दाल की महंगाई में फंसा केंद्र [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, दैनिक दबंग दुनिया, नेशनल दुनिया और जनसत्ता में प्रकाशित]
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अमर उजाला |
कहावत
है कि घर की मुर्गी दाल बराबर; लेकिन इन दिनों दाल की कीमतें जिस तरह से आसमान छू
रही हैं, उसने इस कहावत को मजाक बना दिया है। आलम यह है कि अब दाल मुर्गे यानी नॉन
वेज से ज्यादा महँगी हो गयी है। मुर्गा जहाँ १५० से १८० रूपये किग्रा के बीच है,
वहीँ अभी एक साल पहले तक ८० से सौ रूपये के बीच रहने वाली दालों की कीमत अब १८० से
२०० रूपये तक का आंकड़ा पार कर चुकी है। सवाल यह है कि आखिर क्या कारण है कि एक
वर्ष के अन्दर ही दाल की कीमतें दुगुने से भी अधिक बढ़ गईं ? अब चूंकि केंद्र की
मोदी सरकार को आए भी एक साल से कुछ अधिक समय ही हुआ है, लिहाजा दाल की इस बढ़ी कीमत
के लिए विपक्ष से लेकर आमजनों तक सर्वाधिक जिम्मेदार उसीको ठहराया जा रहा है। ये
सही है कि दालों की इस बढ़ी महंगाई के लिए सरकार जवाबदेह है, पर यह भी देखना आवश्यक
होगा कि इन कीमतों के बढ़ने में क्या सरकार की कोई नीतिगत गलती कारण है या किन कारणों से यह कीमतें बढ़ी हैं ? विचार करें तो
दालों की इस महंगाई के लिए सरकार को कोई विशेष दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि न
तो यह कीमतें सरकार की किन्ही नीतिगत खामियों से बढ़ी हैं और न ही फिलवक्त स्थिति
ऐसी है कि सरकार इन्हें बहुत अधिक नियंत्रित कर सके। दाल की ये कीमतें बढ़ने के लिए
कई कारण हैं। इस सन्दर्भ में एक तथ्य उल्लेखनीय होगा कि भारत दुनिया का सर्वाधिक
दाल उत्पादक देश है, जबकि ठीकठाक उत्पादन होने पर भी वो अपनी ज़रुरत की लगभग ९०
प्रतिशत दाल ही उत्पादित कर पाता है। अब ऐसे में
दुनिया के इस सर्वाधिक दाल उत्पादक देश को हर वर्ष विदेशों से कुछ न कुछ
दाल का आयात करना ही पड़ता है। वर्ष २०१३-२०१४ में देश में दलहन की फसल अच्छी रही
थी और १.९२ करोड़ टन दलहन का उत्पादन हुआ था, लेकिन
देश की ज़रुरत २ करोड़ टन की थी। लिहाजा इस अच्छे उत्पादन के बावजूद भारत को कनाडा,
आस्ट्रेलिया, म्यांमार, अमेरिका आदि देशों से दाल आयात करनी पड़ी। अब इस वर्ष तो दलहन
की फसल का बड़ा हिस्सा बेमौसम बरसात के कारण नष्ट व ख़राब हो गया है।
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नेशनल दुनिया |
कृषि मंत्रालय
द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार इस वर्ष मौसमी मार के चलते देश भर में लगभग १३ लाख
हेक्टेयर दलहन बर्बाद हो गयी। देश के सर्वाधिक दाल उत्पादक राज्य यूपी में अकेले
चार लाख हेक्टेयर दलहन की फसल बरसात की भेंट चढ़ी। इन बर्बादियों के कारण देश का
दलहन उत्पादन पिछले बार के मुकाबले २० लाख टन कम यानी १.७२
करोड़ टन रहा। इस १.७२ करोड़ टन में भी काफी अधिक मात्रा में
ऐसी दाल है जो मौसमी मार से नष्ट तो नहीं
हुई, पर अपनी गुणवत्ता खो चुकी है। अब ऐसे में अच्छे उत्पादन की स्थिति में भी
अपनी ज़रुरत से कम दाल उत्पादित करने वाले देश भारत के लिए तो मुश्किलातें आनी ही
हैं। दाल के इस कम उत्पादन से बाजार में मांग और आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर आ गया
है, जिस कारण स्वाभाविक रूप से दाल की कीमतें आसमान छू रही हैं। इसके अतिरिक्त
जमाखोरों द्वारा दाल की इस कमी से और अधिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से की जा रही दाल
की जमाखोरी भी दाल की बढ़ती महंगाई के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। इनपर अंकुश के
