बुधवार, 22 जुलाई 2015

बाहुबली और बम-बम भोले..!!



  • पीयूष द्विवेदी भारत
हिन्दू देवों में शिव का स्थान अत्यंत उच्च है। महादेव कहे जाते हैं। यह महानता यूँ ही नहीं है, शिव के उदार, निर्विकार, दयालु और समर्थ व्यक्तित्व के कारण है। मान्यता है कि शिव सब देवताओं में सर्वाधिक उदार हैं। इतने कि श्रद्धा के साथ सुबह-शाम एक-एक लोटा जल चढ़ाने से भी प्रसन्न हो समस्त मनो-इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं। एक कथा हैं कि अड़भंगी जीवन जीने वाले शिव ने एकबार पार्वती मईया के हठ वश कैलाश पर्वत से इतर त्रिकूट पर्वत पर अपने लिए एक सोने के महल का निर्माण किया। नाम रखा लंका। भव्य गृहप्रवेश का आयोजन किया गया। तमाम ब्राह्मण दान के लिए उपस्थित हुए। वहीँ एक ब्राह्मण दम्पति ने दान में शिव से वो महल ही मांग लिया। फिर क्या था! पार्वती माता के क्रोध-विरोध के बावजूद भी औढरदानी शिव ने वो महल उस ब्राह्मण दम्पति को दे दिया। वही ब्राह्मण दंपत्ति भविष्य में रावण-कुम्भकरण के माता-पिता हुए। इसी प्रकार भस्मासुर, बाणासुर, नन्दीश्वर, उपमन्यु आदि तमाम शिव आराधकों की कथाएँ प्रचलित हैं। दूध की इच्छा के कारण तपस्यारत उपमन्यु पर तो शिव इतने उदार हुए कि उनके लिए दूध के समुद्र का ही निर्माण कर दिए। भोले तो इतने हैं कि एक चोर ने उनके मंदिर से नैवेद्य चुराने के लिए अपने कपड़े को जलाकर प्रकाश किया तो इसे बाबा ने दीपदान मान लिया। और उस चोर पर इतने प्रसन्न हुए कि कालांतर में उसे धनाधिपति कुबेर बना दिए। तो ऐसा है मेरे शिव का औदार्य..ऐसी है उनकी महिमा!!




अभी कुछ समय पहले एक फिल्म आई थी 'पीके' जिसमें धार्मिक आडम्बरों को उजागर करने के नाम पर एक दृश्य में एक प्रतीक पात्र के माध्यम से शिव का अत्यंत अभद्र चित्रण किया गया। यह दृश्य एकदम अनावश्यक और गलत नीयत से फिल्म में डाला गया था। फिल्म का काफी विरोध हुआ, पर अपने को प्रगतिशील कहने वाले कुछ अंधे तबकों ने आस्था के उस मजाक का समर्थन भी किया, बहरहाल, कुछ अच्छे विषय तो कुछ बढ़े विवाद के कारण फिल्म काफी चली..खूब कमाई के रिकॉर्ड तोड़ी। समय बीता..अभी एक फिल्म आई है 'बाहुबली' जिसकी तस्वीर संलग्न है, जिसमे नायक शिवलिंग को अपने कंधे पर लिए हुए है। इस फिल्म ने भी अबतक कमाई के काफी रिकॉर्ड ध्वस्त किए हैं। पहले दिन की कमाई में ये देश की अबतक की सबसे सफल फिल्म बन गई है और लगातार कमाती ही जा रही है। इसका कोई विरोध भी नहीं है और सब तरफ प्रशंसा ही हो रही है। लोग कह रहे हैं कि पीके में आमिर खान नंगे हो गए, ऊलूल-जुलूल हरकतें किए, दुनिया भर की गाली सुने..तब जाके जो कमाई किए, उतना या उससे अधिक ही 'बाहुबली' पूरी प्रशंसा के साथ बड़े आराम से कमाने जा रही है। क्योंकि पीके ने भोले का उपहास किया और बाहुबली ने उन्हें अपने मस्तक पर स्थान दिया। पर मै इसमें यह भी जोड़ना चाहूँगा कि पीके की सफलता भी भोले की कृपा ही है। क्या पता उन्हें उसमे भी अपने लिए कोई श्रद्धा दिख गई हो जैसे उक्त नैवेद्य-चोर में दिख गई थी। आखिर शिव तो शिव हैं! उनके लिए क्या बुरा-क्या अच्छा। संभव है कि इस फिल्म से 'पीके' वालों और देश अंधे प्रगतिशीलों को कुछ अक्ल आए और न आए तो भाड़ में जाएं। आप तो बस देखिए बाहुबली और बोलिए बम बम भोले!!

