गुरुवार, 26 जुलाई 2018

कला के नाम पर कुंठाओं की अभिव्यक्ति ? [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत वर्ष आई एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में इस समय लगभग पचास करोड़ इन्टरनेट उपभोक्ता हैं, जिनकी संख्या में वर्ष दर वर्ष भारी मात्रा में वृद्धि दर्ज की जा रही है। इसके साथ ही सर्वाधिक इन्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में चीन के बाद भारत दूसरे स्थान पर काबिज है। सरकार के डिजिटल इंडिया जैसे अभियान और रिलायंस द्वारा जिओ की शुरूआत के कारण इन्टरनेट उपभोक्ताओं की तादाद में लगातार तेजी से वृद्धि हो रही है। कहना न होगा कि ये भारत में इन्टरनेट के चरमोत्कर्ष का दौर है और यही कारण है कि दुनिया की तमाम इन्टरनेट से संबधित कम्पनियां अब भारत में भी अपना बाजार बनाने की कवायद में लगी हुई हैं। इसमें फेसबुक-ट्विटर जैसी सोशल मीडिया कम्पनियाँ भी हैं और अमेज़न, फ्लिपकार्ट, अलीबाबा जैसी तमाम स्वदेशी-विदेशी ई-कॉमर्स कम्पनियाँ भी, जिनके बीच अपने-अपने क्षेत्र में अग्रणी बनने की स्पर्धा चलती रहती है। लेकिन अब हाल के दो-तीन वर्षों में ऐसी ही स्पर्धा ऑनलाइन वीडियो सामग्री की प्रस्तोता कंपनियों के बीच भी देखने को मिल रही है।

गौर करें तो लम्बे समय से इन्टरनेट पर वीडियो सामग्री के मामले में गूगल के स्वामित्व वाली कंपनी यूट्यूब का ही वर्चस्व रहा है, जिसको टक्कर देने के लिए अब कई देशी-विदेशी कम्पनियाँ मैदान में उतर पड़ी हैं। इनमें हॉटस्टार, नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम वीडियो, जी फाइव, वूट आदि कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। इन माध्यमों की ख़ास बात यह है कि ये सेंसरमुक्त होने के कारण उन सब प्रकार की सामग्रियों के प्रसारण की अनुमति देते हैं, जिन्हें सिनेमा व धारावाहिकों के पारंपरिक प्रसारण माध्यमों पर प्रसारित नहीं किया जा सकता। इस आजादी के कारण इन माध्यमों की तरफ कई भारतीय निर्माता-निर्देशकों का रुझान हुआ है, लेकिन इसीके साथ इन माध्यमों के कुछ नकारात्मक परिणाम भी दृष्टिगत होने लगे हैं।     

नेटफ्लिक्स का खेल
नेटफ्लिक्स 1997 में स्थापित हुई एक अमेरिकन कंपनी है। शुरूआती  दौर में इसका कार्य सिर्फ फिल्मों आदि की डीवीडी बेचने और किराए पर देने का था, लेकिन अपनी स्थापना के एक दशक बाद 2007 में इसने अपने कार्य को विस्तार देते हुए ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग सेवा की भी शुरूआत की। इसके बाद विदेशों में नेटफ्लिक्स पर कई मौलिक फ़िल्में और वेब सीरिज प्रसारित हुए, जिनमें से ज्यादातर सफल भी रहे। इसकी सफलता का अनुमान इस आंकड़े से भी लगा सकते हैं कि 2008 में वीडियो स्ट्रीमिंग सेवा से इसकी कुल कमाई 1.38 बिलियन डॉलर थी जो कि वर्ष 2017 में बढ़कर 11.69 बिलियन डॉलर पर पहुँच गयी और इस वर्ष इसके 15 बिलियन डॉलर तक पहुँच जाने का अनुमान व्यक्त किया गया है।

