शुक्रवार, 23 जून 2017

साक्षात्कार : तेजेंद्र शर्मा [नवभारत टाइम्स में प्रकाशित]



लन्दन में रहने वाले भारतीय मूल के वरिष्ठ कथाकार तेजेंद्र शर्मा जी को उनके हिंदी लेखन के लिए ब्रिटेन की महारानी द्वारा ब्रिटेन के मेंबर ऑफ ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर सम्मान के लिए चुना गया है। इस अवसर पर उनसे उनके व्यक्तित्व कृतित्व से जुड़े विविध पहलुओं पर बातचीत की युवा लेखक पीयूष कुमार दुबे ने।    

सवाल - एक अंग्रेज़ीभाषी देश में हिंदी लेखन के लिए इस बड़े सम्मान हेतु चुने जाने को कैसे देखते हैं आप ?
तेजेंद्र शर्मा - ज़ाहिर है पीयूष, अपने अपनाए हुए देश द्वारा, जो कि अंग्रेज़ी का गढ़ है, अपने हुनर को सम्मानित होते हुए देखकर एक सुखद अनुभूति महसूस होती है। मैं इस सम्मान को केवल अपना निजी सम्मान नहीं मानता। मेरे लिये महत्वपूर्ण यह है कि मेरे माध्यम से हिन्दी साहित्य के लिये एक नया द्वार खुला है। ब्रिटेन की सरकार ने, महारानी ने पहली बार किसी हिन्दी लेखक को उसके हिन्दी साहित्य में अवदान के लिये सम्मानित किया है। इससे पहले केवल सलमान रश्दी, वी.एस. नायपॉल और विक्रम सेठ जैसे अंग्रेज़ी लेखकों की ओर ध्यान रहता था। आज ब्रिटेन के हिन्दी लेखकों के लिये एक नया रास्ता तो बना ही है, इस रास्ते पर अन्य भारतीय भाषाओं यानि कि गुजराती, बंगाली और उर्दू के लेखक भी चल पाएंगे। हालांकि ब्रिटेन की सरकार बंगाली को बांग्लादेश और उर्दू को पाकिस्तान की भाषा मानती है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे ब्रिटिश सांसद, काउंसलर, लंदन असेम्बली सदस्य अब हिन्दी साहित्य के महत्व को समझने लगे हैं। यह सच है कि ब्रिटेन में हिन्दी मातृभाषा वाले लोग बहुत कम हैं, मगर यह भी सच है कि भारतीय मूल के लोगों को जोड़ने का काम हिन्दी और हिन्दी फ़िल्में करती हैं। अब साहित्य को भी अपना महत्व मिला है।

सवाल - ब्रिटेन के इस सम्मान को भारत के पद्म सम्मानों के जैसा ही माना जाता है, लेकिन अभी हिंदी-भाषी भारत में पद्म सम्मान आपको नहीं मिला है. इसपर क्या कहेंगे ?
तेजेंद्र शर्मा – देखिये, भारत में साहित्य बहुत से ख़ेमों में बंटा है। वामपन्थी, दक्षिणपन्थी और ना जाने क्या क्या। बेचारे पद्म सम्मानों पर भी तो उसका असर पड़ेगा ना। मेरी समस्या यह है कि मैं किसी भी राजनीतिक धड़े से नहीं जुड़ा हूं। इसलिये किसी का सग़ा नहीं हूं। और देश से दूर रहने का खामियाज़ा तो भुगतना पड़ेगा ना। मगर यह भी तो सच है कि कोई भी साहित्यकार सम्मानों और पुरस्कारों के लिये नहीं लिखता है। यदि लेखन अच्छा होता रहे, तो सम्मान और पुरस्कार तो स्वयं ही मिलते जाते हैं।  मुझे पूरा विश्वास है कि कभी ना कभी कुछ ऐसे लेखकों को भी याद किया जाएगा, जो बाएं और दाएं दोनों हाथों से काम लेते हैं। साहित्य को विचार के स्तर पर तोला जाए, विचारधारा के दबाव में नहीं।

सवाल - प्रवासी हिंदी साहित्यकारों को लेकर भारत के साहित्यकारों का एक धड़ा एक प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त नज़र आता है। आज आपको यह सम्मान मिला है, जिससे विश्व में हिंदी का मान बढ़ा है... इस अवसर पर उन साहित्यकारों के लिए कुछ कहना बनता है ?
तेजेंद्र शर्मा - सच तो यह है कि अधिकांश भारतीय लेखक अपने गुट विशेष के लेखकों या मित्रों द्वारा लिखी गई रचनाएं ही पढ़ते हैं। वहां एक रिवाज़ है कि बिना पढ़े ही किसी को नकार दिया जाए या चढ़ा दिया जाए। तिरिछ’ लिख कर उदय महान लेखक बन जाता है, मगर दक्षिणपन्थी नेता से पुरस्कार लेने पर दुत्कार दिया जाता है। राजेन्द्र यादव तो प्रवासी साहित्य को कचरा घोषित कर चुके थे। दरअसल लेखन किसी विशेष गांव, शहर या देश में रहने से महान या ख़राब नहीं हो जाता। महत्वपूर्ण बात यह है कि लेखक की सोच के केन्द्र में अपने परिवेश का आम आदमी है या नहीं। अब ब्रिटेन के किसान की समस्याएं भारत के किसान की नहीं हैं। इसलिये ब्रिटेन के किसान को अपनी कहानी के केन्द्र  में लाने के लिये उसके जीवन को नज़दीक से देखना और समझना होगा। 

