शुक्रवार, 30 मई 2014

मोदी-शरीफ मुलाकात के मायने [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जिस तरह से अपने शपथग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया, वो सिर्फ शपथग्रहण की मेहमाननवाजी के शिष्टाचार तक सीमित आमंत्रण नहीं था, बल्कि बेहद सूझबूझ और दूरगामी सोच के तहत लिया गया एक कूटनीतिक निर्णय भी था । उसपर पड़ोसी देश पाकिस्तान जिससे फ़िलहाल भारत के संबंध काफी हद तक उदासीन अवस्था में हैं, के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित करना और उनका आमंत्रण स्वीकारते हुए भारत आना तो और भी बेहतर संकेत देता है । नवाज शरीफ के भारत आने को कई रूपों में देखा जा सकता है । सबसे पहले तो शरीफ को आमंत्रित करके नरेंद्र मोदी ने खुद के प्रति पाकिस्तान के मन में बैठी उस दुर्भावना जो चुनाव के दौरान पाकिस्तानी नेताओं व मीडिया के वक्तव्यों में साफ़-साफ़ दिखी थी, को दूर करने का प्रयास किया । दूसरे इस निमंत्रण के जरिए वे देश को भी ये संदेश देना चाहते होंगे कि वे भी अटल बिहारी वाजपेयी की तरह ही उदारवादी और शांति के समर्थक हैं । हालांकि कुछ ख़बरों के अनुसार पाकिस्तानी सेना समेत आईएसआई का भी नवाज शरीफ पर काफी दबाव था कि वे भारत न जाएँ, लेकिन इन सभी दबावों व हाँ-ना की तमाम अटकलों के बावजूद आखिर नवाज शरीफ ने भारत आने को ही उचित समझा । अब अगर नवाज शरीफ के भारत आने के राष्ट्रीय प्रभावों पर एक नज़र डालें तो शरीफ के इस आगमन से पिछली यूपीए-२ सरकार के दौरान मृतप्राय हुए दोनों देशों के संबधों में कुछ हरकत होने की संभावना दिख रही है । दरअसल, पिछली सरकार के दौरान हम न तो पाकिस्तान से ठीक ढंग से दोस्ती ही स्थापित कर सके और न ही उसकी आर्मी द्वारा की गई सीजफायर उल्लंघन, सैनिकों के सिर काटने जैसी घटिया हरकतों का जमीनी या अन्य किसी भी स्तर पर कोई ठोस जवाब ही दे सके । पिछली सरकार कभी पाकिस्तान को लेकर नरम हो जाती, कभी कुछ जुबानी सख्ती दिखाती तो कभी कुछ भी नहीं बोलती । यूपीए सरकार की पाकिस्तान के प्रति अधिकाधिक सख्ती यही होती थी कि वो भारत-पाकिस्तान के  क्रिकेट पर रोक लगा देती थी । कुल मिलाकर कहने का आशय ये है कि यूपीए सरकार के पास पाकिस्तान को लेकर कोई ठोस नीति नहीं थी जिसपर अमल करके पाकिस्तान से बातचीत की जा सके । परिणामतः बीती सरकार के दौरान भारत-पाकिस्तान संबंधों में राजनीतिक स्तर पर एकदम शिथिलता आ गई और दोनों देशों के बीच मौजूद समस्याएं जस की तस बनी रहीं । लेकिन, अब मोदी सरकार आने के पहले ही दिन जिस तरह से दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाकात हुई है, उससे भविष्य के लिए काफी बेहतर संकेत मिलते हैं । इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि आज भारत-पाकिस्तान के बीच कई ऐसी बड़ी समस्याएं हैं, जो इनके संबंधों को अक्सर प्रभावित करती रहती हैं । इन समस्याओं में कश्मीर समस्या, सर क्रीक व सियाचिन सीमा विवाद, पाकिस्तान द्वारा सीजफायर का उल्लंघन, पाकिस्तान की जमीन से संचालित भारत विरोधी आतंकवादी गतिविधियां समेत मुंबई हमले के दोषियों का प्रत्यर्पण आदि प्रमुख हैं । अब जबकि भारत में विशुद्ध रूप से गैरकांग्रेसी विचारधारा की सरकार गठित हो चुकी है, तो ऐसे में काफी संभावना दिखती है कि इन सभी समस्याओं पर पाकिस्तान से एक अलग नज़रिए से न सिर्फ बात होगी, बल्कि निकट भविष्य में इनके समाधान की दिशा में भी कुछ ठोस कदम उठाए जाएंगे ।
