शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

छोटा राजन की गिरफ्तारी का अर्थ [दबंग दुनिया और नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
विगत दिनों इंडोनेशिया के बाली हवाई अड्डे पर इंटरपोल द्वारा किसी जमाने में दाऊद का दाहिना हाथ कहे जाने वाले अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन को गिरफ्तार कर लिया गया। छोटा राजन की यह गिरफ्तारी भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर की गई। छोटा राजन की गिरफ्तारी के बाद से ही भारतीय मीडिया से लेकर सरकार तक हड़कंप मच गया है। और हड़कंप मचे भी क्यों न! आखिर छोटा राजन अंडरवर्ल्ड में दाऊद के बाद नंबर दो का डॉन रहा है। ये अलग बात है कि फिलवक्त  उसकी हालत काफी गर्दिश में थी और दाऊद गैंग से भागता फिर रहा था, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब वो दाऊद का सबसे करीबी आदमी था। इसी संदर्भ में अगर एक नज़र छोटा राजन के पूरे जीवन-वृत्त पर डालें तो उपलब्ध जानकारियों के अनुसार इसका असली नाम राजेन्द्र सदाशिव निखलजे है। मुंबई में जन्मा राजेन्द्र सदाशिव निखलजे शुरू-शुरू में में छोटी-मोटी चोरियां, तस्करी आदि करता था, फिर इसने राजन नायर यानी बड़ा राजन के लिए काम करना शुरू किया और फिर बड़ा राजन की मौत हुई तो छोटा राजन के नाम से इसने उसके गैंग की कमान संभाल ली। फिर वह दाऊद से जुड़ गया और उसके लिए मुंबई में काम करने लगा। सन १९८८ में वह मुंबई छोड़कर दुबई चला गया। ये वो दौर था जब दाऊद और छोटा राजन में बेहद नजदीकी थी। इस दौरान उसने मुंबई लूट, फिरौती, हत्या आदि की तमाम वारदातों को अंजाम दिलवाया। लेकिन सन १९९३ के मुंबई बम धमाकों के बाद दाऊद और छोटा राजन में मतभेद उभर आए। छोटा राजन ऐसे हमले के खिलाफ था, पर दाऊद ने हमले को अंजाम दिया। परिणामतः दाऊद से अलग होकर उसने अपनी एक अलग गैंग बना ली और खुद को राष्ट्रवादी हिन्दू डॉन के रूप में प्रचारित करने की नाकामयाब कोशिश करने लगा।
नेशनल दुनिया 
उसने दाऊद गैंग के लोगों को मरवाना शुरू कर दिया। साथ ही भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों को भी दाऊद गैंग से जुडी महत्वपूर्ण सूचनाएं भी देने लगा जिससे दाऊद्द को काफी दिक्कते हुईं। छोटा राजन के बढ़ते कद से मुंबई के छोटा शकील जैसे छोटे डॉन असुरक्षित महसूस कर ही रहे थे तो मौके का फायदा उठाते हुए उन्होंने दाऊद को उसके खिलाफ भड़काया। धीरे-धीरे छोटा शकील दाऊद के लिए छोटा राजन की जगह ले लिया और फिर छोटा राजन को मारने के लिए अनेकों बार कोशिशें हुईं। वो दुबई, आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि तमाम देशों में जान-बचाकर भागता फिरता रहा। करते-धरते आज हालत यह है कि छोटा राजन की गैंग लगभग पूरी तरह से तहस-नहस हो चुकी है और शारीरिक रूप से भी वो बेहद अस्वस्थ है। उसकी किडनियां ख़राब हो चुकी हैं और वो चिकित्सकीय उपकरणों तथा दवाओं के दम पर जिंदा है। इन स्थितियों को देखते हुए उसकी इस अचानक गिरफ्तारी पर यह भी कहा जा रहा है कि उसने खुद ही  अपनी गिरफ्तारी इंडोनेशिया में करवाई है ताकि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की निगरानी में वो दाऊद गैंग से सुरक्षित रहे तथा उसका समुचित इलाज भी हो सके। क्योंकि जो डॉन पिछले कई दशकों से भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों को चकमा देता रहा था, उसकी इतनी आसानी से गिरफ्तारी तो कहीं से हजम नहीं ही होती। यह भी कहा जा रहा है कि गिरफ्तारी के लिए उसने इंडोनेशिया इसलिए चुना क्योंकि वहां उसपर कोई आपराधिक मामला नहीं है और उसकी नागरिकता भारत की है, ऐसे में इंडोनेशिया हुकूमत द्वारा उसे भारत को सौंपना ही एक रास्ता है। गिरफ्तारी के बाद उसकी  जो  तस्वीर सामने आई है उसमे छोटा राजन मुस्कुरा रहा है, ये तस्वीर  भी इस बात की काफी हद तक पुष्टि ही करती है कि ये गिरफ्तारी कहीं न कहीं सुनियोजित थी। अब जो भी हो, लेकिन इससे तो कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि छोटा राजन के भारत आने पर पूछताछ में दाऊद गैंग से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें सामने आएं जिनके जरिये ख़ुफ़िया एजेंसियों को दाऊद तक पहुँचने में भी सहायता मिले। लेकिन यह कहना कि छोटा राजन गिरफ्तार हो गया तो दाऊद भी अब दूर नहीं, अभी काफी जल्दबाजी भरी उक्ति होगी। वैसे, भारत में छोटा राजन पर लूट, फिरौती, हत्या, हत्या के प्रयास आदि के तमाम मामले दर्ज हैं। मशहूर पत्रकार ज्योतिर्मय डे हत्याकांड में भी छोटा राजन की संलिप्तता की बात खुद उसीके द्वारा स्वीकार की गई है। आशा है, अगले सप्ताह-दस दिनों में उसे भारत लाया जाय और फिर इन सब मामलों में उसपर मुकदमा भी चलेगा ही।

  एक तथ्य यह भी है कि छोटा राजन की गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले से ही विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह इंडोनेशिया में थे तो माना जा रहा है कि कहीं न कहीं वे इसी मिशन के लिए इंडोनेशिया में गए हों। वैसे अब जिस तरह से छोटा राजन द्वारा खुद ही अपनी गिरफ्तारी की बात सामने आ रही है, उसने मोदी सरकार से इस गिरफ्तारी का श्रेय लेने का मौक़ा लगभग छीन ही लिया है। शायद इसीलिए सरकार द्वारा अबतक इसपर श्रेय लेने की कोई विशेष कोशिश भी नहीं की गई है और संभव है कि बहुत अधिक की जाएगी भी नहीं। 

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

दाल की महंगाई में फंसा केंद्र [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, दैनिक दबंग दुनिया, नेशनल दुनिया और जनसत्ता में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला 
