- पीयूष द्विवेदी भारत
इतिहास
में घोषणापत्र शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में मिलता है जैसे कि धार्मिंक
घोषणापत्र, साहित्यिक घोषणापत्र आदि। मगर वर्तमान में यह शब्द राजनीतिक दलों
द्वारा चुनाव से पूर्व जारी किए जाने वाले अपने वादों व नीतियों के दस्तावेज के
लिए ही प्रचलन में है। कुछ विद्वानों द्वारा आधुनिक भारत का पहला घोषणापत्र 1907 में
प्रकाशित महात्मा गांधी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ को कहा जाता है, जिसमें स्वतंत्र
भारत के स्वरूप, नीतियों आदि की बात की गयी है।
घोषणापत्र
कोई संवैधानिक दस्तावेज नहीं होता, इस कारण उसके वादों को पूरा करने को लेकर हमारे
राजनीतिक दल किसी भी प्रकार के कानूनी दबाव से मुक्त होते हैं। हालांकि उनपर पांच
साल बाद पुनः निर्वाचित होने के साथ-साथ नैतिकता की कसौटी पर खरा दिखने का दबाव अवश्य
होता है। मगर इन दोनों दबावों का हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं पर कम ही असर
देखने को मिलता है, बल्कि वे जिस-तिस प्रकार से इनसे मुक्त होने का मार्ग निकालने की
जुगत में लगे रहते हैं।
इन
दिनों लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दल अपना-अपना घोषणापत्र जारी करने और
उनमें बड़े-बड़े वादों का अम्बार लगाने में लगे हैं। गौरतलब है कि बीते दो अप्रैल को
जहां कांग्रेस पार्टी ने अपना घोषणापत्र ‘हम निभाएंगे’ शीर्षक
के साथ जारी किया था, तो वहीं आठ अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी
ने भी अपना संकल्प पत्र जनता के सामने रख दिया। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में
गरीबी मिटाओ का नारा देते हुए गरीबों को प्रतिमाह 6
हजार की दर से सालाना 72 हजार रुपये देने वाली
‘न्याय’ योजना की घोषणा की है। राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा इसे कांग्रेस का मास्टर
स्ट्रोक बताया जा रहा, लेकिन ये सवाल बना हुआ है कि इस योजना के क्रियान्वयन में
लगने वाले सालाना 3.6 लाख करोड़ की रकम
का बंदोबस्त कांग्रेस कैसे करेगी? सवाल यह भी है कि गरीबी मिटाने की कांग्रेस की
कैसी नीतियां हैं कि इंदिरा गांधी के समय से वो गरीबी मिटाने का नारा देती आ रही
है, लेकिन गरीबी अबतक मिटी नहीं?
इसके अलावा अभी हाल ही में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और
राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता हासिल हुई। यहाँ उसने सब किसानों से कर्जमाफी का
वादा किया था, लेकिन जब सरकार आई तो कर्जमाफी के साथ न केवल अनेक शर्तें जोड़ दी
गयीं बल्कि जल्दबाजी में क्रियान्वयन की ठीक व्यवस्था भी नहीं बनाई गयी। परिणामतः
किसी किसान का दो सौ तो किसीका चार सौ रुपया माफ़ हुआ।
भाजपा की बात करें तो बीबीसी की एक पड़ताल के अनुसार, गत
चुनाव में भाजपा ने जो भी वादे किए थे, उनमें से बहुत से पूरे हो चुके हैं तो
बहुतों के पूरा होने की दिशा में कार्य
प्रगति पर है। मोटे तौर पर भाजपा अपने लगभग अस्सी फीसद वादे पूरे कर चुकी है।
लेकिन यहाँ भाजपा के कुछ ऐसे वादों का जिक्र करना जरूरी होगा जो उसके घोषणापत्र
में दशकों से जगह बनाए हुए हैं और दो बार पूर्णकालिक सत्ता मिलने के बाद भी पूरे
नहीं हो सके हैं। इनमें राम मंदिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा-370 का खात्मा, समान
नागरिक संहिता लागू करना जैसे वादे प्रमुख हैं। ये वादे इस बार भी भाजपा के
घोषणापत्र में बने हुए हैं, ऐसे में उसे बताना चाहिए कि वो कबतक इन वादों को
दुहराती रहेगी? पूर्ण बहुमत होने के बावजूद पिछले पांच सालों में सरकार इन वादों
को पूरा करने की दिशा में कोई पहल करती क्यों नहीं दिखाई दी? यहाँ राज्यसभा में
