सोमवार, 28 अप्रैल 2014

प्रधानमंत्रित्व के रोड़ों से बेखबर मोदी [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
इसमे तो कोई संशय नहीं कि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के कुशासन के कारण आज देश में कांग्रेस विरोधी माहौल अपने पूरे उफान पर है, लेकिन इस माहौल का लाभ भाजपा को अगर मिल रहा है तो वो सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी के कारण । सीधे शब्दों में कहें तो नरेंद्र मोदी ने अपने गुजरात मॉडल के हाईटेक प्रचार-प्रसार के जरिए इस कांग्रेस विरोधी लहर को अपने पक्ष की यानी मोदी लहर बना दिया और इसी मोदी लहर के कारण आज भाजपा के केन्द्र की सत्ता तक पहुँचने की संभावना काफी प्रबल दिख रही है । संदेह नहीं कि अगर मोदी नहीं होते तो कितना भी कांग्रेस विरोधी माहौल होता, भाजपा के लिए उसका कोई बहुत बड़ा लाभ लेना कत्तई सहज नहीं होता । उदाहरणार्थ, अबसे पहले भी कई दफे देश में काफी कांग्रेस विरोधी माहौल बना है, लेकिन हमने देखा है कि अपनी किसी न किसी कमी के कारण तत्कालीन दौर में भाजपा उस माहौल का कोई विशेष लाभ नहीं ले पाई है । हालांकि, इस चुनाव मोदी लहर का लाभ लेने में भाजपा कोई गलती नहीं करना चाहती और इसलिए उसने अपने चुनाव प्रचार से लेकर सबकुछ पूरी तरह से मोदीमय कर दिया है । ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ जैसे संगठन से इतर व्यक्तिवादी नारे हों या मोदी के आगे पूरी पार्टी का नतमस्तक हो जाना हो, इन सब बातों से जो तस्वीर उभरकर आती है वो ये कि इस आम चुनाव में भाजपा पूरी तरह से मोदी लहर के दम पर केन्द्र की सत्ता तक पहुँचना तय कर चुकी है । फिर चाहें इसके लिए उसे फ़िलहाल अपने छोटे-बड़े कुछ नेताओं की नाराज़गी तथा व्यक्तिवादी राजनीति का आरोप ही क्यों न झेलना पड़े । मोदी को आगे रखने का एक कारण ये भी है कि लोगों में बेहद लोकप्रिय होने के साथ-साथ उनके ऊपर संघ का भी हाथ है । ऐसे में राजनीतिक दृष्टिकोण से मोदी को आगे रखना ही भाजपा के लिए उचित है । इसी क्रम में अगर रैलियों या प्रचार आदि में दिए जा रहे मोदी के वक्तव्यों पर गंभीरता से गौर करें तो वे मतदाताओं से प्रायः कहते हैं कि आप कमल का बटन दबाइए, आपका मत सीधे मुझे मिलेगा । इस वक्तव्य से यही संकेत मिलता है कि हो न हो, वो भी ये मान चुके हैं कि इस चुनाव के बाद हर हालत में भाजपा की तरफ से वे ही प्रधानमंत्री बनने वाले हैं । लेकिन अगर विचार करें तो मोदी के प्रधानमंत्री बनने की इन सभी संभावनाओं के बीच कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो चुनाव बाद की एक दूसरी ही तस्वीर प्रस्तुत करती हैं । यह तो स्पष्ट है कि भाजपा के भीतर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व को लेकर काफी विरोध है । इस संबंध में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज आदि पार्टी के तमाम बड़े नेताओं की नाराज़गी जब-तब सामने आती रही है, लेकिन आखिर में मोदी की लोकप्रियता और संघ के दबाव के कारण इन नेताओं को मौन होना पड़ा है । पर भाजपा के इन शीर्ष नेताओं के इस मौन का ये कत्तई अर्थ नहीं कि वे हमेशा मौन ही रहेंगे, उनका ये मौन सिर्फ चुनाव भर का है । पूरी संभावना है कि चुनाव बाद वे फिर अपनी ढपली अपना राग अलापना शुरू कर देंगे । कहना गलत नहीं होगा कि चुनाव बाद ये नेता मोदी के पीएम बनने की राह में काफी समस्याएं खड़ी कर सकते हैं । भाजपा में अगर सबसे