कहावत है कि घर की मुर्गी दाल बराबर; लेकिन इन दिनों दाल की कीमतें जिस तरह से आसमान छू रही हैं, उसने इस कहावत को मजाक बना दिया है। आलम यह है कि अब दाल मुर्गे यानी नॉन वेज से ज्यादा महँगी हो गयी है। मुर्गा जहाँ १५० से १८० रूपये किग्रा के बीच है, वहीँ अभी एक साल पहले तक ८० से सौ रूपये के बीच रहने वाली दालों की कीमत अब १८० से २०० रूपये तक का आंकड़ा पार कर चुकी है। सवाल यह है कि आखिर क्या कारण है कि एक वर्ष के अन्दर ही दाल की कीमतें दुगुने से भी अधिक बढ़ गईं ? अब चूंकि केंद्र की मोदी सरकार को आए भी एक साल से कुछ अधिक समय ही हुआ है, लिहाजा दाल की इस बढ़ी कीमत के लिए विपक्ष से लेकर आमजनों तक सर्वाधिक जिम्मेदार उसीको ठहराया जा रहा है। ये सही है कि दालों की इस बढ़ी महंगाई के लिए सरकार जवाबदेह है, पर यह भी देखना आवश्यक होगा कि इन कीमतों के बढ़ने में क्या सरकार की कोई नीतिगत गलती कारण है या किन  कारणों से यह कीमतें बढ़ी हैं ? विचार करें तो दालों की इस महंगाई के लिए सरकार को कोई विशेष दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि न तो यह कीमतें सरकार की किन्ही नीतिगत खामियों से बढ़ी हैं और न ही फिलवक्त स्थिति ऐसी है कि सरकार इन्हें बहुत अधिक नियंत्रित कर सके। दाल की ये कीमतें बढ़ने के लिए कई कारण हैं। इस सन्दर्भ में एक तथ्य उल्लेखनीय होगा कि भारत दुनिया का सर्वाधिक दाल उत्पादक देश है, जबकि ठीकठाक उत्पादन होने पर भी वो अपनी ज़रुरत की लगभग ९० प्रतिशत दाल ही उत्पादित कर पाता है। अब ऐसे में  दुनिया के इस सर्वाधिक दाल उत्पादक देश को हर वर्ष विदेशों से कुछ न कुछ दाल का आयात करना ही पड़ता है। वर्ष २०१३-२०१४ में देश में दलहन की फसल अच्छी रही थी और १.९२ करोड़ टन दलहन का उत्पादन हुआ था, लेकिन देश की ज़रुरत २ करोड़ टन की थी। लिहाजा इस अच्छे उत्पादन के बावजूद भारत को कनाडा, आस्ट्रेलिया, म्यांमार, अमेरिका आदि देशों से दाल आयात करनी पड़ी। अब इस वर्ष तो दलहन की फसल का बड़ा हिस्सा बेमौसम बरसात के कारण नष्ट व ख़राब हो गया है।
नेशनल दुनिया 
कृषि मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार इस वर्ष मौसमी मार के चलते देश भर में लगभग १३ लाख हेक्टेयर दलहन बर्बाद हो गयी। देश के सर्वाधिक दाल उत्पादक राज्य यूपी में अकेले चार लाख हेक्टेयर दलहन की फसल बरसात की भेंट चढ़ी। इन बर्बादियों के कारण देश का दलहन उत्पादन पिछले बार के मुकाबले २० लाख टन कम यानी १
.७२ करोड़ टन रहा। इस १.७२ करोड़ टन में भी काफी अधिक मात्रा में ऐसी दाल है जो मौसमी मार  से नष्ट तो नहीं हुई, पर अपनी गुणवत्ता खो चुकी है। अब ऐसे में अच्छे उत्पादन की स्थिति में भी अपनी ज़रुरत से कम दाल उत्पादित करने वाले देश भारत के लिए तो मुश्किलातें आनी ही हैं। दाल के इस कम उत्पादन से बाजार में मांग और आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर आ गया है, जिस कारण स्वाभाविक रूप से दाल की कीमतें आसमान छू रही हैं। इसके अतिरिक्त जमाखोरों द्वारा दाल की इस कमी से और अधिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से की जा रही दाल की जमाखोरी भी दाल की बढ़ती महंगाई के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। इनपर अंकुश के लिए लगातार छापे मारे जा रहे हैं जिसमे कि अबतक ३६००० मीट्रिक  टन दालें जब्त की गई  हैं।
 

दबंग दुनिया 
जनसत्ता 
  यह तो बात समस्या की हुई; अब प्रश्न यह उठता है कि सरकार इससे निपटने के लिए क्या कर रही है ? तो ऐसा नहीं है कि सरकार इस स्थिति पर आँख मूंदे बैठी है। सरकार द्वारा दाल की मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटने के लिए आयात बढ़ाने से लेकर दालों की कीमतें नियंत्रित करने के लिए प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड बनाने तक तमाम कदम उठाए जा रहे हैं। आयात की बात करें तो कृषि मंत्रालय के अनुसार वर्ष २०१३-२०१४ के मुकाबले वर्ष २०१४-२०१५ में दाल आयात में लगभग ९ हजार टन की वृद्धि हुई है। समझना मुश्किल नहीं है कि आयात में यह भारी वृद्धि अधिकांशतः दाल की इन बढ़ रही कीमतों को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ही हुई है। केंद्र सरकार तो आयात बढ़ाकर दालों की कीमतें नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, पर इस दिशा में जाने क्यों देश की तमाम राज्य सरकारों का रुख बेहद अजीब और असहयोगी दिख रहा है। अब एक तरफ तो राज्य सरकारें केंद्र से दाल की कमी का भी रोना रो रही हैं, वहीँ दूसरी तरफ अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने राज्यों की ज़रुरत को देखते हुए ५००० टन की उड़द दाल का अंतर्राष्ट्रीय टेंडर जारी किया था। पर  जब राज्यों से उनकी जरूरत की स्पष्ट मात्रा बताने को कहा गया तो ज्यादातर राज्य उड़द की दाल लेने से मुकर गाए। परिणामस्वरूप केंद्र को बेहद असहज रूप से यह अंतर्राष्ट्रीय टेंडर रद्द करना पड़ा। इतना ही नहीं, चेन्नई व मुंबई के रास्ते आयातित दालों को उठाने से भी ज्यादातर राज्यों ने इंकार कर दिया। स्पष्ट है कि राज्य सरकारें दालों की महंगाई का सारा ठीकरा केंद्र के सर डालकर खुद थोड़ी सी भी जहमत उठाने से बचना चाहती है। राज्यों के इस गैरजिम्मेदाराना और असहयोगी रवैये के कारण के केंद्र की दाल की कीमतें नियंत्रित करने की कोशिशें पूरी तरह से परवान नहीं चढ़ पा रही और दाल लगातार महँगी होती जा रही है। और इन सबमे सबसे ज्यादा किरकिरी केंद्र सरकार की हो रही है, जो कि उसके साथ अन्याय ही है।
  हालांकि केंद्र सरकार को चाहिए कि वो दाल की इन बढ़ी कीमतों को नियंत्रित करने की कोशिश तो करे ही; इस दिशा में कुछ दूरगामी कदम भी उठाए। चूंकि दाल की फसल लम्बी अवधि वाली और बेहद नाज़ुक होती है, इसलिए उसके चौपट होने का खतरा बना रहता है। साथ ही नीलगायें जो कि संरक्षित पशु हैं, भी दाल की खेती के लिए एक बड़ा खतरा बनकर उभरी हैं। ये झुण्ड में फसल पर आक्रमण कर उसे चौपट कर देती हैं और व्यक्ति बहुत अधिक कुछ कर नहीं पाता। अब इन सब मुश्किलातों के कारण धीरे-धीरे किसान दाल की खेती से मुह मोड़ते जा रहे हैं जिससे उत्पादन स्तर लगातार गिरता जा रहा है। देश के सर्वाधिक दाल उत्पादक राज्य यूपी में २०११ से २०१५ के बीच दाल उत्पादन में ८ लाख मीट्रिक टन तक की कमी आयी है। समझा जा सकता है कि दाल की खेती को लेकर लोगों में किस कदर उदासीनता घर कर रही है। लिहाजा जरूरत है कि सरकार इस दिशा में शोध को बढ़ावा देकर ऐसे बीज तैयार करवाए जो कि अपेक्षाकृत कम नाज़ुक हों और कम अवधि में तैयार हो जाएं। इससे इसकी खेती में जोखिम कम होगा जिससे लोग जुड़ेंगे और उत्पादन बढ़ेगा। ये दूरगामी चीजें हैं जिनपर अगर सरकार बढ़ती है तो भविष्य में दाल की कीमतों में ऐसे उछालों से बचा जा सकता है। 