लिए लगातार छापे मारे जा रहे हैं जिसमे कि अबतक ३६००० मीट्रिक टन दालें जब्त की गई हैं।
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जनसत्ता |
यह
तो बात समस्या की हुई; अब प्रश्न यह उठता है कि सरकार इससे निपटने के लिए क्या कर
रही है ? तो ऐसा नहीं है कि सरकार इस स्थिति पर आँख मूंदे बैठी है। सरकार द्वारा
दाल की मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटने के लिए आयात बढ़ाने से लेकर दालों की
कीमतें नियंत्रित करने के लिए प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड बनाने तक तमाम कदम उठाए जा
रहे हैं। आयात की बात करें तो कृषि मंत्रालय के अनुसार वर्ष २०१३-२०१४ के मुकाबले वर्ष
२०१४-२०१५ में दाल आयात में लगभग ९ हजार टन की वृद्धि हुई है। समझना मुश्किल नहीं
है कि आयात में यह भारी वृद्धि अधिकांशतः दाल की इन बढ़ रही कीमतों को नियंत्रित करने
के उद्देश्य से ही हुई है। केंद्र सरकार तो आयात बढ़ाकर दालों की कीमतें नियंत्रित
करने की कोशिश कर रही है, पर इस दिशा में जाने क्यों देश की तमाम राज्य सरकारों का
रुख बेहद अजीब और असहयोगी दिख रहा है। अब एक तरफ तो राज्य सरकारें केंद्र से दाल
की कमी का भी रोना रो रही हैं, वहीँ दूसरी तरफ अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने
राज्यों की ज़रुरत को देखते हुए ५००० टन की उड़द दाल का अंतर्राष्ट्रीय टेंडर जारी
किया था। पर जब राज्यों से उनकी जरूरत की
स्पष्ट मात्रा बताने को कहा गया तो ज्यादातर राज्य उड़द की दाल लेने से मुकर गाए।
परिणामस्वरूप केंद्र को बेहद असहज रूप से यह अंतर्राष्ट्रीय टेंडर रद्द करना पड़ा।
इतना ही नहीं, चेन्नई व मुंबई के रास्ते आयातित दालों को उठाने से भी ज्यादातर
राज्यों ने इंकार कर दिया। स्पष्ट है कि राज्य सरकारें दालों की महंगाई का सारा
ठीकरा केंद्र के सर डालकर खुद थोड़ी सी भी जहमत उठाने से बचना चाहती है। राज्यों के
इस गैरजिम्मेदाराना और असहयोगी रवैये के कारण के केंद्र की दाल की कीमतें
नियंत्रित करने की कोशिशें पूरी तरह से परवान नहीं चढ़ पा रही और दाल लगातार महँगी
होती जा रही है। और इन सबमे सबसे ज्यादा किरकिरी केंद्र सरकार की हो रही है, जो कि
उसके साथ अन्याय ही है।
हालांकि केंद्र सरकार को चाहिए कि वो दाल की इन
बढ़ी कीमतों को नियंत्रित करने की कोशिश तो करे ही; इस दिशा में कुछ दूरगामी कदम भी
उठाए। चूंकि दाल की फसल लम्बी अवधि वाली और बेहद नाज़ुक होती है, इसलिए उसके चौपट
होने का खतरा बना रहता है। साथ ही नीलगायें जो कि संरक्षित पशु हैं, भी दाल की
खेती के लिए एक बड़ा खतरा बनकर उभरी हैं। ये झुण्ड में फसल पर आक्रमण कर उसे चौपट
कर देती हैं और व्यक्ति बहुत अधिक कुछ कर नहीं पाता। अब इन सब मुश्किलातों के कारण
धीरे-धीरे किसान दाल की खेती से मुह मोड़ते जा रहे हैं जिससे उत्पादन स्तर लगातार
गिरता जा रहा है। देश के सर्वाधिक दाल उत्पादक राज्य यूपी में २०११ से २०१५ के बीच
दाल उत्पादन में ८ लाख मीट्रिक टन तक की कमी आयी है। समझा जा सकता है कि दाल की
खेती को लेकर लोगों में किस कदर उदासीनता घर कर रही है। लिहाजा जरूरत है कि सरकार इस
दिशा में शोध को बढ़ावा देकर ऐसे बीज तैयार करवाए जो कि अपेक्षाकृत कम नाज़ुक हों और
कम अवधि में तैयार हो जाएं। इससे इसकी खेती में जोखिम कम होगा जिससे लोग जुड़ेंगे
और उत्पादन बढ़ेगा। ये दूरगामी चीजें हैं जिनपर अगर सरकार बढ़ती है तो भविष्य में
दाल की कीमतों में ऐसे उछालों से बचा जा सकता है।
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