अमेरिका और यूरोप में सफलता के झंडे गाड़ने के बाद नेटफ्लिक्स की नजर सम्भावाओं से भरे भारतीय बाजार पर पड़ी और 2016 में भारत नेटफ्लिक्स की शुरूआत हुई, लेकिन यूट्यूब और अमेज़न प्राइम वीडियो सहित भारत के अपने वीडियो स्ट्रीमिंग माध्यमों जैसे कि हॉटस्टार, जिओ टीवी, वूट आदि से नेटफ्लिक्स का मुकाबला हुआ जिसमें कि उसे विफलता हाथ लगी। 2016 से 2017 का भारत में पहला एक साल नेटफ्लिक्स के लिए अपेक्षाकृत रूप से कुछ ख़ास नहीं रहा। अमेरिका की इस अग्रणी कंपनी को यहाँ रैंकिंग में काफी नीचे रहना पड़ा। ऐसे में नेटफ्लिक्स को भारत में अपने पाँव जमाने के लिए कुछ ऐसी सामग्री लाने की जरूरत महसूस हुई जो भारतीय दर्शकों को आकर्षित कर सके। नेटफ्लिक्स की इस जरूरत में उसके साझीदार बने भारतीय सिनेमा के एक कम कामयाब, अधिक नाकामयाब निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप और इस जुगलबंदी का नतीजा नेटफ्लिक्स की पहली भारतीय वेब सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ के रूप में आज हमारे सामने है। इस वेब सीरिज ने दर्शकों को आकर्षित करने में कुछ हद तक कामयाबी जरूर हासिल की  है, लेकिन इसकी सिनेमाई तत्वों से इतर अनेक खामियां भी हैं, जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता।         

सामाजिक यथार्थ या मानसिक कुंठाएं ?
अनुराग कश्यप निर्देशित आठ भागों वाली इस वेब सीरिज ‘सेक्रेड गेम्स’ के प्रसारित होने के बाद से ही ज्यादातर समीक्षकों द्वारा इसकी बढ़-चढ़कर वाहवाही की जा रही है ऐसा लग रहा है जैसे कश्यप ने भारतीय सिनेमा में कोई नया आविष्कार कर दिया हो सैफ अली खान, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे की मुख्य भूमिका वाले सेक्रेड गेम्स में एक मुम्बईया गैंगस्टर और एक पुलिस अधिकारी के द्वंद्व की कथा है, जिसके बीच हिंसा, हद पार करते अश्लील दृश्य, गाली-गलौज सहित राजनीति तथा धर्म की मनमाफिक व्याख्याओं की भरमार है। कह सकते हैं कि इसमें वो सारा मसाला है जो ऐसी चीजों के दुष्प्रभाव से अनजान भारत के एक ख़ास दर्शक वर्ग को अपनी ओर खींच सकता है।  

दरअसल अनुराग कश्यप इन्हीं चीजों के विशेषज्ञ हैं, जिसका प्रमाण उनकी देव डी, रमन राघव 2.0, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर आदि तमाम फिल्मों को देखने से मिल जाता है। हाँ, सेक्रेड गेम्स को इसलिए विशिष्ट कहा जा सकता है कि इसमें कश्यप ने उक्त मसालों की प्रस्तुति के मामले में अबतक की अपनी सभी सीमाओं को लांघ दिया है। तर्क दिया जा रहा कि इस वेब सीरिज में जो दिखाया गया है, वो समाज का यथार्थ है। हो सकता है कि ये तर्क सही भी हो, लेकिन  सामाजिक यथार्थ का दायरा तो बहुत व्यापक है, जिसके अंतर्गत भारत के गांव-देहात, खेती-किसानी की समस्याएँ, रोजी-रोटी के लिए प्रतिदिन संघर्षरत आम आदमी की चुनौतियाँ जैसे अनेक विषय आ सकते हैं। फिर अनुराग कश्यप जैसे निर्माता-निर्देशकों के लिए सामाजिक यथार्थ की सुई केवल सेक्स, हिंसा और गाली-गलौज पर ही जाकर क्यों रुक जाती है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है।     

