बुधवार, 24 अप्रैल 2019

घोषणापत्र के नियमन की दरकार [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

इतिहास में घोषणापत्र शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में मिलता है जैसे कि धार्मिंक घोषणापत्र, साहित्यिक घोषणापत्र आदि। मगर वर्तमान में यह शब्द राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव से पूर्व जारी किए जाने वाले अपने वादों व नीतियों के दस्तावेज के लिए ही प्रचलन में है। कुछ विद्वानों द्वारा आधुनिक भारत का पहला घोषणापत्र 1907 में प्रकाशित महात्मा गांधी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ को कहा जाता है, जिसमें स्वतंत्र भारत के स्वरूप, नीतियों आदि की बात की गयी है।
घोषणापत्र कोई संवैधानिक दस्तावेज नहीं होता, इस कारण उसके वादों को पूरा करने को लेकर हमारे राजनीतिक दल किसी भी प्रकार के कानूनी दबाव से मुक्त होते हैं। हालांकि उनपर पांच साल बाद पुनः निर्वाचित होने के साथ-साथ नैतिकता की कसौटी पर खरा दिखने का दबाव अवश्य होता है। मगर इन दोनों दबावों का हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं पर कम ही असर देखने को मिलता है, बल्कि वे जिस-तिस प्रकार से इनसे मुक्त होने का मार्ग निकालने की जुगत में लगे रहते हैं।
इन दिनों लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दल अपना-अपना घोषणापत्र जारी करने और उनमें बड़े-बड़े वादों का अम्बार लगाने में लगे हैं। गौरतलब है कि बीते दो अप्रैल को जहां कांग्रेस पार्टी ने अपना घोषणापत्र हम निभाएंगेशीर्षक के साथ जारी किया था, तो वहीं आठ अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी ने भी अपना संकल्प पत्र जनता के सामने रख दिया। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में गरीबी मिटाओ का नारा देते हुए गरीबों को प्रतिमाह 6 हजार की दर से सालाना 72 हजार रुपये देने वाली ‘न्याय’ योजना की घोषणा की है। राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा इसे कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा, लेकिन ये सवाल बना हुआ है कि इस योजना के क्रियान्वयन में लगने वाले सालाना 3.6 लाख करोड़ की रकम का बंदोबस्त कांग्रेस कैसे करेगी? सवाल यह भी है कि गरीबी मिटाने की कांग्रेस की कैसी नीतियां हैं कि इंदिरा गांधी के समय से वो गरीबी मिटाने का नारा देती आ रही है, लेकिन गरीबी अबतक मिटी नहीं?
इसके अलावा अभी हाल ही में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता हासिल हुई। यहाँ उसने सब किसानों से कर्जमाफी का वादा किया था, लेकिन जब सरकार आई तो कर्जमाफी के साथ न केवल अनेक शर्तें जोड़ दी गयीं बल्कि जल्दबाजी में क्रियान्वयन की ठीक व्यवस्था भी नहीं बनाई गयी। परिणामतः किसी किसान का दो सौ तो किसीका चार सौ रुपया माफ़ हुआ।

भाजपा की बात करें तो बीबीसी की एक पड़ताल के अनुसार, गत चुनाव में भाजपा ने जो भी वादे किए थे, उनमें से बहुत से पूरे हो चुके हैं तो बहुतों के पूरा होने की दिशा में  कार्य प्रगति पर है। मोटे तौर पर भाजपा अपने लगभग अस्सी फीसद वादे पूरे कर चुकी है। लेकिन यहाँ भाजपा के कुछ ऐसे वादों का जिक्र करना जरूरी होगा जो उसके घोषणापत्र में दशकों से जगह बनाए हुए हैं और दो बार पूर्णकालिक सत्ता मिलने के बाद भी पूरे नहीं हो सके हैं। इनमें राम मंदिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा-370 