समान नागरिक संहिता के पेंच [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि वो समान नागरिक संहिता को लागू करने की दिशा में क्या कर रही है। न्यायालय ने कहा है, “पूरी तरह से भ्रम की स्थिति है । हमें समान नागरिक संहितापर काम करना चाहिए। इस के साथ क्या हुआ ? अगर आप (सरकार) इसे लागू करना चाहते हैं तो तैयार करके लागू क्यों नहीं करते ?’’ जवाब देने के लिए अदालत ने सरकार को तीन सप्ताह का समय दिया है। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने यह बात कही। दिल्ली के एक व्यक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करते हुए इसाई व्यक्तियों को तलाक के लिए दो वर्ष इंतज़ार के लिए मजबूर किए जाने वाले कानूनी प्रावधान को चुनौती दी थी, क्योंकि अन्य धर्मों के लिए यह अवधि एक वर्ष है।  इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने समान नागरिक संहिता पर चिंता जताते हुए इसपर सरकार से स्पष्ट राय रखने को कहा है। अब यह तो देखने वाली बात होगी कि सरकार इसपर क्या राय रखती है। पर फिलहाल केन्द्रीय क़ानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने कहा है कि समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है, लेकिन साथ में वे यह भी जोड़ गए कि इस मामले पर सबसे विचार-विमर्श करके ही कुछ निर्णय लिया जाएगा। अब चूंकि इस क़ानून को लेकर मौजूदा भाजपानीत राजग सरकार से उम्मीद इसलिए अधिक है कि यह मुद्दा भाजपा के घोषणापत्र से लेकर चुनावी एजेंडे तक प्रमुख रहा है।
दैनिक जागरण 
  इसी संदर्भ में अगर एक नज़र समान नागरिक संहिता पर डालें तो इसका तात्पर्य देश के सभी नागरिकों चाहें वे किसी धर्म या क्षेत्र के हो, के लिए एक समान नागरिक कानूनों से है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी व्यक्तिगत कानूनों से ऊपर होता है। चूंकि भारत में सभी निजी क़ानून धार्मिक आधार पर निर्धारित हैं। हिन्दू-बौद्ध-सिक्ख-जैन आदि हिन्दू विधियों से संचालित हैं तो वहीँ मुस्लिमों और इसालियों के अपने क़ानून हैं। हिन्दुओं के अपने तो मुस्लिम समुदाय के अपने व्यक्तिगत नागरिक क़ानून हैं। जैसे हिन्दुओं में खाप पंचायत जैसी चीजें हैं तो वहीँ मुस्लिमों में शरिया इसका उदाहरण है। खाप पंचायतें अक्सर अपने तालिबानी फरमानों के लिए चर्चा में रहती हैं तो वहीँ शरिया के अनुसार दोषी को दंड के रूप में हाथ काटने से लेकर पत्थर से मार-मारकर मार डालने जैसा कायदा है। ऐसे ही सभी समुदायों के शादी आदि के भी अपने कायदे हैं। ऐसे ही ईसाईयों के भी अपने निजी क़ानून हैं। इन सब विविधताओं के मद्देनज़र अक्सर यह आवाज उठती रहती है कि देश समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। पर इसको लेकर इसाई और विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय असुरक्षा महसूस करता रहा है। दरअसल मुस्लिमों को यह भय इसलिए भी अधिक होता है कि हिन्दुत्ववादी एजेंडे के लिए मशहूर भाजपा इसकी बात करती है। मुस्लिमों को लगता है कि समान नागरिक संहिता के रूप में हिन्दू नागरिक विधियों को लागू करके मुस्लिम संस्कृति को ध्वस्त किया जाएगा। लेकिन विचार करें तो यह चीज भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कहीं से संभव नहीं दिखती। भारत में ऐसा कोई क़ानून जिसमे  अन्य समुदायों पर हिन्दू नागरिक कानूनों को थोपने की बात हो, का पारित होना आसान नहीं है। इसलिए कहना गलत नहीं होगा कि अल्पसंख्यक भय बेवजह और निर्मूल ही है।
   समान नागरिक संहिता न केवल भारतीय संविधान के नीति निदेशक सिद्धांतों के अनुसार सही है, वरन वर्तमान समय में इसकी प्रबल आवश्यकता भी दिखाई देती है। अगर सर्वसहमति से समान नागरिक संहिता लागू हो जाय तो इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि देश को आए दिन अलग-अलग धार्मिक प्रथाओं, परम्पराओं के कारण उपजने वाले साम्प्रदायिक विद्वेष से मुक्ति मिल सकेगी। जब सबके लिए समान जीवन पद्धति सुनिश्चित रहेगी तो सब उसीपर चलेंगे और फिर किसीको किसीसे कोई धार्मिक विरोध नहीं रह जाएगा। इसके साथ ही सभी धम्रों खासकर इस्लाम में स्त्रियों की रहन-सहन और शिक्षा आदि को लेकर जो कठोर और तुगलकी कायदे अब भी जारी हैं, उनसे भी उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। समान नागरिक संहिता दुनिया के अधिकांश आधुनिक और प्रगतिशील देशों में लागू है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में तो इसे काफी पहले ही आ जाना चाहिए था। खैर! जो देरी हुई सो हुई, पर अब जब इसको लागू करने की बात करने वाली भाजपा सत्ता में है तो उसे अब इसपर और देरी नहीं करनी चाहिए। यह समय की ज़रूरत है और अदालत ने भी अपने निर्णय में उस ज़रूरत को देखते हुए ही इसे लागू करने को लेकर चिंता जताई है। सही होगा कि हमारे हुक्मरान अदालत की चिंता को समझते हुए कदम उठाएं।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

न्यायिक नियुक्ति पर आमने-सामने [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राष्ट्रीय सहारा 