अधिक मोदी के पक्ष में कोई बड़ा नेता दिख रहा तो वो हैं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, जिन्होंने कहा भी है कि हर हालत में नरेंद्र मोदी ही भाजपा के पीएम होंगे । लेकिन अगर इनकी चुनावी रणनीति को गहराई से समझने का प्रयास करें तो मोदी के प्रति इनकी नीयत सबसे अधिक संदेह के घेरे में आती है । गौरतलब है कि राजनाथ सिंह अब तक गाज़ियाबाद सीट से लड़ते और जीतते थे, इसबार भी उनके लिए वहाँ से कोई समस्या नहीं थी । लेकिन अचानक जाने क्या हुआ कि वे अपनी सीट बदलते हुए गाज़ियाबाद से सीधे लखनऊ आ गए । लखनऊ से मौजूदा सांसद लालजी टंडन की बजाय स्वयं लड़ने का निर्णय ले लिए । अब अगर इस निर्णय की तह में जाएं तो हमारे सामने राजनाथ सिंह की प्रधानमंत्री बनने की वो महत्वाकांक्षा आती है, जिसे प्रत्यक्ष तौर पर उन्होंने अब तक जाहिर नहीं किया है । अब चूंकि, लखनऊ भाजपा के लिए ऐसी सीट रहा है जहाँ से कभी भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार अटल बिहारी वाजपेयी लड़ा करते थे, लिहाजा यहाँ से लड़ने वाला व्यक्ति भाजपा के प्रधानमंत्री पद का एक अघोषित विकल्प होता है । इसलिए, राजनाथ सिंह के गाज़ियाबाद सीट छोड़कर लखनऊ आने के पीछे मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि अगर चुनाव बाद भाजपा पूर्ण बहुमत के आंकड़े से  २५-३० सीटें भी दूर रह जाती है और कोई भी बड़ा दल मोदी की तथाकथित सांप्रदायिक छवि के कारण भाजपा से जुड़ने में हिचक दिखाता है, तो ऐसे में राजनाथ सिंह अपने नाम पर समर्थन लेकर प्रधानमंत्री बन जाएंगे । और लखनऊ से सांसद होने के कारण उनके प्रधानमंत्री बनने के विरोध में पार्टी का कोई बड़ा नेता खुलकर कुछ बोल भी नहीं पाएगा । स्पष्ट है कि मोदी की  लोकप्रियता के दम पर राजनाथ प्रधानमंत्री बनने की अपनी गुप्त महत्वाकांक्षा को पूरा करने की संभावना पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं । इसी कोशिश के तहत उन्होंने लखनऊ की सीट से लड़ने का निर्णय लिया है । ऐसे में, कहा जा सकता है कि मोदी अपनी लोकप्रियता, प्रधानमंत्रित्व की कल्पना और राजनाथ के अवसरवादी समर्थन के अति-उत्साह में ऐसे खोए हैं कि उन्हें राजनाथ सिंह की ये चाल समझ नहीं आ रही । अभी उन्हें इसका शायद ही अंदाज़ा होगा कि उनका प्रधानमंत्री बनना काफी हद तक इसी बात पर निर्भर है कि भाजपा पूर्ण बहुमत या उसके बिलकुल आसपास सीटें जीते, वरना तो उनके प्रधानमंत्री की राह में गैरों से पहले उनके अपने ही रोड़ा बनने वाले हैं ।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

कुपोषण के अभिशाप से मुक्ति कब [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

राष्ट्रीय सहारा
आज के बच्चे ही कल  युवा होंगे और राष्ट्र के प्रगति व संरक्षण का दायित्व उनके कन्धों पर होगा, ऐसे में आवश्यक है कि वे शारीरिक-मानसिक स्तर पर स्वस्थ व मजबूत हों । बच्चों को शारीरिक-मानसिक स्तर पर स्वस्थ व मजबूत रखने के लिए बुनियादी जरूरत ये है कि गर्भस्थ अवस्था से लेकर तक़रीबन तीन-चार वर्ष तक उनके पोषण व चिकित्सा का समुचित ध्यान रखा जाए । क्योंकि, ये वो समय होता है, जब बच्चे अपनी भूख-प्यास, बीमारी आदि किसी भी तरह की जरूरत व तकलीफ के विषय में ठीक से बता पाने में सक्षम नहीं होते हैं । साथ ही, यही वो दौर भी होता है जब उनके शारीरिक-मानसिक विकास की बुनियाद पड़ती है । लिहाजा, इसी वक्त उनके आहार, चिकित्सा आदि