सोमवार, 20 जुलाई 2015

दलीय पारदर्शिता का सवाल [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
यूँ तो देश के सभी राजनीतिक दल पारदर्शिता की बातें करने में एक से बढ़कर एक हैं, लेकिन जब जबब उनके खुद पारदर्शी होने की बात आती है तो वे तरह-तरह के कुतर्क गढ़कर इससे बचने की कवायद करने लगते हैं। गौर करें तो आज से लगभग दो वर्ष पहले केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने की बात कही गई थी, तब सभी दलों ने न केवल एक सुर में इसका विरोध किया वरन इसे रोकने के लिए संविधान संशोधन तक कर दिए। वे आजतक आरटीआई के अंतर्गत नहीं आए। इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि अभी हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी क्षेत्रीय व राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को आरटीआई के अंतर्गत लाने के लिए सार्वजनिक प्राधिकारघोषित करने की मांग सम्बन्धी एक गैर सरकारी संगठन की याचिका पर केंद्र सरकार, चुनाव आयोग और कांग्रेस, भाजपा समेत छः राष्ट्रीय राजनीतिक दलों  को नोटिस जारी करते हुए जवाब माँगा गया है। दरअसल राजनीतिक दलों को आरटीआई के अंतर्गत लाने की बहस तब उठी थी जब सन २०१३ में  आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल की एक याचिका पर केंद्रीय सूचना आयोग की तरफ से देश के छः राजनीतिक दलों कांग्रेसभाजपाबसपाराकांपाभाकपा और माकपा को परोक्ष रूप से केन्द्र सरकार से वित्तपोषण प्राप्त करने वाली  सार्वजनिक इकाई बताते हुए सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने को कहा  था। साथ हीतत्कालीन दौर में इन सभी दलों को यह निर्देश भी दिया गया था कि वे अपने-अपने यहाँ लोक सूचना अधिकारी व अपीलीय प्राधिकारी की नियुक्त करेंजिससे कि आम लोग उनसे जुड़ी जानकारियां प्राप्त कर सकें। लेकिनकेंद्रीय सूचना आयोग के इस आदेश को लेकर हमारे समूचे राजनीतिक महकमे में बेहद असंतोष और विरोध दिखा। किसी जनहित के मुद्दे पर जल्दी  एकसाथ खड़े न होने वाले ये राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग के इस आदेश के खिलाफ हाथ से हाथ मिलाए खड़े दिखे। बड़े कुतार्किक ढंग से उनका कहना था कि वे कोई सार्वजनिक इकाई नहींस्वैच्छिक संघ हैं। अतः उन्हें सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाया जा सकता। ऐसा करना उनकी निजता के विरुद्ध है। तमाम राजनीतिक दाव-पेंच और बयानबाजियां हुईं और आखिर भाकपा को छोड़  किसी भी दल ने तय समयावधि में केंद्रीय सूचना आयोग के निर्देश का पालन नहीं किया। और बड़ी विडम्बना तो ये रही कि राजनीतिक दलों के ऐसे रुख पर सूचना आयोग भी कोई कार्रवाई करने की बजाय सन्नाटा मार गया। ये मामला पुनः चर्चा में तब आया जब विगत वर्ष आरटीआई कार्यकर्ता आर के जैन ने याचिका डालकर कांग्रेस से यह जानकारी मांगी कि उसने (कांग्रेस ने) अपने यहाँ सूचना का अधिकार क़ानून लागू करने के लिए क्या कदम उठाए हैं ? लेकिनउनकी इस याचिका का कांग्रेस द्वारा कोई जवाब नहीं दिया गयाबल्कि उनकी अर्जी लौटा दी गई। इसके बाद आर के जैन ने इस संबंध में  दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग को यह आदेश दिया गया कि सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने के केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को न मानने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी पर छः महीने में कार्रवाई की जाए। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

