सोमवार, 26 सितंबर 2016

कैराना पर खामोश क्यों है सेकुलर खेमा ? [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

गत जून महीने में उत्तर प्रदेश के कैराना कस्बे में तीन सौ से ऊपर हिन्दू परिवारों के पलायन की बात सामने आई थी। स्थानीय भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने दावा किया था कि कैराना में बहुसंख्यक हुए समुदाय विशेष के लोगों के खौफ के कारण हिन्दू परिवार वहाँ से पलायन को मजबूर हुए हैं। भाजपा सांसद के इस दावे का तब देश की तथाकथित सेकुलर बिरादरी जिसमें नेता से लेकर बुद्धिजीवी तक शामिल थे, ने खूब मखौल उड़ाया था। कहा गया कि कैराना में रोजगार आदि की समस्या के कारण लोग शहरों की तरफ गए हैं और किसीके खौफ से कोई पलायन नहीं हुआ है। खैर, तब यह मामला दब गया था और सेकुलर खेमे को लगा कि उनकी अफवाहबाजी चल गई। लेकिन, अभी विगत दिनों इस सम्बन्ध में एक वकील की शिकायत पर जांच कर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जब अपनी रिपोर्ट पेश की तो जो असलियत सामने आई, वो देश को झकझोर कर रख देने के लिए काफी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि कैराना से पलायन हुआ है और इसके पीछे वजह भी कहीं न कहीं समुदाय विशेष के आतंक को ही माना गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद लगभग पच्चीस-तीस हजार मुस्लिमों का कैराना में पुनर्वास कराया गया था, जिसके कारण वहाँ की जनसांख्यिकीय स्थिति में बड़ा परिवर्तन आया। इसके आगे की स्थिति समझना मुश्किल नहीं है कि इस पुनर्वास के बाद वहाँ मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक हो गया। दुर्दिन से उबार के लिए कैराना में बसाए गए इस समुदाय की स्थिति वहाँ सामजिक रूप से मजबूत हुई नहीं कि इसने अपनी दादागिरी शुरू कर दी, जिसके फलस्वरूप कैराना से हिन्दुओं के पलायन की कहानी शुरू हो गई। मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के ही मुताबिक़ लगभग दो दर्जन गवाहों ने यह माना है कि मुस्लिम युवा हिन्दुओं की लड़कियों को छेड़ते और मारपीट करते थे, जिसके कारण उन्हें पलायन करना पड़ा। सवाल यह है कि जब समुदाय विशेष के लोगों द्वारा हिन्दुओं पर जुल्म हो रहे थे, तो कैराना का पुलिस-प्रशासन क्या कर रहा था ?
अब जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के बाद सिद्ध हो गया कि कैराना में हिन्दुओं का पलायन हुआ है तो भी सूबे की सपा सरकार इसको सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या बता रही हैं और समुदाय विशेष के आतंक की बात को स्वीकारने से बच रही है। इसके अलावा कांग्रेस और वामपंथी आदि सभी तथाकथित सेकुलर पार्टियां भी इसपर जुबानी लकवे का शिकार नज़र आ रही हैं। धर्मनिरपेक्षता की बड़ी-बड़ी दुहाई देने वाले और बिना बात कभी असहिष्णुता का कोरा विलाप करने वाले सेकुलर बुद्धिजीवी भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के बाद कैराना पर बेशर्मी के साथ खामोशी की चादर ओढ़े गायब हैं।
इस सवाल का जवाब बड़ा ही सरल है कि दरअसल राज्य में सत्तारूढ़ सरकार भी फर्जी सेकुलरिज्म की चासनी में लबालब समाजवादी पार्टी की है, जिसके मुखिया के सेकुलरिज्म का आलम यह है कि उन्हें बाबरी प्रकरण के दौरान कारसेवकों की जान लेने पर आज भी गर्व महसूस होता है। अब ऐसे सेकुलरिज्म वाली प्रदेश सरकार का पुलिस-प्रशासन कैराना में हिन्दू समुदाय की पीड़ा को क्योंकर सुनता और सुलझाता ? उक्त रिपोर्ट में ही स्पष्ट तौर पर यह भी कहा गया है कि समुदाय विशेष के दो युवकों ने एक लड़की का अपहरण किया और जब उसके पति ने एफआईआर दर्ज करानी चाही तो पुलिस ने मना कर दिया। अगले दिन जब उस लड़की की लाश मिली तब जाके एफआईआर दर्ज हुई। ऐसे काम की है कैराना की पुलिस। ऐसा ही मामला अभी कुछ दिन पहले तब सामने आया था, जब दादरी के मृत इखलाक के यहाँ गोमांस होने की पुष्टि हुई तब एक व्यक्ति ने इखलाक तथा उसके परिवारजनों के खिलाफ गोहत्या की शिकायत दर्ज करवानी चाही, लेकिन पुलिस ने उसकी एफआईआर लिखने से इनकार कर दिया। फिर वो उच्च न्यायालय में गया और वहाँ से आदेश लेकर आया, तब जाके एफआईआर लिखी गई। कहने का तात्पर्य यह है कि समाजवादी पार्टी ने अपने समुदाय विशेष का तुष्टिकरण करने वाले सेकुलरिज्म का पूरा पाठ अपनी पुलिस को भी पढ़ा दिया है और कहीं न कहीं कैराना भी इसीका एक क्रूर परिणाम है। स्थिति ये है कि सैकड़ों हिन्दू परिवार वहाँ से मारे डर के अपना घर, जमीन छोड़कर पलायन करने को मजबूर हो गए और उनके घरों पर ताले लटके हैं।

