- पीयूष द्विवेदी भारत
पिछले
दिनों संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क (यूएनएसडीएसएन) द्वारा वर्ष 2019 की विश्व
प्रसन्नता रिपोर्ट जारी की गयी। संयुक्त राष्ट्र के 156 सदस्य देशों में प्रसन्नता का स्तर
बताने वाली इस रिपोर्ट की शुरुआत 2012 में हुई थी।
जुलाई, 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा एक ऐतिहासिक
प्रस्ताव पारित कर सदस्य देशों को अपने नागरिकों की प्रसन्नता के स्तर को मापने
तथा इसके परिणामों का उपयोग लोक नीतियों के निर्माण में करने हेतु निर्देशित किया
गया था। इसी प्रस्ताव के अनुपालन में अप्रैल, 2012 में भूटान के तत्कालीन
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में ‘प्रसन्नता एवं अच्छे रहन-सहन’ विषय पर संयुक्त राष्ट्र
उच्चस्तरीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में पहली बार विश्व प्रसन्नता
रिपोर्ट जारी की गयी थी और तबसे हर साल मार्च
महीने में इसे जारी किया जाता रहा है।
क्या कहती है 2019 की रिपोर्ट?
इस
साल की विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट भी बीते वर्षों की ही तरह भारत के लिए निराशाजनक
रही है। गत वर्ष इस रिपोर्ट में भारत का स्थान 133वां था, जो कि इस साल और
गिरकर 140वें पायदान पर
पहुँच गया है। हमारे सभी पड़ोसी देश इसबार भी हमसे बेहतर स्थिति में बने हुए हैं।
पाकिस्तान इस सूची में 67वें, चीन 93वें, भूटान 95वें, नेपाल 100वें, बांग्लादेश
125वें तथा श्रीलंका 130वें स्थान पर है। जाहिर है, भारत यहाँ अपने पड़ोसी देशों से
काफी पीछे है। इस रिपोर्ट में भारत की स्थिति साल दर साल बिगड़ती ही गयी है। जब 2012 में पहली बार यह
रिपोर्ट आई थी, तो भारत का स्थान 112वां था जो कि गिरते-गिरते अब 140 पर पहुँच गया है।
प्रसन्नता के मामले में शीर्ष दस देशों में पहली विश्व
प्रसन्नता रिपोर्ट से लेकर अब तक फ़िनलैंड, नॉर्वे, डेनमार्क, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रिया, आइसलैंड, ऑस्ट्रेलिया और
न्यूज़ीलैंड जैसे देश बने हुए हैं। इनकी रैंकिंग में सिर्फ थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव भर
होता है, लेकिन शीर्ष दस प्रसन्न देशों में यही शुमार रहते हैं। वहीं दुनिया के
प्रमुख विकसित देशों की बात करें तो इनमें जर्मनी 17वें, ब्रिटेन 15वें, अमेरिका 19वें, फ्रांस 24वें
स्थान पर हैं। इस रिपोर्ट का आधार कुछ ख़ास मानक हैं, जिनकी बेहतरी के आधार पर ये
सम्बंधित देशों में प्रसन्नता का स्तर तय करती है।
क्या हैं मानक?