दबंग दुनिया 
      यहाँ बड़ा सवाल यह है कि नैतिकता और शुचिता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारे राजनीतिक दल सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आने से इतना हिचक क्यों रहे हैं ? आखिर क्या वजह है कि वे इस पारदर्शितापूर्ण व्यवस्था का हिस्सा बनने से कतरा रहे हैं ? उनका ये रुख कहीं ना कहीं उनकी नीयत और चरित्र को संदेह के घेरे में लाता है साथ ही उनकी नैतिकता की भाषणबाजी के पाखण्ड को भी उजागर करता है। क्योंकि, अगर वे पूरी तरह से पाक साफ़ होते तो उन्हें सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आकर इस पारदर्शी व्यवस्था का हिस्सा बनने  में समस्या क्यों होती ?  अगर विचार करें तो सूचना का अधिकार के अंतर्गत न आने के पीछे इन  सभी राजनीतिक दलों की मुख्य समस्या यही प्रतीत होती है कि आर्थिक शुचिता के मामले में इन सबकी हालत कमोबेश एक जैसी ही है। यूँ तो सभी दल अपने चंदे आदि के विषय में जानकारियां देते रहते हैं, लेकिन वे जानकारियां पूरी नहीं, आधी-अधूरी होती हैं। असल जानकारियां तो लगभग हर दल द्वारा छुपा ली जाती हैं। जिस काले धन को लेकर आज इतना हो-हल्ला मचा हुआ है, वैसे बहुतेरे काले धन का इस्तेमाल इन राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों में किया जाता है, यह बात भी अब काफी हद सार्वजनिक है। ऐसे में, सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आ जाने के बाद संभव है कि इन राजनीतिक दलों की ये तथा ऐसी ही और भी कुछ बेहद गुप्त जानकारियां सामने आने लगें। ऐसे में ऊपर से सफेदपोश बन रह इन राजनीतिक दलों की अंदरूनी कालिख जनता के सामने उजागर होने का खतरा भी पैदा हो जाएगा। ऐसे में उनके बचने का इतना ही उपाय होगा कि चुनावों में काले धन का इस्तेमाल ना करें जो कि इन राजनीतिक दलों के लिए संभव नहीं है। क्योंकि, चुनाव में किया जाने वाला इनका असीमित खर्च बिना काले धन के पूरा ही नहीं हो सकता। मुख्यतः इन्हीं बातों के कारण इन राजनीतिक दलों द्वारा सूचना का अधिकार के अंतर्गत आने से बचने की कवायद की जाती रही है। 
 उपर्युक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि पारदर्शिता से भागते ये राजनीतिक दल चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को ही चरितार्थ कर रहे हैं।  ऐसे करके वे न सिर्फ जनता के मन में अपने प्रति शंकाओं के बीज बो रहे हैं, बल्कि खुद को अलोकतांत्रिक भी सिद्ध कर रहे हैं। उचित होगा कि ये  राजनीतिक दल सूचना का अधिकार से बचने की कवायद करने की बजाय स्वयं के चरित्र में सुधार लाएं और सिर्फ उच्च सिद्धांतों की भाषणबाजी न करें बल्कि उन्हें व्यवहार में भी उतारें।


बुधवार, 15 जुलाई 2015

दोस्ती की इन पहलों का क्या लाभ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
इसमें संदेह नहीं कि विगत वर्ष मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से संप्रग शासन के दौरान काफी हद तक सुषुप्त हो रही भारतीय विदेश नीति में न केवल एक एक नवीन ऊर्जा का संचार हुआ है, वरन इस दौरान उसने एक के बाद एक कई ऊँचाइयाँ भी छुई हैं। अमेरिकी राष्टपति ओबामा के गणतंत्र दिवस पर भारत आगमन से लेकर यमन व म्यांमार में भारतीय सेना द्वारा संचालित सैन्य अभियानों तक तमाम ऐसी बातें हैं जो वर्तमान भारतीय विदेश नीति की सफलता को दिखाते हैं। लेकिन बावजूद इन सब सफलताओं के पाकिस्तान अब भी भारतीय विदेश नीति के लिए यक्ष-प्रश्न ही बना हुआ है। ऐसा नहीं दिखता कि अपने शासन के एक वर्ष से अधिक समय के बाद भी मोदी सरकार पाकिस्तान को लेकर कोई ठोस व स्थायी नीति निर्धारित कर सकी हो। वरन पाकिस्तान के सम्बन्ध में सरकार की गतिविधियाँ तो यही संकेत दे रही हैं कि ये सरकार भी पिछली सरकार की तरह ही पाकिस्तान को लेकर नीतिहीनता या नीतिभ्रमता का शिकार है। पिछली सरकार की तरह ही अब पाकिस्तान के प्रति भारत की वही पुरानी घिसी-पिटी और लगातार विफल सिद्ध हो चुकी रूठने-मनाने की नीति चल रही है। गौर करें तो पाकिस्तान से बातचीत आदि पर मोदी सरकार ने तब विराम लगाया जब भारत में पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित द्वारा कश्मीरी अलगाववादियों को दिल्ली में मिलने के लिए बुलाया गया। इसके बाद से ठप्प पड़े भारत-पाक संबंधों पर अभी पिछले महीने ही मोदी सरकार की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि जब तक पाकिस्तान मुंबई हमले के दोषी लखवी पर कार्रवाई नहीं करता तबतक उससे कोई बातचीत नहीं होगी। लेकिन इस बयान के एक महीना बीतते-बीतते ही भारतीय प्रधानमंत्री मोदी रूस के उफ़ा में खुद पहल करके पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से न केवल मिल लिए, वरन भविष्य में भारत-पाक के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत भी तय कर आए। अब जब प्रधानमंत्री मोदी उफ़ा में पाकिस्तान से ये सम्बन्ध बहाली कर रहे थे, उसी वक़्त दूसरी तरफ सीमा पर पाकिस्तान द्वारा किए गए सीजफायर के उल्लंघन में भारतीय जवान ने अपनी जान गँवा दी। तिसपर मोदी और नवाज की मुलाकात में पाकिस्तान द्वारा लखवी की आवाज के नमूने भारत को सौंपने के वादे से भी अब पाकिस्तान मुकर गया है। और तो और इस मुलाक़ात के वक्त सभी मसलों को बातचीत से हल करने की बात कहने वाला  पाकिस्तान अब इससे भी पलट गया है। उसके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज ने यहाँ तक कह दिया है कि बिना कश्मीर के मसले का हल निकाले भारत से कोई बातचीत नहीं की जाएगी।  पाकिस्तान के इस वादे से पलटने के बाद उम्मीद है कि भारत-पाक सम्बन्ध बहाली की उक्त पहल पर फिर एकबार विराम लग जाए।
कल्पतरु एक्सप्रेस 