के प्रति सबसे अधिक सजग व सतर्क होने की जरूरत भी होती है । क्योंकि, यहाँ चूक होने की स्थिति में बच्चे के कुपोषण के साये में जाने से लेकर गंभीर बीमारियों से ग्रस्त होने तथा जान जाने तक का खतरा होता है । इसी संदर्भ में गौर करें तो कुपोषण की समस्या आज इतना विकराल रूप ले चुकी है कि विश्व बैंक द्वारा इसकी तुलना ‘ब्लैक डेथ’ नामक उस महामारी से की गई है जिसने १८ वी सदी में योरोप की एक बड़ी जनसंख्या को नष्ट कर दिया था । इसी क्रम में अगर एक नज़र भारत पर डालें तो बच्चों के स्वास्थ्य व पोषण के मामले में यहाँ स्थिति बेहद खराब नज़र आती है । हालत ये है कि आज दुनिया के तकरीबन ४० फीसद कुपोषित बच्चे अकेले भारत में हैं । इनमे से लगभग  आधे बच्चों का वजन उनकी उम्र के अनुपात में बेहद कम है, तो कितने ही बच्चे एनीमिया से पीड़ित होने के कारण खून की कमी से ग्रस्त हैं । संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल पाँच साल से कम उम्र के लगभग २१ लाख बच्चे समुचित पोषण व स्वास्थ्य सुविधाएँ न मिलने के कारण काल के गाल में चले जाते हैं । इसी क्रम में यह भी उल्लेखनीय होगा कि एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की तीसरी सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद स्वास्थ्य और पोषण के मामले में भारत की हालत नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों से भी बदतर है । गौरतलब है कि ये सभी देश भारत से आर्थिक, संसाधनिक आदि तमाम तरह की सहायता प्राप्त करने वाले देशों में शामिल हैं । ऐसे में अगर भारत में बच्चों की स्वास्थ्यजन्य स्थिति  इन देशों से भी बदतर है तो ये भारत के लिए बेहद शर्मनाक बात कही जाएगी । कहना गलत नहीं होगा कि आज जहाँ एक तरफ भारत विश्व पटल पर अपनी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के दम पर अपनी पहचान कायम करके गर्वित हो रहा है, वहीँ दूसरी तरफ उसकी भावी पहचान यानी उसके बच्चों का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण के साये में जीने को विवश है । हालांकि ऐसा कत्तई नहीं है कि भारत में बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए कोई सरकारी नीति व कार्यक्रम नहीं है । गौर करें तो भारत सरकार द्वारा जच्चा-बच्चा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ‘जननी-शिशु सुरक्षा’, ‘आशा’ आदि कई योजनाएं व कार्यक्रम बनाए गए हैं । पर इसे व्यवस्था का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार की अन्य योजनाओं की ही तरह ये योजनाएं व कार्यक्रम भी अधिकाधिक रूप से सिर्फ कागजी खानापूर्ति तक ही सिमट के रह गए हैं । यथार्थ के धरातल पर इन योजनाओं का कोई ठोस क्रियान्वयन होता नहीं दिखता । इन कार्यक्रमों के कागज़ तक सिमटे रहने के लिए प्रमुख कारण केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच सही तालमेल का न होना है और इस तालमेल की कमी का खामियाजा देश के नन्हे मासूमों को अपनी जान तक गँवा के भुगतना पड़ रहा है । 