पूरी संसद द्वारा एकसुर से पारित किए गए ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग-२०१४’ (एनजेएसी) क़ानून को निरस्त कर सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार को बड़ा झटका दिया है। न्यायालय द्वारा इस क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए न केवल निरस्त किया गया बल्कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की पुरानी कोलेजियम व्यवस्था को पुनः बहाल भी कर दिया गया। पांच न्यायाधीशों की  संवैधानिक पीठ में से सिर्फ एक न्यायाधीश जे चेलमेश्वर ने इसे संवैधानिक माना, बाकी चारों न्यायाधीश इसके विरुद्ध ही रहे। लिहाजा पीठ द्वारा फैसला सुनाते हुए कहा गया कि ‘इस क़ानून में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिस नियुक्ति आयोग की बात कही गयी है, उसमे न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व बेहद कम है। अब न्यायपालिका से सम्बंधित नियुक्ति में न्यायपलिका का ही प्रतिनिधित्व कम होना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन है।’ इस प्रकार कहते हुए न्यायाधीशों की संविधानिक पीठ द्वारा सरकार के न्यायिक नियुक्ति आयोग को निरस्त कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से केंद्र सरकार को कितना झटका लगा है, उसे इसीसे समझा जा सकता है कि आमतौर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को सिर माथे स्वीकार लेने वाली सरकार इस निर्णय से हैरानी में और आतंरिक रूप से काफी हद तक बौखलाहट में भी है। केन्द्रीय क़ानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने कहा कि यह क़ानून जनता की इच्छा से आया था तो वहीँ पूर्व क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसे संसदीय संप्रभुता को झटका बताया। सरकार की तरफ से यह भी स्पष्ट किया गया है कि वो इस सम्बन्ध में मौजूद अन्य विकल्पों पर विचार करेगी। इन विकल्पों में सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी बेंच के पास जाने से लेकर निरस्त क़ानून में संशोधन तक कई रास्ते हैं, जिनपर विचार के लिए सरकार ने फिलहाल सर्वदलीय बैठक बुलाने की घोषणा कर दी है। मगर सरकार की दिक्कत यह भी है कि जिस मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने कभी संसद में अपने समर्थन से इस क़ानून को पारित करवाया था, अब उसने इसपर सरकार का समर्थन करने से इंकार कर दिया है। लिहाजा इस क़ानून को लेकर आगे बढ़ना अब सरकार के लिए आसान नहीं रहने वाला।
  हालांकि अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कोलेजियम को लेकर उठ रहे सवालों का समाधान करने व इसकी कमियों में सुधार करने पर पहली दफे रूचि दिखाई है और सरकार से इस सम्बन्ध में सुझाव मांगते हुए आगामी ३ नवम्बर को पुनः सुनवाई की तारीख निश्चित की है, जिसमे मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था की खामियों को दूर करने सम्बन्धी कुछ निर्णय लिए जा सकते हैं। बावजूद इसके गौर करें तो इस मामले में न्यायपालिका का रवैया कुछ हद तक अड़ियल और अहं से ग्रस्त नज़र आता है। न्यायपालिका से यह सरल-सा प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों न्यायाधीशों की नियुक्ति सिर्फ न्यायाधीश ही करें ? सरकार के कामों में पारदर्शिता लाने के लिए जब-तब अनेक निर्णय देने वाली न्यायपालिका अपने न्यायाधीशों की नियुक्ति सिर्फ न्यायाधीशों की कोलेजियम की कोठरी में बैठकर ही क्यों करना चाहती है। क्या न्यायपालिका में पारदर्शिता नहीं होनी चाहिए ? वो भी तब, जब विगत कुछ वर्षों से जहाँ-तहां न्यायाधीशों पर यौन उत्पीड़न और भ्रष्टाचार आदि के आरोप भी सामने आते रहे हैं। अब रही कोलेजियम व्यवस्था तो उसपर तो खैर लम्बे समय से प्रश्न उठ ही रहे हैं। ऐसे में क्या न्यायपालिका सरकार के राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग जिसे कि संसद की दोनों सदनों ने पूर्ण बहुमत से पारित किया था अर्थात पूरे देश का समर्थन इसके साथ था, को स्वीकृति नहीं देनी चाहिए थी। ये हो सकता है कि उसमे कुछ बिंदु असंवैधानिक हों, लेकिन न्यायपालिका कहती तो उनमे बदलाव भी हो सकता था। पर जिस तरह से उसे निरस्त कर दिया गया उससे तो यही लगता है कि जैसे न्यायपालिका मन बनाकर बैठी थी कि ये क़ानून स्वीकृति के लिए सर्वोच्च न्यायालय में आए और इसे निरस्त किया जाय। इसी क्रम में अगर एनजेएसी  पर एक नज़र डालें तो इसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक छः सदस्यीय आयोग का प्रावधान किया गया था। इसके अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश होते तथा सदस्यों में सर्वोच्च न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश, क़ानून मंत्री एवं दो प्रबुद्ध नागरिक नागरिक शामिल थे। इन दो प्रबुद्ध नागरिकों का चयन प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की एक तीन सदस्यीय समिति करती। स्पष्ट है कि इस न्यायिक नियुक्ति आयोग में न्यायपालिका के प्रतिनिधित्व की कहीं कोई कमी नहीं है; अध्यक्ष समेत आधे सदस्य न्यायपालिका के ही हैं। अब सवाल यह है कि आखिर सर्वोच्च न्यायालय और कौन-सा प्रतीनिधित्व चाहता था  कि उसे इस आयोग में न्यायपालिका के प्रतिनिधित्व की कमी दिखी ? साथ ही सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना भी समझ से परे है कि न्यायिक नियुक्ति आयोग में क़ानून मंत्री और नागरिकों को रखना संविधान विरुद्ध है। सर्वोच्च न्यायालय यह भी बता देता कि जब क़ानून मंत्री रहेंगे ही नहीं, नागरिक रहेंगे ही नहीं तो फिर और कौन रहेगा ? समझना बहुत कठिन नहीं है कि न्यायपालिका किसी भी हालत में न्यायाधीशों की नियुक्ति पर से कोलेजियम व्यवस्था के रूप में अपना एकाधिकार  खोना नहीं चाहती और बस इसीलिए संवैधानिक प्रावधानों की एक हद तक मनमुताबिक व्याख्या करके उसने सरकार के न्यायिक नियुक्ति आयोग को निरस्त कर दिया। मनमुताबिक व्याख्या इसलिए कि पांच न्यायाधीशों की संविधानिक पीठ में से एक न्यायाधीश ने एनजेएसी  को संविधान सम्मत भी माना है। लिहाजा इसे पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता।
  राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर अक्सर न्यायाधीशों द्वारा यह कहा जाता रहा है कि सरकार इसके जरिये अपने मनमाफिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित करना चाहती है। अब सरकार के नियुक्ति आयोग को देखने पर तो यह बात कहीं से सही नहीं लगती कि सरकार इसके जरिये अपने मनमाफिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर पाती। लेकिन एकबार के लिए अगर मान लें कि  न्यायिक नियुक्ति आयोग के जरिये सरकार की मंशा न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित करने की है तो वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था के जरिये न्यायपालिका भी तो यही कर रही है।

  गौर करें तो ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम जैसी व्यवस्था नहीं है और न ही भारतीय संविधान निर्माताओं ने ही ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण किया था। संविधान के अनुसार तो मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का प्रावधान है। अब इसमें यह कोलेजियम व्यवस्था तो खुद न्यायालय द्वारा कुछ-कुछ अंतराल पर दिए तीन फैसलों जिसे ‘थ्री जजेस केसेस’ भी कहा जाता है, के फलस्वरूप १९९३ में आ गयी। इसका एक अलग ही इतिहास है। अब जो भी हो, पर फिलहाल तो कुल मिलाकर तस्वीर यही है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लेकर भारतीय लोकतंत्र के दो स्तंभों कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव जैसी स्थिति तो पैदा हो गई है जो कि न केवल चिंताजनक है, वरन विश्व में भारतीय लोकतंत्र को लेकर गलत सन्देश देने वाला भी है। अतः उचित होगा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका यानी सरकार बैठकर इस मामले पर चर्चा कर कोई एक राय कायम करें तथा ऐसा रास्ता निकालें जिससे कि देश की न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी कोई प्रश्नचिन्ह न लगे और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया भी वर्तमान व्यवस्था से इतर पारदर्शी और बेहतर हो सके।

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

सियासत का अखाड़ा बनती दादरी [नेशनल दुनिया और दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नेशनल दुनिया 
इसे इस देश की सियासत की क्रूर व्यापकता कहें या हमारे सियासतदारों की संवेदनहीनता  कि यहाँ भूखे आदमी की रोटी से लेकर मुर्दा आदमी के कफ़न तक कहीं भी सियासत शुरू हो जाती है। जहाँ कहीं भी वोटों की गुंजाइश दिखी नहीं कि हमारे सियासतदां मांस के टुकड़े पर गिद्धों के झुण्ड की तरह टूट पड़ते हैं। ताज़ा मामला दादरी का है। विगत दिनों उत्तर प्रदेश के दादरी में एक भीड़ जिसे समुदाय विशेष की कहा जा रहा है, द्वारा कथित तौर पर गोमांस खाने के लिए ५० वर्षीय व्यक्ति इखलाक की हत्या का मामला सामने आया। एक नज़र में यह यूँ तो एक बड़े प्रदेश के एक छोटे-से जिले का एक हत्या का मामला भर था, लेकिन दो-एक दिनों में बड़े ही अप्रत्याशित ढंग से यह राष्ट्रीय पटल पर छा गया। प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से पीड़ित परिवार ने मुलाकात की जिसके बाद उन्होंने तुरंत ही न केवल दोषियों को पकडकर कड़ी से कड़ी सजा दिलाने का भरोसा दिलाया, वरन पीड़ित परिवार को कुल मिलाकर ४५ लाख रूपये की आर्थिक सहायता का ऐलान भी कर दिए। अब यह आर्थिक सहायता किस आधार पर दी जा रही है, इसपर उन्होंने कुछ नहीं कहा। अब यह न तो किसी प्राकृतिक आपदा का मामला है, न  किसी दुर्घटना का और न ही किसी सामूहिक दंगा-फसाद का; यह तो सीधा-सीधा एक हत्या का मामला है। लिहाजा इसमें मुआवजा या आर्थिक सहायता देने का कोई प्रावधान तो नहीं बनता है। पीड़ित परिवार को सहायता देना कत्तई गलत नहीं है, लेकिन मुख्यमंत्री महोदय को स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर किस एवज में उन्होंने इस आर्थिक सहायता का ऐलान किया है। उन्हें बताना चाहिए कि क्या प्रदेश में अब हत्या होने पर भी आर्थिक सहायता देने की व्यवस्था शुरू कर दी गई है ? या इस मामले को वे हत्या से इतर कुछ और मानते हैं ? अब यह तो नहीं कहा जा सकता कि यूपी सरकार संवेदनशील होने के कारण यह सहायता दे रही है, क्योंकि मणिपुर उग्रवादी हमले में शहीद हुए जवान जगवीर सिंह के मामले में इस सरकार की संवेदनशीलता की हकीकत सामने आ चुकी है। सबने देखा है कि कैसे उस मामले में शहीद के परिवारजनों को सहायतास्वरुप महज २० लाख रूपये और कुछ ज़मीन देना इसी अखिलेश सरकार को इतना भारी पड़ रहा था कि उनके परिवार को शहीद के शव की अंत्येष्टि रोककर अपना विरोध तक प्रदर्शित करना पड़ा, तब कहीं जाकर ये सरकार मानी थी। समझना कठिन नहीं है कि इखलाक के परिवार को मिलने वाली ये बे-बात सहायता सिर्फ और सिर्फ राजनीति है, इससे अधिक कुछ नहीं।
दैनिक जागरण 
  बहरहाल,  मामला मुख्यमंत्री के संवेदनशील होने और प्रदेश के नेताओं तक ही सीमित नहीं रहा, वरन जल्दी-ही राष्ट्रीय स्तर के बड़े-बड़े नेता भी दादरी पहुंचकर पीड़ित परिवार के प्रति संवेदना जताने लगे। भाजपा नेता और केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, एआईएमआईएम अध्यक्ष असद्दुदीन ओव्वैसी, आप संयोजक अरविन्द केजरीवाल जैसे राष्ट्रीय पटल के नेता दादरी पहुंचकर पीड़ित  परिवार के प्रति संवेदन जताते हुए अपनी-अपनी राजनीतिक भाषा में इस मामले का विश्लेषण करने लगे। भाजपा नेता महेश शर्मा इस मामले को गलतफहमी में हुआ एक हादसा बता दिए और यह भी कि इसपर किसको राजनीति नहीं करने देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि पीड़ित परिवार की रक्षा हिन्दू परिवार ही करेंगे। इन बातों पर राजनीतिक गलियारे में उनपर काफी निशाने साधे गए; यहाँ तक कि सपा नेता शिवपाल यादव ने तो इस हत्या को भाजपा और आरएसएस की साज़िश तक बता डाला, लेकिन महेश शर्मा अपने बयान पर कायम रहे। दरअसल, यह मामला एक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति की हत्या का है, जिसमे कि देश के बहुसंख्यक समुदाय जो भाजपा की राजनीति का आधार रहा है, के लोगों को आरोपी माना जा रहा है।  