राज एक्सप्रेस 
इस मामले को जब भाजपा सांसद ने उठाया था तो तथाकथित सेकुलरिज्म में डूबी सपा सरकार ने ऐसा कुछ होने से इनकार किया था और कहा था कि ये सब भाजपा सांसद ध्रुवीकरण के लिए कर रहे हैं। लेकिन, अब जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के बाद सिद्ध हो गया कि पलायन हुआ है तो भी ये सरकार इसको सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या बता रही हैं और समुदाय विशेष के आतंक की बात को स्वीकारने से बच रही है। इसके अलावा कांग्रेस और वामपंथी आदि सभी तथाकथित सेकुलर पार्टियां भी इसपर जुबानी लकवे का शिकार नज़र आ रही हैं। धर्मनिरपेक्षता की बड़ी-बड़ी दुहाई देने वाले और बिना बात कभी असहिष्णुता का कोरा विलाप करने वाले सेकुलर बुद्धिजीवी भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के बाद कैराना पर बेशर्मी के साथ खामोशी की चादर ओढ़े गायब हैं।

दरअसल ये कोई पहली बार नहीं है कि सेकुलर बिरादरी का ये दोहरा चरित्र सामने आया हो, अबसे पहले भी अनेक मौकों पर इनके नकली सेकुलरिज्म कलई खुल चुकी है और बुरी तरह से ये लोग बेनकाब हो चुके हैं। याद करें तो इस साल की शुरुआत में विहिप नेता कमलेश तिवारी ने मोहम्मद साहब पर आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी थी, जिसके बाद यूपी की सपा सरकार ने आनन्-फानन में उन्हें रासुका लगाकर गिरफ्तार कर लिया और वे तबके गए आज तक जेल में ही हैं। लेकिन, इस कार्रवाई के बाद भी समुदाय विशेष के लोगों को संतुष्टि नहीं मिली और कमलेश तिवारी का सिर कलम करने का फतवा जारी होने लगा तथा देखते ही देखते पश्चिम बंगाल के मालदा की सड़कों पर बीस लाख मुसलमान हिंसक प्रदर्शन करने उतर पड़े थे। इस असहिष्णुता पर सेकुलर खेमा पूरी तरह से मौन साधे रहा और चूं तक नहीं किया, जबकि इस मामले से ठीक पहले ही इन्हें सामान्य झड़प में हुई इखलाक की हत्या के कारण देश भर में असहिष्णुता नज़र आई थी। स्पष्ट है कि इनका सेकुलरिज्म सिर्फ एक समुदाय विशेष के लोगों के तुष्टिकरण और हिन्दू विरोध पर आकर ख़त्म हो जाता है। कैराना प्रकरण भी इसीका एक उदाहरण है और इसमें भी इनके तथाकथित सेकुलरिज्म असल चेहरा एकबार फिर बेनकाब हो रहा है।