बहरहाल, उपर्युक्त समस्त घटनाक्रमों को देखने पर स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार के पास भी पूर्ववर्ती संप्रग सरकार की तरह ही कोई भी ठोस नीति नहीं है। पाक को लेकर किसी ठोस नीति का न होना एक प्रमुख कारण रहा है कि पाकिस्तान भारत की बातों को कभी संजीदा नहीं लेता है। दरअसल उसे लगता है कि भारत केवल शब्दों में नाराजगी जता सकता है, और कुछ नहीं कर सकता। गौर करें तो भारत-पाक के बीच जब-जब भी सम्बन्ध बहाली के लिए बातचीत आदि शुरू हुई है उसमे अधिकाधिक बार पहल भारत की तरफ से ही की गई है। भारत-पाक प्रधानमंत्रियों की उफ़ा में हुई पिछली मुलाकात को देखें तो इसकी पहल भी भारत की तरफ से ही की गई। यह सही है कि भारत की तरफ से सम्बन्ध बहाली की ये पहलें शांति और सौहार्द कायम रखने के लिए होती हैं। लेकिन भारत की ऐसी पहलें इतने लम्बे समय से विफल होती आ रही हैं कि अब ये सिर्फ अपनी किरकिरी कराने वाली लगती है। दूसरी बात कि भारत ने पाकिस्तान को लम्बे समय से अपने प्रमुख सहयोगी राष्ट्र (एम् एफ एन)  का दर्जा दे रखा है जबकि पाकिस्तान ने भारत को अबतक ऐसा कोई दर्जा नहीं दिया है। वरन भारत की इन पहलों का पाकिस्तान यह अर्थ निकाल लिया है कि भारत को उसकी जरूरत है इसीलिए बार-बार दुत्कार खाकर भी उससे दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाता रहता है। कहीं न कहीं इसी कारण वो भारत को बेहद हलके में लेता है और भारत की बातों को कत्तई गंभीरता से नहीं लेता। उदाहरणार्थ २६/११ के दोषियों पर भारत के लाख कहने पर भी आजतक पाकिस्तान द्वारा कार्रवाई नहीं की गई है। हमारे नेताओं की तरफ से प्रायः ये तर्क दिया जाता है कि भारत एक जिम्मेदार राष्ट्र है, इसलिए वो पाकिस्तान की तरह हर बात पर बन्दूक उठाए नही चल सकता। अब नेताओं को ये कौन समझाए कि निश्चित ही भारत एक जिम्मेदार राष्ट्र है और इसी नाते उसकी ये जिम्मेदारी बनती है कि वो अपनी संप्रभुता और अखंडता को अक्षुण्ण रखे। उचित तो यही होगा कि भारत अब दोस्ती की पहल करने और पाकिस्तान को अधिक महत्व देने जैसी चीजों को पूरी तरह से तिलांजलि दे। जरूरत यह है कि सरकार पाकिस्तान को लेकर कोई एक नीति बनाए। वो नीति चाहें जो भी हो, पर उसमे भारत के राष्ट्रीय हित प्रमुख होने चाहिए।  साथ ही, पाकिस्तान के प्रति कठोर रुख अपनाए तथा वैश्विक स्तर पर उसके आतंकवाद पर दोहरे रवैये को अपनी कूटनीति का आधार बनाए। और एमएफएन जैसे पाकिस्तान को महत्व देने वाली चीजों को भी तुरंत ख़त्म किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि भारत पाकिस्तान को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जितना कम से कम महत्व देगा, उसकी अक्ल उतनी ही जल्दी ठिकाने आएगी।