इसलिए भाजपा नेता महेश शर्मा को ऐसा बयान देना था कि सब संतुष्ट हो जाएं। संभवतः ऐसा करने के लिए उन्हें ऊपर से अनुमति हो, सो इससे पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे ही एक दूसरे धुरंधर असद्दुदीन ओवैसी साहब ने महेश शर्मा से पहले ही दादरी पहुंचकर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए अपने  बयानों के जरिये आग लगाने की कवायद शुरू कर दी। उन्होंने विभिन्न प्रकार से इसे धार्मिक रंग देने की कोशिश की तथा कहा कि यह कोई हादसा नहीं, सोची-समझी रणनीति के तहत कराई गयी हत्या है। साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा इस मामले पर कुछ न कहने के लिए प्रधानमंत्री पर भी निशाना साधा। हालांकि उनसे यह पूछा जाना चाहिए था कि प्रधानमंत्री इस मामले में क्या बोलते, जब उनकी पार्टी द्वारा इस मामले पर अपना पक्ष रखा ही जा चुका है। रही बात पीड़ित परिवार की सहायता की तो वो प्रदेश सरकार कर ही रही है। लेकिन इन सबसे ओवैसी महोदय को क्या मतलब, उन्हें तो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए माहौल बनाना था जिसके लिए ये सब बोलना आवश्यक था। तो कुल मिलाकर तस्वीर यह है कि फिलवक्त दादरी देश की राजनीति के केंद्र में घूम रही है और प्रदेश की राजनीति से सम्बद्ध लगभग हर राजनीतिक दल अपने राजनीतिक प्रपंचों के साथ वहां अपने दाँव-पेंच भिड़ाने में लगा है। अब राजनेता हैं तो मीडिया का होना भी स्वाभाविक ही है, लिहाजा परिणाम यह हो रहा है कि इखलाक की मौत से दुःख में डूबा उनका परिवार अब घर के बाहर नेताओं और मीडिया के जमावड़े से परेशान हो चुका है तथा इन सबसे अलग शोक के क्षणों में शांति चाहता है। यहाँ तक कि गाँव की महिलाएं कई दफे वहां से मीडिया वालों को खदेड़ भी चुकी हैं। लेकिन  फिर कोई न कोई नेता अपना लाव-लश्कर लेकर वहां पहुंचेगा और फिर पीछे-पीछे मीडिया के कैमरे में भी। देश जाने कितने बार अपने राजनेताओं की संवेदनशीलता के पाखण्ड की ऐसी क्रूर तस्वीरें देख चुका है। देश ने देखा है कि ऐसे मामलों में निरपवाद रूप से हमारे सियासतदां अपना लाव-लश्कर लेकर पहुँचते हैं, चार आंसू बहाते हैं और अपने विरोधियों को जी भरकर कोसते हैं तथा चले आते हैं। इससे अधिक उनका पीड़ित परिवार से कोई साबका नहीं होता। यह इस एक मामले में नहीं हो रहा है, अक्सर इस देश में मौत पर राजनीति ऐसे ही होती आई है। इस तस्वीर को देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि यह इस देश की राजनीति में संवेदनशीलता के पतन का दौर है जो कि शर्मसार तो करता है, पर जिसके खात्मे की फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखती।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

हवा के इस ज़हर से कैसे बचें [दबंग दुनिया और दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
विगत दिनों एक तरफ भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पर्यावरण संरक्षण के लिए मशहूर कैलिफोर्निया के गवर्नर के बीच भारत में वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से निपटने पर चर्चा हो रही थी, तो वहीँ दूसरी तरफ देश की राजधानी दिल्ली के छः से चौदह महीने तक के तीन दुधमुंहे बच्चे सर्वोच्च न्यायालय में वायु प्रदूषण पर रोकथाम से सम्बंधित याचिका दाखिल कर रहे थे। याचिका में मांग की गई है कि अधिकृत संस्थाओं को दिल्ली में पटाखों आदि के बिक्री के लिए अस्थायी लाइसेंस जारी करने से रोका जाय। यह समझना कोई राकेट साइंस नहीं है कि बच्चों की तरफ से ये याचिकाएं उनके अभिभावकों द्वारा अपने विरोध को देश के बच्चों के विरोध का प्रतीकात्मक रूप देने के उद्देश्य से दायर की गयी हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय इसपर क्या सुनवाई करता है, ये तो आगे सामने आएगा। लेकिन इसमें तो कोई दो राय नहीं कि वायु प्रदूषण दिन ब दिन देश के लिए भीषण संकट बनता जा रहा है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा राज्य सभा में जारी एक आंकड़े के मुताबिक़ देश की राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से प्रतिदिन लगभग ८० लोगों की मौत होती है। नासा सैटेलाइट द्वारा इकट्‌ठा किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली में पीएम-25 जैसे छोटे कण की मात्र बेहद अधिक है। औद्योगिक उत्सर्जन और वाहनों द्वारा निकासित धुंए से हवा में पीएम-25 कणों की बढ़ती मात्रा घनी धुंध का कारण बन रही है। देश की राजधानी की ये स्थिति चौंकाती भले हो, लेकिन यही सच्चाई है। इंकार नहीं कर सकते  कि इसी कारण दिल्ली दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। यह हाल सिर्फ दिल्ली का नहीं है, वरन देश के अन्य महानगरों की भी कमोबेश यही स्थिति है। इन स्थितियों के कारण ही वातावरण में सुधार  के मामले में भारत की स्थिति में काफी गिरावट आई है। अमेरिका के येल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक़ एनवॉयरमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स में  178 देशों में भारत का स्थान 32 अंक गिरकर 155वां हो गया है। वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति ब्रिक्स देशों में सबसे खस्ताहाल है। अध्ययन के मुताबिक प्रदूषण के मामले में भारत की तुलना में पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्रीलंका की स्थिति बेहतर है जिनका इस इंडेक्स में स्थान क्रमशः 148वां, 139वां, 118वां और 69वां है। यह सूची जिन ९ प्रदूषण कारकों के आधार पर तैयार की गई है, उनमे वायु प्रदूषण भी शामिल है।   इस वायु प्रदूषण के कारण देश में प्रतिवर्ष लगभग छः लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। इन आंकड़ों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारत में वायु प्रदूषण अत्यंत विकराल रूप ले चुका है। दुर्योग यह है कि देश इसको लेकर बातों में तो चिंता व्यक्त करता है, पर इसके निवारण व रोकथाम के लिए यथार्थ में कुछ करता नहीं दिखता।  