  बच्चों में कुपोषण दो तरह से आता है । एक जन्म के साथ और एक जन्म के कुछ समय बाद । इन दोनों ही स्थितियों में कुपोषण के लिए जच्चा-बच्चा को समुचित पोषण न दिया जाना ही मुख्य कारण होता है । शिशु अवस्था में कुपोषण से ग्रस्त होने की स्थिति में बच्चा बड़े होने पर भी सुपोषित बच्चों की अपेक्षा शारीरिक-मानसिक स्तर पर बेहद हीन रह जाता है । उदाहरणार्थ, उम्रानुसार कद छोटा होना, शरीर पतला या सूजा हो जाना; याद्दाश्त बेहद कमजोर हो जाना और कोई भी काम करते हुए बहुत ही जल्दी थक जाना आदि कुपोषण के तमाम लक्षण हैं । इनके अलावा कुपोषण युक्त बच्चे पर घेंघा, एनीमिया, मैरेमस आदि बीमारियों  का खतरा भी हमेशा बना रहता है । उसपर कुपोषण की सबसे बड़ी दिक्कत तो ये है कि जो बच्चा जन्म से पाँच वर्ष के भीतर इसकी चपेट में आ गया, उसके लिए आगे इससे मुक्त होना बेहद मुश्किल हो जाता है ।
   कुपोषण के लिए पोषण युक्त आहार की कमी सबसे प्रमुख कारक होती है, लेकिन इसके अलावा और भी कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें कुपोषण के लिए जिम्मेदार कहा जा सकता है । इनमे समाज के एक बड़े हिस्से में व्याप्त अ-जागरूकता और साफ़-सफाई का अभाव प्रमुख है । ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकाधिक लोग पोषण आदि के मामले में बेहद अ-जागरुक होते हैं, ऐसे में वे इस बात को नहीं समझ पाते कि पोषण के लिए क्या और कितना खाना चाहिए । उनकी नज़र में पोषण का सिर्फ एक अर्थ होता है कि जो भी मिले, खूब अधिक खाओ । वे समझते हैं कि खूब अधिक खाने से व्यक्ति तंदुरुस्त रहता है और प्रायः यही चीज वे अपने बच्चों पर भी लागू करते हैं । परिणामतः वे स्वयं तो कुपोषित और अस्वस्थ होते ही हैं, अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी कुपोषण पारम्परिक धरोहर के रूप में दे देते हैं । इसके अलावा साफ़-सफाई की कमी भी कुपोषण के लिए एक अहम कारण है । एक आंकड़े के मुताबिक देश में तकरीबन पच्चीस हजार ऐसी बस्तियां हैं जहाँ साफ़-सफाई का स्तर औसत से भी नीचे है । हालत ये है कि इन बस्तियों में रहने वाले लोगों के घरों के आसपास कहीं कचरे का ढेर लगा होता है तो कहीं बगल से ही नाली बह रही होती है । ऐसे में, लाख बचाने पर भी खेलते-कूदते बच्चे इन्ही गंदगियों से रूबरू होते हैं जिससे कि प्रदूषण के कारण उनमे तमाम तरह की बीमारियाँ पैदा होती हैं । बीमारियों से उनकी अवस्थानुसार बेहद नाजुक पाचन शक्ति पर  प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे उनका खाना ठीक से पचना बंद हो जाता है । इस प्रकार धीरे-धीरे वे कुपोषण की गिरफ्त में आ जाते हैं । जाहिर है कि समुचित पोषण के अलावा भी अ-जागरूकता आदि तमाम ऐसे कारण जिनसे कुपोषण को बल मिलता है । अंततः, इन बातों को देखते हुए कह सकते हैं कि कुपोषण के इस अभिशाप से मुक्ति के लिए जितनी आवश्यकता समुचित पोषण, चिकित्सा व स्वच्छता की है, उतनी या उससे कुछ अधिक ही आवश्यकता स्वास्थ्य के प्रति जन-जागरूकता की भी है । जागरूकता के लिए जितना दायित्व सरकार का है, उतना ही समाज के अन्य जागरुक व जानकार लोगों का भी है कि वे इस विषय में अंजान लोगों को बताएं और अपने स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास करें । क्योंकि, जब तक समाज में पूरी तरह से स्वास्थ्य सम्बन्धी जागरूकता नहीं आ जाती, कुपोषण के अभिशाप से मुक्ति संभव नहीं है ।            

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

किताबों के कटघरे में पीएम [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