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

तुष्टिकरण के कुचक्र में प्रदेश [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत 
कॉम्पैक्ट

यह तो अनुभव सिद्ध बात रही है कि सपा सरकार जब भी यूपी में सत्ता में आई है तो यूपी में अपराध बढ़े हैं। लेकिन बावजूद इसके साल २०१२ में जब यूपी में चुनाव हुए तो मायावती की अहंकारी, विलासी, भ्रष्ट और तानाशाह जैसी छवि से त्रस्त प्रदेश की जनता ने भाजपा-कांग्रेस से इतर सपा को पूर्ण बहुमत देकर सिर्फ इसलिए विजयी बनाया कि उसके सामने अखिलेश यादव के रूप में एक युवा चेहरा था। प्रदेश की जनता को लगा कि यह युवा मुख्यमंत्री सपा शासन के पूर्व तौर-तरीकों से अलग, एक नए ढंग, नए जोश और नई ऊर्जा के साथ शासन को चलाएगा। लोगों को यह भी लगा कि अखिलेश यादव सपा शासन के पूर्व लक्षणों यथा जातीय तुष्टिकरण, पार्टी कार्यकर्ताओं को अनावश्यक संरक्षण आदि को नहीं अपनाएंगे और प्रदेश को एक बेहतर शासन-प्रशासन मिलेगा। लेकिन अखिलेश यादव के शासन की बागडोर संभालते ही उनके द्वारा जिस तरह से तमाम दागी नेताओं को अपनी कैबिनेट में जगह दी गई, उसने यूपी की जनता के भरोसे को पहला झटका दिया। सरकार  का पहला साल बीतते-बीतते सरकार के एक दागी मंत्री राजा भईया के विधानसभा क्षेत्र में एक डिप्टी एसपी जियाउल हक़ की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई जिसका इल्जाम राजा भैय्या पर लगा। भारी किरकिरी के बाद अखिलेश यादव पीड़ित परिवार से मिले और मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई। हालांकि बाद में जांच में राजा भैय्या को क्लीनचिट मिल गई। लेकिन इस पूरे प्रकरण में जिस तरह से यूपी सरकार अपने आरोपी मंत्री के साथ खड़ी रही, वो सूबे की जनता को हतप्रभ करने के लिए काफी था। फिर  वर्ष २०१३ में हुए मुज़फ्फरनगर दंगे जिसमे सैकड़ों लोग मरे, कितने घायल हुए और लगभग ५० हजार से ऊपर लोग बेघर हो गए, ने यूपी सरकार पर से प्रदेश की जनता का भरोसा पूरी तरह से उठा दिया। हद तो तब हो गई जब एक तरफ ये बेघर दंगा पीड़ित बदहाल राहत शिविरों में ठण्ड से ठिठुरते हुए रात काटने को मजबूर थे, तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री समेत यूपी की  समाजवादी सरकार सैफई महोत्सव के नाम पर सरकारी पैसे की बर्बादी करने और नाच-गान देखने में मशगुल थी। इस प्रकरण में इस संवेदनहीनता के लिए यूपी सरकार की भारी किरकिरी हुई। इन सब घटनाक्रमों के बाद काफी हद तक स्पष्ट हो गया कि सपा के इस शासन में सिर्फ चेहरा बदला है, सूरत नहीं।
आज सपा शासन को लगभग तीन साल हो गए हैं। ऐसे में यदि यूपी के शासन-प्रशासन पर एक निगाह डालें तो स्थिति अत्यंत विकट नज़र आती है। हालत यह है कि प्रदेश में क़ानून व्यवस्था जैसी कोई चीज दूर-दूर तक नहीं दिखती। अपराध और अपराधियों का ही बोलबाला नज़र आता है। इन बातों को यदि आंकड़ों के जरिये समझने का प्रयास करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सन २०१२ में सपा सरकार के सत्ता में आने के बाद विगत वर्षों के मुकाबले आपराधिक घटनाओं में प्रतिवर्ष केवल वृद्धि हुई है। वर्ष २०१२ में यूपी में हत्या जैसे जघन्य अपराध के ४९६६ मामले सामने आए तो वहीँ २०१३ में इनकी संख्या बढ़कर ५०५७ हो गई। २०१४ में सभी तरह के अपराध मिलाकर लगभग ३४ हजार आपराधिक घटनाएं हुईं। इस वर्ष की बात करें तो शुरुआत के सिर्फ तीन महीनों में ही यूपी में १३०० हत्या के मामले