- पीयूष द्विवेदी भारत
डीएनए |
मनमोहन सिंह के विषय में विपक्षी दलों तथा अन्य
तमाम लोगों द्वारा मौखिक तौर पर तो ये हमेशा से ही कहा जाता रहा है कि वे पूरी तरह
से दस जनपथ के प्रति उत्तरदायी हैं तथा उनके सभी निर्णय नेहरु-गाँधी परिवार के
इशारे पर ही होते हैं । लेकिन अब जब मनमोहन सिंह इस आम चुनाव बाद
अपने राजनीतिक सफर के अवसान की घोषणा कर चुके हैं, तब पूर्व में उनके निकटवर्ती रहे दो व्यक्तियों संजय बारू और पी सी पारेख द्वारा
लिखी दो किताबें सामने आई हैं जो कि प्रधानमंत्री को तथ्यों के आधार पर कटघरे में
खड़ा करती हैं । पहली किताब प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की ‘द एक्सीडेंटल
प्राइम मिनिस्टर’ है, जिसमे दावा किया गया है कि यूपीए के दूसरे शासनकाल तक बतौर
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेहद कमजोर हो चुके थे, उनके सभी निर्णय पूरी तरह से दस
जनपथ के दबाव में लिए जाते थे तथा उनके मंत्री भी उनकी बात न मानकर दस जनपथ के आदेश की
तरफ ही टकटकी बांधे रहते थे । हालत ये थी कि कितनी फाइलें तो प्रधानमंत्री को
दिखाई ही नहीं जाती थीं और उनसे सम्बंधित निर्णयों के बारे में प्रधानमंत्री कुछ
जान ही नहीं पाते थे । सिर्फ नीतिगत चीजें ही नहीं बड़े पदों पर नियुक्तियां भी
सोनिया गाँधी की मर्जी से ही होती थीं । इस संदर्भ में एक उदाहरण देते हुए संजय लिखते
हैं कि मनमोहन सिंह सी. रंगराजन को वित्तमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन सोनिया गाँधी
ने प्रणब मुखर्जी को वित्तमंत्री बनाया और प्रधानमंत्री कुछ नहीं कर सके । यह भी
कि २जी से ठीक पहले प्रधानमंत्री ए राजा को हटाना चाहते थे, लेकिन दस जनपथ के दबाव
के चलते वो ऐसा नहीं कर पाए । इसके अलावा पूर्व कोयला सचिव पी सी पारेख की किताब
‘क्रूसेडर ऑर कान्स्पीरेटर’ में भी कोयला घोटाले में मनमोहन सिंह की विवशता
से सम्बंधित तथ्यों के आधार पर यही कहा
गया है कि प्रधानमंत्री कैसे इस घोटाले को देखते, समझते हुए भी दस जनपथ के दबाव के
कारण रोक नहीं पाए । अब अगर इन किताबों बातों को सही मानें (सही न मानने का कोई
ठोस आधार भी तो नहीं दिखता) तो स्पष्ट होता है कि अब तक मनमोहन सिंह के कमजोर और
लाचार प्रधानमंत्री होने के विषय में जो बातें बस यूँ ही मौखिक तौर पर कही जाती
थीं, ये किताबें उन बातों का दस्तावेजी प्रमाण हैं । इन किताबों के आने के बाद से
ही विपक्ष द्वारा यूपीए सरकार समेत सोनिया
गाँधी और प्रधानमंत्री पर लगातार हमले किए जा रहे हैं । हालांकि प्रधानमंत्री
कार्यालय समेत कांग्रेस की तरफ से इन दोनों ही किताबों को पूरी तरह से राजनीति से
प्रेरित व निराधार बताते हुए सोनिया गाँधी और प्रधानमंत्री के बचाव की कोशिश जरूर
की जा रही है, लेकिन विपक्षी दल इन दलीलों से संतुष्ट होने को तैयार नहीं दिखते और
केन्द्र सरकार पर अत्यंत हमलावर रुख अपनाए हुए हैं । हालांकि संजय बारू की किताब
के संदर्भ में सरकार के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की ये प्रतिक्रिया बाकी
कांग्रेसी नेताओं से थोड़ी अलग अवश्य है कि मनमोहन सिंह एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री थे