  महात्मा गाँधी ने कभी कहा था कि हम पड़ोसी चुन नहीं सकते, लेकिन अच्छे दोस्त जरूर बना सकते हैं । यहाँ भी यही स्थिति है । पाकिस्तान चाहें जैसा भी हो, हमारा पड़ोसी वही है । न सिर्फ पाकिस्तान से संबंध बेहतर होना, बल्कि पाकिस्तान में शान्ति होना भी भारत की प्रगति के लिए आवश्यक है । क्योंकि, पाकिस्तान में कुछ भी गलत होने पर पड़ोसी होने के कारण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसका प्रभाव भारत पर पड़ना निश्चित है । इन्ही सब कारणों से पाकिस्तान की तरफ से बार-बार विश्वासघात मिलने के बावजूद भारत अपनी तरफ से शान्ति और मधुर संबंधों के लिए प्रयासरत रहता आया है । इसी क्रम में उल्लेखनीय होगा कि नरेंद्र मोदी के विषय में हम जानते हैं कि वे उद्योग और व्यापार को लेकर बेहद संजीदा रहने वाले नेता हैं । उनका बहु प्रशंसित गुजरात मॉडल भी इन्हीं चीजों की बुनियाद पर खड़ा हुआ है । लिहाजा, अब ये उम्मीद की जा सकती है कि नरेंद्र मोदी भारतीय व्यापार जगत के लिए पाकिस्तान को एक बड़े बाजार के रूप में खोलने के लिए भी प्रयास करेंगे जिससे दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंधों में मजबूती आ सके । अगर ऐसा हो जाता है तो काफी संभावना है कि बाकी समस्याएं भी धीरे-धीरे सुलझ ही जाएंगी । क्योंकि, व्यापार संबंध मजबूत होने की स्थिति में दोनों ही देशों की आर्थिक लाभ-हानि एक दुसरे से प्रभावित होने लगेगी, अतः इन दोनों में से कोई भी देश अन्य किसी विवाद के कारण व्यापारिक गतिविधियों पर विराम नहीं चाहेगा । ऐसे में दोनों देशों की ये लगभग विवशता हो जाएगी कि वे अपने संबंधों में दरार न पड़ने दें । हालांकि, ये सब चीजें अभी काफी दूर की कौड़ी हैं, लेकिन फ़िलहाल इतना हो तो बहुत है कि दोनों देशों के संबंधों में एक सकारात्मक गति आए । अभी नवाज शरीफ के भारत आने से पहले जिस तरह से पाकिस्तान द्वारा १५१ गिरफ्तार भारतीय मछुआरों को रिहा किया गया है, उससे फ़िलहाल तो यही संकेत मिलते हैं कि पाकिस्तान भी चाहता है कि अब भारत की इस नई सरकार के साथ मिलकर दोनों देशों के बीच शांति और सौहार्द स्थापित किया जाए  । 

बुधवार, 21 मई 2014

क्षेत्रीय दलों के लिए आत्ममंथन का दौर [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के लोकतांत्रिक महापर्व यानी लोकसभा चुनावों का समापन हो चुका है । इस लोकसभा चुनाव जहाँ न सिर्फ एनडीए को, बल्कि खुद भाजपा को भी पूर्ण बहुमत मिला है, वहीँ देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का दम भरने वाली कांग्रेस को विपक्ष में बैठने लायक सीटें भी हासिल नहीं हो सकी हैं । बेहद चौंकाने वाले ढंग से कांग्रेस मात्र ४४ सीटों पर सिमटकर रह गई है, जो कि विपक्ष में बैठने के लिए आवश्यक ५५ सीटों से काफी कम है । पर कांग्रेस के इस पतन से भी अधिक चौंकाने वाली बात यह रही है कि इस चुनाव में जया ललिता और ममता बनर्जी जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश क्षेत्रीय दलों का जनाधार भी सिमटता नज़र आया है । यूपी, बिहार, महाराष्ट्र समेत और भी कई राज्यों के वो क्षेत्रीय दल जिनका वर्चस्व अपने-अपने राज्य में हुआ करता था, इस लोकसभा चुनाव में एक-एक सीट के लिए संघर्ष करते नज़र आए हैं । यूपी में मुलायम, मायावती से लेकर नीतीश, लालू तथा शरद पवार, आदि सभी के दलों के प्रदर्शन का स्तर पहले की तुलना में अत्यंत नीचे आया है । यूपी की अस्सी लोकसभा सीटों में से इस चुनाव में जहाँ मुलायम सपा को मात्र पाँच सीटें मिलीं, वहीँ मायावती की बसपा का तो खाता भी नहीं खुल सका । कुछ यही हालत बिहार में भी देखने को मिली । यहाँ की ४० सीटों में से लालू की राजद को जहाँ मात्र ४ सीटों से संतोष करना पड़ा, वहीँ सुशासन बाबू के नाम से मशहूर नीतीश की जेडीयू के