मगर बात इतनी ही नहीं है, असल समस्या तो यह है कि जिस माध्यम पर ‘सेक्रेड गेम्स’ प्रस्तुत किया जा रहा, वैसे माध्यमों पर प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के प्रमाणन हेतु कोई नियामक संस्था नहीं है। कश्यप ने सेक्रेड गेम्स में जितनी अनुचित और अप्रदर्शनीय सामग्री का प्रदर्शन किया है, मुख्यधारा के प्रसारण माध्यमों जैसे कि सिनेमा हॉल या टीवी पर उतना नहीं कर पाते क्योंकि तब उनके ऊपर  नियामक संस्थाओं की निगरानी होती। लेकिन नेटफ्लिक्स पर प्रस्तुत सामग्री को किसी निगरानी की प्रक्रिया से नहीं गुजरना होता, इसलिए कश्यप को खुली छूट मिल गयी और उन्होंने सामाजिक यथार्थ के नाम पर शायद अपने मन की सारी कुंठाएं उंड़ेल  दीं।    

समस्या की व्यापकता
दरअसल समस्या केवल नेटफ्लिक्स के साथ नहीं है, बल्कि ज्यादातर ऑनलाइन स्ट्रीमिंग माध्यमों पर परोसी जाने वाली मौलिक वीडियो सामग्री में ऐसी अवांछित चीजें मौजूद दिखती हैं, जिनके आधार पर यह कहना पड़ता है कि इन प्रसारण माध्यमों के नियमन मुक्त होने का अनुचित लाभ लिया जा रहा है। हालांकि यूट्यूब पर उसका अपना कुछ मौलिक नहीं होता और पोर्न जैसी चीजें उसपर सख्ती से प्रतिबंधित भी हैं, लेकिन बावजूद इसके वहाँ लघु फिल्मों के नामपर ऐसे छोटे-छोटे वीडियोज की भरमार है, जिन्हें ‘मिनी पोर्न’ की श्रेणी में रखा जा सकता है। लेकिन इसपर कोई कार्यवाही नहीं हो सकती क्योंकि इसका कोई निगरानी तंत्र ही नहीं है।  

टीवी के हिंदी धारावाहिकों के क्षेत्र पर हुकूमत करने वाली एकता कपूर ने तो ‘ऑल्ट बालाजी’ के नाम से अपना खुद का ऑनलाइन स्ट्रीमिंग माध्यम ही शुरू कर दिया है, जिसपर ‘गन्दी बात’ जैसी वीभत्स और अश्लील वेब सीरिज वे ला चुकी हैं। अगर सेंसर बोर्ड के सामने से इस वेब सीरिज को गुजरना पड़ता तो पूरी संभावना है कि इसे प्रसारण की अनुमति नहीं मिलती। लेकिन उनके अपने माध्यम पर यह धड़ल्ले से देखा जा रहा है और ‘ऑल्ट बालाजी’ हिट हो चुका है। ये सब दिखाते हुए दावा इनका भी यही है कि हम सामजिक यथार्थ दिखा रहे हैं।

ऐसे और भी कई कार्यक्रम ऑनलाइन माध्यमों पर मौजूद हैं, जिनमें ‘क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं’ की तमीज नदारद है। विडंबना ये है कि ये सभी ऑनलाइन स्ट्रीमिंग माध्यम अपनी मौलिक सामग्रियां देखने के बदले पैसा भी लेते हैं जिसे देने में लोगों को कोई ऐतराज भी नहीं है।

कमाई के तरीके
इन ऑनलाइन स्ट्रीमिंग कंपनियों की कमाई के ऊपरी तौर पर दो तरीके दिखाई देते हैं। एक दर्शकों द्वारा दिया जाने वाला सब्सक्रिप्शन मूल्य और दूसरा इनपर प्रसारित होने वाले विज्ञापन। नेटफ्लिक्स देखने के एवज में आदमी को महीने के पांच सौ से लेकर साढ़े आठ सौ रूपये तक खर्च करने होते हैं जिसके लिए उसे पंजीकरण के समय अपना क्रेडिट या डेबिट कार्ड का पूरा डाटा साझा करना होता है। इसके बाद महीना पूरा होते ही स्वतः खाते से निर्धारित राशि काट ली जाती है।