और उनकी सरकार में सत्ता के दो केन्द्र थे । वहीँ, मुख्य विपक्षी दल भाजपा की तरफ
से उसके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी समेत लालकृष्ण आडवाणी तथा अन्य
तमाम नेताओं द्वारा इन किताबों को आधार बनाकर यूपीए सरकार और सोनिया गाँधी को
घेरने की तमाम कोशिशें की जा रही है । जहाँ नरेंद्र मोदी इस विषय में सोनिया गाँधी
से जवाब मांग चुके हैं तो वहीं लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि किताब में लिखीं
बातें लोग पहले से ही जानते थे, किताब से उन बातों को पुष्टि मिल गई ।
इन किताबों के प्रकाश में आने के समय पर सवाल
उठाते हुए कांग्रेस की तरफ से कहा जा रहा है कि चुनाव के समय ये किताबें लाना राजनीति
से प्रेरित है तथा तुरंत पब्लिसिटी पाने के लिए इनमे तमाम निराधार बातें लिखी गई
हैं । ये सही है कि इन किताबों का समय थोड़ा संदेहास्पद लगता है और उसपर सवाल भी उठाए
जा सकते हैं, लेकिन इससे इनमे मौजूद बातें अप्रासंगिक नहीं हो जाती । इन किताबों
की बातों को निराधार माना जा सकता था, बशर्ते कि प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल में
खुद के दम पर कोई नीतिगत निर्णय लेते दिखे होते । लेकिन इन किताबों के आने से पहले
यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान देश ने निर्णय लेने में प्रधानमंत्री की जो
लाचारी देखी है, उसके बाद इन किताबों को गलत मानने का कोई आधार नहीं बचता । अब इस
पूरी स्थिति को देखते हुए अगर समझने का प्रयास करें तो स्पष्ट होता है कि यूपीए
सरकार में जब भी कोई समस्या उत्पन हुई तो उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही तो
प्रधानमंत्री पर डाली गई, लेकिन उपलब्धियों का श्रेय सोनिया और राहुल को दिया जाता
रहा । उदाहरणार्थ, दागियों पर अध्यादेश प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सबकी सम्मति
से लाया गया और जब उसपर किरकिरी होने लगी, तो प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में उसे
फाड़कर राहुल तो क्रांतिकारी बन गए और सारी जवाबदेही प्रधानमंत्री पर डाल दी गई । इसी
प्रकार खाद्य सुरक्षा विधेयक, मनरेगा आदि कानूनों-कार्यक्रमों के मामले में भी हुआ
और इनका भी श्रेय नेहरु-गाँधी परिवार को ही दिया गया । इन सब बातों को देखते हुए अगर
ये कहें तो गलत नहीं होगा कि यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति
एक कठपुतली जैसी रही और दूसरों की गलतियों की जवाबदेही उनपर डाली गई और उनकी सफलताओं
का श्रेय सोनिया-राहुल को दिया जाता रहा । खुद संजय बारू ने भी यह बात कही है कि
प्रधानमंत्री की उपलब्धियों, जिनका श्रेय उन्हें नही मिला, को देश के सामने लाने
के लिए ही उन्होंने ये किताब लिखी है । पर इतने सबके बावजूद भी प्रधानमंत्री जिस
तरह से चुप्पी साधे हुए हैं, वो चौंकाने वाला है । अब वो अपने राजनीतिक सफर के
अवसान काल में हैं, ऐसे में उचित है कि वे इन बातों पर अपना पक्ष रखते हुए देश को
अपने कार्यकाल की हकीकत से अवगत कराएं ।
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