- पीयूष द्विवेदी भारत
दिविक
रमेश के कविता संग्रह ‘माँ गाँव में है’ की कविताएँ विविध विषयों का
सूक्ष्मतापूर्वक अंतर्निरिक्षण करती हैं। इसमें मन के भावों, बदलते जीवन मूल्यों
से लेकर देश-दुनिया की विविध घटनाओं तक पर केन्द्रित कविताएँ हैं। मोटे तौर पर
कहें तो गाँव से लेकर देश-विदेश तक इस संग्रह की कविताओं का फलक फैला हुआ है। संग्रह
की पहली और शीर्षक कविता ‘माँ गाँव में है’ गाँव और शहर को लेकर दो पीढ़ियों के
दृष्टिकोणों के बीच उपस्थित अंतर को बड़ी ख़ूबसूरती से बयान करती है। कविता की इन
पंक्तियों को देखें – चाहता था/ आ बसे माँ भी/ यहाँ, इस शहर में/ पर माँ चाहती
थी/ आए गाँव भी थोड़ा साथ में/ जो न शहर को मंज़ूर था न मुझे ही – तो समझ सकते
हैं कि माँ-बेटे के माध्यम से कवि ने आज के बदलते परिवेश में अपने मूल यानी गाँव
से कट रहे शहरी समाज का अत्यंत सटीक चित्र पाठक के समक्ष रख दिया है।
दैनिक जागरण |
संग्रह की एक
और कविता ‘दैत्य हँसा’ का भी ज़िक्र करना होगा जिसमें शासन द्वारा किस प्रकार
भावनात्मक प्रपंचों से जनता को मूर्ख बनाकर उसका शोषण किया जाता है, का अत्यंत
रोचक अंदाज़ में वर्णन हुआ है। दैत्य सबको नैतिकता की शिक्षा देता है, तो सब उसे
महान मानने लगते हैं; और उसके कहने पर आग में कूद जाते हैं, तो दैत्य कहता है – कितना
लाजवाब होगा इन मूर्खों का महकता गोश्त/ आज दावत होगी दैत्यों की/ दैत्य हँसता
रहा, हँसता रहा। इन पंक्तियों में हमें भोली-भाली जनता को ठगने वाले शासन के
साथ-साथ दुनिया भर में चंद दहशतगर्दों के इशारे पर आतंक फैलाने वाले युवाओं की
त्रासदी की अंतर्कथा भी दिखाई देती है। कुल मिलाकर लोगों की भावनाओं को आधार बनाकर
उनका जहां और जिस रूप में भी शोषण हो रहा है, उन सबके लिए ये कविता प्रासंगिक है। ऐसे
ही सम्बन्ध, सब मंगलमय है, प्रतिप्रश्न आदि और भी अनेक विषयों पर आधारित कविताएँ
इस संग्रह में मौजूद हैं।
दिविक रमेश की कविताओं में भाषा को लेकर बहुत अधिक
छेड़छाड़ नहीं दिखाई देती। इस संग्रह में भी भाषा सीधी-सरल उर्दू मिश्रित हिंदी है,
जिसमें कथ्यानुसार कहीं-कहीं कुछ देशज शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। शिल्प के स्तर
पर कविताएँ छंदमुक्त और अतुकांत हैं। अन्तर्निहित लय का भी अभाव है। मगर, कविताओं
का कथ्य निस्संदेह आकर्षित और प्रभावित करने वाला है।
आपने मन से लिखा, अच्छा लगा। आभार।
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