का खात्मा, समान नागरिक संहिता लागू करना जैसे वादे प्रमुख हैं। ये वादे इस बार भी भाजपा के घोषणापत्र में बने हुए हैं, ऐसे में उसे बताना चाहिए कि वो कबतक इन वादों को दुहराती रहेगी? पूर्ण बहुमत होने के बावजूद पिछले पांच सालों में सरकार इन वादों को पूरा करने की दिशा में कोई पहल करती क्यों नहीं दिखाई दी? यहाँ राज्यसभा में बहुमत न होने का तर्क दिया जा सकता है, लेकिन सरकार इन विषयों से सम्बंधित विधेयक तो ला ही सकती थी, पारित होना न होना बाद की बात थी।
ये देश के दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का हाल है। क्षेत्रीय दलों की स्थिति भी इनसे अलग नहीं है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली की आम आदमी पार्टी को देख सकते हैं जिसने घोषणापत्र के वादों से मुकरने के मामले में कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया है। कुल मिलाकर बात यह है कि अलग-अलग तरह के वादों के नाम पर जनता को लुभाने का कार्य कमोबेश हर दल कर रहा है। जिस घोषणापत्र के जरिये आम आदमी को अपने कर्णधार राजनीतिक दलों की रीति-नीति की जानकारी प्राप्त कर उनके समर्थन या विरोध के प्रति अपना मन बनाना चाहिए, वो घोषणापत्र अपनी गंभीरता और महत्ता को खोकर आम आदमी को भरमाने का एक उपकरण मात्र बनता जा रहा है। वर्ष 2017 में देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जे. एस. खैहर ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि चुनावी वादों के लगातार अधूरे रहने की वजह से राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्र (मेनिफेस्टो) महज कागज का टुकड़ा बनकर रह गये हैं। राजनीतिक दलों को हर हाल में अपने चुनावी घोषणा-पत्रों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।’ यह कथन चुनाव दर चुनाव और अधिक प्रासंगिक होता जा रहा है।  
समय आ गया है कि घोषणापत्र के नियमन को लेकर गंभीर कदम उठाए जाएं। वास्तव में ये भी चुनाव सुधार की ही एक महत्वपूर्ण कड़ी है। आज जरूरत है एक ऐसे तन्त्र की जो राजनीतिक दलों के घोषणापत्र का प्रमाणन और निगरानी कर सके। इसके लिए सबसे पहले घोषणापत्र के स्वरूप को राजनीतिक दस्तावेज तक सीमित न रखते हुए उसे एक संवैधानिक दस्तावेज का दर्जा दिया जाए। घोषणापत्र की एक मानक रूपरेखा तय की जाए जिसके अनुसार राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्र में वादों की जानकारी देनी हो। हर वादे की जानकारी स्पष्ट और विस्तृत रूप से देना जरूरी हो।
इसके अलावा चुनाव आयोग के अंतर्गत एक ऐसी इकाई स्थापित की जाए जो राजनीतिक दलों के साथ उनके घोषणापत्र के वादों की व्यावहारिकता को लेकर चर्चा करे, निर्धारित नियमों के अनुसार उनका मूल्यांकन करे और संतुष्ट होने पर उनका प्रमाणन कर उन्हें जारी करने की अनुमति दे। बिना इस प्रमाणन-प्रक्रिया से गुजरे राजनीतिक दल घोषणापत्र जारी न कर पाएं।
राजनीतिक दलों को घोषणापत्र में वादों के साथ उनको पूरा करने की स्पष्ट समयसीमा भी बताना अनिवार्य किया जाना चाहिए और वो समयसीमा उनके एक कार्यकाल से अधिक की नहीं हो। घोषणापत्र के वादों से अलग मौखिक रूप से नेताओं द्वारा कोई अन्य वादा करने को अनुशासनहीनता मानते हुए दंडनीय बनाया जाए। साथ ही, यदि कोई राजनीतिक दल अपने द्वारा घोषित समयसीमा में अपने घोषणापत्र के न्यूनतम नब्बे फीसद वादे पूरे नहीं कर पाता है, तो अगले चुनाव में उसके घोषणापत्र जारी करने या मौखिक रूप से भी कोई नया वादा करने को प्रतिबंधित कर दिया जाए। इन नियमों का अनुपालन न करने की स्थिति में सम्बंधित राजनीतिक दल के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगाए जाने पर भी विचार किया जा सकता है।
