रविवार, 24 दिसंबर 2017

पुस्तक समीक्षा : बहर में ज़िन्दगी [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
गौतम राजऋषि का ग़ज़ल संग्रह ‘पाल ले इक रोग नादां’ ज़िन्दगी के तमाम बड़े-छोटे पहलुओं और ज़ज्बातों पर गुफ्तगू करता है। एक साधारण ढंग से जीवन गुजार रहे आदमी से लेकर सरहद पर अनगिनत मुश्किलातों का मुकाबला करते सैनिक के असाधारण जीवन पर तक गौतम की गजलें बात करती हैं। चूंकि, गौतम सेना में कार्यरत हैं, इसलिए जब वे सैनिकों की बात करते हैं तो उसमें कोरी भावुकता की अपेक्षा यथार्थ का स्वर अधिक सुनाई देता है। सैनिकों के वतन से इश्क़ की बाबत गुफ़्तगू के अलावा दो दिलों की मोहब्बत के तमाम गाढ़े-फीके रंगों से भी गौतम की ग़ज़लें सराबोर नज़र आती हैं। साथ ही, ज़िन्दगी के और भी तमाम ज़ज्बात भी इन गजलों में मौजूद नजर आते हैं। हालांकि ग़ज़ल ऐसी चीज होती है, जो अपने एक-एक शेर में रंग बदलती रहती है, मगर फिर भी अगर इस पूरे ग़ज़ल संग्रह को किसी एक स्थायी भाव की दृष्टि से टटोलने की कोशिश करें तो इसमें एक अव्यक्त उदासी के भाव की प्रधानता नज़र आती है।  


बहरहाल, अपनी गजलों में गौतम ने कुछ अच्छे प्रतीक चुने हैं। ग़ज़ल के शिल्प के दो महत्वपूर्ण शब्द ‘रदीफ़’ और ‘काफ़िया’ का बतौर प्रतीक उन्होंने बाखूबी इस्तेमाल किया है। यह शेर उल्लेखनीय होगा, ‘खड़ा हूँ हमेशा से बनकर रदीफ़/ वो खुद को मगर काफ़िया कर चले’। रदीफ़-काफ़िया से परिचित लोग इस शेर का आनंद लेते हुए इन प्रतीकों पर अपनी दाद खर्च किए बिना नहीं रह सकते। ऐसे ही और भी कई शेरों में गौतम ने ग़ज़ल के इन तकनीकी शब्दों का बेहद खूबसूरत ढंग से प्रतीकात्मक उपयोग किया है।
भाषा की बात करें तो उसमें अधिक तो नहीं, मगर देशज शब्दों से कुछ-कुछ ताजगी जरूर महसूस होती है। उर्दू-फ़ारसी के साथ-साथ हिंदी तथा देशज शब्दों का प्रयोग भी खूब दीखता है। इस सम्बन्ध में यह शेर उल्लेखनीय होगा, ‘लिखा उस नाम का पहला ही अक्षर/ मुक़म्मल पेज है चेहरा हुआ सा’ – हम देख सकते हैं कि इसमें शुद्ध हिंदी से लेकर बोलचाल की हिंदी तथा उर्दू और अंग्रेजी तक शब्द प्रयोग हुए हैं। स्पष्ट है कि भाषा के प्रति गज़लकार ने हाथों को लगभग खुला रखा है और जहाँ जिस भाषा के जो शब्द सटीक बैठ गए हैं, उन्हें इस्तेमाल करने में नहीं हिचका है। हालांकि इस कारण कुछेक शेरों में बहाव का अभाव भी महसूस होता है, मगर वो बेहद मामूली ही है।

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

हिमाचल की पराजय से सबक ले कांग्रेस [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
आखिर महीनों की लम्बी राजनीतिक खींचतान, आरोप-प्रत्यारोप और शह-मात के बाद गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम गए। दोनों ही राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई है। जहां गुजरात में जनता ने भाजपा के बाईस वर्षों के शासन को जारी रखा है, वहीं हिमाचल में जनता द्वारा वीरभद्र सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाते हुए भाजपा को अवसर दिया गया है।  

हिमाचल में कांग्रेस के वीरभद्र सिंह का शासन था, जिन्होंने वर्ष 2012 में भाजपा को सत्ता से बाहर कर हिमाचल की बागडोर संभाली थी। दरअसल इन चुनावों के दौरान जितनी चर्चा गुजरात को लेकर रही है, उसकी अपेक्षा हिमाचल पर काफी कम चर्चा देखने को मिली। राजनीतिक मंचों से लेकर मीडिया तक में हिमाचल प्रदेश काफी कम जगह पा सका। हिमाचल के मुद्दे, वहाँ के मतदाताओं के मिजाज पर कम ही बात हुई। हालांकि हिमाचल के इस राजनीतिक रिकॉर्ड कि वहाँ हर पाच साल पर प्रायः सरकारें बदल जाती रही हैं, के आधार पर यह अनुमान जरूर व्यक्त किए गए थे कि वीरभद्र सिंह के लिए सत्ता में फिर वापसी मुश्किल होगी। लेकिन, प्रश्न यह है कि क्या हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की पराजय के पीछे सिर्फ इतना ही कारण है ? अगर वहाँ के मुद्दों को टटोला जाए तो ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता।