बहुमत न होने का तर्क दिया जा सकता है, लेकिन सरकार इन विषयों से सम्बंधित विधेयक
तो ला ही सकती थी, पारित होना न होना बाद की बात थी।
ये देश के दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का हाल है।
क्षेत्रीय दलों की स्थिति भी इनसे अलग नहीं है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली की आम
आदमी पार्टी को देख सकते हैं जिसने घोषणापत्र के वादों से मुकरने के मामले में
कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया है। कुल मिलाकर बात यह है कि अलग-अलग तरह के वादों
के नाम पर जनता को लुभाने का कार्य कमोबेश हर दल कर रहा है। जिस घोषणापत्र के
जरिये आम आदमी को अपने कर्णधार राजनीतिक दलों की रीति-नीति की जानकारी प्राप्त कर
उनके समर्थन या विरोध के प्रति अपना मन बनाना चाहिए, वो घोषणापत्र अपनी गंभीरता और
महत्ता को खोकर आम आदमी को भरमाने का एक उपकरण मात्र बनता जा रहा है। वर्ष 2017 में देश के
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जे. एस. खैहर ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि ‘चुनावी वादों के
लगातार अधूरे रहने की वजह से राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्र (मेनिफेस्टो) महज कागज
का टुकड़ा बनकर रह गये हैं। राजनीतिक दलों को हर हाल में अपने चुनावी घोषणा-पत्रों
के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।’ यह कथन चुनाव दर चुनाव और अधिक प्रासंगिक होता जा
रहा है।
समय आ गया है कि घोषणापत्र के नियमन को लेकर गंभीर कदम
उठाए जाएं। वास्तव में ये भी चुनाव सुधार की ही एक महत्वपूर्ण कड़ी है। आज जरूरत है
एक ऐसे तन्त्र की जो राजनीतिक दलों के घोषणापत्र का प्रमाणन और निगरानी कर सके।
इसके लिए सबसे पहले घोषणापत्र के स्वरूप को राजनीतिक दस्तावेज तक सीमित न रखते हुए
उसे एक संवैधानिक दस्तावेज का दर्जा दिया जाए। घोषणापत्र की एक मानक रूपरेखा तय की
जाए जिसके अनुसार राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्र में वादों की जानकारी देनी हो।
हर वादे की जानकारी स्पष्ट और विस्तृत रूप से देना जरूरी हो।
इसके अलावा चुनाव आयोग के अंतर्गत एक ऐसी इकाई स्थापित
की जाए जो राजनीतिक दलों के साथ उनके घोषणापत्र के वादों की व्यावहारिकता को लेकर
चर्चा करे, निर्धारित नियमों के अनुसार उनका मूल्यांकन करे और संतुष्ट होने पर उनका
प्रमाणन कर उन्हें जारी करने की अनुमति दे। बिना इस प्रमाणन-प्रक्रिया से गुजरे
राजनीतिक दल घोषणापत्र जारी न कर पाएं।
राजनीतिक दलों को घोषणापत्र में वादों के साथ उनको पूरा
करने की स्पष्ट समयसीमा भी बताना अनिवार्य किया जाना चाहिए और वो समयसीमा उनके एक
कार्यकाल से अधिक की नहीं हो। घोषणापत्र के वादों से अलग मौखिक रूप से नेताओं
द्वारा कोई अन्य वादा करने को अनुशासनहीनता मानते हुए दंडनीय बनाया जाए। साथ ही, यदि
कोई राजनीतिक दल अपने द्वारा घोषित समयसीमा में अपने घोषणापत्र के न्यूनतम नब्बे
फीसद वादे पूरे नहीं कर पाता है, तो अगले चुनाव में उसके घोषणापत्र जारी करने या
मौखिक रूप से भी कोई नया वादा करने को प्रतिबंधित कर दिया जाए। इन नियमों का
अनुपालन न करने की स्थिति में सम्बंधित राजनीतिक दल के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध
लगाए जाने पर भी विचार किया जा सकता है।
उक्त प्रावधान कुछ कठोर अवश्य प्रतीत होते हैं,
परन्तु राजनीतिक घोषणापत्र जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज की गंभीरता और महत्ता को
सुरक्षित रखने तथा राजनीतिक दलों द्वारा लोकलुभावन वादों के जरिये जनता को ठगने की
दुष्प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए इन प्रावधानों को अपनाने की दिशा में चुनाव
आयोग व सरकार को विचार अवश्य करना चाहिए।