बहरहाल, ये सेकुलर क्या करते हैं, ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना ये कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया जाय। अब जब यूपी चुनाव सिर पर हैं तो सपा सरकार इस मामले की निष्पक्ष जांच कराकर दोषियों को सज़ा देने से रही। ऐसे में उचित होगा कि इस रिपोर्ट को आधार बनाकर इस मामले की सीबीआई अथवा किसी विशेष जांच दल के द्वारा पूरी तरह से निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। फिर उस जांच में जो तथ्य सामने आएं, उनके आधार पर कार्रवाई हो। अगर कानूनी ढंग से ऐसे मामलों को निष्पक्षता के साथ हल नहीं किया गया तो फिर इस देश में मोहन भागवत और प्रवीण तोगड़िया आदि हिन्दू हितचिन्तक लोगों को हिन्दू जनसँख्या वृद्धि की बात कहने के लिए दोष देना बंद करना होगा। क्योंकि, इस स्थिति के मद्देनज़र कि एक छोटे से इलाके कैराना में हिन्दू जनसँख्या कुछ कम क्या हुई उसे वहाँ से डरकर पलायन करना पड़ा, उक्त नेताओं की जनसँख्या वृद्धि की बातें अनुचित नहीं प्रतीत होतीं। अतः सही होगा कि इस मामले का यथाशीघ्र सही ढंग से निपटारा कर पीड़ित हिन्दू परिवारों को न्याय दिलाया जाय।

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

सूचना के अधिकार क़ानून का बेजां इस्तेमाल [राज एक्सप्रेस और अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

किसी भी राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था के कुशलतापूर्वक संचालित होने की एक प्रमुख शर्त यह होती है कि वहाँ लोक और तंत्र के बीच परस्पर समझ और सहयोग बना रहे। निश्चित तौर पर इसमें तंत्र की प्रत्यक्ष रूप से अधिक भूमिका होती है, किन्तु लोक की भूमिकाएं भी कम नहीं होतीं। भारत की स्थिति इस दृष्टि से एक हद तक संतोषजनक कही जाएगी  क्योंकि यहाँ के नागरिकों ने अपने संविधान और  लोकतांत्रिक मूल्यों को न केवल अतिशीघ्र आत्मसात कर लिया बल्कि उसके प्रति लोगों के मन में काफी सम्मान और स्वीकार्यता भी है। नागरिकों में अपने राजनेताओं, राजनीतिक दलों और व्यवस्था के प्रति चाहें जितना रोष हो, प्रेम हो या कोई भी भाव हो, किन्तु  संविधान और लोकतंत्र के प्रति उनमें निरपवाद रूप से सम्मान का भाव ही पाया जा सकता है। हालांकि इन्हीं सब के बीच कभी-कभी कुछ ऐसे मामले भी सामने आ जाते हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि तमाम लोग लोकतंत्र के प्रति सम्मान होने के बावजूद कैसे इसको लेकर एक तरह की नासमझी, अजागरुकता या लापरवाही का भी शिकार हैं।  ताज़ा मामला सूचना के अधिकार क़ानून के तहत सूचना आयोग को दी गई एक अर्जी से सम्बंधित है। 
गौर करें तो गत लोकसभा चुनाव के दौरान वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो तब प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में चुनाव प्रचार कर रहे थे, ने  एक रैली में कहा था कि देश का जितना काला धन विदेशों में है, अगर वो वापस आ जाय तो सभी देशवासियों के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रूपये की रकम पहुँच सकती है। शब्द अलग हो सकते हैं, पर उनकी बात का आशय यही था। प्रधानमंत्री के इसी बयान को आधार बनाकर विपक्षियों द्वारा उनपर निशाना साधा जाता रहा है। जबकि यह सिर्फ एक भाषण के दौरान बोली गई व्यंजनात्मक बात थी। इसके जरिये तब मोदी सिर्फ काले धन की रकम की अधिकता को ही प्रतिसूचित करना चाहते थे। लेकिन, विपक्ष इसको लेकर ऐसा गंभीर हुआ और अब भी दिखता है कि जैसे भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वादे के रूप में  इसका उल्लेख ही कर दिया हो।
राजस्थान के एक व्यक्ति ने सूचना के अधिकार के तहत प्रधानमंत्री से यह जानकारी मांगी है कि लोकसभा चुनाव-२०१४ के दौरान लोगों के बैंक खातों में काले धन का पंद्रह-पंद्रह लाख रुपया पहुंचाने का जो वादा किया गया था, वो रकम खाते में कब आएगी? गौर करें तो गत लोकसभा चुनाव के दौरान वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो तब प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में चुनाव प्रचार कर रहे थे, ने  एक रैली में कहा था कि देश का जितना काला धन विदेशों में है, अगर वो वापस आ जाय तो सभी देशवासियों के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रूपये की रकम पहुँच सकती है। शब्द अलग हो सकते हैं, पर उनकी बात का आशय यही था। 
अमर उजाला कॉम्पैक्ट 