दर्ज किए जा चुके हैं। अभी ये सिर्फ वे मामले हैं जिनकी प्राथमिकी थानों में दर्ज हुई है। अभी जाने कितने मामले ऐसे होंगे जिनमे प्राथमिकी ही दर्ज नहीं हुई। इन आंकड़ों के बाद यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि यूपी में क़ानून का नहीं अपराधियों का राज रह गया है। अब एक तरफ प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की हालत  ऐसी है और दूसरी तरफ प्रदेश सरकार पुलिस प्रशासन में जातीय तुष्टिकरण का तिकड़म भिड़ाने में लगी है। प्रदेश सरकार के इस तुष्टिकरण की चर्चा तो रहती ही थी, लेकिन इस सम्बन्ध बड़ी हलचल तब सामने आई जब  अभी हाल ही में यूपी के बाराबंकी में एक महिला को थाने में थानेदार द्वारा बलात्कार कर जिन्दा जला दिया गया। ये थानेदार साहब यादव जाति के थे। इस मामले में जब प्रदेश सरकार की बहुत किरकिरी होने लगी तो थानेदार को उनके पद से हटाते हुए उनपर हत्या का मुकदमा तो दर्ज हुआ, लेकिन उनकी जगह भगवती प्रसाद यादव यानी फिर एक यादव थानेदार की ही नियुक्ति कर दी गई। इस मामले पर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल बसपा की प्रमुख मायावती द्वारा सपा सरकार पर आरोप लगाया गया कि वे यादव तुष्टिकरण करने में लगे हैं, इसी कारण बाराबंकी मामले में थानेदार को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। यादव तुष्टिकरण के इस आरोप के सम्बन्ध में एक समाचार चैनल की पड़ताल पर गौर करें तो फिलवक्त यूपी के कुल ७५ जिलों के १५२६ थानों में से ६०० थानों पर यादव थानेदार नियुक्त हैं। तिसपर इनमे से कितने  थानेदार तो इतने सिर चढ़े हैं कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों तक की भी नहीं सुनते। कितनों के तो मुलायम और अखिलेश यादव से सम्बन्ध होने की बात सामने आई है। यह भी आरोप लग रहा है कि इन यादव थानेदारों की नियुक्ति के लिए अखिलेश सरकार नियुक्ति के नियमों में ढील दे रही है। इसके अतिरिक्त इसे महज संयोग कहें या तुष्टिकरण का एक और नज़ारा कि प्रदेश पुलिस के वर्तमान महानिदेशक जगमोहन यादव भी यादव जाति के हैं। इन तथ्यों के बाद इस बात से इंकार करने की कोई वजह नहीं है कि राज्य में जातीय तुष्टिकरण हो रहा है। फिलवक्त तस्वीर यही है कि प्रदेश में अपराध अपने उफान पर हैं, जबकि पुलिस व्यवस्था तुष्टिकरण की भेंट चढ़ती जा रही है।
  उत्तर प्रदेश में यह जातीय तुष्टिकरण कत्तई नया नहीं है। आज विपक्ष में बैठकर मायावती भले अखिलेश सरकार पर यादव तुष्टिकरण का आरोप लगा रही हैं, लेकिन यदि अपने गिरेबां में झांकें तो उन्हें मालूम चलेगा कि जब वे शासन में होती हैं तब भी ये तुष्टिकरण तो होता ही है। फर्क इतना होता है कि तब ‘यादव’ की जगह ‘दलित’ लग जाता है। शासन किसीका भी रहे, तुष्टिकरण के कारण सर्वाधिक पिसना प्रदेश की जनता को पड़ता है और फ़िलहाल भी यही हो रहा है। अब प्रश्न यह है कि क्या देश की सर्वाधिक आबादी तथा सर्वाधिक लोकसभा और विधानसभा सीटों वाले सूबे की नियति यही है कि वो तुष्टिकरण के कुचक्र में पिसता रहे ? बहरहाल, उचित होगा कि अखिलेश यादव अब संभल जाएं क्योंकि प्रदेश की जनता ने अपने गुस्से का एक परिचय तो लोकसभा चुनाव में दे ही दिया है, लेकिन फिर भी यदि यही हाल रहा तो संदेह नहीं कि दो वर्ष बाद होने वाले  विधानसभा चुनाव में अखिलेश सरकार का भी वही हश्र होगा जो पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती सरकार का हुआ था। 

