रविवार, 31 अक्तूबर 2021

मानसिक दासता से मुक्ति का प्रश्न

अग्रेजों की अधीनता से हम 1947 में मुक्त हो गए, जिसको अगले वर्ष साढ़े सात दशक पूरे होने वाले हैं। इस अवसर पर देश अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है। लेकिन स्वतंत्रता के इस लंबे कालखण्ड के बीतने के बाद भी कभी अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व तो कभी अंग्रेजी संस्कृति के अंधानुकरण के रूप में यह प्रश्न हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है कि अंग्रेजी हुकुमत की भौतिक दासता से मुक्ति के इतने वर्ष बाद भी क्या हम उनके द्वारा थोपी गई मानसिक दासता से मुक्त नहीं हो पाए हैं ? हाल ही में हुई एक घटना ने इस प्रश्न को पुनः प्रासंगिक कर दिया है।

दरअसल देश के महान सपूत शहीद उधम सिंह पर ‘सरदार उधम’ नाम से एक फिल्म आई है। इसमें उधम सिंह के जीवन तथा जलियांवाला बाग़ नरसंहार के अपराधी पंजाब के तत्कालीन गवर्नर जनरल माइकल ओ डायर को गोली मारकर बदला लेने की पूरी घटना को दिखाया गया है। अमेज़न प्राइम पर प्रसारित इस फिल्म को दर्शकों और समीक्षकों दोनों की तरफ से बहुत अच्छा प्रतिसाद प्राप्त हुआ है। फिल्म को मिल रही सराहना का अनुमान इसको आईएमडीबी पर मिली 9.1 की उम्दा रेटिंग से भी लगाया जा सकता है। फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा इस फिल्म को ऑस्कर में भेजने के लिए शार्टलिस्ट की गई भारतीय फिल्मों में भी शामिल किया गया था, लेकिन कुछ समय बाद इसे बाहर कर दिया गया। यहाँ तक भी गनीमत थी, लेकिन इसे ऑस्कर में न भेजे जाने का जो कारण बताया गया है, वो सम्बंधित ज्यूरी की मानसिकता पर गहरे सवाल खड़े करता है।

पाञ्चजन्य में प्रकाशित
ख़बरों की मानें तो ज्यूरी द्वारा कहा गया है कि, ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक गुमनाम नायक पर एक भव्य फिल्म बनाने का यह एक ईमानदार प्रयास है। लेकिन इस प्रक्रिया में, यह फिर से अंग्रेजों के प्रति हमारी नफरत को प्रदर्शित करता है। वैश्वीकरण के इस युग में, इस नफरत को फिर इस तरह से दिखाना उचित नहीं है।’ ज्यूरी द्वारा यह कारण सामने आने के बाद से ही सोशल मीडिया पर इसका विरोध किया जा रहा है।

इसमें कोई संशय नहीं कि किसी फिल्म को ऑस्कर में भेजना न भेजना, फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया के अधिकार का विषय है, लेकिन सरदार उधम सिंह पर बनी फिल्म को ऑस्कर में न भेजने के लिए अंग्रेजों से नफरत जो तर्क दिया गया है, वह न केवल अमान्य है, अपितु ज्यूरी सदस्यों की मानसिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। ज्यूरी के तर्क के हिसाब से चलें तब तो भारत को अपने स्वाधीनता आंदोलन के पूरे इतिहास को खत्म देना चाहिए ताकि वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेजों के प्रति नफरत से बचा जा सके। अंग्रेजों ने भारत में दो सदी से ज्यादा समय तक शोषण और दमन का जो कुचक्र चलाया है, उसे कैसे भुलाया जा सकता है ? जलियांवाला बाग़ के नरसंहार को क्या सिर्फ इसलिए भुला दिया जाए कि वैश्वीकरण के इस युग में इससे ब्रिटेन के प्रति हमारी नफरत प्रकट होती है ? क्या इस नरसंहार के मुख्य अपराधी डायर को ब्रिटेन तक जाकर मारने वाले और फांसी चढ़ने वाले सरदार उधम सिंह के बलिदान को इसलिए भुला दिया जाए क्योंकि इससे अंग्रेजों के प्रति नफरत प्रकट हो सकती है ?

इतिहास को सच्चाई के साथ सामने रख देना, नफरत दर्शाना नहीं होता। ब्रिटेन ने इतिहास में जो किया है, वो उससे पीछा नहीं छुड़ा सकता। इतिहास के उसके अपराधों का शायद यही दंड है कि उसे इनके जिक्र के बीच ही कभी उसका उपनिवेश रहे देशों के साथ सहयोग करते हुए बराबरी का सम्बन्ध लेकर चलना है। ब्रिटेन का यह भी दंड है कि जिस गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उसका जमकर विरोध किया और जिन्हें वह बारबार कारावास में डालता रहा, आज उन्हीं गांधी की प्रतिमा ब्रिटिश संसद के सामने लगी है जिसका अनावरण करने वालो में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी शामिल थे। कहने का आशय यह है कि वैश्वीकरण के इस दौर में इतिहास के अपने अपराधों को स्वीकारना व उनका प्रायश्चित करना ब्रिटेन की विवशता है। इसके लिए भारत या भारत की ही तरह पराधीन रहे अन्य देशों को ‘अंग्रेजों से नफरत’ प्रदर्शित करने से बचने के नाम पर अपना इतिहास भुलाने की कोई आवश्यकता नहीं है।   

दूसरी चीज कि यदि फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया की ज्यूरी सदस्यों के ‘अंग्रेजों से नफरत’ के तर्क से चलें तब तो रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ को कोई ऑस्कर नहीं मिलना चाहिए था, क्योंकि इस फिल्म में भी ब्रिटिश हुकूमत से भारतीयों के संघर्ष का ही चित्रण हुआ था। अंग्रेजी शासन के दमन व शोषण को भी इस फिल्म में दिखाया ही गया था, लेकिन इस फिल्म ने आधा दर्जन से अधिक ऑस्कर अवार्ड अपने नाम किए। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘द पेट्रियट’ भी, जिसमें ब्रिटेन का जमकर विरोध किया गया था, ऑस्कर की तीन श्रेणियों में नामित हुई थी। भारत से आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ भी ऑस्कर में नामित की गई थी। कहने का आशय यह है कि अंग्रेजों का विरोध होने से कोई फिल्म ऑस्कर में भेजे जाने के लिए अयोग्य नहीं हो जाती। अतः यह पूरी तरह से बेबुनियाद तर्क है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘सरदार उधम’ ऑस्कर में भेजे जाने लायक फिल्म थी, लेकिन यदि उसे नहीं भेजा गया तो सम्बंधित ज्यूरी को इसके लिए कुछ उचित कारण बताने चाहिए थे। ‘अंग्रेजों से नफरत’ का यह तर्क न केवल अस्वीकार्य है, अपितु ज्यूरी की मानसिक दासता को ही दिखाता है। स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे देश में ऐसी मानसिकताओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।