सोमवार, 26 जून 2017

निर्माण से पूर्व के नाश की तरह है कश्मीर का उत्पात [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
धरती की जन्नत कहा जाने वाला कश्मीर इन दिनों उन्माद और आतंक का पर्याय बनता जा रहा है। देश के इस राज्य में अलग-अलग रूपों में हिंसा का तांडव मचा हुआ है। शायद ही कोई दिन जाता है, जब यहाँ की ज़मीन खून से लाल नहीं होती हो। हालिया मामला राज्य के नौहट्टा स्थित जामिया मस्जिद का है, जहां नमाज़ अदा करके निकली उन्मादी भीड़ ने मस्जिद के बाहर सुरक्षा इंतजामों के लिए मौजूद डीएसपी अयूब पंडित की निर्ममतापूर्वक पीट-पीटकर हत्या कर दी। उनपर भीड़ के इस हमले के सम्बन्ध में कई तरह की बातें सामने रही है। बताया जा रहा कि नमाज़ अदा करके बाहर निकल रही भीड़ में मौजूद तमाम लोगों द्वारा की जा रही पाकिस्तान समर्थित नारेबाजी की वे रिकॉर्डिंग कर रहे थे। बस इसी कारण भीड़ उनपर चढ़ पड़ी और तबतक पीटती रही जबतक कि उनकी मौत नहीं हो गयी।

एक तथ्य यह भी सामने आया है कि जब अयूब की हत्या की गयी उसवक्त मस्जिद के अंदर अलगाववादी नेता मीरवाइज़ मौजूद था। ऐसा सामने आया है कि आधी रात के वक्त मीरवाइज, मस्जिद के अंदर तकरीर दे रहा था। मस्जिद के बाहर भारी भीड़ जमा थी, जिसने पाकिस्तान और अलकायदा के आतंकवादी जाकिर मूसा के समर्थन में जोर-जोर से नारे लगाने शुरू कर दिए। वहाँ मौजूद लोगों के मुताबिक़, इस दौरान सिविल ड्रेस में ड्यूटी पर तैनात डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित नारेबाजी की विडियो रिकॉर्डिंग कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देखकर भीड़ और उग्र हो गई। अयूब को ख़ुफ़िया एजेंसियों का एजेंट बताते हुए भीड़ उन पर टूट पड़ी। अयूब ने अपनी आधिकारिक पिस्टल से हवाई फायरिंग करते हुए वहां से निकलने की कोशिश की। लेकिन उस भीड़ के आगे उनकी यह कवायद कामयाब नहीं हो सकी।

दैनिक जागरण
बहरहाल, अब चाहें वे भीड़ के उन्माद का शिकार बने हों या सुनियोजित ढंग से उत्प्रेरित भीड़ के आक्रमण का, मगर यह सच्चाई है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए अयूब पंडित को अपनी जान गँवानी पड़ी है। यहाँ कई सवाल उठते हैं। ये भीड़ किस मानसिकता वाले लोगों की है, जो इतने हिंसातुर थे कि कथित तौर पर अयूब का मोबाइल से रिकॉर्डिंग करना तक बर्दाश्त नहीं कर सके और इतने उत्तेजित हो गए कि उनकी जान लेकर माने। इस्लाम में नमाज़ अदा करने को चित्त की शांति का उपक्रम माना गया है, मगर ये भीड़ कौन-सी नमाज़ अदा करके निकली थी कि इसमें शांति के उलट हत्यारी मानसिकता धधक रही थी।

गौर करें तो हाल के दिनों में कश्मीर में भीड़ द्वारा इस तरह की हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने का एक चलन ही चल पड़ा है। कहीं पत्थरबाजों के रूप में लोग सेना पर हमला कर उसके आतंकरोधी अभियान में रुकावट पैदा करने और जवानों को क्षति पहुँचाने की कोशिश करते हैं, तो कहीं अयूब पंडित की तरह अकेले पाने पर किसी सुरक्षाबलों के जवान की निर्मम हत्या कर देते हैं। कश्मीरी लोगों की इस मानसिकता के लिए पाकिस्तान की उत्प्रेरणा से लेकर अलगाववादियों द्वारा उनके मन में भरी गयी भारत के लिए नफरत जैसे कई कारणों की चर्चा संसद से लेकर नुक्कड़ तक होती रहती है। मगर, सवाल यह उठता है कि यदि समस्या का भान है, तो इसका कोई ठोस समाधान क्यों नहीं किया जा रहा ? सरकार हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी है ? हालांकि एक हद तक सच्चाई यह भी है कि कश्मीर में सेना द्वारा संचालित अभियान समाधान की कोशिश के तहत ही है।