मनमोहन सिंह के विषय में विपक्षी दलों तथा अन्य तमाम लोगों द्वारा मौखिक तौर पर तो ये हमेशा से ही कहा जाता रहा है कि वे पूरी तरह से दस जनपथ के प्रति उत्तरदायी हैं तथा उनके सभी निर्णय नेहरु-गाँधी परिवार के इशारे पर ही होते हैं । लेकिन अब जब मनमोहन सिंह इस आम चुनाव बाद अपने राजनीतिक सफर के अवसान की घोषणा कर चुके हैं, तब पूर्व में उनके निकटवर्ती रहे  दो व्यक्तियों संजय बारू और पी सी पारेख द्वारा लिखी दो किताबें सामने आई हैं जो कि प्रधानमंत्री को तथ्यों के आधार पर कटघरे में खड़ा करती हैं । पहली किताब प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ है, जिसमे दावा किया गया है कि यूपीए के दूसरे शासनकाल तक बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेहद कमजोर हो चुके थे, उनके सभी निर्णय पूरी तरह से दस जनपथ के दबाव में लिए जाते थे तथा उनके  मंत्री भी उनकी बात न मानकर दस जनपथ के आदेश की तरफ ही टकटकी बांधे रहते थे । हालत ये थी कि कितनी फाइलें तो प्रधानमंत्री को दिखाई ही नहीं जाती थीं और उनसे सम्बंधित निर्णयों के बारे में प्रधानमंत्री कुछ जान ही नहीं पाते थे । सिर्फ नीतिगत चीजें ही नहीं बड़े पदों पर नियुक्तियां भी सोनिया गाँधी की मर्जी से ही होती थीं । इस संदर्भ में एक उदाहरण देते हुए संजय लिखते हैं कि मनमोहन सिंह सी. रंगराजन को वित्तमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन सोनिया गाँधी ने प्रणब मुखर्जी को वित्तमंत्री बनाया और प्रधानमंत्री कुछ नहीं कर सके । यह भी कि २जी से ठीक पहले प्रधानमंत्री ए राजा को हटाना चाहते थे, लेकिन दस जनपथ के दबाव के चलते वो ऐसा नहीं कर पाए । इसके अलावा पूर्व कोयला सचिव पी सी पारेख की किताब ‘क्रूसेडर ऑर कान्स्पीरेटर’ में भी कोयला घोटाले में मनमोहन सिंह की विवशता से  सम्बंधित तथ्यों के आधार पर यही कहा गया है कि प्रधानमंत्री कैसे इस घोटाले को देखते, समझते हुए भी दस जनपथ के दबाव के कारण रोक नहीं पाए । अब अगर इन किताबों बातों को सही मानें (सही न मानने का कोई ठोस आधार भी तो नहीं दिखता) तो स्पष्ट होता है कि अब तक मनमोहन सिंह के कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री होने के विषय में जो बातें बस यूँ ही मौखिक तौर पर कही जाती थीं, ये किताबें उन बातों का दस्तावेजी प्रमाण हैं । इन किताबों के आने के बाद से ही विपक्ष द्वारा यूपीए  सरकार समेत सोनिया गाँधी और प्रधानमंत्री पर लगातार हमले किए जा रहे हैं । हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय समेत कांग्रेस की तरफ से इन दोनों ही किताबों को पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित व निराधार बताते हुए सोनिया गाँधी और प्रधानमंत्री के बचाव की कोशिश जरूर की जा रही है, लेकिन विपक्षी दल इन दलीलों से संतुष्ट होने को तैयार नहीं दिखते और केन्द्र सरकार पर अत्यंत हमलावर रुख अपनाए हुए हैं । हालांकि संजय बारू की किताब के संदर्भ में सरकार के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की ये प्रतिक्रिया बाकी कांग्रेसी नेताओं से थोड़ी अलग अवश्य है कि मनमोहन सिंह एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री थे और उनकी सरकार में सत्ता के दो केन्द्र थे । वहीँ, मुख्य विपक्षी दल भाजपा की तरफ से उसके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी समेत लालकृष्ण आडवाणी तथा अन्य तमाम नेताओं द्वारा इन किताबों को आधार बनाकर यूपीए सरकार और सोनिया गाँधी को घेरने की तमाम कोशिशें की जा रही है । जहाँ नरेंद्र मोदी इस विषय में सोनिया गाँधी से जवाब मांग चुके हैं तो वहीं लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि किताब में लिखीं बातें लोग पहले से ही जानते थे, किताब से उन बातों को पुष्टि मिल गई ।
