बुधवार, 27 मार्च 2019

बढ़ते तापमान के प्रति असजग विश्व [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

पिछले दिनों ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोलसोनारो ने संयुक्त राष्ट्र के पच्चीसवें जलवायु सम्मेलन (COP 25) की मेजबानी से इनकार करते हुए कहा कि पर्यावरण सुरक्षा के मामले में उनका देश किसी भी तरह से दुनिया का कर्जदार नहीं है। इस सम्मेलन की मेजबानी करने के पीछे उन्होंने यह भी तर्क दिए कि इसके लक्ष्य असंभव और अप्राप्य हैं। अब इस सम्मेलन की मेजबानी चिली करेगा।
दुनिया की अनेक पर्यावरण संस्थाएं और एजेंसियां इस बात की तस्दीक कर चुकी हैं कि दुनिया का तापमान तेजी से बढ़ रहा है और यदि समय रहते इसके प्रति सचेत होकर रोकथाम के लिए कदम नहीं उठाए गए तो ये ऐसे भीषण संकट का रूप ले सकता है, जिसका समाधान संभव नहीं होगा।
लेकिन विडंबना ही है कि इस कठिन स्थिति के बावजूद विश्व बिरादरी में इससे निपटने को लेकर जितनी चाहिए उतनी इच्छाशक्ति नहीं दिख रही। विकसित और विकासशील देशों के बीच जलवायु परिवर्तन के कारकों के लिए एकदूसरे पर दोषारोपण और खुद जिम्मेदारी से मुक्त रहने की स्थिति और चिंताजनक है।   
गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर रूप से प्रयासों की शुरुआत 1992 में रियो डी जेनेरियो शहर में आयोजित संयुक्त राष्ट्र केपृथ्वी शिखर सम्मेलननामक एक आयोजन से होती है। इस आयोजन में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन’ (यूएनएफसीसी) करने पर सहमति बनी। 1994 में इसे एक संधि का रूप देकर लागू कर दिया गया और अबतक इसपर 194 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं प्रत्येक वर्ष इसके सम्मेलन का आयोजन अलग-अलग देशों में किया जाता है। इस संधि में देशों ने, वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सघनता को स्थिर करने पर सहमति दी थी जिससे मानवीय गतिविधियों से जलवायु प्रणाली में हानिकारिक हस्तक्षेप होने दिया जाए। आज इस संधि पर लगभग दो सौ देशों के हस्ताक्षर हो चुके हैं। अबतक 24 सीओपी सम्मेलन हो चुके हैं और इस वर्ष पच्चीसवां सीओपी ब्राजील में होना था, लेकिन उसके इनकार के बाद अब इसकी मेजबानी चिली ने ले ली है।  
वर्ष 2015 में पैरिस में सीओपी का इक्कीसवां सम्मेलन हुआ जिसमें इसमें शामिल देशों के बीच एक जलवायु समझौते पर सहमति बनी और फिर नवम्बर 2016 में यह समझौता लागू भी हो गया। इस समझौते पर तब तत्काल 177 देशों ने हस्ताक्षर कर दिए थे। समझौते का लक्ष्य कार्बन उत्सर्जन में कटौती के जरिये वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखना है। यह समझौता लागू होने का समय 2020 तय किया गया है, लेकिन यदि इससे पहले इसके सभी सदस्य देशों में इसके लक्ष्यों पर सहमति बन जाती है तो ये पहले भी लागू हो सकता है। लेकिन वर्तमान में जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए लगता नहीं कि इसका लागू होना आसान होगा।  