अमेज़न प्राइम वीडियो, नेटफ्लिक्स की अपेक्षा कुछ सस्ता है और लगभग हजार रूपये में ही पूरे साल का सब्स्क्रिप्शन देता है, लेकिन अपना क्रेडिट-डेबिट कार्ड का डाटा पंजीकरण के समय यहाँ भी साझा करना जरूरी है। डाटा चोरी पर चिंता जताने वाले लोग इन माध्यमों पर अपना पूरा डाटा बेझिझक साझा भी कर रहे हैं। शायद लोगों को इन कंपनियों के इस आश्वासन पर भरोसा है कि उनका डाटा सुरक्षित है, लेकिन वे शायद यह भूल गए हैं कि इस तरह का आश्वासन फेसबुक भी देता है, लेकिन उसी फेसबुक से डाटा चोरी होने का ‘कैम्ब्रिज एनेलिटिका’ प्रकरण अभी हाल ही में चर्चित हुआ था।

तिसपर विडंबना यह है कि पैसा खर्च करके इन माध्यमों पर लोग जो सामग्री देख रहे हैं, वो उनके दिमाग में सिवाय विकृतियों के और कुछ नहीं पैदा कर सकती। उदाहरण के तौर पर सेक्रेड गेम्स और गन्दी बात जैसी वेब सीरीजों को ले लीजिये, इनकी जो सामग्री है उसे देखने के बाद क्या आदमी के दिमाग में कोई अच्छा विचार भी आ सकता है ?

नियमन की दरकार
हालांकि ऑनलाइन स्ट्रीमिंग माध्यमों की उपर्युक्त विसंगतियों पर चर्चा करने का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि ये माध्यम एकदम ही ख़राब हैं और इन्हें बंद कर देना चाहिए। इनकी कुछ अच्छी बातें भी हैं। पहली चीज कि इनकी सभी वेब सीरिज ख़राब ही हों, ऐसा नहीं है। साथ ही, इन माध्यमों पर इनकी अपनी वेब सीरिज आदि के अलावा मुख्यधारा के प्रसारण माध्यमों पर प्रसारित तमाम फ़िल्में और टीवी धारावाहिक भी एक साथ बड़े सहज ढंग से देखे जा सकते हैं। ऐसे में उचित यही प्रतीत होता है कि इन माध्यमों को सेंसर बोर्ड या उसीके जैसी किसी अन्य नियामक संस्था की सीमित निगरानी में लाया जाए, जिससे इनकी प्रसारण संबंधी स्वतंत्रता पर तो बहुत अधिक प्रभाव न पड़े, लेकिन इनके दुरूपयोग पर अंकुश लग सके ताकि ये माध्यम कला के नामपर कुंठाओं की अभिव्यक्ति का अड्डा बनकर न रह जाएं।

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

अभिव्यक्ति की अराजकता का शिकार सोशल मीडिया [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

आज सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के ऐसे विकसित मंच के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जहां सबकुछ गोली की तरह तेज और तुरंत चलता है। यहाँ जितनी तेजी से विचारों का प्रवाह होता है, उतनी ही तीव्रता से उनपर प्रतिक्रियाएं भी आती हैं और उनका प्रसार भी होता जाता है। मीडिया के पारम्परिक माध्यमों में ऐसी तीव्रगामी प्रतिक्रिया की कोई व्यवस्था नहीं है, परन्तु सोशल मीडिया इस मामले में विशिष्ट है। इसकी इस विशिष्टता के अच्छे और बुरे दोनों परिणाम सामने आने लगे हैं।