हाथ मात्र दो ही सीटें आईं आई । हालांकि भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के कारण रामबिलास पासवान की लोजपा ने बिहार  में छः सीटें जरूर हासिल की, लेकिन इसे उनका नहीं मोदी लहर का प्रभाव ही कहा जाएगा । महाराष्ट्र में भी एनसीपी, मनसे आदि क्षेत्रीय दलों की लालू-मुलायम जैसी ही हालत  हुई है, लेकिन भाजपा के साथ चुनाव लड़ने के कारण शिवसेना ने १८ सीटों पर जीत हासिल कर ली है । जाहिर है कि इसमें भी मोदी इफेक्ट ने ही काम किया, वरना शिवसेना का इतनी बड़ी जीत हासिल करना कहीं से मुमकिन नहीं था । इन सभी बातों से जो एक निष्कर्ष निकल कर आता है, वो ये कि इस लोकसभा चुनाव जनता ने जाति-धर्म-क्षेत्र आदि से ऊपर उठकर मुद्दों पर मतदान किया है । बस यही कारण है कि जाति-धर्म आदि की राजनीति के सहारे वोट पाने वाले इन तमाम क्षेत्रीय दलों का अपने ही गढ़ में सूपड़ा साफ़ हो गया है । कहना गलत नहीं होगा कि यही वो समय है जब इन क्षेत्रीय दलों को इस बात पर आत्ममंथन करना चाहिए और ये समझना चाहिए कि अब जाति-धर्म-क्षेत्र आदि के सहारे वोट नहीं पाया जा सकता । अब जनता अधिकाधिक रूप से जागरूक हो रही है और वो महंगाई, भ्रष्टाचार जैसी चीजों से पीड़ित है, इसलिए वो उसे ही वोट करेगी जो इन चीजों के समाधान की बात करे, न कि कि जाति-धर्म की राजनीति में ही उलझा रहे ।
डीएनए 
 दरअसल, भारतीय राजनीति में खंडित जनादेश मिलने और गठबंधन सरकार के उद्भव के बाद से क्षेत्रीय दलों के शीर्ष नेताओं की तरफ से ब्लैकमेलिंग की राजनीति की शुरूआत की गई ब्लैकमेलिंग की राजनीति का मतलब है कि जाति-पाति, क्षेत्र, भाषा आदि की राजनीति के द्वारा अपने क्षेत्र में कुछ सीटें निकाल लो और फिर केन्द्र में बनने वाली सरकार को समर्थन देने के बदले अपने लिए केन्द्र सरकार में कोई मलाईदार मंत्रालय या केन्द्र सरकार से अन्य किसी तरह का कोई लाभ ले लो । मुलायम सिंह यादव का देश का रक्षा मंत्री बनना हो या लालू-ममता का रेल मंत्री या अन्य कई छोटे-बड़े क्षेत्रीय नेताओं का केन्द्र में कोई बड़ा मंत्री बनना आदि तमाम ऐसे उदाहरण हैं, जो कि क्षेत्रीय दलों की ब्लैकमेलिंग की इस राजनीति को उजागर करते हैं । हालांकि ब्लैकमेलिंग की ये राजनीति केवल क्षेत्रीय दलों तक ही सीमित नहीं रही, बीती यूपीए सरकार के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा भी सीबीआई के भय के जरिए क्षेत्रीय दलों के नेताओं को समर्थन देने के लिए ब्लैकमेल किया जाने लगा । बीती यूपीए सरकार को लाख भला-बुरा कहने के बावजूद माया-मुलायम का इसे बाहर से समर्थन दिए रहना, इस ब्लैकमेलिंग की राजनीति का ही एक लक्षण था । माया-मुलायम दोनों पर ही सीबीआई की तलवार लटक रही थी, जो कि केन्द्र सरकार के हाथों में है । ऐसे में समर्थन देने के बदले इनको सीबीआई जांच से राहत दी गई थी । कुल मिलाकर ब्लैकमेलिंग की इस राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र का बहुत नुकसान किया है । इस राजनीति के चलते जन और तंत्र के बीच अविश्वास की एक खाई तो पैदा हुई ही है, अनावश्यक असहमतियों के कारण तमाम आर्थिक निर्णयों में भी समय दर समय अवरोध उत्पन्न हुआ है, जिस कारण आज देश की अर्थव्यवस्था डावाडोल हो रही है । बहरहाल, संभवतः उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए ही इस लोकसभा चुनाव में जनता ने न सिर्फ क्षेत्रीय दलों को सिरे नकार दिया, बल्कि स्थिर सरकार के लिए एक दल अर्थात भाजपा को अकेले पूर्ण बहुमत भी दे दिया । अब तो क्षेत्रीय दलों को ये स्वीकारना चाहिए कि अब कहीं भी, किसी भी दल का, कोई भी अपना मतदाता नहीं रह गया है, बल्कि अब हर मतदाता देश का है और उसका मत देश की प्रगति और सुरक्षा को समर्पित है । लिहाजा क्षेत्रीय दलों को अगर अपनी ये खिसकती जमीन बचानी है तो वे जाति-धर्म और ब्लैकमेलिंग की राजनीति से ऊपर उठें और विकास के लिए काम करें, अन्यथा उनके बचने का अब कोई उपाय नहीं है ।

