गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

कुपोषण के अभिशाप से मुक्ति कब [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

राष्ट्रीय सहारा
आज के बच्चे ही कल  युवा होंगे और राष्ट्र के प्रगति व संरक्षण का दायित्व उनके कन्धों पर होगा, ऐसे में आवश्यक है कि वे शारीरिक-मानसिक स्तर पर स्वस्थ व मजबूत हों । बच्चों को शारीरिक-मानसिक स्तर पर स्वस्थ व मजबूत रखने के लिए बुनियादी जरूरत ये है कि गर्भस्थ अवस्था से लेकर तक़रीबन तीन-चार वर्ष तक उनके पोषण व चिकित्सा का समुचित ध्यान रखा जाए । क्योंकि, ये वो समय होता है, जब बच्चे अपनी भूख-प्यास, बीमारी आदि किसी भी तरह की जरूरत व तकलीफ के विषय में ठीक से बता पाने में सक्षम नहीं होते हैं । साथ ही, यही वो दौर भी होता है जब उनके शारीरिक-मानसिक विकास की बुनियाद पड़ती है । लिहाजा, इसी वक्त उनके आहार, चिकित्सा आदि के प्रति सबसे अधिक सजग व सतर्क होने की जरूरत भी होती है । क्योंकि, यहाँ चूक होने की स्थिति में बच्चे के कुपोषण के साये में जाने से लेकर गंभीर बीमारियों से ग्रस्त होने तथा जान जाने तक का खतरा होता है । इसी संदर्भ में गौर करें तो कुपोषण की समस्या आज इतना विकराल रूप ले चुकी है कि विश्व बैंक द्वारा इसकी तुलना ‘ब्लैक डेथ’ नामक उस महामारी से की गई है जिसने १८ वी सदी में योरोप की एक बड़ी जनसंख्या को नष्ट कर दिया था । इसी क्रम में अगर एक नज़र भारत पर डालें तो बच्चों के स्वास्थ्य व पोषण के मामले में यहाँ स्थिति बेहद खराब नज़र आती है । हालत ये है कि आज दुनिया के तकरीबन ४० फीसद कुपोषित बच्चे अकेले भारत में हैं । इनमे से लगभग  आधे बच्चों का वजन उनकी उम्र के अनुपात में बेहद कम है, तो कितने ही बच्चे एनीमिया से पीड़ित होने के कारण खून की कमी से ग्रस्त हैं । संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल पाँच साल से कम उम्र के लगभग २१ लाख बच्चे समुचित पोषण व स्वास्थ्य सुविधाएँ न मिलने के कारण काल के गाल में चले जाते हैं । इसी क्रम में यह भी उल्लेखनीय होगा कि एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की तीसरी सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद स्वास्थ्य और पोषण के मामले में भारत की हालत नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों से भी बदतर है । गौरतलब है कि ये सभी देश भारत से आर्थिक, संसाधनिक आदि तमाम तरह की सहायता प्राप्त करने वाले देशों में शामिल हैं । ऐसे में अगर भारत में बच्चों की स्वास्थ्यजन्य स्थिति  इन देशों से भी बदतर है तो ये भारत के लिए बेहद शर्मनाक बात कही जाएगी । कहना गलत नहीं होगा कि आज जहाँ एक तरफ भारत विश्व पटल पर अपनी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के दम पर अपनी पहचान कायम करके गर्वित हो रहा है, वहीँ दूसरी तरफ उसकी भावी पहचान यानी उसके बच्चों का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण के साये में जीने को विवश है । हालांकि ऐसा कत्तई नहीं है कि भारत में बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए कोई सरकारी नीति व कार्यक्रम नहीं है । गौर करें तो भारत सरकार द्वारा जच्चा-बच्चा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ‘जननी-शिशु सुरक्षा’, ‘आशा’ आदि कई योजनाएं व कार्यक्रम बनाए गए हैं । पर इसे व्यवस्था का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार की अन्य योजनाओं की ही तरह ये योजनाएं व कार्यक्रम भी अधिकाधिक रूप से सिर्फ कागजी खानापूर्ति तक ही सिमट के रह गए हैं । यथार्थ के धरातल पर इन योजनाओं का कोई ठोस क्रियान्वयन होता नहीं दिखता । इन कार्यक्रमों के कागज़ तक सिमटे रहने के लिए प्रमुख कारण केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच सही तालमेल का न होना है और इस तालमेल की कमी का खामियाजा देश के नन्हे मासूमों को अपनी जान तक गँवा के भुगतना पड़ रहा है । 