इस समझौते की सबसे बुनियादी बात है कि देश अपना कार्बन उत्सर्जन कम करें। इस एक बिंदु को लेकरं विकासशील और विकसित देशों में खींचतान मची है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्पअमेरिका फर्स्टका नारा देते हुए तथा वैश्विक तापमान के लिए भारत-चीन को जिम्मेदार बताते हुए इस समझौते से अलग होने की घोषणा कर चुके हैं। अमेरिका बीस टन कार्बन उत्सर्जन के साथ इस मामले में दुनिया में पहले नम्बर पर है। ऐसे में उसका इस समझौते से अलग होने की घोषणा इस समझौते को तो कमजोर करने वाली है ही, साथ ही अन्य देशों के रुख पर भी असर डाल सकती है।
ब्राजील जैसा तीव्र विकास दर वाला देश भी इसकी मेजबानी से हाथ खींचकर इसके प्रति अपनी उदासीनता व्यक्त कर चुका है। चीन और भारत कार्बन उत्सर्जन के मामले दूसरे और तीसरे नम्बर पर हैं। भारत ने अपनी तरफ से सौर ऊर्जा का उपयोग बढ़ाने की एक योजना प्रस्तुत करते हुए समझौते को मंजूरी दे दी है।
पेरिस समझौते का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि इसको मानने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है तथा ऐसी कोई व्यवस्था भी अभी उपलब्ध नहीं है जिससे यह जाना जा सके कि समझौते में शामिल देश निर्धारित मात्रा में ही कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं। ऐसे में यह समझौता अगर किसी तरह से आम सहमति कायम करके 2020 तक लागू हो भी जाता है तो भी शायद ही कोई असर छोड़ पाएगा। बड़ी संभावना है कि ये भी परमाणु निशस्त्रीकरण पर बनी सहमतियों की तरह दुनिया के विकासशील और विकसित देशों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का एक जरिया भर बनकर रह जाए।
इस विश्व बिरादरी की उठापटक से इतर वैश्विक तापमान की भयावहता का आलम यह है कि अंतरशासकीय पैनल दुनिया भर में किये गये जलवायु संबंधी 6000 से अधिक अध्ययनों का विश्लेषण के बाद इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस समय वैश्विक तापमान की जो स्थिति है, उस पर यदि तेज़ी से लगाम नहीं लगायी गयी, तो 21वीं सदी का अंत आने से पहले ही औसत वैश्विक तापमान तीन से चार डिग्री तक बढ़ जायेगा। इसके बहुत ही भयंकर परिणाम हो सकते हैं। अभी वैश्विक तापमान में पिछली 20वीं सदी के दौरान औसतन केवल एक डिग्री के लगभग ही वृद्धि हुई है। पर, इस एक डिग्री की वृद्धि से ही बढ़ती गर्मी, प्रतिकूल वर्षा, तूफ़ान आदि के रूप में जलवायु परिवर्तन की जो विनाश लीला हम अब तक देख चुके हैं और जब-तब देखते रहते हैं, वह इसकी कल्पना करने के लिए पर्याप्त होना चाहिये कि वैश्विक तापमान यदि उक्त अनुमान के अनुसार तीन से चार डिग्री बढ़ गया तो धरती को क्या दिन देखने पड़ सकते हैं। जाहिर है कि वैश्विक तापमान की स्थिति खतरनाक से बहुत खतरनाक अवस्था की ओर बढ़ रही है, लेकिन चिंताजनक है कि विश्व बिरादरी आपसी सिरफुटौव्वल में उलझी हुई है। निश्चित तौर पर बढ़ते वैश्विक तापमान को कम करने की पहली जिम्मेदारी विकसित देशों की ही है, लेकिन विकासशील देशों को भी एकदम छूट नहीं मिल सकती। विकसित देशों ने कार्ब उत्सर्जन करके विकास किया इस आधार पर विकासशील देशों का भी कार्ब उत्सर्जन को अपना अधिकार बताना उचित नहीं है। समयोचित उपाय यह है कि वैज्ञानिक शोध-अनुसंधान के जरिये ऐसा मार्ग विकसित करने की दिशा में प्रयास किया जाए जिससे बिना कार्बन उत्सर्जन के ही विकास किया जा सके। जब धरती ही नहीं रहेगी किसी भी विकास और प्रगति का कोई मतलब नहीं है, इसलिए आपसी मतभेदों और व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर विश्व की प्राथमिकता धरती के ताप को कम करना होना चाहिए।