उक्त प्रावधान कुछ कठोर अवश्य प्रतीत होते हैं, परन्तु राजनीतिक घोषणापत्र जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज की गंभीरता और महत्ता को सुरक्षित रखने तथा राजनीतिक दलों द्वारा लोकलुभावन वादों के जरिये जनता को ठगने की दुष्प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए इन प्रावधानों को अपनाने की दिशा में चुनाव आयोग व सरकार को विचार अवश्य करना चाहिए।

बुधवार, 10 अप्रैल 2019

जड़ों में छिपा है ख़ुशी का मंत्र [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क (यूएनएसडीएसएन) द्वारा वर्ष 2019 की विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट जारी की गयी। संयुक्त राष्ट्र के 156 सदस्य देशों में प्रसन्नता का स्तर बताने वाली इस रिपोर्ट की शुरुआत 2012 में हुई थी।
जुलाई, 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर सदस्य देशों को अपने नागरिकों की प्रसन्नता के स्तर को मापने तथा इसके परिणामों का उपयोग लोक नीतियों के निर्माण में करने हेतु निर्देशित किया गया था। इसी प्रस्ताव के अनुपालन में अप्रैल, 2012 में भूटान के तत्कालीन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में प्रसन्नता एवं अच्छे रहन-सहनविषय पर संयुक्त राष्ट्र उच्चस्तरीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में पहली बार विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट जारी की गयी थी और तबसे हर साल मार्च महीने में इसे जारी किया जाता रहा है।
क्या कहती है 2019 की रिपोर्ट?
इस साल की विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट भी बीते वर्षों की ही तरह भारत के लिए निराशाजनक रही है। गत वर्ष इस रिपोर्ट में भारत का स्थान 133वां था, जो कि इस साल और गिरकर 140वें पायदान पर पहुँच गया है। हमारे सभी पड़ोसी देश इसबार भी हमसे बेहतर स्थिति में बने हुए हैं। पाकिस्तान इस सूची में 67वें, चीन 93वें, भूटान 95वें, नेपाल 100वें, बांग्लादेश 125वें तथा श्रीलंका 130वें स्थान पर है। जाहिर है, भारत यहाँ अपने पड़ोसी देशों से काफी पीछे है। इस रिपोर्ट में भारत की स्थिति साल दर साल बिगड़ती ही गयी है। जब 2012 में पहली बार यह रिपोर्ट आई थी, तो भारत का स्थान 112वां था जो कि गिरते-गिरते अब 140 पर पहुँच गया है।
प्रसन्नता के मामले में शीर्ष दस देशों में पहली विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट  से लेकर अब तक फ़िनलैंड, नॉर्वे, डेनमार्क, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रिया, आइसलैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देश बने हुए हैं। इनकी रैंकिंग में सिर्फ थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव भर होता है, लेकिन शीर्ष दस प्रसन्न देशों में यही शुमार रहते हैं। वहीं दुनिया के प्रमुख विकसित देशों की बात करें तो इनमें जर्मनी 17वें, ब्रिटेन 15वें, अमेरिका 19वें, फ्रांस 24वें स्थान पर हैं। इस रिपोर्ट का आधार कुछ ख़ास मानक हैं, जिनकी बेहतरी के आधार पर ये सम्बंधित देशों में प्रसन्नता का स्तर तय करती है।

क्या हैं मानक?