नवभारत टाइम्स
मेरा किसान आत्महत्या नहीं करता। ठीक वैसे ही मेरे शहर लन्दन के आम आदमी का संघर्ष भारत के आम आदमी से अलग है। मेरा एक लेखक के तौर पर उत्तरदायित्व बनता है कि मैं अपने समाज के आम आदमी का जीवन, बेवक़ूफ़ियां, परेशानियां, दिक्कतें और ख़ुशियां समझने की कोशिश करूं और उसका चित्रण अपने साहित्य में करूं। वही मैं करता भी हूं। राजेन्द्र यादव बड़े इन्सान थे। जब उन्होंने मेरा लेखन ठीक से पढ़ा तो उन्होंने मुझे भारत की मुख्यधारा का लेखक माना और कहा कि मैनें हिन्दी साहित्य को कुछ अछूते और नये विषय दिये हैं। मैं भारत के तमाम साहित्यकारों से केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि बिना पढ़े फ़तवे जारी करके कहीं वे अपने आप को उन मौलवियों के साथ ना खड़ा करलें जो फ़तवे जारी करते रहते हैं।

सवाल - अपने निजी जीवन के बारे में कुछ बताएं ?
तेजेंद्र शर्मा - भाई अब निजी क्या है। जो है, एक खुली किताब है। लन्दन के एक छोटे से फ़्लैट में अकेला रहता हूं। बेटी दीप्ति मुंबई में टीवी कलाकार है और बेटे मयंक और ऋत्विक बड़ी नौकरियां कर रहे हैं। कथा यूके के माध्यम से हिन्दी की गतिविधियां करता हूं और अपने लैपटॉप से साहित्य की रचना। भारत में बहुत से मित्र सहेलियां हैं जो बहुत प्यार देते हैं और मेरे लिये कुछ भी कर गुज़रते हैं। ऐसे ही कुछ मित्र ब्रिटेन में भी हैं। हाँ, आदरणीय ज़किया ज़ुबैरी जी का मार्गदर्शन किसी भी तरह की कठिनाई में भी राह दिखा देता है।

सवाल - आपकी नज़र में फिलहाल हिंदी की वैश्विक स्तर पर क्या स्थिति है और इसके लिए क्या संभावनाएं दिखती हैं ?
तेजेंद्र शर्मा – पीयूष, वैश्विक भाषा बनने से पहले किसी भी भाषा के लिये महत्वपूर्ण है कि वह अपने देश की भाषा बने। भारत में तो हिन्दी भाषा से बोली की ओर की यात्रा पर अग्रसर है, तो भला वैश्विक स्तर पर हम क्या अपेक्षाएं रख सकते हैं। जब तक हिन्दी भारतीय संसद की पहली भाषा नहीं बन जाती और केवल अनुवाद की भाषा बनी रहती है, तब तक मैं वैश्विक स्तर पर उसके लिये कोई भविष्य नहीं देख सकता। हम जैसे दीवाने अपने कामों में लगे रहेंगे, मगर सरकारी स्तर पर कुछ कठोर निर्णय लेने होंगे ताकि हिन्दी पूरी तरह से कारोबार की भाषा बन सके।

सवाल - हिंदी साहित्य, विशेष रूप से हिंदी के कथा साहित्य की समकालीन स्थिति और चुनौतियां क्या हैं ?
तेजेंद्र शर्मा - कथा साहित्य की स्थिति तो बहुत ही संतोषजनक है। आज बहुत सी पीढ़ियां लगातार सक्रिय रूप से लिख रही हैं। यदि एक ओर मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, नासिरा शर्मा सक्रिय हैं तो वहीं अखिलेश, देवेन्द्र, संजीव, तेजिन्दर गगन, सूरज प्रकाश, हरि भटनागर भी लगातार लिख रहे हैं। युवा पीढ़ी या युवा से थोड़ी बड़ी पीढ़ी तो सारगर्भित लेखन कर ही रही है। मैं मनीषा, वंदना राग, अजय नावरिया, विवेक मिश्र, गीताश्री, रजनी मोरवाल, पंकज सुबीर, प्रेम भारद्वाज आदि की कहानियों पर निगाह रखता हूं। वैसे सभी का नाम देना संभव नहीं, मगर मैं नई पीढ़ी से पूरी तरह आश्वस्त हूं कि वे अपना काम सही स्पिरिट में कर रहे हैं।

सवाल - युवा लेखकों के लिए कोई सन्देश ?
तेजेंद्र शर्मा - यदि मैं युवा लेखकों को संदेश दूंगा, तो कहीं मान लूंगा कि मैं वरिष्ठ हो चला हूं और भाई मैं तो बूढ़ा होने को तैयार नहीं (हंसते हुए) फिर भी एक बात तो कहूंगा कि भाई, प्रेमचन्द बनने की जल्दबाज़ी में ना रहो। और यदि प्रेमचन्द बनना भी है, तो अपने लेखन के बल पर बनो। जुगाड़ों से बचो और फ़ेसबुक व्हट्सएप की झूठी तारीफ़ से भी। मुझे बीस साल के बाद कहानीकार के तौर पर पहचान मिलनी शुरू हुई थी। अब लिखते हुए करीब चालीस साल होने जा रहे हैं। सहज पकने दीजिये... जल्दबाज़ी से बचिये।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सहज पके सो मीठा वाकई मेहनत का फल देर से सही लेकिन बढ़िया होता है। बढ़िया साक्षात्कार के लिये पीयूष कुमार बधाई के पात्र हैं। 40 साल अनवरत सफल लेखन के बाद वरिष्ठ कथाकार तो हैं ही जिसमें किसी को भी एतराज नही होगा। लिखते रहिये स्वस्थ रहिये हिंदुस्तान आने पर मिलते भही रहिये। शुभकामनाएं तेजेन्द्र भाई को।

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