बुधवार, 14 मई 2014

चुनौतियों से घिरी नई सरकार [डीएनए में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत
डीएनए

तमाम राजनीतिक उठापटक और जद्दोजहद के बाद आख़िरकार देश में लोकतंत्र का महापर्व कहे जाने वाले आम चुनाव के मतदान के सभी चरण सफलता पूर्वक संपन्न हो गए । अब आगामी १६ तारीख को परिणाम भी आ जाएंगे और तकरीबन ये साफ़ हो जाएगा कि अब केन्द्र में किसकी सरकार बनेगी । इन सबके बीच एक बात गौर करने लायक है कि केन्द्र में चाहें किसीकी भी सरकार बने, वर्तमान यूपीए-२ सरकार उसके लिए चुनौतियों का जखीरा छोड़ के जा रही है, जिनसे पार पाना आगामी सरकार के लिए कत्तई आसान नहीं होगा । इसमें कोई दोराय नहीं कि यूपीए २ सरकार ने अपने पाँच साल (यूपीए १ को छोड़ कर) के कार्यकाल में सिवाय चौतरफा नाकामियों के और कुछ नहीं हासिल किया है । अर्थव्यवस्था, क़ानून व्यवस्था, आतंरिक व वाह्य सुरक्षा, विदेश व रक्षा नीति, इत्यादि सभी मोर्चों पर मौजूदा सरकार पूरी तरह से विफल रही है । उसपर इस सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार अपने चरम पर रहा है । सीडब्लूजी घोटाले से लेकर २जी तथा कोयला घोटाला तक एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचार के कारनामे  इस सरकार के मंत्रियों द्वारा अंजाम दिए गए हैं । इन चीजों के कारण इस सरकार ने जनता के बीच न सिर्फ अपनी साख गँवाई है, बल्कि देश को चौतरफा मुसीबतों के बीच लाकर खड़ा भी कर दिया है । ऐसे में १६ मई को चुनाव परिणाम आने के बाद यूपीए, एनडीए या चाहें जिस दल या गठबंधन की सरकार केन्द्र में आए, उसका सामना सीधे-सीधे इन चुनौतियों से होना तय है ।
   इसी संदर्भ में अगर नई सरकार की कुछ प्रमुख चुनौतियों पर एक नज़र डाले तो नई सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की होगी । इसके अंतर्गत देश का राजकोषीय घाटा जो मौजूदा सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण आज आसमान छू रहा है, को नियंत्रित करना तथा डॉलर के मुकाबले रूपये की हालत में सुधार लाना आदि प्रमुख है । अब चूंकि, इस चुनाव अपने-अपने घोषणापत्र में कांग्रेस, भाजपा आदि सभी दलों ने एक से बढ़कर एक लोक लुभावने वादे किए हैं । ऐसे में नई सरकार के लिए देश की इन आर्थिक चुनौतियों से निपटते हुए अपने घोषणापत्र में किए वादों को पूरा करने के लिए धन-प्रबंधन करना भी कत्तई आसान नहीं होगा । इसके अलावा आगामी सरकार की  दूसरी सबसे बड़ी चुनौती भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा रुख रखते हुए उसके रोकथाम के लिए कुछ ठोस कदम उठाने व व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की होगी । देश की आतंरिक व वाह्य सुरक्षा के लिए ठोस नीतियां बनाना व उन्हें अमलीजामा पहनना भी नई सरकार के लिए बेहद चुनौती पूर्ण कार्य होगा । आतंरिक सुरक्षा के मसले पर हमेशा की तरह नक्सल समस्या प्रमुख है । मौजूदा यूपीए सरकार की नीतियां नक्सलियों के रोकथाम में पूरी तरह से विफल रही हैं । ये सरकार न तो नक्सलियों से बातचीत के जरिए ही कुछ कर सकी है और न ही सशस्त्र कार्रवाई के द्वारा ही उनपर कोई विशेष नियंत्रण स्थापित करने में सफल हो सकी है । परिणामतः देश के नक्सल प्रभावित इलाकों के हालात अब भी जस के तस ही हैं । ऐसे में नई सरकार के लिए