प्रति व्यक्ति आय, सामाजिक स्वतंत्रता, उदारता, सामाजिक अवलम्बन, भ्रष्टाचार की कमी, स्वस्थ जीवन की संभावना इन छः प्रमुख मानकों के आधार पर विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट तैयार की जाती है। जो देश इन छः बिन्दुओं पर जितनी बेहतर स्थिति में होते हैं, वहाँ प्रसन्नता की स्थिति उतनी ही बेहतर मानी जाती है।
सवालों के घेरे में रिपोर्ट
उक्त तथ्यों को देखते हुए विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट और उसके मानकों पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। पहली बात कि ये रिपोर्ट एक से मानकों के आधार पर हर देश में प्रसन्नता को माप रही है, जबकि वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं है। अलग-अलग देशों के लिए प्रसन्नता का स्वरूप और उसकी वजहें अलग-अलग हो सकती हैं। भारत की बात करें तो एक चुटकुला है कि यहाँ लोग बिजली आने पर भी खुश हो जाते हैं। मतलब यह कि भारत जैसे देश में लोग प्रसन्नता के लिए बहुत बड़ी-बड़ी वजहों का इंतज़ार नहीं करते बल्कि बहुत छोटी-छोटी और साधारण सी बातों पर भी प्रसन्न हो लेते हैं। अतः यहाँ के लिए संयुक्त राष्ट्र उक्त प्रसन्नता सम्बन्धी मानक कितने सही हैं, इसपर संस्था को विचार-विमर्श की जरूरत है।
दूसरी चीज कि यदि एकबार के लिए इन मानकों को सार्वदेशिक रूप से सही मान भी लें तो इनके आधार पर भी भारत पाकिस्तान से कहीं अधिक बेहतर स्थिति में नजर आता है। पाकिस्तान की आबादी भारत की आबादी के लगभग पांचवे हिस्से से भी कम है, इस कारण पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय भारत से कुछ अधिक अवश्य है, लेकिन क्रय क्षमता के मामले में भारत पाकिस्तान से कहीं बेहतर स्थिति में है। 2017 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के लोगों की क्रय क्षमता 7060 पीपीपी डॉलर है, वहीं पाकिस्तान की 5830 पीपीपी डॉलर। इसके बाद अधिक आबादी के कारण प्रति व्यक्ति आय में पाकिस्तान के मामूली रूप से आगे होने का क्या मतलब रह जाता है। भ्रष्टाचार की बात करें तो 2018 की ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक भारत जहां भ्रष्टाचार पर रोकथाम करने वाले देशों में 78वें स्थान पर है, तो वहीं पाकिस्तान 117वें स्थान के साथ भारत से बहुत पीछे है। यानी कि भ्रष्टाचार की कमी के मामले में भी हम पाकिस्तान से कहीं बेहतर स्थिति में हैं। रही सामाजिक स्वतंत्रता और उदारता जैसी बातें तो दुनिया जानती है कि इस मामले में पाकिस्तान की क्या हालत है। जिस मुल्क का निर्माण ही कट्टरता की बुनियाद पर हुआ है, वहाँ उदारता के विषय में सोचना ही बेमानी है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों और महिलाओं की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है। अतः इन मामलों में भी भारत में पाकिस्तान से बहुत अधिक बेहतर वातावरण है। बावजूद इसके आखिर किस आधार पर विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट में पाकिस्तान शुरू से ही भारत से बेहतर स्थिति में बना हुआ है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। संयुक्त राष्ट्र को अपनी इस रिपोर्ट के मानकों का एकबार पुनः अवलोकन करते हुए उन्हें और अधिक सुसंगत और तार्किक बनाने का प्रयास करना चाहिए।
भारत में प्रसन्नता की वास्तविक स्थिति
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर तो सवाल उठते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भारत में हर तरफ प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। अगर जमीनी स्तर पर देखें तो स्पष्ट होता है कि कहीं न कहीं यहाँ प्रसन्नता के स्तर में कमी आ रही है। धीरे-धीरे यह देश यत्र-तत्र और येन-केन-प्रकारेण प्रसन्न होने का अपना स्वभाव खोता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में कम से कम 6.5 प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जो अवसाद सम्बन्धी बीमारियों से ग्रस्त हैं। शहरी क्षेत्र में ये समस्या इस समस्या का विशेष प्रभाव है, जहां प्रत्येक सौ में 3 लोग अवसाद में जी रहे हैं। दिक्कत ये भी है कि देश में लोग अवसाद में होते हैं, मगर या तो उसे समझते नहीं अथवा समझते हुए भी अनदेखा करते हैं और उपचार नहीं कराते। बहरहाल, देश में अवसाद का यह बढ़ता ग्राफ प्रसन्नता के कम होने की ही गवाही दे रहा है।

क्यों घट रही प्रसन्नता?