कुछ हालिया मामले
सोशल मीडिया के सकारात्मक परिणामों के संदर्भ में भारतीय रेल से सम्बंधित एक ताजा मामला उल्लेखनीय होगा जिसमें एक यात्री द्वारा सोशल मीडिया के सूझबूझ भरे उपयोग ने 26 बच्चियों का जीवन नष्ट होने से बचा लिया। ख़बरों की मानें तो गत 5 जुलाई को अवध एक्सप्रेस से सफर कर रहे आदर्श श्रीवास्तव को अपनी बोगी में मौजूद कुछ लड़कियों की डरी-सहमी स्थिति देखकर संदेह हुआ। इसपर उन्होंने अपनी लोकेशन बताते हुए इस संबंध में प्रधानमंत्री, रेल मंत्री, योगी आदित्यनाथ को टैग करके एक ट्विट किया जिसके बाद आरपीएफ ने कार्यवाही कर तस्करी के लिए ले जाई जा रहीं उन बच्चियों को बचा लिया तथा जिम्मेदार शख्स की गिरफ़्तारी भी हुई। इस मामले के सामने आने के बाद से ही आदर्श श्रीवास्तव को हर तरफ शाबासी दी जा रही और निस्संदेह उन्होंने काम भी शाबासी के लायक किया है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि वे यह सब कर सके तो सिर्फ इसलिए कि उनके पास सोशल मीडिया जैसा संचार का समुन्नत साधन था। ये तो बात हुई सोशल मीडिया के सकारात्मक परिणामों की, अब हाल ही में सामने आए इसके कुछ नकारात्मक परिणामों पर नजर डालते हैं।
सोशल मीडिया के नकारात्मक परिणामों के विषय में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से सम्बंधित प्रकरण का उल्लेख समीचीन होगा। पिछले दिनों अनस सिद्दीकी और तन्वी सेठ नामक एक अंतर्धर्मी दम्पति द्वारा पीएमओ, विदेश मंत्रालय आदि को ट्विट करके लखनऊ के एक पासपोर्ट अधिकारी विकास मिश्रा पर आरोप लगाया गया था कि पासपोर्ट अधिकारी ने उनसे धार्मिक आधार पर सवाल पूछे तथा उन्हें परेशान किया। हालांकि विकास मिश्रा का कहना था कि उन्होंने सिर्फ प्रक्रियाओं से जुड़े प्रासंगिक सवाल ही पूछे थे। लेकिन इस मामले के सामने आने के बाद केवल दम्पति को पासपोर्ट उपलब्ध कराया गया, बल्कि विकास मिश्रा का तबादला भी हो गया। इसके बाद सोशल मीडिया पर लोगों में सुषमा स्वराज के प्रति जो विरोध उभरा उसने अभिव्यक्ति की समस्त मर्यादाओं को तार-तार कर दिया। ये ठीक है कि पासपोर्ट अधिकारी विकास मिश्रा के खिलाफ कार्यवाही एकपक्षीय निर्णय लगता है और इस मामले की प्रकृति ऐसी थी कि इसमें विरोध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन विरोध जताने का तरीका सभ्य और शालीन होना चाहिए। परन्तु, सुषमा स्वराज को इस मामले के बाद जिस तरह से सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया, उसने इस माध्यम के एक नकारात्मक परिणाम को ही उजागर किया है।

ऐसे ही कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी को उनकी बेटी के बलात्कार की धमकी देते हुए किसी ट्रोल ने एक ट्विट किया, जिसके बाद उन्होंने शिकायत की और इस मामले को तुरंत संज्ञान में लेते हुए ट्विट करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रियंका चतुर्वेदी कांग्रेस की बड़ी नेता हैं, इसलिए उन्हें धमकी मिली और आनन-फानन में कार्यवाही हो गयी। ऐसे ही सुषमा स्वराज की ट्रोलिंग भी चर्चा का विषय बन गयी। लेकिन आज सोशल मीडिया नामक इस मंच का जो वैचारिक स्वरूप हो चला है, उसमें आए दिन तमाम लोगों को कम-ज्यादा मात्रा में ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ता है, जिसकी तो कोई चर्चा होती है और ही इसपर कोई कार्यवाही की बात ही सामने आती है। 