  बच्चों में कुपोषण दो तरह से आता है । एक जन्म के साथ और एक जन्म के कुछ समय बाद । इन दोनों ही स्थितियों में कुपोषण के लिए जच्चा-बच्चा को समुचित पोषण न दिया जाना ही मुख्य कारण होता है । शिशु अवस्था में कुपोषण से ग्रस्त होने की स्थिति में बच्चा बड़े होने पर भी सुपोषित बच्चों की अपेक्षा शारीरिक-मानसिक स्तर पर बेहद हीन रह जाता है । उदाहरणार्थ, उम्रानुसार कद छोटा होना, शरीर पतला या सूजा हो जाना; याद्दाश्त बेहद कमजोर हो जाना और कोई भी काम करते हुए बहुत ही जल्दी थक जाना आदि कुपोषण के तमाम लक्षण हैं । इनके अलावा कुपोषण युक्त बच्चे पर घेंघा, एनीमिया, मैरेमस आदि बीमारियों  का खतरा भी हमेशा बना रहता है । उसपर कुपोषण की सबसे बड़ी दिक्कत तो ये है कि जो बच्चा जन्म से पाँच वर्ष के भीतर इसकी चपेट में आ गया, उसके लिए आगे इससे मुक्त होना बेहद मुश्किल हो जाता है ।
   कुपोषण के लिए पोषण युक्त आहार की कमी सबसे प्रमुख कारक होती है, लेकिन इसके अलावा और भी कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें कुपोषण के लिए जिम्मेदार कहा जा सकता है । इनमे समाज के एक बड़े हिस्से में व्याप्त अ-जागरूकता और साफ़-सफाई का अभाव प्रमुख है । ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकाधिक लोग पोषण आदि के मामले में बेहद अ-जागरुक होते हैं, ऐसे में वे इस बात को नहीं समझ पाते कि पोषण के लिए क्या और कितना खाना चाहिए । उनकी नज़र में पोषण का सिर्फ एक अर्थ होता है कि जो भी मिले, खूब अधिक खाओ । वे समझते हैं कि खूब अधिक खाने से व्यक्ति तंदुरुस्त रहता है और प्रायः यही चीज वे अपने बच्चों पर भी लागू करते हैं । परिणामतः वे स्वयं तो कुपोषित और अस्वस्थ होते ही हैं, अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी कुपोषण पारम्परिक धरोहर के रूप में दे देते हैं । इसके अलावा साफ़-सफाई की कमी भी कुपोषण के लिए एक अहम कारण है । एक आंकड़े के मुताबिक देश में तकरीबन पच्चीस हजार ऐसी बस्तियां हैं जहाँ साफ़-सफाई का स्तर औसत से भी नीचे है । हालत ये है कि इन बस्तियों में रहने वाले लोगों के घरों के आसपास कहीं कचरे का ढेर लगा होता है तो कहीं बगल से ही नाली बह रही होती है । ऐसे में, लाख बचाने पर भी खेलते-कूदते बच्चे इन्ही गंदगियों से रूबरू होते हैं जिससे कि प्रदूषण के कारण उनमे तमाम तरह की बीमारियाँ पैदा होती हैं । बीमारियों से उनकी अवस्थानुसार बेहद नाजुक पाचन शक्ति पर  प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे उनका खाना ठीक से पचना बंद हो जाता है । इस प्रकार धीरे-धीरे वे कुपोषण की गिरफ्त में आ जाते हैं । जाहिर है कि समुचित पोषण के अलावा भी अ-जागरूकता आदि तमाम ऐसे कारण जिनसे कुपोषण को बल मिलता है । अंततः, इन बातों को देखते हुए कह सकते हैं कि कुपोषण के इस अभिशाप से मुक्ति के लिए जितनी आवश्यकता समुचित पोषण, चिकित्सा व स्वच्छता की है, उतनी या उससे कुछ अधिक ही आवश्यकता स्वास्थ्य के प्रति जन-जागरूकता की भी है । जागरूकता के लिए जितना दायित्व सरकार का है, उतना ही समाज के अन्य जागरुक व जानकार लोगों का भी है कि वे इस विषय में अंजान लोगों को बताएं और अपने स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास करें । क्योंकि, जब तक समाज में पूरी तरह से स्वास्थ्य सम्बन्धी जागरूकता नहीं आ जाती, कुपोषण के अभिशाप से मुक्ति संभव नहीं है ।            

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