प्रधानमंत्री के इसी बयान को आधार बनाकर विपक्षियों द्वारा उनपर निशाना साधा जाता रहा है। जबकि यह सिर्फ एक भाषण के दौरान बोली गई व्यंजनात्मक बात थी। इसके जरिये तब मोदी सिर्फ काले धन की रकम की अधिकता को ही प्रतिसूचित करना चाहते थे।  लेकिन, विपक्ष इसको लेकर ऐसा गंभीर हुआ और अब भी दिखता है कि जैसे भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वादे के रूप में  इसका उल्लेख ही कर दिया हो। संभवतः विपक्षी दलों द्वारा इस एक अलग भाव में कही गई बात को निरर्थक रूप से मुद्दा बनाने का कुछ न कुछ प्रभाव भोले-भाले आम लोगों पर भी पड़ा है और कहीं न कहीं इसीका परिणाम है ये अर्जी जो सूचना के अधिकार के तहत यह सवाल पूछते हुए दी गई है। अर्जी देने वाले व्यक्ति की समझ का अंदाजा इसी अर्जी के कुछेक और सवालों पर गौर करने पर हो जाता है। अर्जी में प्रधानमंत्री से एक सवाल यह पूछा गया है कि  चुनाव के दौरान कहा गया था कि देश से भ्रष्टाचार ख़त्म कर दिया जाएगा, पर वो नब्बे प्रतिशत बढ़ गया है ? अब इस सवाल में जो ये नब्बे प्रतिशत का आंकड़ा दिया गया है, इसका आधार क्या है ? क्योंकि पहली चीज कि भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में देश की स्थिति पर अभी फिलहाल कोई सर्वेक्षण हुआ नहीं है। ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट इस साल की शुरुआत में आई थी, जिसमे भ्रष्टाचार के मामले में देश की स्थिति यथावत होने की बात कही गई थी। फिर ये नब्बे प्रतिशत भ्रष्टाचार बढ़ने का आंकड़ा अर्जीकर्ता ने कहाँ से दे दिया है। समझना मुश्किल नहीं है कि दैनिक जीवन में बातचीत में हम जिस तरह से भ्रष्टाचार, महंगाई आदि समस्याओं पर चर्चा करते हुए लोग अतिवादी अंदाज में बढ़ी-चढ़ी बातें कर जाते हैं, ये नब्बे प्रतिशत का आंकड़ा भी वैसे ही है। 
राज एक्सप्रेस 

बहरहाल इन सब चीजों को देखते हुए कह सकते हैं कि सूचना के अधिकार क़ानून के तहत ऐसे निराधार और फिजूल प्रश्नों को पूछने वाला व्यक्ति या तो एकदम अजागरूक है अथवा बेहद शरारती है। क्योंकि इन्हीं दो स्थितियों में ऐसे सवाल पूछे जा सकते हैं। अजागरूक व्यक्ति हो तो उसे इस क़ानून की गंभीरता को पहले समझना चाहिए फिर इसके इस्तेमाल की तरफ बढ़ना चाहिए। लेकिन, यदि ये अर्जी शरारत से प्रेरित होकर दी गई है, तो यह उस व्यक्ति का एक देश के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते बेहद गलत और निंदनीय आचरण है। लोगों को समझना चाहिए कि सूचना का अधिकार क़ानून उनके लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने के एक कारगर हथियार की तरह है, इसलिए इसका सही ढंग से आवश्यक सूचनाएं प्राप्त करने के लिए उपयोग करें न कि इसे शरारत और कौतूहल के लिए इसका मज़ाक बनाएं। ऐसा करने पर न केवल वे इस क़ानून के लिए संकट खड़ा करेंगे बल्कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस कारगर हथियार को कमजोर करने जैसी स्थिति भी पैदा करेंगे। लोकतंत्र में लोक और तंत्र दोनों के अपने-अपने दायित्व होते हैं। तंत्र ने क़ानून बनाकर और उसका क्रियान्वयन करके अपनी जिम्मेदारी निभाई है, अब ये लोक का दायित्व है कि उसका सही ढंग से उपयोग कर उसे सार्थक और प्रभावी सिद्ध करे।