सूचनाओं का संकट
ट्रोलिंग के अलावा सोशल मीडिया की एक बड़ी समस्या इसका सूचनाओं का संकट पैदा करते जाना है। सोशल मीडिया को जब सूचना-क्रांति के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में देखा जा रहा है, ऐसे में इसपर प्रसारित सूचनाओं के प्रमाणन की कोई व्यवस्था होना केवल इसकी विश्वसनीयता को कम करने वाला है, बल्कि इससे चिंताजनक स्थिति भी पैदा हो रही है। ऐसा बिलकुल नहीं कह रहे कि सोशल मीडिया पर प्रचारित-प्रसारित सभी सूचनाएं गलत ही होती हैं, लेकिन ये अवश्य है कि इसपर मिथ्या और भ्रामक सूचनाओं की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है जो कि जब-तब किसी बड़ी वारदात की वजह बन जाती है। बीते दिनों इसी संदर्भ में सरकार द्वारा फेसबुक के स्वामित्व वाली मैसेजिंग एप कंपनी ह्वाट्स एप को भ्रामक और झूठी सूचनाओं को रोकने के लिए निर्देश दिए गए थे।

दरअसल कहीं घटना थोड़ी-सी होती है और सोशल मीडिया पर उसको बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाने लगता है। अलग-अलग विचारों और विचारधारा वाले लोगों द्वारा घटना की मनोनुकूल और गैर-जमीनी व्याख्या की जाने लगती है। इस सम्बन्ध में कठुआ प्रकरण उल्लेखनीय होगा जिसमें सोशल मीडिया पर केवल भ्रामक तथ्यों का प्रचार-प्रसार हुआ बल्कि धर्म विशेष का अपमान करने वाले अभद्रतापूर्ण कार्टून आदि भी साझा किए जाते रहे। त्रासद यह भी था कि इन भ्रामक सूचनाओं को प्रसारित करने में मुख्यधारा मीडिया के कुछेक वरिष्ठ पत्रकारों के नाम भी शामिल रहे। दैनिक जागरण द्वारा इस मामले पर एक जमीनी रिपोर्ट करके वास्तविक तथ्यों को प्रस्तुत किया गया था, जिससे वस्तुस्थिति काफी हद तक साफ़ हुई।

ऐसे ही गत वर्ष हुई पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या का प्रकरण भी इसी तरह का एक उदाहरण है जिसमें पुलिस की शुरूआती जांच अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची थी, लेकिन सोशल मीडिया पर एक वैचारिक धड़े से सम्बंधित लोगों द्वारा इस हत्या के लिए हवा-हवाई ढंग से संघ-भाजपा को जिम्मेदार बताया जाने लगा था। इसी प्रकार देश में होने वाले दंगे-फसाद के मामलों में भी सोशल मीडिया की भूमिका प्रायः आग में घी की ही साबित होती रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सूचना-संचार की जिस तीव्रगामी व्यवस्था को सोशल मीडिया की सबसे बड़ी अच्छाई माना जा रहा था, वो अब धीरे-धीरे इसकी एक बड़ी बुराई का रूप लेती जा रही है।

अभिव्यक्ति का अतिरेक
सोशल मीडिया से सम्बंधित उक्त समस्याओं पर विचार करने पर प्रमुख निष्कर्ष यह निकलता है कि सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के अतिरेक का शिकार होता जा रहा है। दरअसल सूचना और सम्प्रेषण का यह माध्यम आज एक ऐसी शक्ति के रूप में मौजूद है, जिसके द्वारा पलक झपकते ही मात्र एक क्लिक के द्वारा व्यक्ति अपने विचारों को लाखों-करोड़ों लोगों तक केवल पहुँचा सकता है, बल्कि तमाम प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त कर सकता है। सम्प्रेषण और संचार की इस सहजता ने स्वाभाविक रूप से व्यक्ति में अभिव्यक्ति की भावना को प्रबल किया है। लेकिन इसीके साथ अब लोग फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम आदि विविध तकनीकी संचार माध्यमों के द्वारा अपने विचारों और भावों को अनेक प्रकार से अभिव्यक्त कर अधिकाधिक प्रतिक्रियाएं प्राप्त करने की लालसा का शिकार भी होने लगे हैं।