   इन किताबों के प्रकाश में आने के समय पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस की तरफ से कहा जा रहा है कि चुनाव के समय ये किताबें लाना राजनीति से प्रेरित है तथा तुरंत पब्लिसिटी पाने के लिए इनमे तमाम निराधार बातें लिखी गई हैं । ये सही है कि इन किताबों का समय थोड़ा संदेहास्पद लगता है और उसपर सवाल भी उठाए जा सकते हैं, लेकिन इससे इनमे मौजूद बातें अप्रासंगिक नहीं हो जाती । इन किताबों की बातों को निराधार माना जा सकता था, बशर्ते कि प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल में खुद के दम पर कोई नीतिगत निर्णय लेते दिखे होते । लेकिन इन किताबों के आने से पहले यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान देश ने निर्णय लेने में प्रधानमंत्री की जो लाचारी देखी है, उसके बाद इन किताबों को गलत मानने का कोई आधार नहीं बचता । अब इस पूरी स्थिति को देखते हुए अगर समझने का प्रयास करें तो स्पष्ट होता है कि यूपीए सरकार में जब भी कोई समस्या उत्पन हुई तो उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही तो प्रधानमंत्री पर डाली गई, लेकिन उपलब्धियों का श्रेय सोनिया और राहुल को दिया जाता रहा । उदाहरणार्थ, दागियों पर अध्यादेश प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सबकी सम्मति से लाया गया और जब उसपर किरकिरी होने लगी, तो प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में उसे फाड़कर राहुल तो क्रांतिकारी बन गए और सारी जवाबदेही प्रधानमंत्री पर डाल दी गई । इसी प्रकार खाद्य सुरक्षा विधेयक, मनरेगा आदि कानूनों-कार्यक्रमों के मामले में भी हुआ और इनका भी श्रेय नेहरु-गाँधी परिवार को ही दिया गया । इन सब बातों को देखते हुए अगर ये कहें तो गलत नहीं होगा कि यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति एक कठपुतली जैसी रही और दूसरों की गलतियों की जवाबदेही उनपर डाली गई और उनकी सफलताओं का श्रेय सोनिया-राहुल को दिया जाता रहा । खुद संजय बारू ने भी यह बात कही है कि प्रधानमंत्री की उपलब्धियों, जिनका श्रेय उन्हें नही मिला, को देश के सामने लाने के लिए ही उन्होंने ये किताब लिखी है । पर इतने सबके बावजूद भी प्रधानमंत्री जिस तरह से चुप्पी साधे हुए हैं, वो चौंकाने वाला है । अब वो अपने राजनीतिक सफर के अवसान काल में हैं, ऐसे में उचित है कि वे इन बातों पर अपना पक्ष रखते हुए देश को अपने कार्यकाल की हकीकत से अवगत कराएं । 

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

लघुकथा : लिटमस टेस्ट [त्रैमासिक पत्रिका 'हिंदी चेतना' में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

हिंदी चेतना 
"प्रेमहीन जीवन शून्य है, ये मुझे बेहतर पता है इसलिए उसकी पीड़ा को समझता हूं "  आकाश  शून्य की ओर देखते हुवे प्रतीक से बोला
"किसकी पीड़ा? तुम्हारी प्रेमिका?" प्रतीक बोला
"ना! एक मित्र है, बहुत प्रेम करता है एक से, पर कह नही पा रहा है "
कौन मित्र?”
“अभिनव, कॉलेज वाला...
“जानता हूं किसको चाहता है? रहती कहाँ है?”
“जैसा कि उसने बताया है, तुम्हारे ही मोहल्ले में
“क्या बात कर रहे हो, ऐसा है, तब तो तुम्हारे दोस्त की समस्या हल..” अबकी प्रतीक उत्तेजित था
“पता नही ! आसान नही लगता
“आसान कर देंगे दो प्रेमियों को मिलाने से बड़ा पुण्य क्या पर प्रेमिका का नाम तो बताओ?”