प्रति व्यक्ति आय, सामाजिक स्वतंत्रता, उदारता, सामाजिक
अवलम्बन, भ्रष्टाचार की कमी, स्वस्थ जीवन की संभावना इन छः प्रमुख मानकों के आधार
पर विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट तैयार की जाती है। जो देश इन छः बिन्दुओं पर जितनी
बेहतर स्थिति में होते हैं, वहाँ प्रसन्नता की स्थिति उतनी ही बेहतर मानी जाती है।
सवालों के घेरे में रिपोर्ट
उक्त तथ्यों को देखते हुए विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट और
उसके मानकों पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। पहली बात कि ये रिपोर्ट एक से मानकों के
आधार पर हर देश में प्रसन्नता को माप रही है, जबकि वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं है।
अलग-अलग देशों के लिए प्रसन्नता का स्वरूप और उसकी वजहें अलग-अलग हो सकती हैं।
भारत की बात करें तो एक चुटकुला है कि यहाँ लोग बिजली आने पर भी खुश हो जाते हैं।
मतलब यह कि भारत जैसे देश में लोग प्रसन्नता के लिए बहुत बड़ी-बड़ी वजहों का इंतज़ार
नहीं करते बल्कि बहुत छोटी-छोटी और साधारण सी बातों पर भी प्रसन्न हो लेते हैं।
अतः यहाँ के लिए संयुक्त राष्ट्र उक्त प्रसन्नता सम्बन्धी मानक कितने सही हैं,
इसपर संस्था को विचार-विमर्श की जरूरत है।
दूसरी चीज कि यदि एकबार के लिए इन मानकों को सार्वदेशिक
रूप से सही मान भी लें तो इनके आधार पर भी भारत पाकिस्तान से कहीं अधिक बेहतर
स्थिति में नजर आता है। पाकिस्तान की
आबादी भारत की आबादी के लगभग पांचवे हिस्से से भी कम है, इस कारण पाकिस्तान की
प्रति व्यक्ति आय भारत से कुछ अधिक अवश्य है, लेकिन क्रय क्षमता के मामले में भारत
पाकिस्तान से कहीं बेहतर स्थिति में है। 2017
की विश्व बैंक की
रिपोर्ट के मुताबिक भारत के लोगों की क्रय क्षमता 7060 पीपीपी डॉलर है, वहीं
पाकिस्तान की 5830 पीपीपी डॉलर। इसके बाद अधिक आबादी के कारण
प्रति व्यक्ति आय में पाकिस्तान के मामूली रूप से आगे होने का क्या मतलब रह जाता है।
भ्रष्टाचार की बात करें तो 2018 की ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के
मुताबिक भारत जहां भ्रष्टाचार पर रोकथाम करने वाले देशों में 78वें स्थान पर है,
तो वहीं पाकिस्तान 117वें स्थान के साथ भारत से बहुत पीछे है। यानी कि
भ्रष्टाचार की कमी के मामले में भी हम पाकिस्तान से कहीं बेहतर स्थिति में हैं। रही
सामाजिक स्वतंत्रता और उदारता जैसी बातें तो दुनिया जानती है कि इस मामले में
पाकिस्तान की क्या हालत है। जिस मुल्क का निर्माण ही कट्टरता की बुनियाद पर हुआ
है, वहाँ उदारता के विषय में सोचना ही बेमानी है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों और
महिलाओं की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है। अतः इन मामलों में भी भारत में पाकिस्तान से बहुत
अधिक बेहतर वातावरण है। बावजूद इसके आखिर किस आधार पर विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट में
पाकिस्तान शुरू से ही भारत से बेहतर स्थिति में बना हुआ है, यह अपने आप में बड़ा
सवाल है। संयुक्त राष्ट्र को अपनी इस रिपोर्ट के मानकों का एकबार पुनः अवलोकन करते
हुए उन्हें और अधिक सुसंगत और तार्किक बनाने का प्रयास करना चाहिए।
भारत में प्रसन्नता की
वास्तविक स्थिति
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर तो सवाल उठते हैं, लेकिन
इसका यह अर्थ नहीं कि भारत में हर तरफ प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। अगर जमीनी स्तर
पर देखें तो स्पष्ट होता है कि कहीं न कहीं यहाँ प्रसन्नता के स्तर में कमी आ रही
है। धीरे-धीरे यह देश यत्र-तत्र और येन-केन-प्रकारेण प्रसन्न होने का अपना स्वभाव
खोता जा रहा है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में कम से कम 6.5 प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जो अवसाद सम्बन्धी बीमारियों से
ग्रस्त हैं। शहरी क्षेत्र में ये समस्या इस समस्या का विशेष प्रभाव है, जहां
प्रत्येक सौ में 3 लोग
अवसाद में जी रहे हैं। दिक्कत ये भी है कि देश में लोग अवसाद में होते हैं, मगर या
तो उसे समझते नहीं अथवा समझते हुए भी अनदेखा करते हैं और उपचार नहीं कराते। बहरहाल,
देश में अवसाद का यह बढ़ता ग्राफ प्रसन्नता के कम होने की ही गवाही दे रहा है।
क्यों घट रही प्रसन्नता?
