १९८० में हुई थी। इसी संगठन से आगे चलकर सन १९८८ में भारत सरकार से हुए शिलांग समझौते के बाद अलग विचारों और नीतियों के कारण एक दूसरे संगठन एनएससीएन आइएम का जन्म हुआ। इसीके साथ मूल संगठन एनएससीएन भी एनएससीएन खापलांग बन गया। इस तरह नागालैंड में आतंक के ये दो स्तम्भ हो गए जिनके बीच प्रदेश की आम जनता को लगातार पिसना पड़ा है। एनएससीएन आइएम की मूल मांग ग्रेटर नागालैंड की स्थापना की थी। इस संगठन की ताकत को इसीसे समझा जा सकता है कि इसकी फ़ौज में तकरीबन साढ़े चार हजार लड़ाके हैं। इसे चीन, अमेरिका और हालिया दौर में पाकिस्तान के ख़ुफ़िया ब्यूरो आइएसआई से भारत में आतंरिक अशांति फैलाने के लिए लगातार मदद भी मिलती रही। साथ ही नक्सलियों की ही तरह इस संगठन को भी स्थानीय लोगों का भरपूर समर्थन हासिल है। इस संगठन के साथ समझौते की बुनियाद सन १९९७ में तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार और इस संगठन के बीच वार्ता के द्वारा हुआ। इसके बाद वार्ता के दौर चलते रहे और फिर करते-धरते ८० दौर की वार्ता के बाद आज यह समझौता एक शक्ल ले लिया है। हालांकि अभी संसद सत्र चलने के कारण सरकार ने इस समझौते के होने की प्रक्रिया और शर्तों आदि को फ़िलहाल सार्वजनिक नहीं किया है, लेकिन बाद में सार्वजनिक करने की बात कही गई है। अतः जब यह प्रक्रिया और शर्तें सार्वजनिक होंगी तो यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार ने एनएससीएन आइएम की कौन-कौन सी मांगें मानी हैं और किन बिन्दुओं पर संगठन को झुकना पड़ा है। यह भी देखना होगा कि सरकार ने एनएससीएन  की अरुणाचल, असम और मणिपुर के कुछ हिस्सों को एकीकृत कर ग्रेटर नागालैंड बनाने की मांग का क्या किया है ?
दबंग दुनिया

अब खैर यह बातें तो देर-सबेर देश के समक्ष आएंगी ही, लेकिन फ़िलहाल महत्व की बात ये है कि यह ऐतिहासिक समझौता हो गया जिससे देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आतंक की धमक में कुछ कमी आने की संभावना जताई जा रही है। यह उग्रवादी संगठन अब प्रगति की मुख्यधारा से जुड़ेगा जिससे नागालैंड में न केवल शांति आएगी वरन उसके विकास की रफ़्तार भी बढ़ेगी। साथ ही पूर्वोत्तरवासियों जो अबतक खुद को देश से कटा हुआ और अलग-थलग सा समझते रहे हैं, के मन में भी इस समझौते के बाद संभवतः यह विश्वास जगे कि वे इसी देश के नागरिक हैं और देश की सरकार को उनकी भी उतनी ही फ़िक्र है जितनी देश के अन्य नागरिकों की। तो कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सरकार का यह समझौता बेहद ऐतिहासिक, महत्वपूर्ण और दूरगामी है। इस समझौते को देखते हुए एक उम्मीद यह भी जगती है कि कहीं इसी तरह से नक्सल समस्या से भी पार पाया जा सके।
कल्पतरु एक्सप्रेस
  बहरहाल, यह समझौता तो हो गया, मगर साथ में कुछ सवाल भी हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या इस समझौते के बाद पूर्वोत्तर में वाकई में आतंक की धमक समाप्त हो जाएगी और वहां शांति का स्थापन हो जाएगा ? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि अभी विगत अप्रैल महीने में एनएससीएन-खापलांग जिससे सन २००१ में ही वाजपेयी सरकार द्वारा शांति समझौता किया गया था, ने संभवतः संघर्ष विराम का उल्लंघन कर दिया। यह वही मामला है जिसमे भारतीय सुरक्षाबल के जवानों की एक टुकड़ी पर हमला किया गया जिसमे कि १८ जवान मारे गए और १८ घायल भी हुए। फिर बाद में बदला लेने के लिए भारतीय सेना ने म्यांमार में घुसकर उग्रवादियों का सफाया किया। आशंका जताई गई है कि सेना की टुकड़ी पर हुए इस हमले में एनएससीएन-खापलांग का ही हाथ था। दरअसल बात यह है कि सन २००१ में खापलांग के साथ समझौता करने के बाद भारत की सरकारों द्वारा इस गुट की काफी उपेक्षा की जाती रही है और इसकी तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।  क्योंकि इस दौरान सरकार ने अपना अधिकाधिक ध्यान दूसरे गुट यानि एनएससीएन- आइएम से शांति समझौता करने की तरफ रखा । ऐसे में अब जब सरकार ने एनएससीएन-आइएम से भी समझौता कर लिया है तो इस शंका से इंकार करना कठिन है कि खापलांग के मन में अपने प्रति हो रही उपेक्षा के कारण आक्रोश का भाव जन्म लेगा। तिसपर उसको भड़काने और सहयोग देने के लिए चीन, पाकिस्तान जैसे भारत के बाह्य शत्रु मौजूद ही हैं। ऐसे में संभव है कि वो फिर पूरी तरह से हथियारों की तरफ लौट जाय। जैसा कि सेना पर हुए पिछले हमले में आशंका भी जताई गई है। अतः उचित होगा कि सरकार एनएससीएन-आइएम के साथ शांति समझौते पर बेशक आगे बढ़े मगर दूसरे गुट खापलांग को भी गंभीरता से ले। सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि वह गलत शक्तियों के हाथ की कठपुतली बनकर फिर पूर्वोत्तर के लिए शांति का संकट न खड़ा करे। क्योंकि पूर्वोत्तर की शांति तभी संभव है जब ये दोनों उग्रवादी गुट पूरी तरह से हथियारों का त्याग कर विकास की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे। अब चूंकि फ़िलहाल पूर्वोत्तर के दोनों आतंकी गुटों के साथ सरकार के समझौते हो गाए हैं, तो ऐसे में सरकार को पूर्वोत्तर की शांति के सम्बन्ध में ज़रा सा भी खतरा नहीं लेना चाहिए।