“अनुराधा....!”

“क्या, उसकी इतनी हिम्मत, जिन्दा नही छोडूंगा कमीने को, खून कर दूँगा !” प्रतीक अचानक गुस्से में आ गया था अनुराधा उसकी बहन का नाम था

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

संतुलिंत और व्यवहारिक है भाजपा का घोषणापत्र [अप्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

घोषणापत्र जारी करते राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी और एमएम जोशी 
आख़िरकार बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित भाजपा के घोषणापत्र का ऐलान हो ही गया । बीते सोमवार की सुबह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी समेत लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज आदि नेताओं की मौजूदगी में घोषणापत्र समिति के प्रमुख मुरली मनोहर जोशी द्वारा भाजपा के घोषणापत्र का ऐलान किया गया । भाजपा का ये घोषणापत्र एक सप्ताह पहले आने वाला था, लेकिन घोषणापत्र में राम मंदिर के मुद्दे के जिक्र को लेकर नरेंद्र मोदी और मुरली मनोहर जोशी के बीच मतभेद होने के कारण इसके आने में देरी हुई । चूंकि, मोदी का पक्ष था कि घोषणापत्र में राम मंदिर आदि का जिक्र न करते हुए केवल विकास की बात की जाए, जबकि जोशी का कहना था कि राम मंदिर भाजपा का पारम्परिक मुद्दा है और इसको छोड़ने का मतलब अपनी वैचारिक जमीन से हटना है । साथ ही, जोशी को राम मंदिर का जिक्र न करने की स्थिति में भाजपा से साधु-संतों की नाराजगी का भी भय था । बहरहाल, मोदी और जोशी के बीच का ये मतभेद जब संघ के दरवाजे पर पहुंचा तो आखिरकार हल्के-फुल्के परिवर्तन के साथ राम मंदिर मुद्दे को भाजपा के घोषणापत्र में स्थान दे दिया गया । चूंकि, मोदी की लोकप्रियता गुजरात में सफल उनके विकास माडल के कारण ही है और ये चुनाव भी वो उसीके दम पर लड़ रहे हैं, इसलिए वो नहीं चाहते थे कि राम मंदिर मुद्दे के कारण फिर साम्प्रदायिकता का जिन्न भाजपा या उनके पीछे पड़े और उनकी विकास पुरुष की छवि को चोट पहुंचे । बस इसीलिए वो घोषणापत्र में राम मंदिर का जिक्र करने के खिलाफ थे, लेकिन राम मंदिर का जिक्र करना भाजपा की भी मजबूरी थी । ऐसा न करने की स्थिति में भाजपा के पारम्परिक मतदाताओं के बीच भाजपा के प्रति बेहद गलत संदेश जाता और संभवतः इससे भाजपा को चुनाव में हानि भी उठानी पड़ जाती ।
  अभी हाल ही में कांग्रेस ने भी अपना घोषणापत्र जारी किया था जिसमे कि एक से बढ़कर एक जनलुभावन वायदे किए गए हैं । अगर कांग्रेस के घोषणापत्र और भाजपा के घोषणापत्र के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि कांग्रेसी घोषणापत्र की अपेक्षा भाजपा का घोषणापत्र न सिर्फ कहीं ज्यादा संतुलित है, बल्कि व्यवहारिक भी है । हालांकि इसका ये कत्तई अर्थ नहीं कि भाजपा के घोषणापत्र में खामियां नहीं हैं । बेशक, उसमे भी कई खामियां हैं जिनपर सवाल उठाए जा सकते हैं, मगर सभी खामियों के बावजूद भाजपा का घोषणापत्र कांग्रेस के घोषणापत्र से अधिक बेहतर और विश्वसनीय लगता है । इसी क्रम में अगर दोनों घोषणापत्रों में किए गए कुछ प्रमुख वायदों के जरिए हम इस बात को समझने का प्रयास करें तो स्वास्थ्य के मसले पर जहाँ कांग्रेसी घोषणापत्र का कहना है कि सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य का अधिकार तथा हेल्थ बीमा होगी, वहीँ भाजपा हर