वास्तव में, हिमाचल की कांग्रेस सरकार के शासन के प्रति राज्य की जनता में काफी आक्रोश था। पत्नी सहित खुद वीरभद्र सिंह सेब के बागानों से हुई आय और उसके निवेश को लेकर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिरे थे। आय से अधिक संपत्ति के मामले में वे जांच एजेंसियोंकी रडार पर थे। इसके अलावा उनके बेटे के खिलाफ भी ईडी की जांच चल रही है। कांग्रेस की हार का एक कारण यह भी रहा कि केन्द्रीय नेतृत्व की तरफ से हिमाचल पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया। राहुल गांधी पूरी तरह से गुजरात में ही उलझे रहे। शायद कांग्रेस ने मान लिया था कि हिमाचल में वीरभद्र की हार तय है, इसलिए उनको उनके हाल पर छोड़ दिया गया। अगर केन्द्रीय नेतृत्व ने हिमाचल पर ध्यान दिया होता तो शायद वहाँ कांग्रेस की स्थिति थोड़ी और बेहतर हो सकती थी।

हालांकि बावजूद इन चीजों के दिलचस्प यह है कि वीरभद्र सिंह और उनके बेटे दोनों अपनी-अपनी सीटों से विजयी रहे हैं, वहीँ भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार प्रेम कुमार धूमल अपनी सीट हार गए हैं। दूसरे शब्दों कहें तो कांग्रेस की सेना तो हार गयी, मगर सेनापति जीत गए, जबकि भाजपा की सेना विजयी रही और सेनापति हार गए।

वैसे यहाँ यह समझना जरूरी है कि अगर अमित शाह ने प्रेम कुमार धूमल को अपना हिमाचल में भाजपा का नेता घोषित किया था, तो इसके पीछे कई कारण थे। दरअसल धूमल हिमाचल के लिहाज से पार्टी का एक ऐसा चेहरा थे, जिनके आगे आने के बाद स्थानीय नेतृत्व के लिए पार्टी में गुटबाजी की संभावना नहीं रह गयी थी। जहां तक बात उनकी हार की है, तो इसका एक कारण उनकी सीट का बदल जाना भी है। हमीरपुर की अपनी एक तरह से सुरक्षित सीट को छोड़ वे सुजानपुर से लड़े थे, इसलिए उनकी हार में बहुत चौंकने जैसा कुछ नहीं है। वैसे भी, धूमल के जरिये हिमाचल चुनाव में भाजपा ने कोई बड़ा लाभ मिलने की उम्मीद की हो, ऐसा नहीं लगता।

हिमाचल में भाजपा की जीत के दो प्रमुख बिंदु हैं। पहला कारण है, कांग्रेस की वीरभद्र सरकार का ख़राब प्रदर्शन जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। दूसरा कारण, केंद्र सरकार की योजनाओं, परियोजनाओं का हिमाचल में ठोस ढंग से क्रियान्वयन है, जिसका प्रभाव राज्य में प्रवेश करते ही दिखाई देने लगता है। परवाणु से सोलन के बीच बन रहा 39 किमी लम्बे राष्ट्रीय राजमार्ग की चौड़ीकरण का कार्य सरकार द्वारा कराया जा रहा। साथ ही, राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण द्वारा ऐसी ही लगभग दर्जन भर परियोजनाओं पर राज्य भर में कार्य किया जा रहा है। स्वास्थ्य का विषय यूँ तो राज्य सरकार के अंतर्गत आता है, परन्तु इस दिशा में भी केंद्र सरकार की पहल पर हिमाचल के बिलासपुर में एम्स की स्थापना हो रही है। बीते अक्टूबर में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस परियोजना का शिलान्यास किया गया। जबकि इस एम्स की स्थापना के लिए राज्य सरकार द्वारा जमीन देने में आनाकानी करने से भाजपा को उसे घेरने का एक मुंहमाँगा अवसर मिल गया था। इस प्रकार कुल मिलाकर तथ्य यह है कि भाजपा को हिमाचल में केन्द्रीय योजनाओं का लाभ मिला, जिसके दम पर वो विजयी हुई है। वहीँ वीरभद्र सरकार का ख़राब शासन तथा कांग्रेस संगठन द्वारा संभावित हार के भय से या गुजरात पर केन्द्रित रहने के चलते चुनावों में हिमाचल की अनदेखी दो कारण रहे, जिससे वहाँ कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस ने एक नया गढ़ जीतने के मोह में अपने गढ़ को असुरक्षित छोड़ दिया, परिणाम सामने है कि उसके हाथ कुछ नहीं रहा। हिमाचल की हार से कांग्रेस को यह सबक लेना चाहिए कि अपनी राजनीतिक बदहाली के इस दौर में भाजपा शासित राज्यों को प्राप्त करने पर अधिक जोर लगाने की बजाय जो राज्य उसके पास हैं, उनमे बेहतर काम कर अपनी छवि सुधारने का प्रयत्न करने की कोशिश करे। यही नीति उसमें पुनः प्राण फूंक सकती है।