ये बड़ी चुनौती होगी कि वो नक्सलियों के प्रति क्या रुख रखती है और इस समस्या से किस नीति के तहत निपटती है । अब बात वाह्य सुरक्षा की तो यहाँ भी वर्तमान सरकार नाकाम और लाचार ही नज़र आती है । कभी चीनी सैनिक हमारी सीमा में घुस आते हैं तो कभी पाकिस्तानी सैनिक हमारी सीमा में आकर हमारे सैनिकों का सिर काट के ले जाते हैं और इन सब पर मौजूदा सरकार कुछ ठोस कदम उठाने की बजाय ढुलमुल रवैया ही अपनाती रही है । इस सरकार की ढुलमुल नीतियों के कारण हालत ये है कि आज चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश हमारी वाह्य सुरक्षा के लिए बेहद खतरा बन चुके हैं । इसके अलावा आतंकवाद भी वाह्य सुरक्षा से ही जुड़ा हुआ विषय है । लिहाजा नई सरकार के लिए पाकिस्तान-चीन समेत आतंकवाद से निपटने पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए देश की वाह्य सुरक्षा सुनिश्चित करने सम्बन्धी कोई ठोस नीति निर्धारित करना भी एक बड़ी चुनौती होगा । नई सरकार ही एक और बड़ी चुनौती कमजोर और खोखली हो रही भारतीय सेनाओं के आधुनिकीकरण की भी होगी । भारत की तीनों सेनाएं आज आवश्यक हथियारों व उपकरणों के अभाव से जूझ रही है । अब चूंकि, भारतीय सेनाओं के हथियारों आदि की अधिकाधिक आपूर्ति विदेशों से आयात के द्वारा होती है, लेकिन मौजूदा सरकार के दौरान कुछ तकनीकी दिक्कतों तो कुछ आपसी मतभेदों के कारण तमाम रक्षा सौदे लंबित पड़े रहे हैं । इस कारण आज हालत ये है कि हमारी थल सेना के पास पर्याप्त गोले बारूद तक नहीं हैं, नौ सेना के पोत तकनीकी खराबियों के कारण आए दिन डूब जा रहे हैं और खराबियों के चलते ही वायु सेना के जहाजों का  क्रेश होना भी सामान्य सी बात हो गया है । ऐसे में नई सरकार के लिए ये अत्यंत चुनौतीपूर्ण होगा कि वो भारत की ढाल हमारी सेनाओं को किस तरह से और कितनी शीघ्रता से सशक्त बनाती है । इनके अलावा भ्रष्टाचार और महंगाई पर नियंत्रण, सरकारी काम-काज की सुस्ती को खत्म करना, रोजगार के अवसर पैदा करना तथा महिला सुरक्षा आदि तमाम और भी ऐसी चुनौतियाँ हैं, जिनसे आगामी सरकार को रूबरू होना पड़ेगा । इन चुनौतियों के बीच ही नई सरकार चाहें वो किसी भी दल की हो, के लिए महत्वपूर्ण होगा कि वो अपने घोषणापत्र में किए वादों को कैसे पूरा करती है । साफ़ है कि १६ मई के बाद बनने वाली संभावित नई सरकार के लिए सत्ता सम्हालने के बाद जन भावनाओं पर खरा उतरना कत्तई आसान नहीं रहने वाला । लिहाजा ये देखना दिलचस्प होगा कि वो कैसे इन चुनौतियों से पार पाती है और जनता की उम्मीदों को पूरा करती है ।

गुरुवार, 8 मई 2014

भ्रष्टाचार पर न्यायालय का एक और वार [अमर उजाला कॉम्पैक्ट और आईनेक्स्ट इंदौर में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

अभी हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने एक ऐतिहासिक फैसले में वरिष्ठ नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के पूर्व सरकार से अनुमति लेने संबंधी ‘दिल्ली पुलिस इस्टेबलिशमेंट’ क़ानून की धारा ६-ए को असंवैधानिक व भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाली प्रवृत्ति से प्रेरित बताते हुए खारिज कर दिया गया । सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि भ्रष्टाचार निवारण क़ानून के तहत अपराध की जांच के मकसद से अधिकारियों को कत्तई वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, छोटा-बड़ा कोई भी अधिकारी हो, सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए । इसलिए हम धारा ६-ए को अवैध और संविधान के अनुच्छेद १४ का हनन करने वाली घोषित करते हैं । न्यायालय