राज्य में एक एम्स की स्थापना, अस्पतालों का आधुनिकीकरण करने तथा आयुर्वेद, योग आदि के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने की पक्षधर है । यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि कांग्रेस ने जिस ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ की बात की है उसका लाभ लोगों तक पहुँचने की क्या गारंटी है, इसपर उसने कुछ नहीं कहा है । संदेह नहीं कि ये भी ‘शिक्षा का अधिकार’ क़ानून की तरह मात्र कागजों तक सिमटकर रह जाएगा । जबकि भाजपा द्वारा किए गए हर राज्य में एक एम्स बनाने तथा अस्पतालों के आधुनिकीकरण करने आदि वादों के पूरा होने में कहीं कोई विशेष अड़चन नहीं दिखती । रोजगार के मामले में कांग्रेस ने १० करोड़ युवाओं को हुनर का विकास करने के लिए अवसर देने की बात तो की गई है, लेकिन ये नहीं बताया है कि वो अचानक इतने रोजगार के अवसर कहाँ से लाएगी ? क्योंकि अपने पिछले घोषणापत्र में उसने रोजगार देने का जो लक्ष्य रखा था, वो अब भी अधूरा है । ऐसे में १० करोड़ रोजगार के वायदे के हवा-हवाई ही कहा जा सकता है । वहीँ इस विषय पर भाजपा की तरफ से रोजगार की किसी भी निश्चित संख्या का कोई भी वायदा नहीं किया गया है । इसके अलावा खुद को गरीबों की पार्टी बताने वाली कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में गरीबों के लिए कहा है कि देश में बीपीएल से ऊपर ८० प्रतिशत परिवारों को अगले पाँच साल में मध्यम वर्ग में लाया जाएगा तथा शारीरिक तौर पर अक्षम लोगों को पेंशन आदि की सुविधा दी जाएगी । अब यहाँ कांग्रेस ने ये नहीं बताया है कि बीपीएल से ऊपर के ८० प्रतिशत परिवारों को मध्यम वर्ग तक किस योजना या कार्यक्रम के द्वारा लाया जाएगा और इसके लिए निवेश करने को धन कहां से आएगा ? भाजपा की बात करें तो इस मसले पर उसका कहना है कि ग्रामीण गरीबों को कृषि आदि के क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध कराकर सशक्त किया जाएगा तथा अनुसूचित व पिछड़ी जातियों में शिक्षा व उद्यमिता के विकास पर जोर दिया जाएगा । जाहिर है कि भाजपा का ये वादा भी कांग्रेस के ८० प्रतिशत परिवारों को मध्यम वर्ग तक लाने के हवा-हवाई वादे से कहीं अधिक व्यवहारिक है । काला धन वापस लाने के लिए कांग्रेस ने एक योजना बनाने की बात कही है तो भाजपा की तरफ से एक टास्क फ़ोर्स बनाने का वायदा किया गया है । इन सबके अलावा संविधान के दायरे में रहते हुए राम मंदिर बनवाने समेत कश्मीर से धारा ३७० हटवाने जैसे भाजपा के पारम्परिक वायदे तो उसके घोषणापत्र में मौजूद हैं ही ।  

आखिर में कुल मिलाकर बात इतनी है कि कांग्रेस पिछले १० वर्षों से लगातार  सत्ता में है जिससे उसकी नीतियों, कार्यक्रमों को व्यवस्थाजन्य खामियों तथा क्रियान्वयन के अभाव में विफल होते लोग देख चुके हैं जबकि भाजपा के पास गुजरात में करिश्मा कर चुका नरेंद्र मोदी जैसा नेतृत्व है जिसपर जनता द्वारा भरपूर विश्वास दिखाया जा रहा है । ऐसे में भाजपा अगर कुछ हवा-हवाई वायदे भी कर देती तो जनता उन्हें ससहज स्वीकार लेती, लेकिन भाजपा की प्रशंसा करनी होगी कि उसने ऐसे वायदे किए हैं जिन्हें दृढ़ इच्छाशक्ति के जरिए यथार्थ के धरातल पर क्रियान्वित किया जा सकता है और चुनाव बाद अगर वो सत्ता में आती है तो निश्चित ही उसे अपने इन व्यवहारिक वायदों का लाभ मिलेगा ।