बहरहाल, उपर्युक्त आंकड़ों के सम्बन्ध में यह तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों की जनसख्या,   औद्योगिक प्रगति और वाहनों की मात्रा भारत की अपेक्षा बेहद कम है, इसलिए वहां वायु प्रदूषण का स्तर नीचे है। लेकिन इस तर्क पर सवाल यह उठता है कि स्विट्ज़रलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि देश क्या औद्योगिक प्रगति नहीं कर रहे या उनके यहाँ वाहन नहीं हैं, फिर भी वो दुनिया के सर्वाधिक वातानुकूलित देशों में कैसे शुमार हैं ? और क्या ऐसी दलीलों के जरिये देश और इसके कर्णधार इसको प्रदूषण मुक्त करने की अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं ? दरअसल वायु प्रदूषण औद्योगिक प्रगति से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रगति और प्रकृति के मध्य कितना बेहतर संतुलन रख रहे हैं। अगर प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित किया जाय तो न केवल वायु प्रदूषण वरन हर तरह के प्रदूषण से निपटा   जा सकता है। पर इस संतुलन के लिए कानूनी स्तर से लेकर जमीनी स्तर पर तक मुस्तैदी दिखानी पड़ती है, जिस मामले में यह देश काफी पीछे है। प्रदूषण को लेकर हमारे हुक्मरानों की उदासीनता को इसीसे समझा जा सकता है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में प्रदूषण नियंत्रण से सम्बंधित कोई वादा नहीं करता। ऐसे किसी वादे से इसलिए परहेज नहीं किया जाता  कि प्रदूषण नियंत्रण कठिन कार्य है, क्योंकि इससे कठिन-कठिन वादे हमारे हुक्मरानों द्वारा कर दिए जाते हैं। लेकिन वे प्रदूषण नियंत्रण जैसे वादे से सिर्फ इसलिए परहेज करते हैं कि उनकी नज़र में ये कोई मुद्दा नहीं होता।
दैनिक जागरण 

  देश में वायु प्रदूषण के लिए दो सर्वाधिक जिम्मेदार कारक हैं। एक डीजल-पेट्रोल चालित मोटर वाहन और दूसरा औद्योगिक इकाइयाँ। इनमे मोटर वाहनों में तो कुछ हद तक इंधन सम्बन्धी ऐसे बदलाव हुए हैं जिससे कि उनसे होने वाले प्रदूषण में कमी आए। सीएनजी वाहन, बैटरी चालित वाहन आदि ऐसे ही कुछेक बदलावों के उदाहरण हैं। लेकिन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए कुछ ठोस नहीं किया जा रहा जबकि उनसे सिर्फ वायु ही नहीं, वरन जल आदि में भी प्रदूषण फ़ैल रहा है। इन औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाले धुंए की भयानकता इसीसे समझी जा सकती है कि देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे एनसीआर इलाकों जहाँ औद्योगिक इकाइयों की भरमार है, में तो ये धुंआ स्थायी धुंध का रूप लेता जा रहा है। आलम यह है कि धुंध के मामले में दिल्ली ने बीजिंग को भी पीछे छोड़ दिया है।  इन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए एक सख्त क़ानून की जरूरत है जिसकी फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखती। एक और बात कि एक तरफ तो इन औद्योगिक इकाइयों, वाहनों की भरमार से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीँ दूसरी तरफ दिन ब दिन पेड़-पौधों में जिस तरह से कमी आ रही है, उससे स्थिति और विकट होती जा रही है। अब जमीनी हालात ऐसे हैं  और देश औद्योगिक प्रगति के अन्धोत्साह में अब भी उलझा हुआ है। दोष सिर्फ सरकारों का ही तो नहीं है, जाने-अनजाने नागरिक भी इसके लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। लोगों ने अपने जीवन को इतना अधिक विलासितापूर्ण बना लिया है कि जरा-जरा सी चीज के लिए वे उन वैज्ञानिक उपकरणों पर निर्भर हो गाए हैं जिनसे वायु प्रदूषण का संकट और गहराता है। वाहन, बिजली उपकरण, कागज़, सौन्दर्य प्रशाधन आदि तमाम चीजें हैं जिनपर लोगों की  आवश्यकता से अधिक निर्भरता हो गयी है जो कि प्राकृतिक विनाश और प्रदूषण के विकास में महती भूमिका निभा रही है। अतः आज जरूरत यही है कि सरकार और नागरिक दोनों इस सम्बन्ध में चेत जाएं और वायु को जीवन के अनुकूल रखने के लिए न केवल बातों से वरन अपने आचरण से भी गंभीरता का परिचय दें। इस सम्बन्ध में अपने-अपने स्तर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। क्योंकि सारी प्रगति तभी होगी जब हम जीएंगे और हम जीएंगे तभी, जब धरती पर स्वच्छ और सांस लेने योग्य वायु होगी।    

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

डिजिटल इण्डिया के लिए कितना तैयार है देश [नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नेशनल दुनिया 
विगत दिनों प्रधानमंत्री मोदी अपने अमेरिका दौरे के दौरान सोशल साईट फेसबुक के मुख्यालय पहुंचकर फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग से मुलाकात किए। इस मुलाकात के बाद फेसबुक सीईओ मार्क जुकरबर्ग और पीएम मोदी ने डिजिटल इण्डिया के समर्थन में अपना प्रोफाइल चित्र तिरंगे के रंग में कर दिया जिसके बाद तो फेसबुक उपयोगकर्ताओं के बीच प्रोफाइल चित्र तिरंगे सा करने की होड़ सी मच गई। अधिकाधिक लोगों ने उसी अंदाज में अपने प्रोफाइल चित्र कर दिए। वहीँ ट्विटर की स्थिति यह रही कि वहां भारत में डिजिटल इण्डिया नंबर एक और मोदी एट फेसबुक नंबर दो पर ट्रेंड करने लगा। कुल मिलाकर स्पष्ट है कि न केवल यह मुलाकात सोशल साइट्स पर पूरी तरह से छाई रही वरन इसके जरिये प्रधानमंत्री के डिजिटल इण्डिया अभियान को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख़ासा चर्चा मिली। अब प्रश्न यह है कि डिजिटल इण्डिया को चर्चा तो मिल रही है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के लिए देश कितना तैयार है ? इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि अभी हाल ही में देश के जन-जन को सूचना प्रोद्योगिकी से जोड़ने और अमीर-गरीब के बीच कायम तकनीक के फासले को ख़त्म करने के उद्देश्य से विगत २ जुलाई को देश के शीर्ष उद्योगपतियों समेत हजारों लोगों की मौजूदगी में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनी महत्वाकांक्षी योजना डिजिटल इण्डिया का आगाज किया गया था। इसके आगाज़ के बाद से एक सप्ताह तक पूरे देश में डिजिटल इण्डिया सप्ताह भी मनाया गया, जिसके तहत देश भर में  इससे सम्बंधित कार्यक्रम आयोजित हुए।