ने ये भी कहा कि धारा ६-ए के तहत जांच से पहले अनुमति लेना अप्रत्यक्ष तौर पर जांच में बाधा डालने जैसा है । सन २००३ में न्यायालय द्वारा धारा ६-ए को एकबार पहले भी खत्म किया गया था, लेकिन एक संशोधन के जरिए सरकार इसे पुनः ले आयी । इस संदर्भ में अगर इस धारा पर सरकार के पक्ष को जानने का प्रयास करें तो सरकार की तरफ से अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल के वी विश्वनाथ का तर्क है कि सरकार किसी भी भ्रष्ट नौकरशाह को कत्तई संरक्षण नहीं देना चाहती और ये प्रावधान (धारा ६-ए) सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए है कि वरिष्ठ नौकरशाहों से बगैर किसी समुचित सुरक्षा के पूछताछ नहीं की जा सके, क्योंकि वे नीति निर्धारण की प्रक्रिया में शामिल होते हैं । दरअसल, वरिष्ठ नौकरशाहों की जांच से पूर्व अनुमति लेने का ये मामला तकरीबन १७ साल पहले न्यायालय के संज्ञान में आया था । इस संबंध में पहली याचिका सन १९९७ में सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर की गई थी । इसके बाद सन २००४ में पुनः सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की तरफ से एक याचिका दायर की गई ।
अमर उजाला
   बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद अब नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की जांच में सीबीआई को काफी मदद मिलेगी । इससे पहले उसे किसी भी उच्च नौकरशाह की जांच के लिए सरकार से अनुमति मांगनी पड़ती थी । ऐसे में ये सरकार के विवेक पर निर्भर था कि वो किस मामले में जांच की अनुमति दे और किस मामले में नहीं दे । लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय के धारा ६-ए को खारिज करने संबंधी इस निर्णय के बाद अब सीबीआई न सिर्फ वरिष्ठ नौकरशाहों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके जांच कर सकती है, बल्कि चार्जशीट दायर करने से लेकर आवश्यक होने पर उन्हें गिरफ्तार भी कर सकती है । कहने का अर्थ है कि इस निर्णय से सीबीआई की शक्तियों में काफी इजाफा हुआ है । दुसरे शब्दों में इसे सीबीआई की स्वायत्ता के संबंध में एक छोटा, किन्तु अच्छा कदम भी कह सकते हैं ।
  वैसे, अगर दिमाग पर जोर डालें तो स्पष्ट होता है कि ये कोई पहली दफा नहीं है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार पर चोट करने वाला कोई निर्णय लिया हो । अब से पहले भी कई दफे सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से भ्रष्टाचार की रोकथाम व व्यवस्था पारदर्शिता लाने से सम्बंधित तमाम निर्णय लिए जाते रहे हैं । फिर चाहें वो अभी हाल ही में काले धन के स्वामियों के नाम उजागर न करने के कारण सरकार को फटकार लगाना हो या बीते मार्च में भ्रष्टाचार सिद्ध होने पर सरकारी मुलाजिमों को तत्काल नौकरी से निकाल दिए जाने का निर्णय हो अथवा  पिछले साल अक्तूबर में पार्षदों को भी भ्रष्टाचार निरोधक क़ानून के दायरे में लाने का निर्णय हो ।
आईनेक्स्ट
इनके अलावा सरकार के मंत्रियों के २जी, कोयला घोटाला आदि भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में भी समय दर समय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच का संज्ञान लेते हुए तमाम दिशानिर्देश दिए जाते रहे हैं । साथ ही, सरकार के गलत निर्णयों, योजनाओं आदि पर भी न्यायालय द्वारा रोक लगाई जाती रही है । जैसे, अभी कुछ ही दिन पहले न्यायालय ने सरकार द्वारा तय ‘आधार’ की अनिवार्यता को समाप्त किया । सर्वोच्च न्यायालय की इन्ही गतिविधियों के कारण आज आम लोगों के बीच उसके प्रति काफी विश्वास बढ़ा है । लोगों में ये धारणा सी हो