शनिवार, 4 जुलाई 2015

केवल ‘मन की बात’ से नहीं बचेंगी बेटियां [नेशनल दुनिया और देशबंधु में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नेशनल दुनिया 
उम्मीद की जा रही थी कि प्रधानमंत्री मोदी २८ जून के अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में ललित मोदी प्रकरण पर कुछ कहेंगे, मगर इसमें उन्होंने मुख्य फोकस महिलाओं पर रखा। उन्होंने कहा कि इस रक्षाबंधन को महिलाओं के लिए ख़ास बनाइये, उन्हें सुरक्षा बीमा योजना भेंट कीजिए। साथ ही, अपने सोशल मीडिया प्रेम के लिए प्रसिद्ध प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया पर ‘सेल्फी विद डॉटर’ डालने की अपील की। प्रधानमंत्री की इन बातों को देखते हुए अनुमान व्यक्त किया जा रहा है कि इस रक्षाबन्धन सरकारी स्तर पर महिलाओं से सम्बंधित विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। अब जो भी हो, पर प्रश्न यह है कि क्या सेल्फी विद डॉटर जैसी प्रतीकात्मक चीजों से देश में महिलाओं की हालत बदल जाएगी या उन्हें सुरक्षा बीमा योजना भेंट करने से उनका उद्धार हो जाएगा ? गौर करें तो आज भी हमारे देश में लड़कियों को जन्म से पहले ही मार देने की मानसिकता काफी हद तक मौजूद है। और यह करने वालों में सिर्फ बौद्धिक स्तर पर पिछड़े व अशिक्षित लोग ही नहीं है, वरन समाज के तथाकथित शिक्षित लोग भी यह दुष्कृत्य को करने से पीछे नहीं हट रहे। अब अगर वे जियेंगी ही नहीं तो फिर कैसी कैसी स्वतंत्रता, कैसे अधिकार और कैसा उच्च जीवन स्तर ? इस समस्या के मद्देनज़र अभी विगत जनवरी महीने में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा देश की बेटियों के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ और ‘सुकन्या समृद्धि’ जैसी योजनाओं की शुरूआत की गई। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना का उद्देश्य जहाँ देश में भ्रूण हत्या को ख़त्म करना है, तो वहीँ सुकन्या समृद्धि योजना के तहत बेटियों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का लक्ष्य निर्धारित है। इन योजनाओं की शुरुआत हरियाणा से की गई, क्योंकि वहां बेटियों पर सर्वाधिक अन्याय-अत्याचार होता है। पर इन योजनाओं के करीब छः महीने बीतने के बाद स्वास्थ्य विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले छः महीनों में हरियाणा के २२ गांवों में एक भी बेटी का जन्म नहीं हुआ है। यह रिपोर्ट दिखाती है कि कन्या भ्रूण हत्या हमारे समाज में कितनी गहरी पैठी हुई है। स्पष्ट है कि बेटियों को लेकर सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं, जबकि जमीनी हकीकत ये है कि उन्हें पैदा तक नहीं होने दिया जा रहा।
देशबंधु 
  बहरहाल, इसी क्रम में कन्या भ्रूण हत्या की रोकथाम के लिए बने कानूनों पर एक नज़र डालें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर अंकुश लगाने के लिए सन १९९४ में 'गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम'  नामक क़ानून बनाया गया, जिसके तहत प्रसव पूर्व लिंग परिक्षण को अपराध की श्रेणी में रखते हुए सजा का प्रावधान भी किया गया। इस क़ानून के तहत लिंग परिक्षण व गर्भपात आदि में सहयोग करने को भी अपराध की श्रेणी में रखा  गया है तथा ऐसा करने पर ३ से ५ साल तक कारावास व अधिकतम १ लाख रुपये जुर्माने की सजा का भी प्रावधान किया गया है। लेकिन इस क़ानून के लागूं होने के तकरीबन २० वर्ष बाद आज कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर कोई विशेष अंकुश लग पाया हो, ऐसा नहीं कह सकते। आंकड़ों पर गौर करें तो २०११ की जनगणना के अनुसार देश में छः साल तक की आबादी में १००० लड़कों पर महज ९१४ लड़कियां ही पाई गईं। ये आंकड़े सिर्फ छः साल तक के बच्चों के हैं। बच्चों में ये लैंगिक असमानता कहीं ना कहीं दिखाती है कि देश में कन्या भ्रूण हत्या किस तरह से चल रही है। कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या आदि के ही संबंध में अभी पिछले वर्ष के आखिर में ही  माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी देश के सभी राज्यों की सरकारों से यह पूछा गया था कि कन्या भ्रूण परिक्षण रोकने की दिशा में अबतक की सरकारों द्वारा क्या और किस दिशा में प्रयास किए गए हैं जिसपर सभी सरकारें तुरंत कुछ भी जवाब नहीं दे पाई थीं। यह देखते हुए एक सवाल ये भी प्रासंगिक हो जाता  है कि राज्य सरकारों के पास इस संबंध में कोई ठोस आंकड़े व जानकारियां होंगी भी या नहीं ?  अब जो भी हो,  पर इतना तो एकदम स्पष्ट है कि कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की रोकथाम को लेकर देश में सरकारी स्तर पर अबतक सिवाय  एक क़ानून बनाने के कोई खास प्रयास नहीं हुआ है। फिर चाहें बात केन्द्र सरकारों की करें या राज्य सरकारों की, इस संबंध में सबके आँख-कान लगभग बंद ही रहे हैं। केन्द्र सरकार ने तो इस इस संबंध में १९९४ में  एक क़ानून बनाकर ही अपने दायित्वों की इतिश्री समझ ली। उसे इस बात की आवश्यकता कभी महसूस नहीं हुई कि एक निश्चित अवधी के उपरांत इस बात की समीक्षा  भी होनी चाहिए थी कि वो क़ानून कितने प्रभावी ढंग से कार्य कर रहा है व उसमे सुधार की कोई गुंजाइश तो नहीं है। रही बात राज्य सरकारों की तो उन्हें भी ऐसे मसलों पर ध्यान देने के लिए फुरसत कहाँ है। निष्कर्ष ये है कि कन्या भ्रूण परिक्षण के मसले पर केन्द्र से लेकर राज्य तक सभी सरकारों का रुख अपेक्षाकृत काफी उदासीन रहा है और इस मसले को लेकर कभी कोई विशेष गंभीरता कहीं नहीं दिखी है।

     अगर विचार करें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की इस विसंगति के मूल में हमारी तमाम सामाजिक रूढियां व परम्पराएं ही हैं। आज के इस आधुनिक व प्रगतिशील दौर में लड़कियां लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, बल्कि कई मायनों में लड़कों से आगे भी हैं। इसमे भी संदेह नहीं कि लड़कियों के इस उत्थान से समाज में उनके प्रति व्याप्त सोच में में काफी बदलाव भी आया है। लेकिन बावजूद इन सबके आज भी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रति अपनी सोच  को पूरी तरह से बदल नहीं पाया है। यह सही है कि इसमें अधिकांश ग्रामीण व अशिक्षित लोग ही हैं, लेकिन शहरी व शिक्षित लोग भी इससे एकदम अछूते नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो कम से कम दहेज जैसी रूढ़ीवादी प्रथा की चपेट में तो भारतीय समाज के शिक्षित-अशिक्षित दोनों तबके बराबर ही हैं। कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या के लिए दहेज की ये रूढ़िवादी प्रथा एक बहुत बड़ा  कारण है। इसी प्रकार और भी तमाम ऐसी सामाजिक प्रथाएँ, कायदे और बंदिशे हैं जो कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराई को उपजाने में खाद-पानी का काम कर रही हैं। इन बातों को देखने पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या आपराधिक प्रवृत्ति से अधिक कुछ सामाजिक कुप्रथाओं के शह से उत्पन्न हुई एक बुराई है। अतः यह भी स्पष्ट है कि इसका समाधान भी सिर्फ क़ानून के जरिए नहीं किया जा सकता। इस बुराई के समूल खात्मे के लिए आवश्यक है कि इसको लेकर सामाजिक स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास किया जाए। केन्द्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वो इस संबंध में शहर से गाँव तक सब जगह जागरूकता कार्यक्रम चलाएँ जिनके जरिए लोगों को यह समझाने का प्रयास किया जाए कि दुनिया में आने से पहले ही एक जान को नष्ट करके वो न सिर्फ अपराध कर रहे हैं, बल्कि देश के भविष्य को भी संकट में डाल रहे हैं। उन्हें लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं जैसी बातों से भी अवगत कराना चाहिए। इन सबके अलावा दहेज आदि सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करने की दिशा में भी कानूनी स्तर से लेकर जागरूकता लाने के स्तर तक ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है। यह सब किया जाय तो निश्चित ही देश की बेटियों को न सिर्फ बचाया जा सकता है, बल्कि एक सम्मानित व स्वतंत्र जीवन भी दिया जा सकता है। अतः यदि प्रधानमंत्री वाकई में महिलाओं की स्थिति को लेकर गंभीर हैं तो इन बातों पर गौर करें और इनके  क्रियान्वयन की दिशा में ठोस कदम उठाएं। केवल ‘मन की बात’ करने से महिलाओं की स्थिति नहीं बदलने वाली।