सवाल उठता है कि वो क्या कारण हैं जो लोगों में इस कदर
अवसाद और अप्रसन्नता जैसी विसंगतियां पैदा कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए
पटना निफ्ट में प्राध्यापक और मोटिवेशनल स्पीकर रत्नेश्वर सिंह कहते हैं,
‘प्रसन्नता के मामले में भारत के पिछड़ने के कई कारण हैं, जिनमें पहला कारण तो जनसंख्या
है जिससे अन्य देशों की अपेक्षा हमारे लिए चुनौतियाँ अधिक हैं। दूसरा कारण है
शिक्षा की कमी। अशिक्षित लोग जहां रोजी-रोटी के संघर्ष में परेशान हैं, तो वहीं जो
शिक्षित व रोजगारयुक्त हैं उनमें और अधिक पाने की अपेक्षा संघर्ष पैदा किए हुए है।
इन सबके बावजूद जो सबसे बड़ी वजह है, वो ये कि भारतीय लोग मानसिक स्तर पहले की अपेक्षा पिछड़
गए हैं। भारतीय दर्शन में अभाव में भी खुश रहने के जो तरीके बताए गए थे, यूरोपीय प्रभाव
में हम उनसे दूर होते जा रहे हैं। अतः अगर हमें अपनी प्रसन्नता का स्तर बेहतर करना
है तो उसके लिए रोजगार आदि की उपलब्धता के लिए काम करने के साथ-साथ भारतीय प्राचीन
दर्शन, जिसमें योग आदि की व्यवस्था है, की तरफ भी मुड़ना पड़ेगा।’ इसमें कोई दोराय नहीं कि
जनसंख्या हमारे लिए एक बड़ी समस्या है, लेकिन इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि आधुनिकता
के अन्धोत्साह में हम अपने भारतीय दर्शन के मूल्यों से कटते जा रहे हैं।
क्या कहता है भारतीय दर्शन?
भारतीय
दर्शन में सुख के लिए मुख्यतः दो मार्गों का प्रतिपादन किया गया है – संतोष और
समता। ‘संतोषम परम सुखम’ यह श्लोकांश अत्यंत प्रसिद्ध है। ऐसे ही और भी कई श्लोक
भारतीय प्राचीन ग्रंथों में मिल जाते हैं, जिनमें संतोष को सुख यानी प्रसन्नता के
रूप में स्थापित किया गया है। देखा जाए तो वर्तमान समय में हम इस संतोष के मार्ग
को छोड़ अधिक से और अधिक पाने की यूरोपीय मान्यता के बहाव में बहे जा रहे। अपने पास
जो है, उसे पर्याप्त मानकर संतुष्ट रहने की बजाय दूसरे से अपनी तुलना करने और फिर
उससे अधिक अर्जित करने की चाह ने घर से लेकर कार्यस्थल तक लोगों में ऐसी अंधी होड़
पैदा कर दी है, जिसने उनका सुख-चैन छीन लिया है। ये कहें तो गलत नहीं होगा कि बहुधा
लोग आज अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से दुखी रहने लगे हैं। ऐसे में, वे मानसिक
तौर पर शांत और सुखी रहें, इसकी उम्मीद करना ही बेमतलब है।
दूसरा
मार्ग है समता का जिसका प्रतिपादन गीता से लेकर वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस तक
में मिलता है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – ‘सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ
जयाजयौ’ इस श्लोकांश में सुख-दुःख, जीत-हार, लाभ-हानि सभी परिस्थितियों में एक
समान भाव रखने की बात कही गयी है। विडंबना है कि गीता को घर में रखकर पूजने वाला
भारतीय समाज उसके इस सन्देश को अप्रासंगिक व अव्यवहारिक मानकर भूल चुका है, जिसके
परिणामस्वरूप अवसाद और निराशा के चंगुल में फंसकर प्रसन्नता से दूर होता जा रहा।
उक्त बातों के आलोक में ये कहना ठीक होगा कि भारतीय
समाज भविष्य में जनसंख्या, रोजगार जैसी समस्याओं को यदि सुलझा भी लेता है, तब भी
अपनी वैचारिक जड़ो अर्थात भारतीय दर्शन की तरफ लौटे बिना वो मानसिक प्रसन्नता को
प्राप्त नहीं कर सकता।
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