रही है कि अगर सरकार उनकी बात नहीं सुनती है और अपनी मनमर्जी करती है, तो उनके पास सर्वोच्च न्यायालय में जाने का एक मजबूत विकल्प है । अब जहाँ आम जन के बीच न्यायालय ने अपने प्रति भरोसा कायम किया है, वहीँ सरकार अपने कार्यों या अपने दायरों में न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण उससे काफी नाराज दिखती रही है । सरकार के कुछेक मंत्रियों की तरफ से कहा भी जाता रहा है कि न्यायपालिका अपने दायरे में रहे और कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करे । पर सरकार की इन दलीलों से न्यायालय पर कोई विशेष प्रभाव हुआ हो, ऐसा नहीं कह सकते । अब जो भी हो, पर इतना तो तय है कि भ्रष्टाचार की समस्या को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से जिस तरह की गंभीरता दिखाई जाती रही है, उसके अनुपात में सरकार तनिक भी गंभीर नहीं दिखती । सरकार की तरफ से तो न्यायालय के निर्णयों को रोकने व बदलने के लिए ही कवायदें की जाती रही हैं, बल्कि एकाध निर्णयों को तो बदला भी गया है । जैसे, पिछले साल राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने वाले न्यायालय के निर्णय को सरकार द्वारा संविधान संशोधन के जरिए बदल दिया गया । इसके अलावा दागियों के चुनाव न लड़ने के न्यायालय के निर्णय को भी बदलने के लिए सरकार द्वारा अध्यादेश लाया गया था, पर संयोगवश सरकार इसमें सफल नहीं हो पाई । बहरहाल, वरिष्ठ नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए सीबीआई को छूट देने वाला न्यायालय का ये ताज़ा निर्णय भ्रष्टाचार पर एक बड़ी चोट सिद्ध हो सकता है, बशर्ते कि व्यवहारिक तौर पर इसका सही ढंग से क्रियान्वयन हो ।

मंगलवार, 6 मई 2014

हिंसा पर सियासत से बाज आएं नेता [डीएनए में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

डीएनए
इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहाँ हर छोटी-बड़ी बात पर राजनीति हावी हो जाती है । हमारे सियासी हुक्मरान हर उस बात जिसमें उन्हें चंद वोटों का लाभ होने व विपक्षियों को घेरने की संभावना दिखती है, को तुरंत राजनीतिक रंग में रंग देते हैं । ताज़ा मामला उग्रवादी संगठनों द्वारा असम में की गई हिंसा का है । दरअसल हुआ यों कि असम के कोकराझार व बकसा में लोकसभा चुनावों में कथित तौर पर बोडो उम्मीदवार को वोट न देने के कारण प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन ‘एनडीबीएफ’ द्वारा बांग्लादेशी मुस्लिमों को मौत के घाट उतरा जाने लगा, जिसमे कि अबतक तकरीबन ३२ लोगों के जान गंवाने की बात सामने आयी है । आश्चर्य नहीं कि आगे यह संख्या और बढ़े । हालांकि अब सेना व सीआरपीएफ आदि के जवानों के पहुँच जाने के कारण स्थिति पर काफी हद तक नियंत्रण स्थापित हो चुका है । अब सेना आदि ने तो हिंसा को रोक स्थिति को नियंत्रित कर अपना दायित्व बखूबी निभाया है । लेकिन  दुर्भाग्य कि हमारे सियासी आका अपने दायित्व से अलग इस हिंसा का राजनीतिक लाभ लेने की जुगत भिड़ाने में लगे हैं । इस हिंसा में मरे लोगों के परिवारों की खैर-खबर लेने व सहायता देने, हिंसा के मूल  कारणों को समझने व उनका कुछ ठोस निवारण तलाशने के लिए मिल-बैठकर चर्चा करने से अलग हमारे सियासी हुक्मरानों द्वारा  इस हिंसा पर भी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू किया जा चुका है । हालांकि इस आरोप-प्रत्यारोप के खेल में मुख्य विपक्षी दल भाजपा का उतना दोष नहीं है, जितना कि सत्तारुढ़ दल कांग्रेस का है । अब चूंकि, कांग्रेस असम के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता में भी है, इसलिए इस