शनिवार, 1 अगस्त 2015

पुस्तक समीक्षा: आम ज़िन्दगी के मसालों की चाय



  •  पीयूष द्विवेदी भारत

अगर आप कहानी को केवल क्रांति का दूत मानते हैं और उससे किसी परिवर्तन के पुकार की उम्मीद रखते हैं तो मुफ्त सलाह है कि आप दिव्य की मसाला चायसे परहेज कीजिए। यह आपके दिमाग का हाजमा बिगाड़ सकती है। ये वो लेखन है जिसके होने की बुनियादी शर्त ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की तरह जीना और उसे उसी रूप में लिख देना है। मै दावे के साथ कह सकता हूँ कि  मसाला चाय की सभी ग्यारह कहानियों में से ज्यादातर कहानियों के कथानक के लिए दिव्य को ज्यादा सोचना नहीं पड़ा होगा; अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ी होगी। कारण कि ये वो कहानियाँ हैं जो बड़े आराम से रोजमर्रा के जीवन में मिल जाती हैं। ये ज़िन्दगी के वो स्वादु-बेस्वादु मसाले हैं जो रोज तमाम लोगों की ज़िन्दगी को फीका-तीखा-मीठा  करते रहते हैं। इसकी कुछ कहानियों में जीवन के कुछ निश्चित सन्देश और सचाइयां भी हैं, पर हर कहानी में नहीं। कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जैसे कि लेखक अपने जीवन के किसी हिस्से को  सीधे-सीधे बता रहा हो। कुछ कहानियाँ तो सिर्फ वो हैं जो लेखक ने देखा, जिया और महसूस किया है। कहने का मतलब ये है कि इसकी हर कहानी एक या उससे अधिक मसालों से छौंकी हुई है और अधिकत्तर कहानियों में अलग-अलग मसाले हैं। जैसे इसकी पहली कहानी विद्या कसमबच्चा समाज  की स्थिति और विशेषताओं को दिखाते हुए बच्चों में सहज ही मौजूद मासूमियत, दुनियावी प्रपंचों से  बेखबरी तथा बड़ों की मानसिक कुरूपताओं को दिखाती है, तो वहीँ Fill in the blanks कहानी पति द्वारा छोड़ी हुई लेकिन पूरी तरह से मजबूत और आत्मनिर्भर औरत जो एक बेटी की माँ भी है, के प्रति समाज के दकियानूसी सोच और नज़रिए की कहानी है। पूरी तरह से आत्मनिर्भर होने के बावजूद बस एक पति न होने के कारण कावेरी को लेकर समाज का नजरिया ऐसा हो जाता  है कि सिर्फ घर में उसके होने के कारण उसकी बहन की शादी में अड़चन आने लगती है और उसे अपनी माँ का घर छोड़कर जाना पड़ता है। इसके अलावा keep quit  कहानी सेक्स जैसी प्राकृतिक चीज को लेकर बच्चों के समक्ष बड़ों के छुपा-छुपौव्वल और इससे बच्चों में पैदा होने वाली गलतफहमी के दुष्प्रभाव को दिखाती है। हम देखते हैं कि कैसे बचपन से जवानी की तरफ बढ़ रही धुन सेक्स से अनजान होने के कारण उसीको प्यार समझ लेती है तो उसकी सहेली सुरभि प्यार को गन्दी बात ही समझने लगती है। केवल बालिगों के लिएभी इसी तरह के पाखण्ड की ही  कहानी है। ये तो कुछ सन्देश देने वाली कहानियां हुईं, इनके अलावा jeewanshadi  डॉट कॉम, Love you forever, Bed Tea  आदि ऐसी कहानियाँ जिनमे कोई खास सन्देश-वंदेश नहीं, मगर लेखक का अपना या जिस किसीका भी हो, वास्तविक जीवन वर्णन ज्यादा दिखता है। अब बात करते हैं फलाना collage of engineering’  कहानी की जो कि न सिर्फ इस किताब की सबसे लम्बी कहानी है बल्कि सबसे शानदार भी। इसे मसाला चायकी हासिल-ए-किताब कहानी कह सकते हैं। यह ऐसी कहानी है जिसपर दिव्य चाहें तो अलग से एक उपन्यास भी लिख सकते हैं।
  दिव्य हैं तो हिंदी के लेखक मगर उनकी भाषा शुद्ध हिंदी नहीं, बल्कि वो हिंग्लिश है जो आज के युवा वर्ग को समझ आती है। ये उनकी कहानियों के नामों से भी जाहिर हो जाता है। इस भाषा से हिंदी के शुद्धतावादियों को बहके दिक्कत हो, मगर यह दिव्य की बड़ी ताकत है। चूंकि वो जो और जिसके लिए लिख रहे हैं, उसके लिए इससे अच्छी भाषा और नहीं हो सकती। इस भाषा में भी जो सहजता दिव्य ने रखी है, वो काबिले तारीफ़ है। संवाद इतने सजीव बन पड़े हैं कि कहानी से पाठक अनायास ही जुड़ जाता है। हालांकि शैली की दृष्टि से लगभग सब सामान्य ही है। हाँ, फलाना collage of engineering  में कुछ नवीनता अवश्य है कि निबंध की तरह हर घटना का अलग से हेडिंग देकर वर्णन किया गया है। इसे कुछ हद तक नया प्रयोग कहा जा सकता है।
  आखिर में कुल मिलाकर यही कहेंगे कि दिव्य की ये कहानियाँ मोटे तौर पर आज के बदलते सामजिक परिवेश और उससे प्रभावित युवा मन की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। दिव्य के अधिकत्तर पात्र शहरी मध्यमवर्ग के हैं। आज जब तमाम लेखकों-लेखिकाओं द्वारा हिंदी कहानी को निरपवाद रूप से विमर्श की वस्तु बनाकर रख दिया गया है और उसमे से उसका कहानीपन लगभग खोता जा रहा है, ऐसे वक़्त में दिव्य की ये कहानियाँ हिंदी कहानी के कर्णधारों को एक नया रास्ता दिखाने का काम जरूर कर सकती हैं। इस बेहतरीन प्रयास के लिए उनको अशेष बधाइयाँ...!


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