सवाल उठता है कि वो क्या कारण हैं जो लोगों में इस कदर अवसाद और अप्रसन्नता जैसी विसंगतियां पैदा कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए पटना निफ्ट में प्राध्यापक और मोटिवेशनल स्पीकर रत्नेश्वर सिंह कहते हैं, ‘प्रसन्नता के मामले में भारत के पिछड़ने के कई कारण हैं, जिनमें पहला कारण तो जनसंख्या है जिससे अन्य देशों की अपेक्षा हमारे लिए चुनौतियाँ अधिक हैं। दूसरा कारण है शिक्षा की कमी। अशिक्षित लोग जहां रोजी-रोटी के संघर्ष में परेशान हैं, तो वहीं जो शिक्षित व रोजगारयुक्त हैं उनमें और अधिक पाने की अपेक्षा संघर्ष पैदा किए हुए है। इन सबके बावजूद जो सबसे बड़ी वजह है, वो ये कि भारतीय लोग मानसिक स्तर पहले की अपेक्षा पिछड़ गए हैं। भारतीय दर्शन में अभाव में भी खुश रहने के जो तरीके बताए गए थे, यूरोपीय प्रभाव में हम उनसे दूर होते जा रहे हैं। अतः अगर हमें अपनी प्रसन्नता का स्तर बेहतर करना है तो उसके लिए रोजगार आदि की उपलब्धता के लिए काम करने के साथ-साथ भारतीय प्राचीन दर्शन, जिसमें योग आदि की व्यवस्था है, की तरफ भी मुड़ना पड़ेगा।’ इसमें कोई दोराय नहीं कि जनसंख्या हमारे लिए एक बड़ी समस्या है, लेकिन इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि आधुनिकता के अन्धोत्साह में हम अपने भारतीय दर्शन के मूल्यों से कटते जा रहे हैं।
क्या कहता है भारतीय दर्शन?
भारतीय दर्शन में सुख के लिए मुख्यतः दो मार्गों का प्रतिपादन किया गया है – संतोष और समता। ‘संतोषम परम सुखम’ यह श्लोकांश अत्यंत प्रसिद्ध है। ऐसे ही और भी कई श्लोक भारतीय प्राचीन ग्रंथों में मिल जाते हैं, जिनमें संतोष को सुख यानी प्रसन्नता के रूप में स्थापित किया गया है। देखा जाए तो वर्तमान समय में हम इस संतोष के मार्ग को छोड़ अधिक से और अधिक पाने की यूरोपीय मान्यता के बहाव में बहे जा रहे। अपने पास जो है, उसे पर्याप्त मानकर संतुष्ट रहने की बजाय दूसरे से अपनी तुलना करने और फिर उससे अधिक अर्जित करने की चाह ने घर से लेकर कार्यस्थल तक लोगों में ऐसी अंधी होड़ पैदा कर दी है, जिसने उनका सुख-चैन छीन लिया है। ये कहें तो गलत नहीं होगा कि बहुधा लोग आज अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से दुखी रहने लगे हैं। ऐसे में, वे मानसिक तौर पर शांत और सुखी रहें, इसकी उम्मीद करना ही बेमतलब है।  
दूसरा मार्ग है समता का जिसका प्रतिपादन गीता से लेकर वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस तक में मिलता है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – ‘सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ इस श्लोकांश में सुख-दुःख, जीत-हार, लाभ-हानि सभी परिस्थितियों में एक समान भाव रखने की बात कही गयी है। विडंबना है कि गीता को घर में रखकर पूजने वाला भारतीय समाज उसके इस सन्देश को अप्रासंगिक व अव्यवहारिक मानकर भूल चुका है, जिसके परिणामस्वरूप अवसाद और निराशा के चंगुल में फंसकर प्रसन्नता से दूर होता जा रहा।
उक्त बातों के आलोक में ये कहना ठीक होगा कि भारतीय समाज भविष्य में जनसंख्या, रोजगार जैसी समस्याओं को यदि सुलझा भी लेता है, तब भी अपनी वैचारिक जड़ो अर्थात भारतीय दर्शन की तरफ लौटे बिना वो मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त नहीं कर सकता।