अधिकाधिक प्रतिक्रियाओं की इस लालसा से ही अभिव्यक्ति के अतिरेक का जन्म होता है। जब व्यक्ति के पास कहने के लिए कुछ नहीं रहता, लेकिन प्रतिक्रियाओं की लालसा बनी रहती है, तो वो अभिव्यक्ति के अतिरेक का शिकार हो जाता है, जिसके आवेग में उसकी विवेकशक्ति बह जाती है और यहीं से अविचारित-अमर्यादित अभिव्यक्ति से लेकर भ्रामक सूचनाओं के प्रचार-प्रसार तक सोशल मीडिया के विविध नकारात्मक परिणामों का जन्म होता है।     

क्या है समाधान ?
प्रश्न यह उठता है कि सोशल मीडिया की उपर्युक्त समस्याओं का समाधान क्या है ? कानून और तकनीकी, इन दो स्तरों पर सोशल मीडिया की समस्याओं के समाधान लिहाज से विचार किया जा सकता है। कानूनी दृष्टि से तो कुछ काम हुआ भी है जैसे कि साइबर क्राइम विभाग के रूप में इंटरनेट से सम्बंधित हर प्रकार के अपराध की शिकायत के लिए एक पूरा तंत्र बना हुआ है, लेकिन ये प्रभाव में तब आता है जब कोई शिकायत इसके पास पहुँचती है। इस कारण ये सोशल मीडिया की समस्याओं का समाधान करने में बहुत कारगर नहीं हो पाता। सोशल मीडिया की अभिव्यक्ति को विनियमित करने के लिए अलग-अलग समय पर सरकार की तरफ से भी विभिन्न दिशानिर्देश भी जारी किए जाते रहे हैं, परन्तु इसका भी कोई ख़ास प्रभाव नहीं दीखता।

ऐसे में, प्रतीत होता है कि सोशल मीडिया की समस्याओं का समाधान तकनीकी तौर पर तलाशा जाए। ये कार्य तभी हो सकेगा जब इसमें सरकार और सोशल मीडिया के फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप जैसे उपक्रम मिलकर काम करेंगे। सरकार कानूनी पहलुओं को देखे और तकनीकी पहलुओं का कार्य सोशल मीडिया के कर्ता-धर्ताओं को सौंप दिया जाए। फेसबुक-ट्विटर जैसी सोशल मीडिया साइट्स को अपने मंच पर आने वाली सामग्री के यथासंभव प्रमाणन की व्यवस्था विकसित करने के लिए सख्ती से निर्देश देने की जरूरत है। इसके अलावा अभद्र-अश्लील शब्दों चित्रों का एक निश्चित प्रारूप चिन्हित कर उसे स्थायी रूप से अवरोधित (ब्लॉक) करने तथा अस्पष्ट वस्तुस्थिति वाले संवेदनशील मसलों से सम्बंधित सामग्रियों को स्थिति स्पष्ट होने तक अवरुद्ध रखने जैसे उपायों को भी अपनाने की दिशा में काम किया जा सकता है। तकनीकी विशेषज्ञों से राय लेने पर और भी उपाय सामने सकते हैं, बशर्ते कि इस विषय में गंभीर हुआ जाए। यह सही है कि सोशल मीडिया का स्वरूप ऐसा है कि उसपर नियंत्रण का कोई भी तंत्र पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो सकता, लेकिन यथासंभव नियंत्रण की दिशा में प्रयास अवश्य किया जा सकता है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया भारत में अभी अपने यौवनोत्कर्ष पर है, इसलिए उसकी आक्रामकता स्वाभाविक है, परन्तु उसे अपनी मर्यादाओं और जिम्मेदारियों को भी समझना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व समझते हुए उसका दुरुपयोग करने से बचने की जरूरत है। ऐसा हो कि सोशल मीडिया के धुरंधरों की ये नादानियाँ सत्ता को इस माध्यम पर पूर्ण या असीमित अंकुश लगाने का अवसर दे बैठें।