मंगलवार, 4 जुलाई 2017

भारत के बढ़ते प्रभाव से बौखलाया चीन [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर खिटपिट कोई नयी बात नहीं है, मगर इसबार चीन ने सिक्किम में जो किया है, उसे मामूली नहीं कह सकते। पहले चीन ने सीमा पर मौजूद भारतीय सेना के बंकरों को क्षति पहुंचाई, फिर अब उलटे भारत से वहाँ सेना वापस बुलाने की मांग कर रहा है। चीन का कहना है कि भारत जबतक सीमा पर से अपनी सेना को वापस नहीं बुला लेता तबतक सीमा विवाद को लेकर आगे कोई बात नहीं होगी। समझा जा सकता है कि चीन की स्पष्ट मंशा सीमा विवाद को उलझाने और फ़िज़ूल में भारत को परेशान करने की है।

दरअसल चीन इस समय भारत पर कई कारणों से भीतर-भीतर बौखलाया हुआ है। पहली चीज कि भारत ने केवल उसकी महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड परियोजना का विरोध किया, बल्कि उसके जवाब में जापान के साथ मिलकर उसीके टक्कर की एक परियोजना पर बढ़ने की दिशा में चर्चा भी करने लगा है। इसके अलावा निरंतर रूप से बढ़ती भारत की सैन्य-शक्ति तथा वैश्विक हस्तक्षेप भी चीन को परेशान किए हुए है। इन सब चीजों की खीझ वो सिक्किम सीमा पर गतिरोध पैदा कर और कैलास के यात्रियों को रोककर निकाल रहा है।

दैनिक जागरण
बहरहाल, सीमा पर बनी इस तनावपूर्ण स्थिति के मद्देनज़र भारतीय थल सेना प्रमुख बिपिन रावत सिक्किम पहुंचे हैं, तो चीन ने सेना प्रमुख के कुछ समय पूर्व दिए गए एक युद्ध सम्बन्धी बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर अपनी बौखलाहट ज़ाहिर की है। गौरतलब है कि जून महीने की शुरुआत में सेना प्रमुख ने जवानों का हौसला बढ़ाते हुए कहा था कि भारतीय  सेना एक साथ ढाई युद्ध (एक चीन, एक पाकिस्तान और आधा अंदरूनी खतरों) करने में सक्षम है। चीन ने इसी बयान पर अब प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि भारत इतिहास से सबक ले और युद्ध का शोर मचाना बंद करे। हालांकि भारत ने अभी सार्वजनिक रूप से चीन की इन सब हरकतों पर कोई खुली प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। लेकिन, सेना प्रमुख का सिक्किम दौरा कहीं कहीं चीन को सन्देश देने वाला है कि वो 62 के नशे से बाहर आए, क्योंकि यह तो 1962 का भारत है और ही भारत की सेना। सरकार भी नेहरू की नहीं है, जोहिंदी-चीनी भाई-भाईकी बंधुता के नारे में डूबकर चीन के झांसे में गए थे। आज सबकुछ बदल चुका है, इसलिए चीन को भी भारत के प्रति अपना नजरिया बदल लेना चाहिए। अब चीन अगर भारत की तरफ आँख उठाने की कोशिश करेगा तो उसे उसीकी भाषा में माकूल जवाब मिलेगा।

चीन को चाहिए कि वो भारत को इतहास याद दिलाने की बजाय वर्तमान स्थितियों पर नज़र दौड़ाए, तो उसे दिखाई देगा कि ये वो भारत है, जिसने म्यांमार में घुसकर आतंकियों से बदला लिया, तो वहीँ चीन के प्यारे पाकिस्तान के कब्ज़ाकृत कश्मीर में जाकर सर्जिकल स्ट्राइक कर डाली; ये वो भारत है, जिसके स्वागत के लिए परस्पर रूप से विकट प्रतिद्वंद्वी अमेरिका और रूस दोनों बराबर सम्मान के साथ तत्पर रहते हैं; ये वो भारत है, जिसके साथ चीन का प्रतिदंद्वी जापान हर स्तर पर सम्बन्ध बढ़ाने के लिए बेचैन है और आखिर में ये वो भारत है, जो अपनी युवा आबादी के दम पर आने वाले दशक में चीन समेत दुनिया के अनेक देशों की तकदीर तय करने की सामर्थ्य से युक्त और आने वाले दशक में विश्व का केंद्र बिंदु होगा। अतः उचित होगा कि चीन 1962 के नशे से बाहर आते हुए इन बातों पर नज़र दौड़ाए और आज की हकीकत को स्वीकार करे। आज के भारत को अगर वह 62 का भारत समझ रहा है, तो ये उसकी बहुत बड़ो भूल है।  
अब सवाल ये है कि आखिर चीन इतना उद्दण्ड कैसे हो गया है कि हमारी ही जमीन पर से हमारे ही जवानों, हमारे ही लोगों को हटाने की बात कह रहा है ? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें इतिहास में झांकना पड़ेगा। क्योंकि यदि आज चीन इतना उद्दण्ड हो रहा है तो इसके लिए कहीं कहीं नेहरू के समय से चली रही उसके प्रति हमारी रक्षात्मक नीतियां ही सर्वाधिक  जिम्मेदार हैं।  इतिहास गवाह है कि १९५७ में पं जवाहर लाल नेहरू द्वारा चीन के साथ पंचशील नामक एक शांति समझौता किया गया था, जिसे चीन ने तत्कालीन दौर में भी कभी नही माना। बावजूद इसके शांतिप्रिय नेहरूहिंदी-चीनी भाई-भाईका अपना काल्पनिक नारा तबतक रटते रहे, जबतक कि हमने ६२ के युद्ध में हजारों जांबाज सैनिकों को नही खो दिया और पराजय का दंश झेलने को विवश नही हो गए। इस युद्ध से जुड़ी अत्यंत गोपनीय हैंडरसन ब्रुक्स-भगत रिपोर्ट २०१४ में सामने आयी, जिसमें मौजूद तथ्यों ने इस बात को पूरी तरह से पुख्ता कर दिया कि इस युद्ध में भारत की पराजय का मुख्य कारण चीन के प्रति नेहरू का लापरवाह और रक्षात्मक रवैया था। हालांकि मोदी सरकार के आने के बाद से चीनी घुसपैठ आक्रामकता में पूर्व की अपेक्षा कुछ कमी अवश्य आई है, मगर सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं है। हमें चीन को बराबर जवाब देने के लिए चीन से सटे अपने सीमा क्षेत्रों में आधारभूत ढांचा दुरुस्त करना होगा, जिस दिशा में काम हो रहा है, मगर उसे और गति दिए जाने की ज़रूरत है। साथ ही, सैन्य साजो-सामान में खरीद पर से निर्भरता कम से कम करने और स्वनिर्माण क्षमता के विकास पर भी बल दिए जाने की आवश्यकता है। हम शक्तिशाली हुए हैं, मगर हमें अपनी शक्ति को और बढ़ाने की दिशा में लगातार बढ़ते रहना होगा।

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