  फ़िलहाल इस योजना के तहत लगभग दर्जन भर आईटी सम्बन्धी सेवाओं की शुरुआत की गई है जिनको देश भर में पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। इनमे चार मोबाइल गवर्नेंस से सम्बन्धी सेवाएं भी शामिल हैं, जिनमे प्रमुखतः मोबाइल के जरिये ही अपनी पहचान को सत्यापित कराना भी शामिल है। इस योजना में निवेश के लिए देश के उद्योगपतियों की तरफ से अपनी तिजोरियां खोल दी गईं है और कुल मिलाकर इस योजना में ४।५ लाख करोड़ के निवेश की घोषणा हो चुकी है। इन बातों को देखते हुए दो चीजें तो एकदम स्पष्ट होती हैं - पहली, सरकार की यह योजना काफी अच्छी और भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विशेष तौर पर लाभकारी है एवं दूसरी कि उद्योगपतियों द्वारा निवेश के ऐलान के बाद फ़िलहाल इसके लिए पैसे की भी कोई दिक्कत नहीं है। अब प्रश्न यह है कि इतनी सहूलियतों के बावजूद डिजिटल इण्डिया कार्यक्रम कठिन क्यों लग रहा है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि योजना और पैसे से किसी काम को शुरू तो किया जा सकता है, पर वो होगा तभी जब उसे किया जाएगा। और जब काम को किया जाता है तो उसकी राह में छोटी-बड़ी अनेक व्यावाहारिक कठिनाइयाँ सामने आती हैं। इन्फॉर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट इंडेक्स के अनुसार  इंटरनेट कनेक्टिविटी,  साक्षरता और बैंडविड्थ जैसे मामलों में १६६ देशों की  लिस्ट में भारत का स्थान १२९वां है। इस मामले में भारत मालदीवमंगोलियाकेन्याकजाख्स्तान आदि देशों जिनकी आर्थिक स्थिति भारत की तुलना में कत्तई अच्छी नहीं है, से भी पीछे है। आज के वक्त में देश की करीब १५आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल कर रही है, जबकि चीन में ४४आबादी इंटरनेट का उपयोग करती है। इस रिपोर्ट के बाद अगर हम देखें तो डिजिटल इण्डिया कार्यक्रम को सरकार गांव-गांव तक पहुँचाने का लक्ष्य निर्धारित की है। इसके तहत देश के लगभग ढाई लाख गांवों को इंटरनेट से जोड़ने की योजना है, जबकि फिलवक्त भारतीय गांवों की स्थिति यह है कि निरपवाद रूप से वे इंटरनेट से नाम मात्र के लिए ही जुड़े हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल के जरिये आज की पीढ़ी के अधिकांश लड़के कौतूहलवश कुछ सोशल साइट्स का भ्रमण अवश्य कर ले रहे हैं, मगर उसे उनके इंटरनेट ज्ञान के रूप में देखते हुए यह समझ लेना कि वे ई-गवर्नेंस से जुड़ेंगे, बेहद जल्दबाजी और भ्रमपूर्ण निर्णय होगा। उपर्युक्त रिपोर्ट में ही स्पष्ट है कि देश की इंटरनेट साक्षरता बेहद ख़राब है। इसके अलावा समुचित नेटवर्क व्यवस्था के अभाव में देश के अधिकाधिक ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट स्पीड भी बेहद स्लो हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्पीड की हालत यह है कि पचास-सौ केबी का एक पेज खुलने में ही कई मिनटों का  समय लग जाता है। स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट ज्ञान और स्पीड दोनों का अभाव है, जिसको दूर किए बिना देश के गांवों को  ई-गवर्नेंस से जोड़ने की सोचना दिवास्वप्न देखने जैसा है। वैसे इंटरनेट स्पीड के मामले में तो पूरा देश ही अभी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है, इसका प्रमाण क्लाउड कम्यूटिंग फर्म एकमाई टेक्नोलॉजी की एक ताज़ा रिपोर्ट है, जिसके मुताबिक भारत में  मिलने वाली इंटरनेट की औसत स्पीड भी इसे दुनिया की सबसे धीमी स्पीड में शुमार  करती है। रिपोर्ट के मुताबिक नेट स्पीड के मामले में भारत की स्थिति इतनी बदतर है कि वह छोटे-छोटे गुमनाम देशों से पिछड़ा हुआ है। रिपोर्ट के ही अनुसार, अगर पूरी दुनिया के इंटरनेट की औसत स्पीड निकाली जाए तो वह १०।६ एमबीपीएस होती है। यह भी  भारत की पिछली तिमाही की इंटरनेट स्पीड से २७  प्रतिशत तेज है। मोटे तौर पर कहें तो अभी भारत में ४जी भी ठीक से नहीं आ सका और दुनिया के बहुतायत देश ५जी और १०जी तक पहुँच चुके हैं। तिसपर विडम्बना तो यह है कि यहाँ इस स्लो स्पीड इंटरनेट के लिए भी लोगों को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। अतः चुनौती यह भी है कि स्वीकार्य मूल्य में हाई स्पीड इंटरनेट उपलब्ध कराया जाय।
  उपर्युक्त तथ्यों को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि सरकार का डिजिटल इण्डिया का सपना तभी साकार हो सकता है, जब कि उपर्युक्त समस्याओं से पार पाया जाय। दिक्कत यह है कि इन समस्याओं को एक दिन में या किसी जादुई छड़ी को घुमाकर नहीं ख़त्म किया जा सकता है। अगर इनको ख़त्म करने के लिए ठीक ढंग से प्रयास हों तो इनसे धीरे-धीरे अवश्य निजात मिल सकेगी। जैसे कि देश में इंटरनेट साक्षरता को बढ़ाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में इस सम्बन्ध छोटे-छोटे अस्थायी केंद्र व कार्यशालाओं का आयोजन सरकार को करवाना चाहिए जिसके जरिये ग्रामीण लोगों, खासकर युवाओं को यह समझाया जा सके कि इंटरनेट का अर्थ सिर्फ सोशल साइट्स व गाने वगैरह की डाउनलोडिंग ही नहीं है, वरन इसके  जरिये वे अपने तमाम काम जिनको करने में काफी समय और श्रम लगता है, घर बैठे चुटकियों में कर सकते हैं। साथ ही, सस्ते और हाई स्पीड इंटरनेट को गांवों में पहुंचाने के लिए भी वैज्ञानिक स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है। इस दिशा में इसरो द्वारा किया जा रहा गगननामक उपग्रह का निर्माण कार्य उल्लेखनीय है, जिसके अगले वर्ष प्रक्षेपित होने की सम्भावना है। इस उपग्रह का सफल प्रक्षेपण और स्थापन होने की स्थिति में देश में इंटरनेट स्पीड में सुधार की संभावना व्यक्त की जा रही है। अंततः कुल मिलाकर इतना कहेंगे कि मोदी सरकार का डिजिटल इण्डिया मिशन है तो बहुत ही अच्छा और प्रधानमंत्री इसकी ‘ब्रांडिंग’ भी बेहद उम्दा ढंग से कर रहे हैं, मगर यदि सरकार इसको वाकई में उतने ही उम्दा ढंग से जमीन पर भी उतारना चाहती है तो उसे उपर्युक्त बातों या चुनौतियों को ध्यान में रखकर चलना होगा। क्योंकि इन चुनौतियों से पार पाए बिना इण्डियासिर्फ कागजों में ही डिजिटलहो सकती है, वास्तव में नहीं।