हिंसा के प्रति सर्वाधिक जवाबदेही उसीकी बनती है । लेकिन, वो तो जवाब देने की बजाय बड़े ही निराधार तरीके से विपक्षी दल भाजपा व उसके पीएम दावेदार नरेंद्र मोदी को इस हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराने में लगी है । कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने इस हिंसा के लिए भाजपा के पीएम पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि मोदी के चुनाव में आने के कारण देश का माहौल साम्प्रदायिक हो गया है और ये हिंसा इसीका परिणाम है । इसके अलावा केन्द्र में कांग्रेस की सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि असम में हिंसा हुई, क्योंकि वहाँ नरेंद्र मोदी ने भाषण दिया था और लोगों को मुस्लिमों के खिलाफ भड़काया था । अब इतने आरोप के बाद आखिर भाजपा को भी हिंसा पर हो रही इस राजनीति में उतरते हुए पलटवार करना पड़ा । भाजपा की तरफ से रविशंकर प्रसाद ने असम में हुई हिंसा की निंदा करते हुए कहा कि कांग्रेस इस हिंसा पर वोटों की राजनीति कर रही है । इन सभी बयानों पर गौर करें तो स्पष्ट होता है कि कांग्रेस समेत उसके घटक दलों द्वारा असम में हुई इस हिंसा की जवाबदेही से बचने के लिए सारा ठीकरा भाजपा पर फोड़ा जा रहा है, जबकि भाजपा का इसमें कहीं से कोई रोल नहीं है । अब जो भी हो, पर इतना तो तय है कि इन आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच असम हिंसा के कारण व उसके निवारण आदि पर चर्चा एकबार फिर गौण सी हो गई है ।  
   वैसे ये कोई पहली बार नहीं है जब हमारे सियासी हलके में हिंसा पर राजनीति हो रही हो, बल्कि ये तो इस देश की राजनीति के लिए एक तरह से आम सी बात हो गई है । हमारे सियासी आकाओं अक्सर किसी दंगे, हमले आदि में होने वाली मौतों के जाति-धर्म को आधार बनाकर राजनीति की जाती रही है । इस राजनीति का उद्देश्य समुदाय विशेष के वोटों का अपनी ओर ध्रुवीकरण करना होता है । नजीर के तौर पर देखें तो अभी पिछले साल ही यूपी के मुज़फ्फरनगर में हुए दंगों में भी सियासत ने खूब जोर पकड़ा था । फिर चाहें वो सूबे की सत्तारूढ़ पार्टी सपा हो या बसपा या भाजपा या फिर कांग्रेस, हर दल द्वारा इस दंगे के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हुए इसका राजनीतिक लाभ लेने की भरपूर कोशिश की गई । कांग्रेस आदि तमाम राजनीतिक दलों के नेता इस दंगे के पीड़ितों से जाकर मिले और विपक्षियों को कोसे । लेकिन, इन तमाम सियासी हो-हल्लों के बीच इस दंगे के लोगों की हालत अत्यंत दयनीय बनी रही और काफी हद तक अब भी है । इसके अलावा आजादी के बाद से अबतक और भी तमाम ऐसे दंगों से इतिहास भरा पड़ा है, जिनपर हमारे सियासी आकाओं द्वारा अपने सियासत की रोटियां सेंकी गई और पीड़ितों को उनकी हालत में छोड़ दिया गया ।
   दरअसल, हमारे सियासी आकाओं द्वारा भारतीय राजनीति में ये समस्या पैदा कर दी गई है कि जब कहीं, कोई हिंसा होती है, तो उसके पीड़ित, उत्पीड़क, कारण व निवारण की बजाय सियासी खींचतान चर्चा का विषय बन जाती है । इस प्रकार पीड़ित हाशिए पर चले जाते हैं, उत्पीड़क क़ानून के फंदे से आजाद रह जाता है, कारण गौण रह जाते हैं और निवारण निकल नहीं पाता । असम हिंसा पर हो रही सियासत भारतीय राजनीति की इसी समस्या का एक ताज़ा उदाहरण है । हालांकि अब जनता में जागरूकता आ रही है, जिससे लोग नेताओं के इन दाँव-पेंचों को समझने लगे हैं । इस आम चुनाव में मतदान प्रतिशत में हुई बढ़ोत्तरी जनता में आ रही इसी जागरूकता को दर्शाती है । उम्मीद की जा सकती है कि जैसे-जैसे ये जागरूकता बढ़ेगी, नेताओं की इस मनमर्जी पर नियंत्रण लगेगा ।