बुधवार, 12 अगस्त 2015

मथुरा के किसानों की भी सुनें [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, कल्पतरु एक्सप्रेस, दैनिक जागरण राष्ट्रीय, नेशनल दुनिया और जनसत्ता में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत 
अमर उजाला कॉम्पैक्ट

एक तरफ आगामी पंद्रह तारीख को देश अपनी आज़ादी के ६८ साल पूरे करने वाला है और दूसरी तरफ देश की सर्वाधिक लोकसभा और विधानसभा सीटों वाले सूबे उत्तर प्रदेश के मथुरा में अपनी जमीन के बदले मुआवजा न मिलने के कारण पिछले सत्रह सालों से हलकान २५ हजार किसानों ने  राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पत्र लिखकर सामूहिक आत्महत्या के लिए अनुमति मांगी है। यह आश्चर्यजनक लगेगा किन्तु  सच्चाई है कि ये २५ हजार किसान पिछले १७ साल से अपने मुआवजे के लिए भटक रहे हैं। विगत वर्ष नवम्बर में इन किसानों ने मुआवजे की मांग को लेकर गोकुल बैराज पर धरना दिया तो पुलिस ने लाठी चार्ज और हवाई फायर किया जिसमे कि तमाम किसान घायल हो गए। इसके बाद पुलिस ने दर्जन भर किसानों को लूट, डकैती आदि के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। दरअसल सन १९९२ में मथुरा में गोकुल बैराज के निर्माण के दौरान क्षेत्र के लगभग ९ सौ से ऊपर परिवारों के २५ हजार किसानों की ७०० एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई थी। सन १९९८ में यह बाँध बनकर तैयार हुआ। लेकिन फिर किसानों के विरोध के चलते इस बैराज का एक फाटक बंद कर दिया गया जिससे अधिग्रहित भूमि जलमग्न हो गई। अब किसानों का कहना ये है कि जब इस भूमि का अधिग्रहण हुआ तो इन्हें कोई आधिकारिक सूचना नहीं दी गई और तिसपर अबतक उस भूमि के बदले उन्हें मुआवजा भी नहीं मिला। उनका ये भी कहना है कि आगे चलकर सरकार ने अधिग्रहित भूमि के आसपास का मूल्य भी बढ़ा दिया है। ऐसे में उन्हें इस सत्रह साल की देरी तथा भूमि के बढ़े हुए मूल्य के अनुसार उचित मुआवजा मिलना चाहिए। एक आंकड़े के मुताबिक़ इन किसानों को करीब ७०० करोड़ मुआवजा सरकार को देना है। इस मामले की गंभीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि मथुरा से भाजपा सांसद हेमा मालिनी इसे संसद में उठा चुकी हैं। आरएसएस का किसान संगठन भी किसानों के समर्थन में आवाज उठा चुका है। लेकिन दुर्भाग्य कि इन सब कवायदों का परिणाम कुछ भी नहीं निकला और आखिर आज ये पीड़ित किसान राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति मांग रहे हैं। इससे अधिक त्रासद और क्या होगा कि अंग्रेजों के तानाशाहीपूर्ण शासनकाल में किसानों ने जो जुल्म, अन्याय और तकलीफें सहीं, आज़ादी के ६८ साल पूरे करने जा रहे दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में भी वही सह रहे हैं। अनाज पैदा कर देश को जिंदा रखने वाले अन्नदाताओं के हालात इस व्यवस्था ने इतने बिगाड़ दिए हैं कि अब उनमे जिन्दा रहने की इच्छा ही मरती जा रही है। यह तो एक मामला है, अन्यथा पूरे देश में किसानों की हालत ऐसी या इससे भी बदतर है।
दैनिक जागरण
देश में किसानों की बदहालाती को आंकड़ों के जरिये समझें तो आज देश के ९० फीसदी किसानों के पास खेती योग्य भूमि २ हेक्टेयर से भी कम है और इनमे से ५२ फीसदी किसान परिवार भारी कर्ज में डूबे हुए हैं। उल्लेखनीय होगा कि अभी कुछ समय पहले  भारतीय ख़ुफ़िया ब्यूरों (आईबी) द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को देश के किसानों की समस्याओं व उनकी दुर्दशा से सम्बंधित एक ख़ुफ़िया रिपोर्ट सौंपते हुए सरकार को  इस विषय में चेताया गया । इस रिपोर्ट में आईबी की तरफ से सरकार को किसान आत्महत्या को लेकर विशेष तौर पर चेताया गया है और इस विषय में गंभीर होने की सलाह दी गई है। कहा गया है कि महाराष्ट्र, केरल, पंजाब आदि राज्यों में तो किसानों की आत्महत्याओं का बाहुल्य है ही, यूपी और गुजरात जैसे राज्यों में भी अब इस तरह के मामले ठीकठाक संख्या में सामने आने लगे हैं। इस  रिपोर्ट में सरकार द्वारा किसान आत्महत्या को रोकने के लिए किए जाने वाले ऋण माफ़ी, बिजली बिल माफ़ी समेत राहत पैकेज आदि उपायों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ये उपाय किसानों को फौरी राहत देते हैं न कि उनकी समस्याओं का स्थायी समाधान करते हैं। परिणामतः किसानों की समस्याएँ बनी रहती हैं जो देर-सबेर उन्हें आत्महत्या को मजबूर करती हैं।
कल्पतरु एक्सप्रेस
जनसत्ता 










यह जानने के लिए आज किसी शोध की जरूरत नहीं कि किसान आत्महत्या काफी हद तक खेती की समस्याओं व हमारे किसानों की दुर्दशा से सम्बद्ध है। इसी क्रम में अगर भारत के किसानों की समस्याओं पर नज़र डालें तो उनकी एक लम्बी फेहरिस्त सामने आती है। चूंकि, भारत में खेती का उद्देश्य व्यावसायिक नहीं, जीविकोपार्जन का रहा है। इस नाते किसान की स्थिति तो हमेशा से दयनीय ही रहती आई है। हालांकि इसे व्यावसायिक रूप देने की कवायदें होती रही हैं, मगर इसमे कोई विशेष सफलता मिली हो ऐसा नहीं कह सकते। तिसपर यहाँ खेती लगभग भाग्य भरोसे ही होती है कि अगर सही समय पर आवश्यकतानुरूप वर्षा हो गई, तब तो ठीक, वर्ना फसल बेकार। आज पेड़-पौधों में कमी के कारण वर्षा का संतुलन बिगड़ रहा है और इसका बड़ा खामियाजा हमारे किसानों को उठाना पड़ रहा है। हाल के कुछ वर्षों में तो कोई ऐसा साल नहीं गया, जिसमे कि देश में कुछ इलाके पूरी तरह से तो कुछ आंशिक तौर पर सूखे की चपेट में न आएं हों। हालांकि उपकरणों की सहायता से सिंचाई करने की तकनीक अब हमारे पास है। लेकिन, एक तो यह सिंचाई काफी महँगी होती है, उसपर इस सिंचाई से फसल को बहुत लाभ मिलने की भी गुंजाइश नहीं होती। क्योंकि एक तरफ आप सिंचाई करिए, दूसरी तरफ धूप सब सुखा देती है।  
ऐसे किसान जिनकी पूरी आर्थिक निर्भरता केवल खेती पर ही होती है, खेती के लिए बैंक अथवा साहूकार आदि से कर्ज लेते हैं, लेकिन मौसमी मार के चलते अगर फसल ख़राब हुई तो फिर उनके पास कर्ज से बचने के लिए आत्महत्या के सिवाय शायद और कोई रास्ता नहीं रह जाता।सूखे की समस्या के अलावा कुछ हद तक जानकारी व जागरूकता का अभाव भी हमारे किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। हालांकि किसानों में जानकारी बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा किसान कॉल सेंटर जैसी व्यवस्था की गई है, मगर जमीनी स्तर पर यह व्यवस्था किसानों को बहुत लाभ दे पाई हो, ऐसा नहीं कह सकते। ये तो किसानों की कुछ प्रमुख समस्याओं की बात हुई, इसके अलावा और भी अनेकों छोटी-बड़ी समस्याओं से संघर्ष करते हुए हमारे किसान खेती करते हैं।
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि अपनी आज़ादी का ६८वां वर्ष पूरा करने की दहलीज पर खड़े इस देश के हुक्मरानों को चाहिए कि वे देश के अन्नदाताओं की सिर्फ भाषणों में नहीं, जमीन पर उतरकर उनकी सुधि लें। उनके प्रति मन में संवेदना पैदा करें। अधिक नहीं तो कम से कम इतना ही किया जाय कि आज़ादी के इस उत्सव में मथुरा के उन २५ हजार किसानों जो बदहाली से तंग आकर आत्महत्या की अनुमति चाहते हैं, को उनका मुआवजा दे दिया जाय। हमारे हुक्मरानों को इस दिशा में जरूर सोचना चाहिए। अगर  यह किया जाय तो ही यह देश वास्तव में आज़ादी का जश्न मनाने का हकदार होगा।


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