आंकड़े यह बताते हैं कि हाल के दो-तीन महीनों में कश्मीरी युवाओं ने अलगाववादियों की अपील को दरकिनार कर सेना पुलिस में भर्ती होने के प्रति अपेक्षाकृत अधिक उत्साह दिखाया है, तो वहीं दूसरी तरफ यह भी एक तस्वीर दिख रही कि इसी दौरान राज्य में पत्थरबाजी और सुरक्षाबलों के प्रति भीड़ के हिंसात्मक प्रतिरोध  में भी इजाफा हुआ है। दरअसल इन दोनों विपरीत स्थितियों से बहुत चकित होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इनके ज़रिये कश्मीर के जनमानस को समझने की आवश्यकता है। सीधा संकेत यह है कि कश्मीर की आबादी का एक बड़ा वर्ग विकास की मुख्यधारा में शामिल होना चाहता है और धीरे-धीरे भारत के निकट रहा है। मगर, वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो पाक-प्रेरित अलगाववादियों के झाँसे का शिकार होकर सुरक्षाबलों से लड़ रहा है। इसलिए कश्मीर की इस स्थिति को लेकर किसी प्रकार के सरलीकरण से बचते हुए इन दोनों से आवश्यकतानुसार अलग-अलग ढंग से निपटने की आवश्यकता है। सरकार और कश्मीर में तैनात सुरक्षाबल कमोबेश इसी ढंग से निपट भी रहे हैं। हमारे जवान जहां हमला करने वालों को उन्हिकी भाषा में जवाब दे रहे, तो आम कश्मीरी लोगों की सुरक्षा भी सुनिश्चित कर रहे। इसके अलावा राज्य में कोई आपदा आने पर तो वे बिना किसी भेदभाव के जी-जान से कश्मिरिर्यों की मदद को उतर पड़ते हैं। बचाव कार्यों में जुट जाते हैं। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य बस इतना है कि हमारे जवान कश्मीर मामले को जितने बेहतर ढंग से संभाले हुए हैं, उससे बेहतर ढंग से इस अशांत और सीमावर्ती राज्य को वर्तमान परिस्थितियों में शायद ही कोई संभाल सकता है। इसके बावजूद ये जो उत्पात राज्य में मचा हुआ है, उसे एक हद तक निर्माण से पूर्व होने वाले नाश के रूप में देखा जा सकता है।

स्पष्ट है कि सेना यथासंभव सही ढंग से कश्मीर के हालातों से निपट रही है, मगर यह चीज देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों और विचारधारा विशेष के बुद्धिजीवियों को रास नहीं रही। दरअसल कश्मीर इनके लिए हमेशा राजनीतिक तुष्टिकरण को साधने का एक आसान जरिया रहा है। बस इसलिए सेना के सही दिशा में बढ़ते क़दमों का ये आँख मूंदकर विरोध करने और जवानों को गलत ठहराने में लगे हैं। पत्थरबाजों से निपटने के लिए सेना के एक जवान ने एक पत्थरबाज को जीप के आगे बाँध दिया था, तब देश जहां इस रणनीति के लिए उस जवान की प्रशंसा कर रहा था, वहीं ये तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल इसे सेना की तानाशाही बताने में लगे थे।

अयूब पंडित के मामले को ही लें तो प्रख्यात वाम नेत्री वृंदा करात ने इसमें अलगाववादी नेता मीरवाइज को एकदम पाक साफ़ बता दिया तथा हिंसा करने वाली भीड़ से बातचीत की वकालत भी कर दी। ऐसे ही, वे बुद्धिजीवी जो कभी भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या पर असहिष्णुता की ढोल पीटने में लगे थे, अयूब पंडित की हत्या पर खामोशी की चादर ओढ़े हुए हैं। कारण कि उस भीड़ के मज़हब और अयूब पंडित को मारने वाली भीड़ के मज़हब में अंतर है। तभी तो ये कश्मीर में हुई हत्या की वारदात को कभी कथित गो-रक्षकों की हिंसा से तो कभी इखलाक के मामले जैसा बताने में लगे हैं, मगर हत्या करने वाली भीड़ के खिलाफ इनके मुंह से कुछ नहीं निकल रहा। ये समस्या से ध्यान भटकाने की कवायद भर है। अतः इनपर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें