- पीयूष द्विवेदी भारत
गत वर्ष आई एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में इस समय लगभग पचास करोड़ इन्टरनेट
उपभोक्ता हैं, जिनकी संख्या में वर्ष दर वर्ष भारी मात्रा में वृद्धि दर्ज की जा
रही है। इसके साथ ही सर्वाधिक इन्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में चीन के
बाद भारत दूसरे स्थान पर काबिज है। सरकार के डिजिटल इंडिया जैसे अभियान और रिलायंस
द्वारा जिओ की शुरूआत के कारण इन्टरनेट उपभोक्ताओं की तादाद में लगातार तेजी से
वृद्धि हो रही है। कहना न होगा कि ये भारत में इन्टरनेट के चरमोत्कर्ष का दौर है
और यही कारण है कि दुनिया की तमाम इन्टरनेट से संबधित कम्पनियां अब भारत में भी
अपना बाजार बनाने की कवायद में लगी हुई हैं। इसमें फेसबुक-ट्विटर जैसी सोशल मीडिया
कम्पनियाँ भी हैं और अमेज़न, फ्लिपकार्ट, अलीबाबा जैसी तमाम स्वदेशी-विदेशी ई-कॉमर्स
कम्पनियाँ भी, जिनके बीच अपने-अपने क्षेत्र में अग्रणी बनने की स्पर्धा चलती रहती
है। लेकिन अब हाल के दो-तीन वर्षों में ऐसी ही स्पर्धा ऑनलाइन वीडियो सामग्री की
प्रस्तोता कंपनियों के बीच भी देखने को मिल रही है।
गौर करें तो लम्बे समय से इन्टरनेट पर वीडियो सामग्री के मामले में गूगल के
स्वामित्व वाली कंपनी यूट्यूब का ही वर्चस्व रहा है, जिसको टक्कर देने के लिए अब
कई देशी-विदेशी कम्पनियाँ मैदान में उतर पड़ी हैं। इनमें हॉटस्टार, नेटफ्लिक्स,
अमेज़न प्राइम वीडियो, जी फाइव, वूट आदि कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। इन माध्यमों की ख़ास
बात यह है कि ये सेंसरमुक्त होने के कारण उन सब प्रकार की सामग्रियों के प्रसारण
की अनुमति देते हैं, जिन्हें सिनेमा व धारावाहिकों के पारंपरिक प्रसारण माध्यमों
पर प्रसारित नहीं किया जा सकता। इस आजादी के कारण इन माध्यमों की तरफ कई भारतीय निर्माता-निर्देशकों
का रुझान हुआ है, लेकिन इसीके साथ इन माध्यमों के कुछ नकारात्मक परिणाम भी दृष्टिगत
होने लगे हैं।
नेटफ्लिक्स का खेल
नेटफ्लिक्स 1997 में स्थापित हुई एक अमेरिकन कंपनी है। शुरूआती दौर में इसका कार्य सिर्फ फिल्मों आदि की डीवीडी
बेचने और किराए पर देने का था, लेकिन अपनी स्थापना के एक दशक बाद 2007 में
इसने अपने कार्य को विस्तार देते हुए ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग सेवा की भी शुरूआत
की। इसके बाद विदेशों में नेटफ्लिक्स पर कई मौलिक फ़िल्में और वेब सीरिज प्रसारित
हुए, जिनमें से ज्यादातर सफल भी रहे। इसकी सफलता का अनुमान इस आंकड़े से भी लगा
सकते हैं कि 2008 में वीडियो स्ट्रीमिंग सेवा से
इसकी कुल कमाई 1.38
बिलियन डॉलर थी जो कि वर्ष 2017
में बढ़कर 11.69 बिलियन डॉलर पर पहुँच गयी और
इस वर्ष इसके 15 बिलियन डॉलर तक पहुँच जाने का अनुमान व्यक्त किया गया है।
अमेरिका और यूरोप में सफलता के झंडे गाड़ने के बाद नेटफ्लिक्स की नजर
सम्भावाओं से भरे भारतीय बाजार पर पड़ी और 2016 में भारत
नेटफ्लिक्स की शुरूआत हुई, लेकिन यूट्यूब और अमेज़न प्राइम वीडियो सहित भारत के
अपने वीडियो स्ट्रीमिंग माध्यमों जैसे कि हॉटस्टार, जिओ टीवी, वूट आदि से
नेटफ्लिक्स का मुकाबला हुआ जिसमें कि उसे विफलता हाथ लगी। 2016 से 2017 का भारत में पहला एक साल नेटफ्लिक्स के लिए अपेक्षाकृत
रूप से कुछ ख़ास नहीं रहा। अमेरिका की इस अग्रणी कंपनी को
यहाँ रैंकिंग में काफी नीचे रहना पड़ा। ऐसे में नेटफ्लिक्स को भारत में अपने पाँव
जमाने के लिए कुछ ऐसी सामग्री लाने की जरूरत महसूस हुई जो भारतीय दर्शकों को आकर्षित
कर सके। नेटफ्लिक्स की इस जरूरत में उसके साझीदार बने भारतीय सिनेमा के एक कम
कामयाब, अधिक नाकामयाब निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप और इस जुगलबंदी का नतीजा नेटफ्लिक्स
की पहली भारतीय वेब सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ के रूप में आज हमारे सामने है। इस वेब
सीरिज ने दर्शकों को आकर्षित करने में कुछ हद तक कामयाबी जरूर हासिल की है, लेकिन इसकी सिनेमाई तत्वों से इतर अनेक
खामियां भी हैं, जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
सामाजिक
यथार्थ या मानसिक कुंठाएं ?
अनुराग कश्यप निर्देशित आठ भागों वाली इस वेब सीरिज ‘सेक्रेड गेम्स’ के प्रसारित होने के बाद से ही ज्यादातर समीक्षकों द्वारा इसकी बढ़-चढ़कर वाहवाही की जा रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कश्यप ने भारतीय सिनेमा में कोई नया आविष्कार कर दिया हो। सैफ अली खान, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे की मुख्य भूमिका वाले सेक्रेड गेम्स में एक मुम्बईया गैंगस्टर और एक पुलिस अधिकारी के द्वंद्व की कथा है, जिसके बीच हिंसा, हद पार करते अश्लील दृश्य, गाली-गलौज सहित राजनीति तथा धर्म की मनमाफिक व्याख्याओं की भरमार है। कह सकते हैं कि
इसमें वो सारा मसाला है जो ऐसी चीजों के दुष्प्रभाव से अनजान भारत के एक ख़ास दर्शक
वर्ग को अपनी ओर खींच सकता है।
दरअसल अनुराग
कश्यप इन्हीं चीजों के विशेषज्ञ हैं, जिसका प्रमाण उनकी देव डी, रमन राघव 2.0, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर आदि तमाम फिल्मों को देखने से
मिल जाता है। हाँ, सेक्रेड गेम्स को इसलिए विशिष्ट कहा जा सकता है कि इसमें कश्यप ने
उक्त मसालों की प्रस्तुति के मामले में अबतक की अपनी सभी सीमाओं को लांघ दिया है। तर्क
दिया जा रहा कि इस वेब सीरिज में जो दिखाया गया है, वो समाज का यथार्थ है। हो सकता
है कि ये तर्क सही भी हो, लेकिन सामाजिक
यथार्थ का दायरा तो बहुत व्यापक है, जिसके अंतर्गत भारत के गांव-देहात,
खेती-किसानी की समस्याएँ, रोजी-रोटी के लिए प्रतिदिन संघर्षरत आम आदमी की
चुनौतियाँ जैसे अनेक विषय आ सकते हैं। फिर अनुराग कश्यप जैसे निर्माता-निर्देशकों
के लिए सामाजिक यथार्थ की सुई केवल सेक्स, हिंसा और गाली-गलौज पर ही जाकर क्यों
रुक जाती है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है।
मगर बात इतनी ही
नहीं है, असल समस्या तो यह है कि जिस माध्यम पर ‘सेक्रेड गेम्स’ प्रस्तुत किया जा
रहा,
वैसे माध्यमों पर प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के प्रमाणन हेतु
कोई नियामक संस्था नहीं है। कश्यप ने सेक्रेड गेम्स में जितनी अनुचित और
अप्रदर्शनीय सामग्री का प्रदर्शन किया है, मुख्यधारा के प्रसारण माध्यमों जैसे कि
सिनेमा हॉल या टीवी पर उतना नहीं कर पाते क्योंकि तब उनके ऊपर नियामक संस्थाओं की निगरानी होती। लेकिन
नेटफ्लिक्स पर प्रस्तुत सामग्री को किसी निगरानी की प्रक्रिया से नहीं गुजरना
होता, इसलिए कश्यप को खुली छूट मिल गयी और उन्होंने सामाजिक यथार्थ के नाम पर शायद
अपने मन की सारी कुंठाएं उंड़ेल दीं।
समस्या
की व्यापकता
दरअसल समस्या
केवल नेटफ्लिक्स के साथ नहीं है, बल्कि ज्यादातर ऑनलाइन स्ट्रीमिंग माध्यमों पर
परोसी जाने वाली मौलिक वीडियो सामग्री में ऐसी अवांछित चीजें मौजूद दिखती हैं,
जिनके आधार पर यह कहना पड़ता है कि इन प्रसारण माध्यमों के नियमन मुक्त होने का
अनुचित लाभ लिया जा रहा है। हालांकि यूट्यूब पर उसका अपना कुछ मौलिक नहीं होता और
पोर्न जैसी चीजें उसपर सख्ती से प्रतिबंधित भी हैं, लेकिन बावजूद इसके वहाँ लघु
फिल्मों के नामपर ऐसे छोटे-छोटे वीडियोज की भरमार है, जिन्हें ‘मिनी पोर्न’ की
श्रेणी में रखा जा सकता है। लेकिन इसपर कोई कार्यवाही नहीं हो सकती क्योंकि इसका
कोई निगरानी तंत्र ही नहीं है।
टीवी के हिंदी
धारावाहिकों के क्षेत्र पर हुकूमत करने वाली एकता कपूर ने तो ‘ऑल्ट बालाजी’ के नाम
से अपना खुद का ऑनलाइन स्ट्रीमिंग माध्यम ही शुरू कर दिया है, जिसपर ‘गन्दी बात’
जैसी वीभत्स और अश्लील वेब सीरिज वे ला चुकी हैं। अगर सेंसर बोर्ड के सामने से इस
वेब सीरिज को गुजरना पड़ता तो पूरी संभावना है कि इसे प्रसारण की अनुमति नहीं मिलती।
लेकिन उनके अपने माध्यम पर यह धड़ल्ले से देखा जा रहा है और ‘ऑल्ट बालाजी’ हिट हो
चुका है। ये सब दिखाते हुए दावा इनका भी यही है कि हम सामजिक यथार्थ दिखा रहे हैं।
ऐसे और भी कई
कार्यक्रम ऑनलाइन माध्यमों पर मौजूद हैं, जिनमें ‘क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं’
की तमीज नदारद है। विडंबना ये है कि ये सभी ऑनलाइन स्ट्रीमिंग माध्यम अपनी मौलिक
सामग्रियां देखने के बदले पैसा भी लेते हैं जिसे देने में लोगों को कोई ऐतराज भी
नहीं है।
कमाई
के तरीके
इन ऑनलाइन
स्ट्रीमिंग कंपनियों की कमाई के ऊपरी तौर पर दो तरीके दिखाई देते हैं। एक दर्शकों
द्वारा दिया जाने वाला सब्सक्रिप्शन मूल्य और दूसरा इनपर प्रसारित होने वाले
विज्ञापन। नेटफ्लिक्स देखने के एवज में आदमी को महीने के पांच सौ से लेकर साढ़े आठ
सौ रूपये तक खर्च करने होते हैं जिसके लिए उसे पंजीकरण के समय अपना क्रेडिट या
डेबिट कार्ड का पूरा डाटा साझा करना होता है। इसके बाद महीना पूरा होते ही स्वतः
खाते से निर्धारित राशि काट ली जाती है।
अमेज़न प्राइम
वीडियो, नेटफ्लिक्स की अपेक्षा कुछ सस्ता है और लगभग हजार रूपये में ही पूरे साल
का सब्स्क्रिप्शन देता है, लेकिन अपना क्रेडिट-डेबिट कार्ड का डाटा पंजीकरण के समय
यहाँ भी साझा करना जरूरी है। डाटा चोरी पर चिंता जताने वाले लोग इन माध्यमों पर
अपना पूरा डाटा बेझिझक साझा भी कर रहे हैं। शायद लोगों को इन कंपनियों के इस
आश्वासन पर भरोसा है कि उनका डाटा सुरक्षित है, लेकिन वे शायद यह भूल गए हैं कि इस
तरह का आश्वासन फेसबुक भी देता है, लेकिन उसी फेसबुक से डाटा चोरी होने का
‘कैम्ब्रिज एनेलिटिका’ प्रकरण अभी हाल ही में चर्चित हुआ था।
तिसपर विडंबना यह
है कि पैसा खर्च करके इन माध्यमों पर लोग जो सामग्री देख रहे हैं, वो उनके दिमाग
में सिवाय विकृतियों के और कुछ नहीं पैदा कर सकती। उदाहरण के तौर पर सेक्रेड गेम्स
और गन्दी बात जैसी वेब सीरीजों को ले लीजिये, इनकी जो सामग्री है उसे देखने के बाद
क्या आदमी के दिमाग में कोई अच्छा विचार भी आ सकता है ?
नियमन
की दरकार
हालांकि ऑनलाइन
स्ट्रीमिंग माध्यमों की उपर्युक्त विसंगतियों पर चर्चा करने का यह अर्थ बिलकुल नहीं
है कि ये माध्यम एकदम ही ख़राब हैं और इन्हें बंद कर देना चाहिए। इनकी कुछ अच्छी
बातें भी हैं। पहली चीज कि इनकी सभी वेब सीरिज ख़राब ही हों, ऐसा नहीं है। साथ ही, इन
माध्यमों पर इनकी अपनी वेब सीरिज आदि के अलावा मुख्यधारा के प्रसारण माध्यमों पर
प्रसारित तमाम फ़िल्में और टीवी धारावाहिक भी एक साथ बड़े सहज ढंग से देखे जा सकते
हैं। ऐसे में उचित यही प्रतीत होता है कि इन माध्यमों को सेंसर बोर्ड या उसीके
जैसी किसी अन्य नियामक संस्था की सीमित निगरानी में लाया जाए, जिससे इनकी प्रसारण
संबंधी स्वतंत्रता पर तो बहुत अधिक प्रभाव न पड़े, लेकिन इनके दुरूपयोग पर अंकुश लग
सके ताकि ये माध्यम कला के नामपर कुंठाओं की अभिव्यक्ति का अड्डा बनकर न रह जाएं।